छिहत्तरवें सूत्रमें भक्तिको बढ़ानेवाले कर्मोंका आचरण करने की बात कही गयी है। इस सूत्रमें उन क्रियाओं और सद्गुणोंमेंसे पाँच प्रधान आचारोंका नाम निर्देश करके सूत्रकार इनके पालनकी अत्यन्त आवश्यकताका प्रतिपादन करते हैं। दैवी सम्पत्तिके गुण भक्तका बाना है। जहाँ भक्ति है वहाँ दैवी सम्पत्तिका होना अनिवार्य है। कुछ लोग भूलसे ऐसा कह दिया करते हैं कि 'भक्ति करो; भक्तमें सद्गुण न हों तो न सही। मनुष्य चाहे जितने पाप करे; बस, भक्त हो जाय; फिर कोई परवा नहीं।' परन्तु उनका यह कथन वैसे ही युक्तिविरुद्ध है जैसे यह कथन कि 'सूर्य उदय हो जाय, फिर वहाँ अन्धकार भले ही बना रहे।' जहाँ सूर्य उदय हो गया, वहाँ अन्धकार न रहकर प्रकाश छा ही जाता है। इसी प्रकार जहाँ भक्तिरूपी सूर्यका उदय हो गया है वहाँ उसका प्रकाशरूप दैवी सम्पत्ति अवश्य फैल जायगी। यह किसी अंशमें सत्य है कि भगवत्प्राप्त महात्मा भक्त पुरुषोंके बाहरी आचरणोंसे उनकी परीक्षा नहीं होती। परन्तु कुछ गुण तो ऐसे हैं ही जिनका उनमें प्रकट रहना अत्यन्त ही आवश्यक है। आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। उन्हीं गुणोंमें ये पाँचों गुण भी हैं। जिस पुरुषमें ये गुण न हों, वह यदि कदाचित् साधु या भक्त भी हो तो भी उससे डरना ही चाहिये। बल्कि अधिकांशमें तो इन गुणोंसे रहित मनुष्य साधु या भक्त होते ही नहीं। अपनी परीक्षा तो साधकको इन्हीं गुणोंके आधारपर करनी चाहिये। यह निश्चय रखना चाहिये कि यदि भगवान्का चिन्तन और दैवी सम्पत्ति बढ़ रही है तो हमारी भक्तिमार्गमें उन्नति हो रही है; यदि जगत्का चिन्तन होता है और दैवी सम्पत्ति नहीं बढ़ रही है तो हमारी उन्नति नहीं हो रही है एवं यदि विषयोंका चिन्तन बढ़ रहा है और आसुरी सम्पत्ति बढ़ रही है तो हमारी निश्चय ही अवनति हो रही है। भगवान्का प्रेमपूर्वक चिन्तन भक्तका धर्म है और दैवी सम्पदाके गुण उसकी जीवनपद्धति है। वह सब कुछ छोड़ देता है, परन्तु इन दोनोंको नहीं छोड़ता। अवश्य ही लीलामय भगवान्की आज्ञा या रुचिके अनुसार सिद्ध भक्तको कहीं-कहीं जीवनपद्धति बदलनी पड़ती है। परन्तु वह नियम नहीं है, अपवाद है।
यह निश्चय है कि वह किसी प्रकारकी भी आसक्ति, ममता, कामना, वासना, अहंकार या मोहवश जीवन पद्धतिको नहीं बदलता। जहाँ किसी कारणवश किसी समय उसकी जीवनपद्धतिमें और उसके स्वाभाविक स्वधर्म भगवत्प्रेममें विरोध आता दीखता है, वहीं भगवान्की आज्ञा लेकर वह अपने स्वधर्मकी रक्षाके लिये नीतिको छोड़ देता है। ऐसे ही स्थलोंके लिये- भरत, प्रह्लाद, विभीषण, श्रीगोपीजन आदिके उदाहरण मिलते हैं, जहाँ उन्होंने भगवान्के लिये माता, पिता, भाई और पति आदिकी