नारदजीने कहा- देवेश्वर! आपकी कृपासे मुझे परम पवित्र उत्तम ब्राह्मणका परिचय तो मिल गया: अब जिस प्रकार मैं कर्मसे अधम ब्राह्मणको भी पहचान सकूँ, वह बात बताइये।
ब्रह्माजी बोले- बेटा! जो दस प्रकारके स्नान, सन्ध्योपासन और तर्पण आदि नहीं करता, जिसमें इन्द्रियसंयमका अभाव है, वहीं अधम ब्राह्मण है। जो देवताओंकी पूजा, व्रत, वेद-विद्या, सत्य, शौच, योग, ज्ञान तथा अग्निहोत्रका त्यागी है, वह भी ब्राह्मणों में अधम हो है। महर्षियोंने ब्राह्मणोंके लिये पाँच स्नान बताये हैं-आग्नेय, वारुण, ब्राह्म, वायव्य और दिव्य । सम्पूर्ण शरीरमें भस्म लगाना आग्नेय-स्नान है; जलसे जो स्नान किया जाता है, उसे वारुण-स्नान कहते हैं; 'आपो हि ष्ठा0' इत्यादि ऋचाओंसे जो अपने ऊपर अभिषेक किया जाता है, वह ब्राह्म स्नान है। शरीरपर हवासे उड़कर जो गौके चरणोंकी धूलि पड़ती है, उसे वायव्य स्नान माना गया है तथा धूप रहते हुए जो आकाशसे जलकी वर्षा होती है, उससे नहानेको दिव्य स्नान कहते हैं। उपर्युक्त वस्तुओंके द्वारा मन्त्रपाठपूर्वक स्नान करनेसे तीर्थ स्नानका फल प्राप्त होता है। तुलसीके पत्तेसे लगा हुआ जल, शालग्राम शिलाको नहलाया हुआ जल, गौओंके सींगसे स्पर्श कराया हुआ जल, ब्राह्मणका चरणोदक तथा मुख्य-मुख्य गुरुजनोंका चरणोदक- ये पवित्रसे भी पवित्र माने गये हैं। ऐसा स्मृतियोंका कथन है। [इन पाँच तरहके जलसे मस्तकपर अभिषेक करना पुनः पाँच प्रकारका स्नान है-इस तरह पहले के पाँच स्नानोंके साथ मिलकर यह दस प्रकारका स्नान माना गया है।] त्याग, तीर्थ-स्नान, यज्ञ, व्रत और होम आदिके द्वारा जो फल मिलता है, वही फल धीर पुरुष उपर्युक्त स्नानोंसे प्राप्त कर लेता है।
जो प्रतिदिन पितरोंका तर्पण नहीं करता, वह पितृघातक है, उसे नरकमें जाना पड़ता है। सन्ध्या नहीं करनेवाला द्विज ब्रह्महत्यारा है जो ब्राह्मण, मन्त्र, व्रत,वेद, विद्या, उत्तम गुण, यज्ञ और दान आदिका त्याग कर देता है, वह अधमसे भी अधम है। मन्त्र और संस्कारसे हीन, शौच और संयमसे रहित, बलिवैश्व किये बिना ही अन्न भोजन करनेवाले, दुरात्मा, चोर, मूर्ख, सब प्रकारके धर्मोसे शून्य, कुमार्गगामी, श्राद्ध आदि कर्म न करनेवाले, गुरु सेवासे दूर रहनेवाले, मन्त्रज्ञानसे वंचित तथा धार्मिक मर्यादा भंग करनेवाले ये सभी ब्राह्मण अधमसे भी अधम हैं। उन दुष्टोंसे बात भी नहीं करनी चाहिये। वे सब-के-सब नरकगामी होते हैं। उनका आचरण दूषित होता है; अतएव वे अपवित्र और अपूज्य होते हैं जो द्विज तलवारसे जीविका चलाते, दासवृत्ति स्वीकार करते, बैलोंको सवारीमें जोतते, बढ़ईका काम करके जीवन-निर्वाह करते, ऋण देकर ब्याज लेते, बालिका और वेश्याओंके साथ व्यभिचार करते, चाण्डालोंके आश्रयमें रहते, दूसरोंके उपकारको नहीं मानते और गुरुकी हत्या करते हैं, वे सबसे अधम माने गये हैं। इनके सिवा दूसरे भी जो आचारहीन, पाखण्डी, धर्मकी निन्दा करनेवाले तथा भिन्न-भिन्न देवताओंपर दोषारोपण करनेवाले हैं, वे सभी द्विज ब्रह्मद्रोही हैं। नारद! अधम होनेपर भी ब्राह्मणका कभी वध नहीं करना चाहिये; क्योंकि उसको मारनेसे मनुष्यको ब्रह्महत्याका पाप लगता है।
नारदजीने पूछा— सम्पूर्ण लोकोंके पितामह! यदि ब्राह्मण ऐसे-ऐसे दुष्कर्म करनेके पश्चात् फिर पुण्यका अनुष्ठान करे तो वह किस गतिको प्राप्त होता है?
