तीर्थ पापी नर-नारियोंको निष्पाप और पवित्र करते हैं, परन्तु पापात्माओंके सतत समागमसे उनमें मलिनता आ जाती है। तीर्थोंकी वह मलिनता भक्तोंके समागमसे नष्ट होती दिलीपकुमार महाराज भगीरथके घोर तपसे प्रसन्न होकर वर देनेके लिये आविर्भूत हुई भगवती श्रीगंगाजीने उनसे कहा 'भगीरथ ! मैं पृथ्वीपर कैसे आऊँ! संसारके सारे पापी तो आ-आकर मुझमें अपने पापोंको धो डालेंगे। परन्तु उन पापियोंके अपार पाप-पंकको मैं कहाँ धोने जाऊँगी, इसपर आपने क्या विचार किया है?'
इसके उत्तरमें भगीरथने कहा...
(श्रीमद्भागवत 9 । 9 । 6)
'हे माता! समस्त विश्वको पवित्र करनेवाले विषयोंके त्यागी,
शान्तस्वरूप, ब्रह्मनिष्ठ साधु-महात्मा आकर तुम्हारे प्रवाहमे स्नान करेंगे तब उनके अंगके संगसे तुम्हारे सारे पाप धुल जायेंगे; क्योंकि उनके हृदयमें समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीहरि निवास करते हैं।'
प्रचेतागण भगवान्की स्तुति करते हुए कहते हैं...
(श्रीमद्भागवत 4 30 37)
‘आपके जो भक्तगण तीर्थोंको पवित्र करनेके लिये ही भूमिपर विचरण करते हैं, उनका समागम संसारभयसे भीत पुरुषको कैसे प्रिय नहीं होगा।'
धर्मराज युधिष्ठिर भक्तराज विदुरजीसे कहते हैं ...
(श्रीमद्भागवत 1 13 । 10) 'हे प्रभो! आप सरीखे भगवद्भक्त स्वयं तीर्थरूप हैं, ( पापियोंद्वारा कलुषित हुए) तीर्थोंको आपलोग अपने हृदयमें विराजित भगवान् श्रीगदाधरके प्रभावसे पुनः तीर्थत्व प्रदान करा देते हैं।'
इसी प्रकार जिन शास्त्रोक्त कर्मोंको भक्तगण करने लगते हैं, वे ही सत्कर्म हो जाते हैं और वे जिस शास्त्रको आदर देते हैं, वही सत् - शास्त्र माना जाता है। वरं यह कहना भी अत्युक्ति नहीं कि भक्त जिस जगह रहते हैं, जिस सरोवर या नदीमें स्नान करते हैं, वही तीर्थ बन जाता है; भक्त जो कुछ कर्म करते हैं, वही आदर्श सत्कर्म कहलाता है और भक्त जो कुछ उपदेश करते हैं, वही सत्-शास्त्र माना जाता है। उनका निवासस्थान ही तीर्थ, उनके कर्म ही सत्कर्म और उनकी वाणी ही सत्-शास्त्र है। तीर्थ, सत्कर्म और शास्त्रका रहस्य समझनेपर यह बात भलीभाँति समझमें आ जाती है।