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नारद भक्ति सूत्र (नारद भक्ति दर्शन)

Narad Bhakti Sutra (Narada Bhakti Sutra)

सूत्र 74 - Sutra 74

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वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥

74- (भक्तको) वाद-विवाद नहीं करना चाहिये।

भक्तिके साधकोंके लिये यह सूत्र बड़े ही महत्त्वका है। भक्तको तर्क-वितर्कमें पड़नेकी कोई भी आवश्यकता नहीं। यह समझना चाहिये कि मेरा तो हरेक क्षण अपने प्रियतम भगवान्‌के भजनके लिये समर्पण हो चुका, उसे दूसरे काममें लगानेका अधिकार ही नहीं है। फिर वह तर्क-वितर्क करे भी किस बातकी। सृष्टि कब हुई, कैसे हुई, क्यों हुई, इसका मूल तत्त्व क्या है, इन सब बातोंको जाननेकी उसे जरूरत नहीं। उसने तो श्रीभगवान्‌को ही सब कुछ मान जानकर अपना एकमात्र लक्ष्य बना लिया है। भगवान् अपना तत्त्व जब चाहेंगे, आप ही समझा देंगे। कब समझावेंगे, समझावेंगे या नहीं समझावेंगे, इस बातकी भी उसे कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिये। अपने प्रियतम भगवान्के चिन्तनको छोड़कर दूसरी किसी वस्तुके चिन्तनकी उसके मनमें गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिये। और यह भी निश्चित है कि तर्कसे तत्त्वकी उपलब्धि भी नहीं होती।

इसीलिये ब्रह्मसूत्रमें कहा है-
'तर्काप्रतिष्ठानात्' (2 । 1 । 11) - 'तर्ककी प्रतिष्ठा नहीं है।'

कठोपनिषद् में कहा गया है-
'नैषा तर्केण मतिरापनेया' (1 । 2 । 9) - 'बुद्धिके तर्कसे उस तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती।'

वह सत्य तत्त्व तो शुद्धचित्त सात्त्विक पुरुषके सामने स्वयमेव आविर्भूत होता है। किसी अंशमें यह भी सत्य है कि 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः', परन्तु वह वाद दूसरा होता है। श्रद्धालु शिष्य जिज्ञासाभावसे गुरुके सामने तर्क उपस्थित करता है और गुरु उसकी शंका निवारण कर और भी प्रबल तर्कसे उसे सिद्धान्त समझाते हैं। ऐसा वाद दूषित नहीं है। परन्तु जो वाद आग्रहपूर्वक होता है वह तो बुरा ही फल उत्पन्न करता है और वादमें अपने मतका आग्रह हो ही जाता है। फिर सिद्धान्तका लक्ष्य छूट जाता है और व्यक्तिगत दोषनिरीक्षण, दोषारोपण और परस्पर गालीगलौज होने लगता है। विवेक नष्ट हो जाता है, क्रोध छा जाता है, वाणी बेकाबू हो जाती है और सदाके लिये वैर बँध जाता है। इसीलिये 'वादे वादे वर्द्धते वैरवह्निः' 'वाद-विवादसे वैरकी आग भड़क उठती है, कहा जाता है।