ब्रह्माजीने कहा- वत्स! जो सारे पाप करनेके पश्चात् भी इन्द्रियोंको वशमें कर लेता है, वह उन पापोंसे छुटकारा पा जाता है तथा पुनः ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेके योग्य बन जाता है। इस विषयमें एक प्राचीन कथा सुनो, जो बड़ी सुन्दर और विचित्र है। पूर्वकालमें किसी ब्राह्मणका एक नौजवान पुत्र था। उसने जवानीकी उमंगमें मोहके वशीभूत होकर एक बार चाण्डालीकेसाथ समागम किया। चाण्डालीके गर्भसे उसने अनेकों पुत्र और कन्याएँ उत्पन्न कीं तथा अपना कुटुम्ब छोड़कर वह चिरकालतक उसीके घरमें रहा। किन्तु घृणाके कारण न तो वह दूसरा कोई अभक्ष्य पदार्थ खाता और न कभी शराब ही पीता था। चाण्डाली उससे सदा ही कहा करती थी कि 'ये सब चीजें खाओ और शराब पियो।' किन्तु वह उसे यही उत्तर देता- 'प्रिये ! तुझे ऐसी गंदी बात नहीं कहनी चाहिये। शराबका तो नाम सुननेमात्रसे मुझे ओकाई आती है। ' एक दिनकी बात है-वह थका-माँदा होनेके कारण दिनमें भी घरपर ही सो रहा था। चाण्डालीने शराब उठायी और हँसकर उसके मुँहमें डाल दी। मदिराको बूँद पड़ते ही उस ब्राह्मणके मुँहसे अग्नि प्रज्वलित हो उठी; उसकी ज्वालाने फैलकर कुटुम्बसहित उस चाण्डालीको जलाकर भस्म कर दिया तथा उसके घरको भी फूँक डाला। उस समय वह ब्राह्मण 'हाय ! हाय!' करता हुआ उठा और बिलख-बिलखकर रोने लगा। विलापके बाद उसने पूछना आरम्भ किया - 'कहाँसे आग प्रकट हुई और कैसे मेरा घर जला ?' तब आकाशवाणीने उससे कहा- 'तुम्हारे ब्रह्मतेजने चाण्डालीके घरमें आग लगायी है।' इसके बाद उसने ब्राह्मणके मुँहमें शराब डालने आदिका ठीक-ठीक वृत्तान्त कह सुनाया। यह सब सुनकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ। उसने इस विषयपर भलीभाँति विचार करके अपने-आपको उपदेश देनेके लिये यह बात कही- 'विप्र ! तेरा तेज नष्ट हो गया, अब तू पुनः धर्मका आचरण कर।' तदनन्तर उस ब्राह्मणने बड़े-बड़े मुनियोंके पास जाकर उनसे अपने हितकी बात पूछी। मुनियोंने कहा- 'तू दान-धर्मका आचरण कर। ब्राह्मण नियम और व्रतोंके द्वारा सब पापोंसे छूट जाते हैं। अतः तू भी अपनी पवित्रताके लिये शास्त्रोक्त नियमोंका आचरण कर चान्द्रायण, कृच्छ्र, तप्तकृच्छ्र, प्राजापत्य तथा दिव्य व्रतोंका बारम्बार अनुष्ठान कर ये व्रत समस्त दोषोंका तत्काल शोषण कर लेते हैं। तू पवित्र तीर्थोंमें जा और वहाँ भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना कर। ऐसाकरनेसे तेरे सारे पाप शीघ्र ही नष्ट हो जायेंगे। पुण्यतीचों और भगवान श्रीगोविन्दके प्रभावसे पापका क्षय होगा और तू ब्रह्मत्वको प्राप्त होगा। तात! इस विषयमें हम तुझे एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं। पूर्वकालमें विनतानन्दन गरुड़ जब अंडा फोड़कर बाहर निकले, तब नवजात शिशुकी अवस्थामें ही उन्हें आहार ग्रहण करने की इच्छा हुई। वे भूखसे व्याकुल होकर मासे बोले-'माँ! मुझे कुछ खानेको दो।'
