भक्तिके साधकोंके लिये यह सूत्र बड़े ही महत्त्वका है। भक्तको तर्क-वितर्कमें पड़नेकी कोई भी आवश्यकता नहीं। यह समझना चाहिये कि मेरा तो हरेक क्षण अपने प्रियतम भगवान्के भजनके लिये समर्पण हो चुका, उसे दूसरे काममें लगानेका अधिकार ही नहीं है। फिर वह तर्क-वितर्क करे भी किस बातकी। सृष्टि कब हुई, कैसे हुई, क्यों हुई, इसका मूल तत्त्व क्या है, इन सब बातोंको जाननेकी उसे जरूरत नहीं। उसने तो श्रीभगवान्को ही सब कुछ मान जानकर अपना एकमात्र लक्ष्य बना लिया है। भगवान् अपना तत्त्व जब चाहेंगे, आप ही समझा देंगे। कब समझावेंगे, समझावेंगे या नहीं समझावेंगे, इस बातकी भी उसे कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिये। अपने प्रियतम भगवान्के चिन्तनको छोड़कर दूसरी किसी वस्तुके चिन्तनकी उसके मनमें गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिये। और यह भी निश्चित है कि तर्कसे तत्त्वकी उपलब्धि भी नहीं होती।
इसीलिये ब्रह्मसूत्रमें कहा है-
'तर्काप्रतिष्ठानात्' (2 । 1 । 11) - 'तर्ककी प्रतिष्ठा नहीं है।'
कठोपनिषद् में कहा गया है-
'नैषा तर्केण मतिरापनेया' (1 । 2 । 9) - 'बुद्धिके तर्कसे उस तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती।'
वह सत्य तत्त्व तो शुद्धचित्त सात्त्विक पुरुषके सामने स्वयमेव आविर्भूत होता है। किसी अंशमें यह भी सत्य है कि 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः', परन्तु वह वाद दूसरा होता है। श्रद्धालु शिष्य जिज्ञासाभावसे गुरुके सामने तर्क उपस्थित करता है और गुरु उसकी शंका निवारण कर और भी प्रबल तर्कसे उसे सिद्धान्त समझाते हैं। ऐसा वाद दूषित नहीं है। परन्तु जो वाद आग्रहपूर्वक होता है वह तो बुरा ही फल उत्पन्न करता है और वादमें अपने मतका आग्रह हो ही जाता है। फिर सिद्धान्तका लक्ष्य छूट जाता है और व्यक्तिगत दोषनिरीक्षण, दोषारोपण और परस्पर गालीगलौज होने लगता है। विवेक नष्ट हो जाता है, क्रोध छा जाता है, वाणी बेकाबू हो जाती है और सदाके लिये वैर बँध जाता है। इसीलिये 'वादे वादे वर्द्धते वैरवह्निः' 'वाद-विवादसे वैरकी आग भड़क उठती है, कहा जाता है।
भक्तिके पथिकको तो इतनी फुरसत ही नहीं मिलनी चाहिये जिसमें वह वाद-विवाद कर सके। जहाँतक हो सके उसे तर्कके स्थानसे अलग ही रहना चाहिये। यदि प्रारब्धवश कभी तर्कवादियोंसे समागम हो जाय तो उसे विनीतभाव धारणकर उनकी बात सुन लेनी चाहिये और बदलेमें कोई उत्तर देकर बात बढ़ानी नहीं चाहिये। 'अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति' - 'जब आगमें ईंधन नहीं पड़ेगा तो वह आप ही बुझ जायगी' कहनेवाले स्वयं ही थक जायँगे। अतएव भक्तके लिये सबसे भली चुप है। 'मौनं सर्वार्थसाधनम्'- यह वाक्य याद रखना चाहिये। दूसरेकी ऐसी बात सुने ही नहीं जिससे अपने इष्टमें, पथमें, विश्वासमें और साधनमें संशय हो जाय; और स्वयं किसीका जी दुःखे, ऐसी कोई बात किसीसे कहे नहीं। दूसरेकी बात मौके-बेमौके सुननी पड़े तो उसे सुन ले; परन्तु स्वयं तो तर्ककी इच्छासे, दूसरेको दबानेके लिये अपना मत स्थापन करनेके लिये विवादमें उतरे ही नहीं। इसका यह तात्पर्य नहीं कि श्रद्धाके साथ पूछनेवालेको कुछ न कहे या मौका पड़नेपर बिना पूछे भी हितकी बात न कहे। मतलब तो यह है कि विवादमें न उतरे। अनावश्यक बोले ही नहीं, जब बिना बोले काम न चले तब आवश्यक समझकर इतना ही बोले जितनेसे काम चल जाय। बात बढ़ाकर न कहे, विवादके भावसे न कहे, किसीका विरोध न करें, किसीकी दिल्लगी न करे, किसीका दोष न बतावे, किसीके हृदयपर चोट न करें, अपनी या अपने मतकी बड़ाई न करे, किसीकी निन्दा न करे, कडुआ न बोले, बोलनेमें आशा या कामनाका भाव न रखे, जबानसे किसीको धोखा न दे, किसीके विश्वासमें शंका न पैदा करे। जो कुछ बोले सत्य, मधुर, प्रिय, अनुद्वेगकर और हितकर शब्द ही बोले; शेष समय भगवन्नाम स्मरणमें लगा ।
अनावश्यक एक शब्द बोलनेमें भी बड़ी हानि समझे, क्योंकि उतना समय व्यर्थ गया। उतने समय के लिये जीभसे नामजप छूट गया और अनावश्यक शब्दका वातावरणमें जो असर हुआ, वह अलग। यह निश्चय रखे कि तर्क और वाद-विवादसे कभी भगवत्प्रेम, ज्ञान या भगवान्की प्राप्ति नहीं होती। तर्कसे तो अहंकार, द्वेष, क्रोध, हिंसा और वैरकी ही जमात इकट्ठी होती है। अतएव वाद-विवादसे सदा अलग रहे।
अस बिचारि जे तग्य बिरागी रामहि भजहिं तरक सब त्यागी ॥ अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल । भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ॥