जैसे नदी समुद्रमें मिलकर समुद्र बन जाती है, इसी प्रकार भक्त भी अपना तन-मन-बुद्धि-अहंकार सब कुछ प्रियतम भगवान् के समर्पण कर भगवान्के साथ तन्मय हो जाता है। ऐसा भक्त साक्षात् भगवत्स्वरूप ही होता है, वह जहाँ रहता है वहाँका तमाम सूक्ष्म और स्थूल वातावरण शुद्ध हो जाता है। इसीलिये उसके समागममात्रसे तीर्थ, कर्म और शास्त्र पवित्र हो जाते हैं। ऐसे ही भक्तोंके द्वारा भगवान्, भगवन्नाम, भगवद्भक्तिकी महिमा बढ़ती है और इनके समागम में आनेवाले पापी से पापी नर-नारी भी घोर संसार-सागरसे अनायास ही तर जाते हैं।