श्रीराम बोले- विप्रवर! इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुए किसी पुरुषके मुखसे कभी ब्राह्मणोंने कटुवचनतक नहीं सुना था [ किन्तु मैंने उनको हत्या कर डाली। ] वर्ण और आश्रमके भेदसे भिन्न-भिन्न धर्मोके मूल हैं वेद और वेदोंके मूल हैं ब्राह्मण ब्राह्मणवंश ही वेदोंकी सम्पूर्ण शाखाओंको धारण करनेवाला एकमात्र वृक्ष है। ऐसे ब्राह्मण कुलका मेरे द्वारा संहार हुआ है; ऐसी अवस्थामें में क्या करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो ?
अगस्त्यजीने कहा- राजन्! आप अन्तर्यामी आत्मा एवं प्रकृति से परे साक्षात् परमेश्वर हैं। आप ही इस जगत्के कर्ता, पालक और संहारक हैं। साक्षात् गुणातीत परमात्मा होते हुए भी आपने स्वेच्छासे सगुणस्वरूप धारण किया है। शराबी, ब्रह्महत्यारा, सोना चुरानेवाला तथा महापापी (गुरुस्त्रीगामी) ये सभी आपके नामका उच्चारण करनेमात्र से तत्काल पवित्र हो जाते हैं।" महामते। ये जनककिशोरी भगवती सीता महाविद्या हैं; जिनके स्मरणमात्रसे मनुष्य मुक्त होकर सद्गति प्राप्त कर लेंगे। लोगोंपर अनुग्रह करनेवाले महावीर श्रीराम जो राजा अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान करता है, वह सब पापके पार हो जाता है। राजा मनु, सगर, मरुत्त और नहुषनन्दन ययाति- ये आपके सभी पूर्वज यज्ञ करके परमपदको प्राप्त हुए हैं महाराज! आप सर्वथा समर्थ हैं, अतः आप भी यज्ञ करिये। परम सौभाग्यशाली श्रीरघुनाथजीने महर्षि अगस्त्यजीकी बात सुनकर यज्ञ करनेका ही विचार किया और उसकी विधि पूछी।
श्रीराम बोले- महर्षे! अश्वमेधयज्ञमें कैसा अश्व होना चाहिये? उसके पूजनकी विधि क्या है? किस प्रकार उसका अनुष्ठान किया जा सकता है तथा उसके लिये किन-किन शत्रुओंको जीतनेकीआवश्यकता है? अगस्त्यजीने कहा- रघुनन्दन! जिसका ग गंगाजल के समान उज्ज्वल तथा शरीर सुन्दर हो, जिसका कान श्याम, मुँह लाल और पूँछ पीले रंगकी हो जो देखने में भी अच्छा जान पड़े वह उत्तम लक्षणोंसे लक्षित अश्व ही अश्वमेधमें ग्राह्य बतलाया गया है। वैशासकी पूर्णिमाको अश्वकी विधिवत् पूजा करके एक ऐसा पत्र लिखे जिसमें अपने नाम और बलका उल्लेख हो, वह पत्र घोड़ेके ललाटमें बाँधकर उसे स्वछन्द विचरनेके लिये छोड़ देना चाहिये तथा बहुत से रक्षकोंको तैनात करके उसकी सब ओरसे प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये। यज्ञका घोड़ा जहाँ-जहाँ जाय, उन सब स्थानोंपर रक्षकको भी जाना चाहिये जो कोई राजा अपने बल या पराक्रमके घमंडमें आकर उस घोड़ेको जबरदस्ती बाँध ले, उससे लड़-भिड़कर उस अश्वको बलपूर्वक छीन लाना रक्षकका कर्तव्य है। जबतक अश्व लौटकर न आ जाय, तबतक यज्ञ कर्त्ताको उत्तम विधि एवं नियमोंका पालन करते हुए राजधानीमें ही रहना चाहिये। वह ब्रह्मचर्यका पालन करे और मृगका सींग हाथमें धारण किये रहे। यज्ञ-सम्बन्धी व्रतका पालन करनेके साथ ही एक वर्षतक दीनों, अंधों और दुःखियोंको धन आदि देकर सन्तुष्ट करते रहना चाहिये। महाराज! बहुत-सा अन्न और धन दान करना उचित है। याचक जिस-जिस वस्तुके लिये याचना करे, बुद्धिमान् दाताको उसे वही वही वस्तु देनी चाहिये। इस प्रकारका कार्य करते हुए यजमानका यज्ञ जब भलीभाँति पूर्ण हो जाता है, तो वह सब पापका नाश कर डालता है। शत्रुओंका नाश करनेवाले रघुनाथजी! आप यह सब कुछ करने, सब नियमोंको पालने तथा अश्वका विधिवत् पूजन करनेमें समर्थ है; अतः इस यज्ञके द्वाराअपनी विशद कीर्तिका विस्तार करके दूसरे मनुष्योंको भी पवित्र कीजिये।
