महादेवजी कहते हैं- पार्वती! साभ्रमतीके पास ही ईशानकोणमें पालेश्वर नामक तीर्थ है, जहाँ चण्डीदेवी प्रतिष्ठित हैं। वह योगमाताओंका पीठ है, जो समस्त सिद्धियोंका साधक है। वहाँ जगत्पर अनुग्रह करने और सब देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये माताएँ परम यत्नपूर्वक स्थित हैं। उस तीर्थमें दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हुए तीन रात निवास करके मनुष्य चण्डीपति भगवान् शंकरके समीप जा उनका दर्शन करे और उनके निकट साभ्रमती नदीमें स्नान करके समाधिविधिसे युक्त हो मातृ-मण्डलके दर्शनके लिये जाय; ऐसा करनेसे मनुष्य सहस्त्र गोदानोंका फल पाता है। अग्नितीर्थमें स्नान करके चामुण्डाका दर्शन करनेपर मनुष्यको राक्षस, भूत और पिशाचोंका भय नहीं रहता। पार्वती। -साभ्रमतीमें जहाँ गोक्षुरा नदी मिली है, वहाँ सहस्रों तीर्थ हैं। वहाँ तिलके चूर्णसे श्राद्ध करना चाहिये। उस तीर्थमें पिण्डदान करके ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे अक्षय पदकी प्राप्ति होती है।
पूर्वकालमें कुकर्दम नामक एक पापिष्ठ एवं दुर्धर्ष राजा रहता था, जो बड़ा ही खल, मूढ, अहंकारी, ब्राह्मणोंका निन्दक, गोहत्यारा, बालघाती और सदा उन्मत्त रहनेवाला था। पिण्डार नामक नगर में वह राज्य करता था। एक समय अधर्मके ही योगमें उसकी मृत्यु हो गयी। मरनेपर वह प्रेत हुआ। उसे हवातक पीनेको नहीं मिलती थी; अतः वह अनेक प्रेतोंकि साथ करुणस्वरमें रोता और हाहाकार मचाता हुआ इधर-उधर भटकता फिरता था। एक समय दैवयोगसे वह अपने गुरुके आश्रमपर जा पहुँचा। पूर्वजन्ममें उसने कुछ पुण्य किया था, जिसके योगसे उसे गुरुका सत्संग प्राप्त हुआ।
पार्वती! पूर्वजन्ममें वह वेदपाठी ब्राह्मण था और प्रतिदिन महादेवजीकी पूजा तथा अतिथियोंका स्वागत- सत्कार करके ही भोजन करता था। उस पुण्यके प्रभावसे वह श्रेष्ठ ब्राह्मण पिण्डारपुण्ड्रमें राजा कुकर्दमकेरूपमें उत्पन्न हुआ। जबतक उसने राज्य किया, कभी मन और क्रियाद्वारा भी पुण्य कर्म नहीं किया था, इसलिये दैवात् मृत्यु होनेपर वह प्रेतराज हुआ। सूखा हुआ मुँह, कंकाल शरीर, पीला रंग, विकराल रूप और गहरी आँखें यही उसकी आकृति थी। वह महापापी प्रेत अन्य दुष्ट प्रेतोंके साथ रहता था। उसके रोएँ ऊपरको उठे हुए थे। जटाओंसे युक्त होने के कारण वह भयंकर जान पड़ता था। उसे इस रूपमें देखकर आश्रमवासी ब्राह्मण कहोड व्याकुल हो उठे।
कहोड बोले- राजन् ! यह अग्निपालेश्वर तीर्थ है। मैं इस परम अद्भुत, मनोरम एवं रमणीय स्थान में प्रतिदिन निवास करता हूँ। तुम तो मेरे यजमान हो । फिर इस प्रकार प्रेतराज कैसे हो गये?
प्रेत बोला- देव मैं वही पिण्डारपुरका कुकर्दम राजा हूँ वहाँ रहकर मैंने जो कुछ किया है, उसे सुनिये। ब्राह्मणोंकी हिंसा, असत्यभाषण, प्रजाओंका उत्पीड़न,
जीवोंकी हत्या, गौओंको दुःख देना, सदा बिना स्नानकिये ही रहना, सज्जन पुरुषोंको कलंक लगाना, भगवान् विष्णु और वैष्णवोंकी सर्वदा निन्दा करना यही मेरा काम था। मैं दुराचारी और दुरात्मा था। जहाँ जीमें आता, वहीं खा लेता। कभी भी शौचाचारका पालन नहीं करता था। द्विजराज! उसी पापकर्मके योगसे मैं मृत्युके बादसे प्रेतयोनिमें पड़ा हूँ। यहाँ नाना प्रकारके दुःख सहन करने पड़ते हैं। जिसके माता, पिता, स्वजन एवं बन्धु बान्धव नहीं हैं, उसके लिये गुरु ही माता हैं और गुरु ही उत्तम गति हैं। ब्रह्मन् !