पर्वतके समान शरीरवाले महाबली गरुड़को देखकर परम सौभाग्यवती माता विनताके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। वे अपने पुत्रसे बोली-'बेटा! मुझमें तेरी भूख मिटानेकी शक्ति नहीं है। तेरे पिता धर्मात्मा कश्यप साक्षात् ब्रह्माजीके समान तेजस्वी हैं। वे सोन नदीके उत्तर तटपर तपस्या करते हैं। वहीं जा और अपने पितासे इच्छानुसार भोजनके विषयमें परामर्श कर।
तात उनके उपदेशसे तेरी भूख शान्त हो जायगी।' ऋषि कहते हैं-माताकी बात सुनकर मनके समान वेगवाले महाबली गरुड़ एक ही मुहूर्तमें पिताके समीप जा पहुँचे वहाँ प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी अपने पिता मुनिवर कश्यपजीको देखकर उन्हें मस्तक झुका प्रणाम किया और इस प्रकार कहा 'प्रभो! मैं आपका पुत्र हूँ और आहारकी इच्छासे आपके पास आया हूँ। भूख बहुत सता रही है, कृपा करके मुझे कुछ भोजन दीजिये।'
कश्यपजीने कहा- वत्स! उधर समुद्रके किनारे विशाल हाथी और कछुआ रहते हैं। वे दोनों बहुत बड़े जीव है। उनमें अपार बल है। वे एक-दूसरेको मारने की घालमें लगे हुए हैं। तू शीघ्र ही उनके पास जा, उनसे तेरी भूख मिट सकती है।
पकी बात सुनकर महान् वेगशाली और विशाल | आकारवाले गरुड़ उड़कर वहाँ गये तथा उन दोनोंको नखोंसे विदीर्ण करके चोंच और पंजोंमें लेकर विद्युत्के समान वेगसे आकाशमें उड़ चले। उस समय मन्दराचल आदि पर्वत उन्हें धारण नहीं कर पाते थे। तब वे वायुवेगसे दो लाख योजन आगे जाकर एक जामुनकेवृक्षको बहुत बड़ी शाखापर बैठे। उनके पंजा रखते ही वह शाखा सहसा टूट पड़ी। उसे गिरते देख महाबली पक्षिराज गरुड़ने गौ और ब्राह्मणोंके वधके भवसे तुरंत पकड़ लिया और फिर बड़े वेगसे आकाशमें उड़ने लगे। उन्हें बहुत देरसे आकाशमें मँडराते देख भगवान् श्रीविष्णु मनुष्यका रूप धारण कर उनके पास जा इस प्रकार बोले-'पक्षिराज! तुम कौन हो और किसलिये। यह विशाल शाखा तथा ये महान् हाथी एवं कछुआ लिये आकाशमें घूम रहे हो ?' उनके इस प्रकार पूछने पर पक्षिराजने नररूपधारी श्रीनारायणसे कहा 'महाबाहो ! मैं गरुड़ हूँ। अपने कर्मके अनुसार मुझे पक्षी होना पड़ा है। मैं कश्यप मुनिका पुत्र हूँ और माता विनताके गर्भ से मेरा जन्म हुआ है देखिये इन बड़े बड़े जीवोंको मैंने खानेके लिये पकड़ रखा है। वृक्ष और पर्वत- कोई भी मुझे धारण नहीं कर पाते। अनेकों योजन उड़नेके बाद मैं एक विशाल जामुनका वृक्ष देखकर इन दोनोंको खानेके लिये उसकी खापर बैठा था किन्तु मेरे बैठते ही यह भी सहसा टूट गयी, अतः सहस्रों ब्राह्मणों और गौओंके यथके डरसे इसे भी लिये डोलता हूँ अब मेरे मनमें बड़ा विषाद हो रहा है कि क्या करूँ कहाँ जाऊँ और कौन मेरा वेग सहन करेगा।'
श्रीविष्णु बोले- अच्छा, मेरी बाँहपर बैठकर तुम इन दोनों— हाथी और कछुएको खाओ।