श्रीरामचन्द्रजीने कहा – विप्रवर! आप इस समय मेरी अश्वशालाका निरीक्षण कीजिये और देखिये, उसमें ऐसे उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न घोड़े हैं या नहीं। भगवान्की बात सुनकर दयालु महर्षि उठकर खड़े हो गये और यज्ञके योग्य उत्तम घोड़ोंको देखनेके लिये चल दिये। श्रीरामचन्द्रजीके साथ अश्वशालामें जाकर उन्होंने देखा, वहाँ चित्र-विचित्र शरीरवाले अनेकों प्रकारके अश्व थे, जो मनके समान वेगवान् और अत्यन्त बलवान् प्रतीत होते थे। उसमें ऊपर बताये हुए रंगके एक-दो नहीं, सैकड़ों घोड़े थे, जिनकी पूँछ पीली और मुख लाल थे। साथ ही वे सभी तरह के शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायी देते थे। उन्हें देखकर अगस्त्यजी बोले-' रघुनन्दन आपके यहाँ अश्वमेध के योग्य बहुत-से सुन्दर घोड़े हैं; अतः आप विस्तारके साथ उस यज्ञका अनुष्ठान कीजिये। महाराज श्रीराम ! आप महान् सौभाग्यशाली हैं। देवता और असुर-सभी आपके चरणोंपर मस्तक झुकाते हैं; अतः आपको इस यज्ञकाअनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। मुनिके इस वचनसे उन्होंने यज्ञके सभी मनोहर सम्भार एकत्रित किये। तत्पश्चात् महाराज श्रीराम मुनियोंके साथ सरयू तटपर आये और सोनेके हलोंसे चार योजन लंबी-चौड़ी बहुत बड़ी भूमिको जोता। इसके बाद उन पुरुषोत्तमने यज्ञके लिये अनेकों मण्डप बनवाये और योनि एवं मेखलासे युक्त कुण्डका विधिवत् निर्माण करके उसे अनेकों रत्नोंसे सुसज्जित एवं सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न बनाया। महान् तपस्वी एवं परम सौभाग्यशाली मुनिवर वसिष्ठने सब कार्य वेदशास्त्रकी विधिके अनुसार सम्पन्न कराया। उन्होंने अपने शिष्योंको महर्षियोंके आश्रमोंपर भेजकर कहलाया कि श्रीरघुनाथजी अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान करनेके लिये उद्यत हुए हैं; अतः आप सब लोग उसमें पधारें। इस प्रकार आमन्त्रित होकर वे सभी तपस्वी महर्षि भगवान् श्रीरामके दर्शनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित होकर वहाँ आये। नारद, असित, पर्वत, कपिलमुनि, जातूकर्ण्य, अंगिरा, आष्टिषेण, अत्रि, गौतम, हारीत, याज्ञवल्क्य तथा संवर्त आदि महात्मा भी भगवान् श्रीरामके अश्वमेध यज्ञमेंआये। श्रीरघुनाथजीने बड़े आनन्दके साथ उठकर उनका स्वागत किया और उन्हें प्रणाम करके अर्घ्य तथा आसन आदि देकर उन सबकी विधिवत् पूजा की। फिर गौ और सुवर्ण निवेदन करके वे बोले 'महर्षियो! मेरे बड़े भाग्य हैं, जो आपके दर्शन हुए।"
शेषजी कहते हैं— ब्रह्मन् ! इस प्रकार जब वहाँ बड़े-बड़े ऋषियोंका समुदाय एकत्रित हुआ तो उनमें वर्ण और आश्रमके अनुकूल धर्मविषयक चर्चा होने लगी।
वात्स्यायनजीने पूछा-भगवन्! वहाँ धर्मके सम्बन्धमें क्या-क्या बातें हुई? कौन-सी अद्भुत बात बतायी गयी? उन महात्माओंने सब लोगोंपर दया करके किस विषयका वर्णन किया ?