ऐसा जानकर मुझे मोक्ष प्रदान कीजिये । कोडने कहा- राजन्! मैं तुम्हारी प्रार्थना पूर्ण करूँगा तुम्हारे साथ जो ग्यारह प्रेत और हैं, इन्हें भी इस तीर्थमें मुक्ति दिलाऊंगा।
पार्वती ! यों कहकर ब्राह्मण कहोडने सबके साथ तीर्थमें जाकर तिलसहित पिण्डदान एवं जलदानका कार्य किया। तीर्थमें मास और तिथिका कोई विचार नहीं है। वहाँ जाकर सदा ही श्राद्धादि कर्म करने चाहिये। यह बात पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मुझसे कही थी। ब्राह्मणके द्वारा श्राद्धकी क्रिया पूर्ण होनेपर उस श्रेष्ठ तीर्थमें वे सभीप्रेत मुक्त हो गये और उत्तम विमानपर बैठकर मेरे धामको चले गये। सुरेश्वरि जहाँ साभ्रमतीके साथ गोक्षुरा नदीका संगम हुआ है, वहाँ स्नान और दान करनेसे करोड़ यज्ञका फल होता है कपालेश्वर क्षेत्रमें जहाँ अग्नितीर्थ है, वहाँ साभ्रमती नदी मुक्ति देनेवाली बतायी गयी है।
देवि! अब मैं दूसरे तीर्थ हिरण्यासंगमका वर्णन करता हूँ। वह महान् तीर्थ है। पूर्वकालमें जब साभ्रमती गंगा सात धाराओं में विभक्त हुई, उस समय वह ब्रह्मतनया सप्तस्रोताके नामसे विख्यात हुई। उसके सातवें खोलको ही हिरण्या कहते हैं। प्राक्ष और मंजुमके बीच सत्यवान् नामक पर्वत है। उससे पूर्व दिशामें हिरण्यासंगम नामक महातीर्थ है, जिसमें स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य शुभगतिको प्राप्त होता है। वहाँसे वनस्थलीमें जाय और पापहारी भगवान् नारायणका दर्शन करे। यह वही स्थान है, जहाँ भगवान् नर और नारायणने उत्तम तपस्या की थी। एक हजार कपिला गौओंके दानसे जो फल मिलता है, दशाश्वमेधतीर्थमें चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय स्नानसे जो पुण्य होता है तथा तुलापुरुषके दानसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसी पुण्यफलको मनुष्य हिरण्यासंगममें स्नान करके प्राप्त कर लेता है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र - जो भी हिरण्यासंगममें स्नान करते हैं, वे शिवधामको जाते हैं।
देवि! अब मैं हिरण्यासंगमके बाद आनेवाले धर्मतीका वर्णन करता हूँ, जहाँ साभ्रमती गंगाके साथ धर्मावती नदीका संगम हुआ है। यहाँ स्नान करके मनुष्य धन्य हो जाता है और निश्चय ही स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। जो वहीं धर्मद्वारा स्थापित तीर्थका दर्शन करता है, वह पुण्यका भागी होता है। जो लोग वहाँ श्रद्ध करते हैं, वे पितृऋणसे मुक्त हो जाते हैं । वहाँसे मधुरातीर्थकी यात्रा करे, जहाँ सब पापका नाश हो जाता है। मथुरातीर्थमें स्नान करके मधुर संज्ञक श्रीहरिका दर्शन करना चाहिये। कंसासुरका वध हो जानेके पश्चात् जब भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकापुरीको जाने लगे, उस समयउन्होंने चन्दना नदीके सात निवास किया। उसके बाद भोज, वृष्णि और अन्धक-वंशियोंसे घिरे हुए वे समस्त यादव वीरोंके साथ मधुरातीर्थमें आये और वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके द्वारकापुरीको गये। जोमनुष्य तीर्थमें स्नान करके मधुर नामसे विख्यात भगवान् सूर्यकी पूजा करता है और माघके शुक्लपक्षकी सप्तमीको कपिला गौका दान करता है, वह इस लोकमें दीर्घकालतक सुख भोगनेके पश्चात् सूर्यलोकको जाता है।