आज्ञाओंका उल्लंघन किया है । परन्तु वहाँ भी देखा जाय तो सदाचार नीतिका त्याग नहीं हुआ है। प्रेमधर्मके पालनार्थ भक्तोंने प्रायः स्वयं ही कष्ट सहा है। उस अवस्थाकी बात दूसरी है जिसमें सारे विधि-निषेधोंका भगवान्के चरणों में समर्पण हो जाता है। परन्तु स्मरण रहे, वह समर्पण होता है, किया नहीं जाता। विधि-निषेधोंका बोझ उस बावले भक्तके सिरसे उतार लिया जाता है, वह जानकर नहीं उतारता और उस मस्तीमें भी उसमें कोई दुर्गुण रहता हो सो बात नहीं है । परन्तु यहाँ तो साधककी चर्चा हो रही है और साधकको बड़ी ही सावधानी के साथ शास्त्रविहित सद्गुणों और सदाचारोंका रक्षण और पालन करना चाहिये। सूत्रकारने जिन पाँच गुणोंका नाम लिया है उनका स्वरूप संक्षेपमें यों समझना चाहिये।
अहिंसा - शरीर, मन और वाणीसे किसी भी जीवको किसी प्रकारसे वर्तमान या भविष्यमें दुःख नहीं पहुँचाना, वरं सदा सबको सुखी बनानेकी चेष्टामें लगे रहना।
सत्य - जैसा देखा, सुना या समझा हो, वचन, लेखन या संकेतसे ठीक वैसा ही दूसरेको समझानेकी नीयत रखना। वाणीसे ऐसे ही शब्दोंका उच्चारण करना जो सत्य हों और साथ ही मधुर और हितकारी भी हों। कुछ लोग सत्यभाषणमें कठोर भाषाका प्रयोग आवश्यक समझते हैं और अभिमानवश कह बैठते हैं कि हम तो सत्य कहनेवाले हैं, चाहे उससे किसीका जी दुःखी हो या सुखी ! परन्तु ऐसी बात नहीं है । द्वेष, वैर, निन्दा, चुगली आदि भावोंसे बचाकर वाणीको अपने और दूसरेके हितकी दृष्टिसे सदा मधुरता और सत्यमें ही सनी रखनी चाहिये। जैसे चन्द्रमाकी चाँदनी प्रकाश देनेवाली होनेके साथ ही शीतल भी होती है, इसी प्रकार भक्तकी वाणी भी सत्य और मधुर प्रकाशक और शान्तिदायक होनी चाहिये। जिससे दूसरेका अहित होता हो वह सत्य भी वांछनीय नहीं है
शौच- बाहरी और भीतरी दोनों प्रकारके शौचकी आवश्यकता है।
बाहरी -
(क) जल, मिट्टी आदिसे शरीरको पवित्र रखना । (ख) दूसरेका स्वत्व न छीनकर सत्यतापूर्वक निर्दोषरूपसे कमानेकी चेष्टा कर धनको शुद्ध रखना।
(ग) शुद्ध स्थानमें शुद्ध स्नान किये हुए मनुष्यद्वारा, शुद्ध निरामिष अन्नसे बनाये हुए पदार्थोंको भगवदर्पण कर भोजनको शुद्ध करना।
(घ) शुद्ध, निष्कपट और प्रेमपूर्ण बर्तावसे व्यवहारको शुद्ध रखना।
(ङ) अतिथिसत्कार और भगवन्नामकी ध्वनिसे घरको पवित्र रखना। (च) शास्त्रविहित आचरणोंसे अन्य सभी बाह्य कर्मोंको शुद्ध रखना।
भीतरी—
दम्भ, वैर, अभिमान, आसक्ति, ईर्ष्या, द्वेष, शोक, पापचिन्तन, व्यर्थ विषयचिन्तन आदि दोषोंको मनमें यथासाध्य न आने देकर सरलता, प्रेम, विनय, वैराग्य, अद्वेष, प्रसन्नता, सच्चिन्तन और भगवच्चिन्तनके द्वारा मनको पवित्र रखना।
दया—
