सूत्रकार कारण दिखाते हुए कहते हैं कि वाद-विवादमें उत्तर- प्रत्युत्तर होता है और वह बढ़ता ही जाता है। दोनों ओरसे अपने-अपने मतका समर्थन करनेमें शब्दोंकी झड़ी लग जाती है। जो बात भगवत्कृपासे ही जानी जा सकती है, वह तर्कसे मिल तो सकती ही नहीं। अतएव तर्क-वितर्कका कोई सुफल भी नहीं होता। यदि विवादमें बोलते-बोलते थक जाने या समयपर तर्क याद न आनेसे किसी पक्षकी जीत हो जाती है तो वह भी सिद्धान्त नहीं माना जाता; क्योंकि वह सिद्धान्त है ही नहीं। अतएव विवादमें समय नष्ट न कर भक्तको सर्व प्रकारसे अपने भगवान्पर निर्भर रहते हुए निरन्तर निष्कपट और निष्काम भावसे परम श्रद्धापूर्वक भगवान्का भजन करना चाहिये ।
भगवत्प्रेमकी प्राप्ति तर्कसे नहीं होती, भक्तिसे ही होती है।