शेषजीने कहा- मुने! महापुरुषोंमें श्रेष्ठ दशरथनन्दन भगवान् श्रीरामने सब मुनियोंको एकत्रित देखकर उनसे समस्त वर्णों और आश्रमोंके धर्म पूछे। श्रीरघुनाथजीके पूछने पर उन महर्षियोंने जिन-जिन महान् गुणकारी धर्मोका वर्णन किया, उन सबको मैं विधिपूर्वक बतलाऊँगा, आप ध्यान देकर सुनें।ऋषि बोले- ब्राह्मणको सदा यज्ञ करना और वेद पढ़ाना आदि कार्य करना चाहिये। वह ब्रह्मचर्य आश्रममें वेदोंका अध्ययन पूर्ण करके इच्छा हो तो विरक्त हो जाय और यदि ऐसी इच्छा न हो तो गृहस्थ आश्रममें प्रवेश करे। नीच पुरुषोंकी सेवासे जीविका चलाना ब्राह्मणके लिये सदा त्याज्य है। वह आपत्ति में पढ़नेपर भी कभी सेवा वृत्तिसे जीवन-निर्वाह न करे। सन्तान प्राप्तिकी इच्छासे ऋतुकालमें अपनी पत्नीके साथ समागम करना उचित माना गया है। दिनमें स्त्रीके साथ सम्पर्क करना पुरुषोंकी आयुको नष्ट करनेवाल है। श्राद्धका दिन और सभी पर्व स्त्री- समागमके लिये निषिद्ध हैं, अतः बुद्धिमान् पुरुषोंको इनका त्याग करना चाहिये। जो मोहवश उक्त समयमें भी स्त्रीके साथ सम्पर्क करता है; वह उत्तम धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है। जो पुरुष केवल ऋतुकालमें स्त्रीके साथ समागम करता हैं तथा अपनी ही पत्नीमें अनुराग रखता है [परायी स्त्रीकी ओर कुदृष्टि नहीं डालता], उस उत्तम गृहस्थको इस जगत् सदा ब्रह्मचारी ही समझना चाहिये। स्त्रीके रजस्वला होनेसे लेकर सोलह रात्रियाँ ऋतु कहलाती हैं, उनमें पहली चार रातें निन्दित हैं; [अतः उनमें स्त्रीका स्पर्श नहीं करना चाहिये] शेष बारह रातोंमेंसे जो सम संख्यावाली अर्थात् छठीं और आठवीं आदि रातें हैं, उनमें स्त्री-समागम करनेसे पुत्रकी उत्पत्ति होती है तथा विषम संख्यावाली अर्थात् पांचवीं सातवीं आदि रात्रियों कन्याको उत्पत्ति करानेवाली हैं। जिस दिन चन्द्रमा अपने लिये दूषित हों, उस दिनको छोड़कर तथा मघा और मूलनक्षत्रका भी परित्याग करके विशेषतः पुल्लिंग नामवाले आदि नक्षत्रोंमें शुद्ध भावसे पत्नीके साथ समागम करे; इससे चारों पुरुषागोंक साधक शुद्ध एवं सदाचारी पुत्रका जन्म होता है।
