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नारद भक्ति सूत्र (नारद भक्ति दर्शन)

Narad Bhakti Sutra (Narada Bhakti Sutra)

सूत्र 80 - Sutra 80

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स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥

80- वे भगवान् (प्रेमपूर्वक) कीर्तित होनेपर शीघ्र ही प्रकट होते हैं और भक्तोंको अपना अनुभव करा देते हैं।

इससे पहले सूत्र के अनुसार अनन्य भजन करनेसे भगवान् शीघ्र ही साक्षात् प्रकट होकर भक्तको अपने स्वरूपका अनुभव करा देते हैं। यहाँ 'आविर्भवति' शब्दसे भगवान्का अखिल दिव्य सौन्दर्य- माधुर्य- रससार साकाररूपमें प्रकट होना समझना चाहिये। वस्तुतः निर्गुण-सगुण और निराकार-साकारमें कोई भेद नहीं है। वही मन-बुद्धिके अगोचर ब्रह्म हैं, वही सृष्टिकर्ता सगुण निराकार विभु हैं, वही जगदात्मा हैं, वही श्रीराम और श्रीकृष्ण हैं, वही महाशिव, महाविष्णु, महादेवी हैं; वही यह विराट् पुरुष हैं। उनसे भिन्न कुछ है ही नहीं। जब रसीले, हठीले भक्तके प्रेमका आकर्षण होता है तब वह अपनी दिव्याह्लादिनी शक्तिको निमित्त बनाकर दिव्य चिन्मय वस्त्र, माला, गन्ध, आयुध, आभूषणादिसे सुसज्जित सौन्दर्यनिधिरूपमें प्रकट होकर भक्तको कृतार्थ करते हैं।

सगुनहिं अगुनहिं नहि कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥ परन्तु यह बात नहीं है कि यह रूप जगत् प्रसविनी मायाद्वारा निर्मित होता है। इसमें सभी चीजें दिव्य, शुद्ध, नित्य, चिन्मय और भगवत्स्वरूप होती हैं। इसीसे इस दिव्य रसमय स्वरूपके सामने आते ही आत्मज्ञानी मुनियोंके मरे हुए मन भी जीवित होकर इस स्वरूपकी एक-एक वस्तुपर मुग्ध हो जाते हैं। जिन इन्द्रियोंके विकाररूप रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्शसे मुमुक्षु अवस्थामें ही चित्त उपराम हो जाता है, उन्हीं रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्शके प्रति मुनियों और आत्मज्ञानियोंका आकर्षित होना यह सिद्ध करता है कि भगवान्‌के दिव्य स्वरूपके ये रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्शादि विषय मायाके कार्य त्रिगुणोंसे उत्पन्न नहीं हैं। ये सर्वगुणसम्पन्न और सदा निर्गुण प्रभुके स्वरूप ही हैं। इसीसे मुनिगण इनपर मोहित हो जाते हैं।

इसीलिये वेदान्तके प्रधान आचार्य श्रीशंकराचार्य भगवान् श्रीकृष्णके सम्बन्धमें कहते हैं...

'जिन्होंने ब्रह्माजीको अनेक ब्रह्माण्ड, प्रत्येक ब्रह्माण्डमें अलग अलग अद्भुत ब्रह्मा, वत्सोंसहित समस्त गोप तथा विभिन्न ब्रह्माण्डोंके सब विष्णुस्वरूपोंको दिखाया, जिनके चरणोदकको श्रीशम्भु अपने सिरपर धारण करते हैं, वे श्रीकृष्ण त्रिमूर्ति (ब्रह्माण्डों में विभिन्न स्वरूपोंसे शासन करनेवाले अंशावतार ब्रह्मा, विष्णु, महेश) से अलग ही कोई अविकारिणी सच्चिदानन्दमयी नीलिमा हैं। '

एक बार दिव्य वैकुण्ठलोकमें भगवान् श्रीमहाविष्णुके समीप नित्य आत्मनिष्ठ सनकादि ऋषि पधारे। ज्यों ही वे भगवान्‌के सामने पहुँचे और उनके स्वरूपकी ओर देखा कि मुग्ध हो गये। भगवान्की सुन्दरता देखते-देखते उनके नेत्र किसी प्रकार तृप्त ही नहीं होते थे। भगवान्‌के सौन्दर्यने ही उन्हें मोहित किया हो सो नहीं, प्रणाम करते समय कमलनयन श्रीहरिके पादपद्मपरागसे मिली हुई तुलसी मंजरीकी सुगन्ध वायुके द्वारा नासिकामार्गसे ज्यों ही मुनियोंके अन्तरमें पहुँची कि उन नित्य अचलरूपसे ब्रह्मानन्दका अनुभव करनेवाले मुनियोंका हृदय क्षुब्ध हो गया, उस सुगन्धकी ओर खिंच गया, उसपर मोहित हो गया और आनन्दसे उनके रोमांच हो आया।

यही हाल भगवान् श्रीराम-लक्ष्मणके स्वरूपको देखकर ब्रह्मविद्वरिष्ठ ज्ञानिश्रेष्ठ विदेह जनकका हुआ...

मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥
प्रेम मगन मनु जानि नृषु करि बिबेकु धरि धीर ।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गंभीर ॥

उस रूपराशिके सामने आते ही विदेहका ज्ञान मानो मूर्छित हो गया, देहकी सुधि जाती रही, आँखोंमें आँसू आ गये। जनकजीने देखा, यह क्या हो गया! बालकोंके सौन्दर्यपर-नेत्रोंके विषयपर जनकके मनमें मोह कैसा ? विवेकसे, धीरजसे अपनेको सँभाला; परन्तु पूछे बिना नहीं रहा गया। विश्वामित्रजीके चरणों में प्रणामकर राजाने बोलना चाहा, परन्तु विवेक हृदयकी द्रवताको दूर नहीं कर सका: बोलते-बोलते ही वाणी गद्गद - और भरी-भरी हो गयी। राजाने अपनी हालतका बयान करते हुए क्या पूछा, जरा सुनिये

कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृप कुल पालक।।
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा । उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥
सहज बिरागरूप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥
ताते प्रभु पूछउँ सति भाऊ । कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥


मुनिने मुसकराते हुए राजाके अनुमानका समर्थन किया। इस प्रकार जिस स्वरूपको बार-बार देखकर भी देखनेकी इच्छा बढ़ती ही रहती हैं, वह कुछ विलक्षण ही वस्तु है। संसारमें कोई पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसे बार-बार देखनेपर भी देखनेकी इच्छा बढ़े। अनुभव तो यह कहता है कि जिस वस्तुके देखनेकी इच्छा प्रबल होती है, उसके मिलनेपर प्रथम दर्शनमें तो बड़ा ही आनन्द होता है; पर फिर ज्यों ज्यों वह दर्शन सुलभ होता जाता है, त्यों-ही-त्यों उसके प्रति आकर्षण कम होता चला जाता है। परन्तु भगवान्‌का सौन्दर्य ऐसा है कि उसे देखते-देखते कभी तृप्ति ही नहीं होती। ज्यों प्रेमी भक्तका प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता रहता है त्यों ही भगवान्‌की सौन्दर्यछटा भी प्रतिक्षण अधिकाधिक बढ़ती ही रहती है। पल-पलमें नया नया सौन्दर्य, अधिकाधिक आकर्षक माधुरी दिखायी देती है।

ऐसा वह भगवान्‌का स्वरूप मायिक नहीं होता। वह सर्वथा दिव्य होता है और जिस क्षण वह भक्तके सामने उसके प्रेमके आकर्षणसे प्रकट होता है उसी क्षण उसे दिव्यभावापन्न करके अपने स्वरूपका अनुभव करा देता है। जबतक वह माधुरी सामने रहती है, तबतक भक्त किसी दिव्य राज्यमें रहता है। उसका सब कुछ दिव्य हुआ रहता है। उस कालमें वह सिवा भगवान्‌ के माधुर्यके और कुछ भी नहीं देखता, सुनता। वह तन्मय हो जाता है और उसे भगवान्‌का यथार्थ अनुभव हो जाता है।