भक्तिके पथिकको तो इतनी फुरसत ही नहीं मिलनी चाहिये जिसमें वह वाद-विवाद कर सके। जहाँतक हो सके उसे तर्कके स्थानसे अलग ही रहना चाहिये। यदि प्रारब्धवश कभी तर्कवादियोंसे समागम हो जाय तो उसे विनीतभाव धारणकर उनकी बात सुन लेनी चाहिये और बदलेमें कोई उत्तर देकर बात बढ़ानी नहीं चाहिये। 'अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति' - 'जब आगमें ईंधन नहीं पड़ेगा तो वह आप ही बुझ जायगी' कहनेवाले स्वयं ही थक जायँगे। अतएव भक्तके लिये सबसे भली चुप है। 'मौनं सर्वार्थसाधनम्'- यह वाक्य याद रखना चाहिये। दूसरेकी ऐसी बात सुने ही नहीं जिससे अपने इष्टमें, पथमें, विश्वासमें और साधनमें संशय हो जाय; और स्वयं किसीका जी दुःखे, ऐसी कोई बात किसीसे कहे नहीं। दूसरेकी बात मौके-बेमौके सुननी पड़े तो उसे सुन ले; परन्तु स्वयं तो तर्ककी इच्छासे, दूसरेको दबानेके लिये अपना मत स्थापन करनेके लिये विवादमें उतरे ही नहीं। इसका यह तात्पर्य नहीं कि श्रद्धाके साथ पूछनेवालेको कुछ न कहे या मौका पड़नेपर बिना पूछे भी हितकी बात न कहे। मतलब तो यह है कि विवादमें न उतरे। अनावश्यक बोले ही नहीं, जब बिना बोले काम न चले तब आवश्यक समझकर इतना ही बोले जितनेसे काम चल जाय। बात बढ़ाकर न कहे, विवादके भावसे न कहे, किसीका विरोध न करें, किसीकी दिल्लगी न करे, किसीका दोष न बतावे, किसीके हृदयपर चोट न करें, अपनी या अपने मतकी बड़ाई न करे, किसीकी निन्दा न करे, कडुआ न बोले, बोलनेमें आशा या कामनाका भाव न रखे, जबानसे किसीको धोखा न दे, किसीके विश्वासमें शंका न पैदा करे। जो कुछ बोले सत्य, मधुर, प्रिय, अनुद्वेगकर और हितकर शब्द ही बोले; शेष समय भगवन्नाम स्मरणमें लगा ।

अनावश्यक एक शब्द बोलनेमें भी बड़ी हानि समझे, क्योंकि उतना समय व्यर्थ गया। उतने समय के लिये जीभसे नामजप छूट गया और अनावश्यक शब्दका वातावरणमें जो असर हुआ, वह अलग। यह निश्चय रखे कि तर्क और वाद-विवादसे कभी भगवत्प्रेम, ज्ञान या भगवान्की प्राप्ति नहीं होती। तर्कसे तो अहंकार, द्वेष, क्रोध, हिंसा और वैरकी ही जमात इकट्ठी होती है। अतएव वाद-विवादसे सदा अलग रहे।

अस बिचारि जे तग्य बिरागी रामहि भजहिं तरक सब त्यागी ॥ अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल । भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ॥