थोड़ी-सी भी कीमत लेकर कन्याको बेचनेवाला पुरुष पापी माना गया है। ब्राह्मणके लिये व्यापार, सेवा वेदाध्ययनका त्याग, निन्दित विवाह और कर्मका लोप-ये दोष कुलको नीचे गिरानेवालेहैँ।' गृहस्थाश्रममें रहनेवाले पुरुषको अन्न, जल, दूध, मूल अथवा फल आदिके द्वारा अतिथिका सत्कार करना चाहिये। आया हुआ अतिथि सत्कार न पाकर जिसके घरसे निराश लौट जाता है, वह गृहस्थ जीवनभरके कमाये हुए पुण्यसे क्षणभरमें वंचित हो जाता है। गृहस्थको उचित है कि वह बलिवैश्वदेव कर्मके द्वारा देवताओं, पितरों तथा मनुष्योंको उनका भाग देकर शेष अन्नका भोजन करे, वही उसके लिये अमृत है। जो केवल अपना पेट भरनेवाला है-जो अपने ही लिये भोजन बनाता और खाता है, वह पापका ही भोजन करता है। तेलमें षष्ठी और अष्टमीको तथा मांसमें सदा ही पापका निवास है। चतुर्दशीको क्षौर कर्म तथा अमावास्याको स्त्री-समागमका त्याग करना चाहिये। 3 रजस्वला- अवस्थामें स्त्रीके सम्पर्कसे दूर रहे। पत्नीके साथ भोजन न करे। एक वस्त्र पहनकर तथा चटाईके आसनपर बैठकर भोजन करना निषिद्ध है। अपनेमें तेजकी इच्छा रखनेवाले श्रेष्ठ पुरुषको भोजन करती हुई स्त्रीकी ओर नहीं देखना चाहिये। मुँहसे आगको न फूँके, नंगी स्त्रीकी ओर दृष्टि न डाले। बछड़ेको दूध पिलाती हुई गौको न छेड़े। दूसरेको इन्द्र-धनुष न दिखावे । रातमेंदही खाना सर्वथा निषिद्ध है। आगमें अपने पैर न सेंके, उसमें कोई अपवित्र वस्तु न डाले। किसी भी जीवकी हिंसा तथा दोनों सन्ध्याओंके समय भोजन न करे। रात्रिको खूब पेट भरके भोजन करना उचित नहीं है। पुरुषको नाचने, गाने और बजानेमें आसक्ति नहीं रखनी चाहिये। काँसेके बर्तनमें पैर धुलाना निषिद्ध है। दूसरेके पहने हुए कपड़े और जूते न धारण करे। फूटे अथवा दूसरेके जूठे किये हुए बर्तनमें भोजन न करे, भीगे पैर न सोये। हाथ और मुँहके जूठे रहते हुए कहीं न जाय। सोते-सोते न खाय। उच्छिष्ट अवस्थामें मस्तकका स्पर्श न करे। दूसरोंके गुप्त भेद न खोले। इस प्रकार गृहस्थ धर्मका समय पूरा करके वानप्रस्थ आश्रममें प्रवेश करे। उस समय इच्छा हो तो वैराग्यपूर्वक स्त्रीके साथ रहे अथवा स्त्रीको साथ न रखकर उसे पुत्रोंके अधीन सौंप दे। वानप्रस्थ - धर्मका पूर्ण पालन करनेके पश्चात् विरक्त हो जाय-संन्यास ले ले।
वात्स्यायनजी ! उस समय महर्षियोंने उपर्युक्त प्रकारसे अनेकों धर्मोका वर्णन किया तथा सम्पूर्ण जगत्के महान् हितैषी भगवान् श्रीरामने उन सबको ध्यानपूर्वक सुना।