सूत्रकार यहाँ यह समझाते हैं कि भक्तिमें जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रियादिकी प्रधानता नहीं है। ब्राह्मण हो या शूद्र, पढ़ा-लिखा हो या बेपढ़ा-लिखा, सुन्दर हो या कुरूप, ऊँचे कुलका हो या नीच कुलका, धनवान् हो या दरिद्र और बहुत क्रियाशील हो या अक्रिय । जो अपना सर्वस्व प्रभुपर न्योछावर कर सतत उनका प्रेमपूर्वक स्मरण करनेमें अपने चित्तको तल्लीन कर देता है, उसीको भक्तिरूपी परम दुर्लभ धन मिल जाता है। निषादका जन्म नीच जातिमें हुआ था, सदन कसाई थे, शबरी गँवार स्त्री थी, ध्रुव अपढ़ बालक थे, विभीषण और हनुमानादि कुरूप और अकुलीन राक्षस तथा वानर थे, विदुर और सुदामा निर्धन थे, गोपीजन क्रियाहीन थीं, परन्तु इन सबने भक्ति और प्रपत्तिके प्रतापसे भगवान्का प्रेम प्राप्त किया और भगवान्के परमप्रिय हो गये। सर्व सत्कर्मोंकी फलरूपा भक्ति जिसके हृदयमें है, वही भक्त है, वही सर्वगुणसम्पन्न है, फिर चाहे वह कोई हो।
यही बात श्रीरामचरितमानसमें कही गयी है...
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता । सोइ महि मंडित पंडित दाता ॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता । राम चरन जा कर मन राता ॥
नीति निपुन सोइ परम सयाना । श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ॥
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा । जो छल छाड़ि भजड़ रघुबीरा ॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता । मानउँ एक भगति कर नाता ॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा । बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥
इसका यह तात्पर्य नहीं कि भक्त अपनेको सबसे ऊँचा और सर्वगुणसम्पन्न समझकर सबसे अपनी पूजा कराता है या समाज, जाति, वर्ण और आश्रममें बड़ोंके साथ खान-पान, विवाह, व्यवहार, रहन-सहन, आचार-विचार और कुलपरम्परा आदिमें अपने लिये समान अधिकारका दावा करता है। भक्त तो अभिमानका सर्वथा त्यागी है, फिर वह नया झूठा अभिमान लादकर ऐसा क्यों करने लगा ? जो ऐसा करते हैं वे भक्त नहीं हैं। वर्णाश्रम तथा भक्तिमें भेद है। जो भक्तिके नामपर वर्णाश्रमको मर्यादा नाश करना चाहते हैं, वे तो भक्तिपर लांछन लगाते हैं। अतएव भक्तिमार्गपर चलनेवाले साधकोंको शास्त्र त्यागकी कभी भावना ही नहीं करनी चाहिये। यह सत्य है कि प्रारब्धमें न होनेसे विद्या और धन नहीं मिल सकता और न इस जन्ममें रूप, जाति तथा कुल ही बदल सकते हैं। परन्तु इन सब वस्तुओंके होने न होनेसे अथवा कम-ज्यादा होनेसे भक्तमें ऊँचा-नीचा भाव नहीं करना चाहिये-भक्तिके नाते जातिभेद आदिके कारण भक्तको नीचा कदापि नहीं समझना चाहिये। वैष्णवशास्त्रोंमें इसीलिये भक्तोंमें जातिभेदबुद्धिको एक अपराध बतलाया है।