गरुड़ने कहा- बड़े-बड़े पर्वत भी मुझे धारण करनेमें असमर्थ हो रहे हैं; फिर तुम मुझ जैसे महाबली पक्षीको कैसे धारण कर सकोगे? भगवान् श्रीनारायणके सिवा दूसरा कौन है, जो मुझे धारण कर सके। तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो मेरा भार सह लेगा। श्रीविष्णु बोले- पक्षिश्रेष्ठ! बुद्धिमान् पुरुषको अपना कार्य सिद्ध करना चाहिये, अतः इस समय तुम अपना काम करो। कार्य हो जानेपर निश्चय ही मुझे जान लोगे।
गरुड़ने उन्हें महान् शक्तिसम्पन्न देख मन-ही-मन कुछ विचार किया, फिर 'एवमस्तु' कहकर वे उनकी विशाल भुजापर बैठे। गरुड़के वेगपूर्वक बैठनेपर भीउनको भुजा काँपी नहीं। वहाँ बैठकर गरुड़ने उस शाखाको तो पर्वतके शिखरपर डाल दिया और हाथी तथा कछुएको भक्षण किया। तत्पश्चात् वे श्रीविष्णुसे बोले- 'तुम कौन हो ? इस समय तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?'
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- मुझे नारायण समझो, मैं तुम्हारा प्रिय करनेके लिये यहाँ आया हूँ।
यह कहकर भगवान्ने उन्हें विश्वास दिलानेके लिये अपना रूप दिखाया। मेघके समान श्याम विग्रहपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। चार भुजाओंके कारण उनकी झाँकी बड़ी मनोरम जान पड़ती थी। हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये सर्वदेवेश्वर श्रीहरिका दर्शन करके गरुड़ने उन्हें प्रणाम किया और कहा - 'पुरुषोत्तम! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?'
श्रीविष्णु बोले- सखे! तुम बड़े शूरवीर हो, अतः हर समय मेरा वाहन बने रहो। यह सुनकर पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुड़ने भगवान्से कहा-'देवेश्वर! आपका दर्शन करके मैं धन्य हुआ,मेरा जन्म सफल हो गया। प्रभो! मैं पिता-मातासे आज्ञा लेकर आपके पास आऊंगा।' तब भगवान्ने प्रसन्न होकर कहा - 'पक्षिराज! तुम अजर-अमर बने रहो, किसी भी प्राणीसे तुम्हारा वध न हो। तुम्हारा कर्म और तेज मेरे समान हो। सर्वत्र तुम्हारी गति हो। निश्चय ही तुम्हें सब प्रकारके सुख प्राप्त हो तुम्हारे मनमें जो जो इच्छा हो, सब पूर्ण हो जाय। तुम्हें अपनी रुचिके अनुकूल यथेष्ट आहार बिना किसी कष्टके प्राप्त होता रहेगा। तुम शीघ्र ही अपनी माताको कष्टसे मुक्त करोगे।' ऐसा कहकर भगवान् श्रीविष्णु तत्काल अन्तर्धान हो गये। गरुड़ने भी अपने पिताके पास जाकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