दुःखी मनुष्य घरका या दूसरा हो, मित्र हो या शत्रु हो, उसको दुःखकी दशामें देखकर बिना किसी भेदभावके मनका व्याकुल हो जाना और यथासाध्य कष्ट सहकर तथा त्याग करके भी उसके दुःखको दूर करनेकी चेष्टा करना यह भाव सभी जीवोंके प्रति होना चाहिये और सभी कालमें होना चाहिये । जिस क्रियासे जीवोंका अहित होता हो और उन्हें दुःख पहुँचता हो, उन क्रियाओंको त्याग देना चाहिये। इसी प्रकार देश या समाजमें जिन प्रथाओं और कृत्योंसे जीवोंका अहित होता हो, उन्हें बन्द करानेकी चेष्टा करनी चाहिये
आस्तिकता –
ईश्वर और शास्त्रोंपर प्रत्यक्षकी तरह पूर्ण विश्वास होना चाहिये। भगवान् हैं, सर्वव्यापी हैं, सर्वेश्वर हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, सर्वज्ञ हैं, परम दयालु हैं, परम सुहृद् हैं, भक्तवत्सल हैं, दीनबन्धु हैं और सदा सर्वत्र विराजमान हैं, इन बातोंपर विश्वास करते ही सारे पाप-ताप अपने-आप ही नष्ट हो जाते हैं। भगवान्में विश्वास करनेकी आवश्यकता सबसे पहले और सबसे अधिक है। भगवान्के अस्तित्व और उनके प्रभाव तथा गुणोंपर विश्वास हो जायगा तो मन स्वतः ही भगवान्की ओर लग जायगा। मनुष्यको जो कुछ चाहिये, भगवान् सभीके भण्डार हैं। ज्ञान चाहिये, भगवान् ज्ञानस्वरूप हैं; प्रेम चाहिये, भगवान् प्रेममय हैं; आनन्द चाहिये, भगवान् आनन्दघन हैं; वैराग्य चाहिये, भगवान् परम विरागमय हैं; धन चाहिये, धनकी स्वामिनी लक्ष्मीजी अपनी चंचलताको छोड़कर निरन्तर उनकी चरणसेवा करती हैं; ऐश्वर्य चाहिये, सारा जगत् उन्हीं के ऐश्वर्यके एक कणका प्रकाश है; यश चाहिये, यशकी धारा वहींसे निकलती है; सारांश यह कि संसारमें हम जो कुछ भी सौन्दर्य, माधुर्य, प्रेम, स्नेह, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, धन, भोग, सुख आदि देखते हैं और इन सब वस्तुओंके सम्बन्धमें जहाँतक हमारी ऊँची-से-ऊँची कल्पना होती है वह सब कुछ भगवान्के एक क्षुद्र अंशमें ही रह जाता है। हमारे इस जगत्के पदार्थ और पदार्थोंकी हमारी कल्पना उस अखिल सौन्दर्य, माधुर्य, ऐश्वर्यादि सद्गुण-सागरकी एक बूँदकी भी बराबरी नहीं कर सकती। जो इस प्रकार भगवान्को जान लेता है और विश्वास कर लेता है, वह भगवान्को छोड़कर आधे क्षणके लिये भी दूसरी ओर मन नहीं लगा सकता और न वह जगत्के क्षणिक भोगोंके उदय और विनाशमें हर्ष और शोकको ही प्राप्त होता है। अवश्य ही आस्तिकतामें विश्वास सच्चा होना चाहिये । भगवान् की सत्ताके विश्वासमें हमें प्रह्लादका इतिहास सदा याद करना चाहिये। हिरण्यकशिपुकी आज्ञासे सैकड़ों-हजारों दुर्दान्त दानव बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र लेकर प्रह्लादको मारने दौड़ते हैं।
प्रह्लाद कहते है...