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नारद भक्ति सूत्र
Index


  1. [सूत्र 1]अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ 1 ॥
  2. [सूत्र 2]सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ 2 ॥
  3. [सूत्र 3]अमृतस्वरूपा च ॥ 3 ॥
  4. [सूत्र 4]यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ 4 ॥
  5. [सूत्र 5]यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥
  6. [सूत्र 6]यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ॥ 6 ॥
  7. [सूत्र 7]सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ॥ 7 ॥
  8. [सूत्र 8]निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥ 8 ॥
  9. [सूत्र 9]तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ 9 ॥
  10. [सूत्र 10]अन्याश्रयाणां त्यागो ऽनन्यता ॥ 10 ॥
  11. [सूत्र 11]लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥ 11 ॥
  12. [सूत्र 12]भवतु निश्चयदादयदूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ 12॥
  13. [सूत्र 13]अन्यथा पातित्याशंकया ॥ 13 ॥
  14. [सूत्र 14]लोकोऽपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ 14 ॥
  15. [सूत्र 15]तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ 15 ॥
  16. [सूत्र 16]पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥ 16 ॥
  17. [सूत्र 17]कथादिष्विति गर्गः ॥ 17 ॥
  18. [सूत्र 18]आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ 18 ॥
  19. [सूत्र 19]नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता परमव्याकुलतेति ॥ 19 ॥
  20. [सूत्र 20]अस्त्येवमेवम् ॥ 20 ॥
  21. [सूत्र 21]यथा व्रजगोपिकानाम् ॥ 21 ॥
  22. [सूत्र 22]तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥ 22 ॥
  23. [सूत्र 23]तद्विहीनं जाराणामिव ॥ 23 ॥
  24. [सूत्र 24]नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥ 24 ॥
  25. [सूत्र 25]सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ 25 ॥
  26. [सूत्र 26]फलरूपत्वात् ॥ 26 ॥
  27. [सूत्र 27]ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ 27 ॥
  28. [सूत्र 28]तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥ 28 ॥
  29. [सूत्र 29]अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ 29 ॥
  30. [सूत्र 30]स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ 30 ॥
  31. [सूत्र 31]राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ॥ 31 ॥
  32. [सूत्र 32]न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ 32 ॥
  33. [सूत्र 33]तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ 33 ॥
  34. [सूत्र 34]तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ 34 ॥
  35. [सूत्र 35]तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥
  36. [सूत्र 36]अव्यावृतभजनात् ॥ 36 ॥
  37. [सूत्र 37]लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात् ॥ 37 ॥
  38. [सूत्र 38]मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ 38 ॥
  39. [सूत्र 39]महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ 39 ॥
  40. [सूत्र 40]लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥ 40 ॥
  41. [सूत्र 41]तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ॥ 41 ॥
  42. [सूत्र 42]तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥ 42 ॥
  43. [सूत्र 43]दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥
  44. [सूत्र 44]कामक्रोधमोह स्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश सर्वनाश कारणत्वात् ॥ 44 ॥
  45. [सूत्र 45]तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति ॥ 45 ॥
  46. [सूत्र 46]कस्तरति कस्तरति मायाम्, यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ॥ 46 ॥
  47. [सूत्र 47]यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति ॥ 47 ॥
  48. [सूत्र 48]यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥ 48 ॥
  49. [सूत्र 49]वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ 49 ॥
  50. [सूत्र 50]स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ 50॥
  51. [सूत्र 51]अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥ 51 ॥
  52. [सूत्र 52]मूकास्वादनवत् ॥ 52 ॥
  53. [सूत्र 53]प्रकाशते * क्वापि पात्रे ॥ 53 ॥
  54. [सूत्र 54]गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ 54 ॥
  55. [सूत्र 55]तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥
  56. [सूत्र 56]गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥ 56 ॥
  57. [सूत्र 57]उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ 57 ॥
  58. [सूत्र 58]अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ 58 ॥
  59. [सूत्र 59]प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् ॥ 59॥
  60. [सूत्र 60]शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥ 60 ॥
  61. [सूत्र 61]लोकानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥ 61 ॥
  62. [सूत्र 62]न तदसिद्धौर लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ 62 ॥
  63. [सूत्र 63]स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥ 63 ॥
  64. [सूत्र 64]अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ 64 ॥
  65. [सूत्र 65]तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥
  66. [सूत्र 66]त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ 66
  67. [सूत्र 67]भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ 67 ॥
  68. [सूत्र 68]कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥ 68 ॥
  69. [सूत्र 69]तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ 69 ॥
  70. [सूत्र 70]तन्मयाः ॥ 70 ॥
  71. [सूत्र 71]मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ॥ 71 ॥
  72. [सूत्र 72]नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥ 72 ॥
  73. [सूत्र 73]यतस्तदीयाः ॥ 73 ॥
  74. [सूत्र 74]वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥
  75. [सूत्र 75]बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥ 75 ॥
  76. [सूत्र 76]भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥
  77. [सूत्र 77]सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥
  78. [सूत्र 78]अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपाल नीयानि ॥ 78 ॥
  79. [सूत्र 79]सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ 79 ॥
  80. [सूत्र 80]स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥
  81. [सूत्र 81]त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ॥ 81 ॥
  82. [सूत्र 82]गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपाएकधा अपि एकादशधा भवति ॥ 82 ॥
  83. [सूत्र 83]इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार व्यास शुक शाण्डिल्य गर्ग विष्णु कौण्डिण्य शेषोद्धवारुणि बलि हनुमद् विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ 83॥
  84. [सूत्र 84]य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ 84 ॥