गरुड़का वृत्तान्त सुनकर उनके पिता महर्षि कश्यप मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और अपने पुत्रसे इस प्रकार बोले- 'खगश्रेष्ठ! मैं धन्य हूँ, तुम्हारी कल्याणमयी माता भी धन्य है। माताकी कोख तथा यह कुल, जिसमें तुम्हारे जैसा पुत्र उत्पन्न हुआ-सभी धन्य हैं। जिसके कुलमें वैष्णव पुत्र उत्पन्न होता है; वह धन्य है, वह वैष्णव पुत्र पुरुषोंमें श्रेष्ठ है तथा अपने कुलका उद्धार करके श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त करता है। जो प्रतिदिन श्रीविष्णुकी पूजा करता, श्रीविष्णुका ध्यान करता, उन्हींके यशको गाता, सदा उन्होंके मन्त्रको जपता, श्रीविष्णुके ही स्तोत्रका पाठ करता, उनका प्रसाद पाता और एकादशीके दिन उपवास करता है, वह सब पापका क्षय हो जानेसे निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। जिसके हृदयमें सदा ही श्रीगोविन्द विराजते हैं, वह नरश्रेष्ठ विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जलमें, पवित्र स्थानमें, उत्तम पथपर, गौमें, ब्राह्मणमें, स्वर्गमें, ब्रह्माजीके भवनमें तथा पवित्र पुरुषके घरमें सदा ही भगवान् श्रीविष्णु विराजमान रहते हैं। इन सब स्थानोंमें जो भगवान्का जप और चिन्तन करता है, वह अपने पुण्यके द्वारा पुरुषोंमें श्रेष्ठ होता है और सब पापका क्षय हो जानेसे भगवान् श्रीविष्णुका किंकर होता है जो विष्णुका सारूप्य प्राप्त कर ले, वही मानव संसारमें धन्य है। बड़े-बड़े देवता जिनकी पूजा करते हैं, जो इसजगत्के स्वामी, नित्य, अच्युत और अविनाशी हैं, वे भगवान् श्रीविष्णु जिसके ऊपर प्रसन्न हो जाय, वही पुरुषोंमें श्रेष्ठ है। नाना प्रकारको तपस्या तथा भौति भौतिके धर्म और यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी देवतालोग भगवान् श्रीविष्णुको नहीं पाते; किन्तु तुमने उन्हें प्राप्त कर लिया। [ अतः तुम धन्य हो।] तुम्हारी माता सौतके द्वारा घोर संकटमें डाली गयी है, उसे छुड़ाओ। माताके दुःखका प्रतीकार करके देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुके पास जाना।'
इस प्रकार श्रीविष्णुसे महान् वरदान पा और पिताकी आज्ञा लेकर गरुड़ अपनी माताके पास गये और हर्षपूर्वक उन्हें प्रणाम करके सामने खड़े हो उन्होंने पूछा—'माँ! बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? कार्य करके मैं भगवान् विष्णुके पास जाऊँगा।' यह सुनकर सती विनताने गरुड़से कहा- 'बेटा! मुझपर महान् दुःख आ पड़ा है, तुम उसका निवारण करो। बहिन कद्रू मेरी सौत है। पूर्वकालमें उसने मुझे एक बातमें अन्यायपूर्वक हराकर दासी बना लिया। अब मैं उसकी दासी हो चुकी हूँ। तुम्हारे सिवा कौन मुझे इस दुःखसे छुटकारा दिलायेगा। कुलनन्दन ! जिस समय मैं उसे मुँहमाँगी वस्तु दे दूँगी, उसी समय दासीभावसे मेरी मुक्ति हो सकती है।'
गरुड़ने कहा- माँ ! शीघ्र ही उसके पास जाकर पूछो, वह क्या चाहती है? मैं तुम्हारे कष्टका निवारण करूँगा। तब दुःखिनी विनताने कद्रूसे कहा- 'कल्याणी! तुम अपनी अभीष्ट वस्तु बताओ, जिसे देकर मैं इस कष्टसे छुटकारा पा सकूँ।' यह सुनकर उस दुष्टाने कहा- 'मुझे अमृत ला दो।' उसकी बात सुनकर विनता धीरे-धीरे लौटी और बेटेसे दुःखी होकर बोली- 'तात! वह तो अमृत माँग रही है, अब तुम क्या करोगे ?'