(विष्णुपुराण 1 17 । 33)
'अरे दैत्यो! मेरे भगवान् विष्णु इन शस्त्रोंमें भी हैं, तुमलोगों में भी हैं और मुझमें भी हैं, वे सब जगह हैं। इस परम सत्यके प्रभावसे तुम्हारे इन शस्त्रास्त्रोंका मुझपर कोई असर न हो !' दैत्योंके शस्त्र व्यर्थ हो गये, उनके आघातसे प्रह्लादको तनिक भी वेदना नहीं हुई।
विषधर सर्पोंमें और उनके विषमें, विशालकाय मतवाले हाथियोंमें और उनके वज्रके समान दाँतोंमें भी प्रह्लादने अपने भगवान्को देखा। प्रह्लादका उनसे कुछ भी नहीं बिगड़ा । प्रह्लादको आगमें डाला गया, अग्निमें उसे भगवान्की नवनीलनीरदमूर्ति दिखायी दी। उसने कहा
'हे तात! पवनसे प्रेरित यह अग्नि भी मुझे नहीं जलाता । मुझको तो सभी दिशाएँ ऐसी शीतल प्रतीत होती हैं, मानो मेरे चारों ओर कमलके पर्दे टँगे हों।'
प्रह्लादको मारनेके लिये पुरोहितोंने 'कृत्या' उत्पन्न की और जब प्रह्लादको मारनेमें निष्फल होकर कृत्याने पुरोहितोंको ही मार डाला, तब प्रह्लाद बोले...
(वि0 पु0 1 18 । 40-41 )
'सर्वव्यापी जगद्गुरु भगवान् विष्णु सब प्राणियोंमें व्याप्त हैं, इस सत्यके प्रभावसे ये पुरोहित जीवित हो जायँ । यदि मैं सर्वगत और अक्षय विष्णुभगवान्को मुझे मारनेकी चेष्टा करनेवालोंमें भी देखता हूँ तो ये पुरोहित जी जायँ ।'
प्रह्लादकी दृढ़ आस्तिकतासे पुरोहित जी उठे ।
अन्तमें हिरण्यकशिपुके पूछनेपर प्रह्लादने बड़ी दृढ़ताके साथ, अडिग निश्चयसे, छाती ठोंककर कहा-
'हाँ, मेरे प्रभु सर्वत्र हैं, इस खम्भे में भी हैं।' अपने सेवकके इस वाक्यको प्रत्यक्ष सत्य करनेके लिये भगवान् खम्भेको चीरकर प्रकट हो गये। कैसा निश्चय और कैसा अद्भुत परिणाम ! यह है आस्तिकता ।
भक्तोंको यथा साध्य आस्तिक बने रहने की और आस्तिकता में निरन्तर अग्रसर होनेकी चेष्टा करनी चाहिये। सूत्रकारने 'आस्तिक्य' के साथ 'आदि' शब्द जोड़कर दैवी सम्पदाके अन्यान्य दैवी गुणोंकी ओर संकेत किया है। श्रीमद्भगवद्गीतामें दैवी सम्पत्तिके ये छब्बीस गुण बतलाये गये हैं।
भगवान् कहते हैं...
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥
(16 । 1-3)
'हे भारत! निर्भयता, अन्तःकरणकी शुद्धि, भगवान्के स्वरूप में निरन्तर दृढ़ स्थिति (आस्तिकता), दान, इन्द्रियसंयम, यज्ञ, स्वाध्याय, शान्ति, किसीकी तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोधहीनता, त्याग, निन्दा या चुगली न करना, सब प्राणियोंपर दया, लोभरहित होना, कोमलता, ईश्वर और शास्त्रविरुद्ध कर्मोंमें लज्जा, अचंचलता, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच, अद्रोहता और अभिमानशून्यता- ये सब गुण दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए पुरुषमें रहते हैं। यह दैवी सम्पत्ति भक्तमें ही रहती है। इसीलिये भक्तोंको 'देव' कहा गया है।
'इस जगत्में दो प्रकारके जीव हैं। एक दैव और दूसरे आसुर जो भगवान्के भक्त हैं, वह दैव हैं, जो भक्त नहीं हैं, वही आसुर हैं।'
(पद्मपुराण)