अबतक भक्तिशास्त्रकी व्याख्या करके अब सूत्रकार उसका फल वर्णन करते हैं। देवर्षि कहते हैं कि जो इस मेरे कहे हुए परम कल्याणमय उपदेशपर या भक्तितत्त्वके आदि आचार्य साक्षात् भगवान् श्रीशिवजीके किये हुए उपदेशपर विश्वास और श्रद्धा करते हैं वे भगवान्को 'प्रियतम' रूपसे प्राप्त करते हैं।
विश्वास और श्रद्धा हुए बिना तो कुछ भी नहीं होता। संशयात्माका तो पतन ही होता है-'संशयात्मा विनश्यति' । फिर, विश्वास और श्रद्धा करनेसे ही उसके लिये साधन होता है, अतएव विश्वास और श्रद्धा करके भक्ति करनी चाहिये । अन्यान्य साधनोंद्वारा भगवान् अन्यान्य रूपोंमें प्राप्त होते हैं परन्तु भक्तिद्वारा तो वे 'प्रियतम' रूपमें मिलते हैं। यह प्रेम ही चरम या पंचम पुरुषार्थ है, जिसमें मोक्षका भी संन्यास हो जाता है। यही जीवनका परम फल है।