गरुड़ने कहा—'माँ! तुम उदास न हो, मैं अमृत ले आऊँगा।' यों कहकर मनके समान वेगवान पक्षी गरुड़ सागरसे जल ले आकाशमार्गसे चले। उनके पंखोंकी हवासे बहुत-सी धूल भी उनके साथ-साथउड़ती गयी। वह धूलराशि उनका साथ न छोड़ सकी। गन्तव्य स्थानपर पहुँचकर गरुड़ने अपनी चोंचमें रखे हुए जलसे वहाँके अग्निमय प्राकार (परकोटे)-को बुझा दिया तथा अमृतकी रक्षाके लिये जो देवता नियुक्त थे, उनकी आँखोंमें पूर्वोक्त धूल भर गयी, जिससे वे गरुड़जीको देख नहीं पाते थे। बलवान् गरुड़ने रक्षकोंको मार गिराया और अमृत लेकर वे वहाँसे चल दिये। पक्षीको अमृत लेकर आते देख ऐरावतपर चढ़े हुए इन्द्रने कहा- 'अहो ! पक्षीका रूप धारण करनेवाले तुम कौन हो, जो बलपूर्वक अमृतको लिये जाते हो ? सम्पूर्ण देवताओंका अप्रिय करके यहाँसे जीवित कैसे जा सकते हो।'
गरुड़ने कहा- देवराज! मैं तुम्हारा अमृत लिये जाता हूँ, तुम अपना पराक्रम दिखाओ। यह सुनकर महाबाहु इन्द्रने गरुड़पर तीखे बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी, मानो मेरुगिरिके शिखरपर मेघ जलकी धाराएँ बरसा रहा हो। गरुड़ने अपने वज्रके समान तीखे नखोंसे ऐरावत हाथीको विदीर्ण कर डाला तथा मातलिसहित रथ और चक्कोंको हानि पहुँचाकर अग्रगामी देवताओंको भी घायल कर दिया। तब इन्द्रने कुपित होकर उनके ऊपर वज्रका प्रहार किया । वज्रकी चोट खाकर भी महापक्षी गरुड़ विचलित नहीं हुए। वे बड़े वेग से भूतलकी ओर चले। तब इन्द्रने सब देवताओंके आगे स्थित होकर कहा- 'निष्पाप गरुड़! यदि तुम नागमाताको इस समय अमृत दे दोगे तो सारे साँप अमर हो जायँगे; अतः यदि तुम्हारी सम्मति हो तो मैं इस अमृतको वहाँसे हर लाऊँगा ।'
गरुड़ बोले- मेरी साध्वी माता विनता दासीभावके कारण बहुत दुःखी है। जिस समय वह दासीपनसे मुक्त हो जाय और सब लोग इस बातको जानलें, उस समय तुम अमृतको हर ले आना।
यों कहकर महाबली गरुड़ माताके पास जा इस प्रकार बोले-'माँ मैं अमृत ले आया हूँ, इसे नागमाताको दे दो।' अमृतसहित पुत्रको आया देख विनताका हृदय हर्षसे खिल उठा। उसने कटुको बुलाकर अमृत दे दिया और स्वयं दासीभावसे मुक्त हो गयी। इसी बीचमें इन्द्रने सहसा पहुँचकर अमृतका घड़ा चुरा लिया और वहाँ विषका पात्र रख दिया। उन्हें ऐसा करते कोई देख न सका। कद्रूका मन बहुत प्रसन्न था। उसने पुत्रोंको वेगपूर्वक बुलाया और उनके मुखमें अमृत जैसा दिखायी देनेवाला विष दे दिया। नागमाताने पुत्रोंसे कहा- तुम्हारे कुलमें होनेवाले सभी सर्पोंके मुखमें ये अमृत की बूँदें नित्य निरन्तर उत्पन्न होती रहें तथा तुमलोग इनसे सदा सन्तुष्ट रहो। इसके बाद गरुड़ अपने पिता-मातासे वार्तालाप करके देवताओंकी पूजा कर अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुके पास चले गये। जो गरुड़के इस उत्तम चरित्रका पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर देवलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
ब्रह्माजी कहते हैं ऋषियोंके मुखसे यह उपदेश और गरुड़का प्रसंग सुनकर वह पतित ब्राह्मण नाना प्रकारके पुण्य कर्मोंका अनुष्ठान करके पुनः ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुआ और तीव्र तपस्या करके स्वर्गलोकमें चला गया। सदाचारी मनुष्यका पाप प्रतिदिन क्षीण होता है और दुराचारीका पुण्य सदा नष्ट होता रहता है। अनाचारसे पतित हुआ ब्राह्मण भी यदि फिर सदाचारका सेवन करे तो वह देवत्वको प्राप्त होता है। अतः द्विज प्राणोंके कण्ठगत होनेपर भी सदाचारका त्याग नहीं करते। नारद! तुम भी मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा सदाचारका पालन करो।