यह सूत्र बड़े ही महत्त्वका है। इसमें देवर्षिने प्रेममार्गी भक्तके भगवद्भजनका बड़ा ही सुन्दर प्रकार बतलाया है। वास्तवमें जो पुरुष भगवान्के दिव्य गुण, रहस्य और प्रभावको यथार्थरूपसे जान लेता है; जानना दूर रहा, सन्तोंद्वारा सुनकर उसपर विश्वास कर लेता है, वह भगवान्को छोड़कर किसी भी कालमें मन-वाणी- शरीरसे दूसरा काम नहीं कर सकता।
भगवान् शंकर कहते हैं...
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
दरिद्र मनुष्यको कहीं पारस मिल जाय तो वह दूसरी ओर क्यों ताकेगा? एकमात्र भगवान् ही परमतत्त्व हैं, भगवान् ही सबकी गति हैं, भगवान् ही सर्वाधार हैं, भगवान् ही सर्वशक्तिमान्, सकल दिव्य गुणनिधान, सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यकी निधि, ज्ञान और वैराग्यके स्वरूप, आनन्द कन्द-विग्रह हैं और इतना सब होते हुए भी वे हमारे परम सुहृद् हैं, हमें गले लगानेके लिये सदा हाथ पसारे खड़े-खड़े हमारी बाट देखा करते हैं- इस बातको जान लेनेपर सकामी या अकामी, विषयी या मुमुक्षु, साधक या सिद्ध, कौन ऐसा पुरुष है जो भगवान्को छोड़कर एक क्षणार्धके लिये भी दूसरेको भजे ? हम नहीं भजते, इसका कारण यही है कि हमने उनके प्रभावको जाना नहीं है। सुना है तो उसपर विश्वास नहीं किया है। देवर्षि कहते हैं कि विश्वास करो और निरन्तर मन-वाणी- शरीरसे केवल उन्हीं परम प्रियतम भगवान्का भजन करो; मनसे सारी चिन्ताओंको दूर कर दो। समस्त चिन्तनोंसे चित्तको मुक्त कर दो। जैसे छोटा शिशु माँकी गोदमें जाकर निश्चिन्त हो जाता है, ऐसे ही प्रभुके दास बनकर निश्चिन्त हो जाओ। जिसके रखवारे राम हैं; उसे किस बातकी चिन्ता होनी चाहिये। सब कुछ छोड़कर, सबकी आशा त्यागकर, भगवान् के सामने सबको तुच्छ मानकर, उस दिव्यातिदिव्य मधुर सुधारसके सामने जगत्के सारे रसोंको फीका समझकर, उस कोटि-कोटि कन्दर्पदर्पदलन, सौन्दर्यसार श्यामसुन्दरके स्वरूपके सामने जगत्की समस्त रूपराशिको नगण्य मानकर उसीके भजनमें लग जाओ, चित्तको उसीके अर्पण कर दो, सब प्रकारसे उसीपर निर्भर हो जाओ, मनसे उसीका स्मरण करो, बुद्धिसे उसीका विचार करो, वाणीसे उसीके गुणानुवाद गाओ, कानोंसे उसीके गुण और लीलाओंको सुनो, जीभसे उसीके प्रसादका रस लो, नासिकासे उसीकी पदपद्मपरागगन्धको सूँघो, शरीरसे सर्वत्र उसीके स्पर्शका अनुभव करो, नेत्रोंसे उसी छबिधामकी छबिको सर्वत्र सर्वदा देखो, हाथोंसे उसीकी सेवा करो, तन-मन-धन सब उसीके अर्पण कर दो।
जबतक तुम जगत्के पदार्थोंको अपने मानते रहोगे, उनमें ममत्व रखोगे, तबतक कभी निश्चिन्त नहीं हो सकोगे; ये नाशवान् क्षणभंगुर परिवर्तनशील पदार्थ कभी तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने देंगे, इनपरसे ममत्व और आसक्तिको हटा लो; ये जिनकी चीजें हैं, उन्हें सौंप दो; बस, जहाँ तुमने इनको भगवान्के समर्पण किया कि वहीं निश्चिन्त हो गये। फिर न नाशका भय है, न अभावकी चिन्ता है और न कामनाकी जलन है। और जहाँ निश्चिन्त होकर भजनमें लगे कि वहीं तुम्हें उस दिव्य आनन्द माधुर्य-सौन्दर्य-सागरकी झाँकी बीच-बीचमें दीखने लगेगी, फिर तुम्हारा चित्त दूसरी ओर जाना ही नहीं चाहेगा। ऐश्वर्यकी ओर दृष्टि ही नहीं जायगी—और कहीं ऐश्वर्यकी कोई वासना रह भी गयी तो समस्त ऐश्वर्योंका खजाना उनके चरणोंमें ही तुम्हें मिल जायगा। इसीलिये विषयासक्तिरूपी व्यभिचारको त्यागकर उस एकमात्र प्राणाराम प्रियतम प्रभुकी प्यारी पतिव्रता पत्नी बन जाओ।
इसीलिये श्रीसुन्दरदासजी महाराजने कहा है...
पतिहीयूँ प्रेम होय, पतिहीसूं नेम होय,
पतिहीयूँ छेम होय, पतिहीसूँ रत है।
पति ही है जग्य-जोग, पति ही है रसभोग,
पतिहीयूँ मिटै सोग, पतिहीको जत है ॥
पतिहीको ग्यान-ध्यान, पतिहीको पुन्न-दान,
पति ही है तीर्थस्नान, पतिहीको मत है।
पति बिनु पति नाहिं, पति बिनु गति नाहिं, 'सुन्दर' सकल बिधि, एक पतिव्रत है ॥
जलको सनेही मीन बिछुरत तजै प्रान, मनि बिनु अहि जैसे जीवत न लहिये।
स्वातिबिंदुको सनेही प्रगट जगत माँहिं, एक सीप दूसरो सु चातकहु कहिये ॥
रबिको सनेही पुनि कमल सरोवरमें, ससिको सनेही हू चकोर जैसे रहिये।
तैसे ही 'सुन्दर' एक प्रभुसूँ सनेह जोर, और कुछ देखि काहू ओर नाहि बहिये ॥
भगवान् स्वयं आज्ञा करते हैं ..
(गीता 18 65-66 )
'हे अर्जुन! तुम मुझमें ही मन लगाओ, मेरे ही भक्त बनो, मेरी ही पूजा करो, मुझको ही नमस्कार करो, फिर निश्चय मुझको ही प्राप्त होओगे, यह मैं तुमसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो । दूसरे सारे धर्मोका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरे ही अनन्य शरण हो जाओ। मैं तुमको सारे पापोंसे आप ही छुड़ा दूँगा, तुम चिन्ता न करो !'
भगवान्का इतना प्रतिज्ञायुक्त आश्वासन पाकर भी यदि हम सर्वदा सर्वभावसे निश्चिन्त होकर भगवान्को नहीं भजते तो हम सरीखा अभागा और कौन होगा ?
अतएव इसी बातमें अपना परम कल्याण समझकर, उठते बैठते, सोते-जागते सर्वदा सब कार्योंमें हमें श्रीभगवान्की पवित्र सत्ताके दर्शन करते हुए, हानि-लाभ और जन्म-मरणकी चिन्ताको छोड़कर, निश्चिन्त अनन्य चित्तसे श्रीहरिका ही भजन कीर्तन करना चाहिये ।