प्रेमा-भक्तिमें यह कर्मत्याग अपने-आप ही हो जाता है। प्रेममें मतवाला भक्त अपने प्रियतम भगवान्को छोड़कर अन्य किसी बातको जानता नहीं; उसका मन सदा श्रीकृष्णाकार बना रहता है, उसकी आँखोंके सामने सदा सर्वत्र प्रियतम भगवान्की छवि ही रहती है। दूसरी वस्तुमें उसका मन ही नहीं जाता।
श्रीगोपियोंने भगवान् से कहा था...
(श्रीमद्भा0 10 । 29 । 34) 'हे प्रियतम ! हमारा चित्त आनन्दसे घरके कामोंमें आसक्त हो रहा था, उसे तुमने चुरा लिया। हमारे हाथ घरके कामोंमें लगे थे, वे भी चेष्टाहीन हो गये और हमारे पैर भी तुम्हारे पाद पद्मोंको छोड़कर एक पग भी हटना नहीं चाहते। अब हम घर कैसे जायँ और जाकर करें भी क्या ?'
जगत्का चित्र चित्तसे मिट जानेके कारण वह भक्त किसी भी लौकिक (स्मार्त) अथवा वैदिक (श्रौत) कार्यके करने लायक नहीं रह जाता। इससे वे सब स्वयमेव छूट जाते हैं।