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नारद भक्ति सूत्र
Index


  1. [सूत्र 1]अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ 1 ॥
  2. [सूत्र 2]सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ 2 ॥
  3. [सूत्र 3]अमृतस्वरूपा च ॥ 3 ॥
  4. [सूत्र 4]यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ 4 ॥
  5. [सूत्र 5]यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥
  6. [सूत्र 6]यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ॥ 6 ॥
  7. [सूत्र 7]सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ॥ 7 ॥
  8. [सूत्र 8]निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥ 8 ॥
  9. [सूत्र 9]तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ 9 ॥
  10. [सूत्र 10]अन्याश्रयाणां त्यागो ऽनन्यता ॥ 10 ॥
  11. [सूत्र 11]लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥ 11 ॥
  12. [सूत्र 12]भवतु निश्चयदादयदूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ 12॥
  13. [सूत्र 13]अन्यथा पातित्याशंकया ॥ 13 ॥
  14. [सूत्र 14]लोकोऽपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ 14 ॥
  15. [सूत्र 15]तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ 15 ॥
  16. [सूत्र 16]पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥ 16 ॥
  17. [सूत्र 17]कथादिष्विति गर्गः ॥ 17 ॥
  18. [सूत्र 18]आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ 18 ॥
  19. [सूत्र 19]नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता परमव्याकुलतेति ॥ 19 ॥
  20. [सूत्र 20]अस्त्येवमेवम् ॥ 20 ॥
  21. [सूत्र 21]यथा व्रजगोपिकानाम् ॥ 21 ॥
  22. [सूत्र 22]तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥ 22 ॥
  23. [सूत्र 23]तद्विहीनं जाराणामिव ॥ 23 ॥
  24. [सूत्र 24]नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥ 24 ॥
  25. [सूत्र 25]सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ 25 ॥
  26. [सूत्र 26]फलरूपत्वात् ॥ 26 ॥
  27. [सूत्र 27]ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ 27 ॥
  28. [सूत्र 28]तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥ 28 ॥
  29. [सूत्र 29]अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ 29 ॥
  30. [सूत्र 30]स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ 30 ॥
  31. [सूत्र 31]राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ॥ 31 ॥
  32. [सूत्र 32]न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ 32 ॥
  33. [सूत्र 33]तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ 33 ॥
  34. [सूत्र 34]तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ 34 ॥
  35. [सूत्र 35]तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥
  36. [सूत्र 36]अव्यावृतभजनात् ॥ 36 ॥
  37. [सूत्र 37]लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात् ॥ 37 ॥
  38. [सूत्र 38]मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ 38 ॥
  39. [सूत्र 39]महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ 39 ॥
  40. [सूत्र 40]लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥ 40 ॥
  41. [सूत्र 41]तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ॥ 41 ॥
  42. [सूत्र 42]तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥ 42 ॥
  43. [सूत्र 43]दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥
  44. [सूत्र 44]कामक्रोधमोह स्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश सर्वनाश कारणत्वात् ॥ 44 ॥
  45. [सूत्र 45]तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति ॥ 45 ॥
  46. [सूत्र 46]कस्तरति कस्तरति मायाम्, यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ॥ 46 ॥
  47. [सूत्र 47]यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति ॥ 47 ॥
  48. [सूत्र 48]यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥ 48 ॥
  49. [सूत्र 49]वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ 49 ॥
  50. [सूत्र 50]स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ 50॥
  51. [सूत्र 51]अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥ 51 ॥
  52. [सूत्र 52]मूकास्वादनवत् ॥ 52 ॥
  53. [सूत्र 53]प्रकाशते * क्वापि पात्रे ॥ 53 ॥
  54. [सूत्र 54]गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ 54 ॥
  55. [सूत्र 55]तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥
  56. [सूत्र 56]गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥ 56 ॥
  57. [सूत्र 57]उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ 57 ॥
  58. [सूत्र 58]अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ 58 ॥
  59. [सूत्र 59]प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् ॥ 59॥
  60. [सूत्र 60]शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥ 60 ॥
  61. [सूत्र 61]लोकानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥ 61 ॥
  62. [सूत्र 62]न तदसिद्धौर लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ 62 ॥
  63. [सूत्र 63]स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥ 63 ॥
  64. [सूत्र 64]अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ 64 ॥
  65. [सूत्र 65]तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥
  66. [सूत्र 66]त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ 66
  67. [सूत्र 67]भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ 67 ॥
  68. [सूत्र 68]कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥ 68 ॥
  69. [सूत्र 69]तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ 69 ॥
  70. [सूत्र 70]तन्मयाः ॥ 70 ॥
  71. [सूत्र 71]मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ॥ 71 ॥
  72. [सूत्र 72]नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥ 72 ॥
  73. [सूत्र 73]यतस्तदीयाः ॥ 73 ॥
  74. [सूत्र 74]वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥
  75. [सूत्र 75]बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥ 75 ॥
  76. [सूत्र 76]भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥
  77. [सूत्र 77]सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥
  78. [सूत्र 78]अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपाल नीयानि ॥ 78 ॥
  79. [सूत्र 79]सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ 79 ॥
  80. [सूत्र 80]स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥
  81. [सूत्र 81]त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ॥ 81 ॥
  82. [सूत्र 82]गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपाएकधा अपि एकादशधा भवति ॥ 82 ॥
  83. [सूत्र 83]इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार व्यास शुक शाण्डिल्य गर्ग विष्णु कौण्डिण्य शेषोद्धवारुणि बलि हनुमद् विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ 83॥
  84. [सूत्र 84]य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ 84 ॥