त्रिसत्य कायिक, वाचिक और मानसिक सत्यको कहते हैं। देवर्षि नारदजीको तीनों सत्योंसे भक्तिकी श्रेष्ठताका अनुभव हो चुका है। अतएव वे बार-बार यह घोषणा करते हैं कि भक्ति ही श्रेष्ठ है। वास्तवमें बात भी ऐसी ही है।
उपनिषद् में भी इसी प्रकार घोषणा की गयी है
(त्रिपादविभूतिनारायणोपनिषद्)
'सब उपायोंको छोड़कर भक्तिका ही आश्रय लो । भक्तिनिष्ठ होओ, भक्तिनिष्ठ हो जाओ। भक्तिसे सब सिद्धियाँ सफल हो जाती हैं। ऐसी कोई बात नहीं है जो भक्तिसे न होती हो।' मुक्ति भी मिलती है और मुक्तिदाता भगवान् सगुणरूपसे भी साथ खेलते हैं।
स्वयं भगवान्के श्रीमुखके वचन हैं—
(श्रीमद्भा0 11 14 / 19)
'हे उद्धव ! जैसे जोरसे जली हुई अग्नि काठके ढेरको भस्म कर डालती है वैसे ही मेरी भक्ति सब (छोटे-बड़े) पापोंके समूहको जला देती है।'
भक्तके साधनकी रक्षा भगवान् करते हैं और उसके फलस्वरूप अपनी प्राप्ति भी आप ही करवा देते हैं और सबका इसमें अधिकार है। अतएव भक्तिसे श्रेष्ठ और क्या होगा ? भगवान्ने इसीलिये श्रीमद्भगवद्गीतामें भी जगह-जगह भक्तिकी प्रशंसा की है और बारहवें अध्यायमें तो भक्तको 'युक्ततम' तक कह दिया है। इसीलिये यहाँ देवर्षि नारद ताल ठोंक- ठोंककर मुक्तकण्ठसे वज्रगम्भीरस्वरसे घोषणा करते हैं कि कायिक, वाचिक, मानसिक तीनों सत्योंमें अथवा त्रिकालमें सत्यभगवान्की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है, भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है।