जो महात्माजन प्रेमरूपा भक्तिकी पूर्णताको पहुँच जाते हैं, उनमें तो यह सभी आसक्तियाँ रहती हैं। जैसे श्रीव्रजगोपियोंमें थीं जिनका उदाहरण देवर्षि नारदजी पहले दे चुके हैं। सबका विकास नहीं होता तो अपनी-अपनी रुचिके अनुसार इनमेंसे केवल एक या एकाधिक भावोंसे भगवान् के साथ प्रेम किया जाता है। प्रेम एक ही वस्तु है, इसलिये इन प्रेमियोंमें, प्रेमासक्तिके भेदसे किसीमें ऊँच-नीचकी भावना नहीं करनी चाहिये।
इन भिन्न-भिन्न आसक्तियोंसे भगवान्को भजनेवाले असंख्य भक्त हो गये हैं। उदाहरणके लिये कुछ नाम यहाँ दिये जाते हैं
1 - गुणमाहात्म्यासक्त भक्त-देवर्षि नारद, महर्षि वेदव्यास, शुकदेव, याज्ञवल्क्य, काकभुशुण्डि, शेष, सूत, शौनक, शाण्डिल्य, भीष्म, अर्जुन, परीक्षित् पृथु, जनमेजय आदि ।
2- रूपासक्त भक्त- मिथिलाके नर-नारी, राजा जनक, दण्डकारण्यके ऋषि, व्रजनारियाँ आदि।
3 – पूजासक्त भक्त - श्रीलक्ष्मीजी, राजा पृथु, अम्बरीष, श्रीभरतजी आदि ।
4–स्मरणासक्त भक्त-प्रह्लादजी, ध्रुवजी, सनकादि ।
5- दास्यासक्त भक्त- -श्रीहनूमान्जी, अक्रूरजी, विदुरजी आदि ।
6 – संख्यासक्त भक्त- - अर्जुन, उद्धव, संजय, श्रीदाम,सुदामादि।
7- कान्तासक्त भक्त- अष्ट पटरानियाँ आदि।
8- वात्सल्यासक्त भक्त- कश्यप-अदिति, सुतपा पृश्नि, मनु-शतरूपा, दशरथ-कौसल्या, नन्द-यशोदा, वसुदेव-देवकी आदि।
9 - आत्मनिवेदनासक्त भक्त- -श्रीहनुमान्जी, राजा अम्बरीष, राजा बलि, विभीषणजी, शिबि आदि
10 - तन्मयतासक्त भक्त- याज्ञवल्क्य, शुक, सनकादि ज्ञानीगण अथवा कौण्डिन्य, सुतीक्ष्ण आदि प्रेमी मुनिगण ।
11- परमविरहासक्त भक्त- उद्धव, अर्जुन, व्रजके नर नारी ।
श्रीगोपीजनोंमें ग्यारहों प्रकारके प्रेमका विकास था। परन्तु उपर्युक्त भक्तोंमें एक-एक प्रकारके ही प्रेमका विकास था सो बात नहीं है। जिस भावकी प्रधानता थी उसीमें उनका नाम लिख दिया गया है।