यह प्रेमाभक्ति सर्वथा त्यागरूप है। इसमें धन, सन्तान, कीर्ति, स्वर्ग आदिकी तो बात ही क्या, मोक्षकी भी कामना नहीं रह सकती।
जिस भक्तिके बदलेमें कुछ माँगा जाता है या कुछ प्राप्त होनेकी आशा या आकांक्षा वह भक्ति कामनायुक्त है, वह स्वार्थका व्यापार है।
प्रेमाभक्तिमें तो भक्त अपने प्रियतम भगवान और उनकी सेवाको छोड़कर और कुछ चाहता ही नहीं। श्रीमद्भागवतमें भगवान् कपिलदेव कहते हैं कि 'मेरे प्रेमी भक्तगण मेरी सेवा छोड़कर सालोक्य, साष्टि, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य (इन पाँच प्रकारकी) मुक्तियोंको देनेपर भी नहीं लेते।' यथार्थ भक्तिके उदय होनेपर कामनाएँ नष्ट हो ही जाती हैं। क्योंकि वह भक्ति निरोधस्वरूपा यानी त्यागमयी है।
अगले सूत्र में बताते हैं कि वह निरोध क्या है ?