महादेवजी कहते हैं- पार्वती! भगवान् श्रीकृष्णके रुक्मिणीके गर्भसे प्रद्युम्न उत्पन्न हुए, जो कामदेवके अंशसे प्रकट हुए थे। वे बड़े बलवान् थे। उन्होंने शम्बरासुरका वध किया था। उनके रुक्मीकी पुत्रीके गर्भसे अनिरुद्धका जन्म हुआ। अनिरुद्धने भी बाणासुरकी कन्या ऊषाके साथ विवाह किया। उस विवाहकी कथा इस प्रकार है-एक दिन ऊषाने स्वप्नमें एक नील कमलदलके समान श्यामसुन्दर तरुण पुरुषको देखा। ऊषाने स्वप्न में ही उस पुरुषके साथ प्रेमालाप किया और जागनेपर उसे सामने न देख वह पागल सी हो उठी तथा यह कहती हुई कि 'तुम मुझे अकेली छोड़ कहाँ चले गये ?' वह भाँति-भाँति से विलाप करने लगी। ऊषाकी एक चित्रलेखा नामकी सखी थी। उसने उसकी ऐसी अवस्था देखकर पूछा—'सखी! क्या कारण है कि तुम्हारा मन विक्षिप्त सा हो रहा है?" ऊषाने स्वप्नमें मिले हुए पतिके विषयकी सारी बातें सच सच बता दीं।
चित्रलेखाने सम्पूर्ण देवताओं और श्रेष्ठ मनुष्योंके चित्र वस्त्रपर अंकित करके ऊषाको दिखलाये। यदुकुलमें जो श्रीकृष्ण बलभद्र, प्रद्युम्न और असिद्ध आदि सुन्दर पुरुष थे, उनके चित्र भी उसने ऊषाके सामने प्रस्तुत किये। ऊषाने उनमेंसे श्रीकृष्णको उससे मिलता-जुलता पाया। अतः उन्हींकी परम्परामें उनके होनेका अनुमान करके उसने उधर ही दृष्टिपात किया। श्रीकृष्णके बाद प्रद्युम्न और प्रद्युम्नके बाद अनिरुद्धको देखकर वह सहसा बोल उठी-'यही है, यही है' ऐसा कहकर उसने अनिरुद्ध के चित्रको हृदयसे लगा लिया तब चित्रलेखा दैत्योंकी बहुत-सी मायाविनीस्त्रियोंको साथ ले द्वारकामें गयी और रातके समय अन्तःपुरमें सोये हुए अनिरुद्धको मायासे मोहित करके बाणासुरके महलमें लाकर ऊषाकी शय्यापर सुला दिया। जागनेपर अनिरुद्धने अपनेको अत्यन्त रमणीय और स्वच्छ पलंगपर सोया हुआ पाया। पास ही समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न विचित्र आभूषण, वस्त्र, गन्ध और माला आदिसे अलंकृत तथा सुवर्णके समान रंग और सुन्दर केशोंवाली ऊषा बैठी हुई थी। तदनन्तर ऊषाकी प्रसन्नतासे अनिरुद्ध उसके साथ रहने लगे।
इस प्रकार लगातार एक मासतक अनिरुद्ध ऊषाके साथ महलमें रहे। एक दिन अन्तः पुरमें रहनेवाली कुछ बूढ़ी स्त्रियोंने उन्हें देख लिया और राजा बाणासुरको इसकी सूचना दे दी। यह समाचार सुनते ही राजाकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। उसने अत्यन्त विस्मित होकर अपने सेवकोंको भेजा और यह आदेश दिया कि 'उसे यहीं पकड़ लाओ।' सेवक राजाके महलपर चढ़ गये और राजकुमारीके शयनागारमें सोये हुए अनिरुद्धको पकड़नेके लिये आगे बढ़े। अपनेको पकड़नेके लिये आते देख अनिरुद्धने खिलवाड़में ही महलका एक खम्भा उखाड़ लिया और उसीसे मार-मारकर दो ही घड़ीमें उन सबका कचूमर निकाल डाला। अपने सेवकोंको मारा गया देख दैत्यराज बाणासुरको अनिरुद्ध के विषयमें बड़ा कौतूहल हुआ। इतनेमें ही देवर्षि नारदने आकर बताया कि ये श्रीकृष्णके पौत्र अनिरुद्ध हैं। यह सुनकर धनुष ले वह स्वयं ही अनिरुद्धको पकड़नेके लिये उनके समीप आया। हजार भुजाओंसे युक्त दैत्यराजको युद्धके लिये आते देख अनिरुद्धने भी एकपरिघ घुमाकर बाणासुरके ऊपर फेंका; किन्तु उसने बाण मारकर उस परिघको काट दिया। तत्पश्चात् सर्पास्त्रसे अनिरुद्धको अच्छी तरह बाँधकर दैत्यराजने उन्हें अन्तःपुरमें ही कैद कर लिया।
इधर देवर्षि नारदके मुखसे यह सारा समाचार ज्यों-का-त्यों जानकर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलदेवजी, प्रद्युम्न तथा अपनी सेनाके साथ पक्षिराज गरुड़पर आरूढ़ हो बाणासुरके बाहुबलका उच्छेद करनेके लिये आ पहुँचे। पूर्वकालमें बलिपुत्र बाणासुरने भगवान् शंकरकी आराधना की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान् शंकरने उसे वर माँगने को कहा। तब उसने महेश्वरसे यही वर माँगा था कि 'आप मेरे नगर द्वारपर सदा रक्षाके लिये मौजूद रहें और जो शत्रुओंकी सेना आवे, उसका संहार करें।' 'तथास्तु' कहकर भगवान् शंकरने उसकी प्रार्थना स्वीकार की तथा वे अपने पुत्र और पार्षदोंके साथ अस्त्र-शस्त्र लिये उसके नगर द्वारपर सदा विराजमान रहने लगे। उस समय जब भगवान् श्रीकृष्ण यादवोंकी बहुत बड़ी सेनाको साथ लेकर वहाँ आये तो उन्हें देखकर भगवान् शंकर भी वृषभपर आरूढ़ हो सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये अपने पुत्र और पार्षदोंसहित युद्धके लिये निकले। वे हाथीका चमड़ा पहने, कपाल धारण किये, सब अंगोंमें विभूति रमाये और प्रज्वलित सर्पोका आभूषण पहने शोभा पा रहे थे। उनका श्रीअंग पिंगल वर्णका था। उनके तीन नेत्र थे। वे अपने हाथमें लिये हुए थे। उन्होंने सम्पूर्ण भूतगणोंका संगठन कर रखा था। वे समस्त प्राणियोंके लिये भयदायक प्रतीत होते थे। उनका तेज प्रलयकालीन अग्निके समान जान पड़ता था। वे अपने दोनों पुत्रों और समस्त पार्षदोंके साथ उपस्थित थे। त्रिपुरका नाश करनेवाले उन भगवान् भूतनाथको सामना करनेके लिये आया देख भगवान् श्रीकृष्णने सेनाको तो बहुत दूर पीछे ही ठहरा दिया और स्वयं बलभद्र एवं प्रद्युम्नसहित निकट आकर वे हँसते-हँसते भगवान् शंकरजीके साथ युद्ध करने लगे। उन दोनों पोर युद्ध हुआ पिनाक और शार्ङ्गधनुषसे छूटे हुए बाण प्रलयाग्निके समान भयंकर जान पड़ते थे। बलरामजी गणेशजीके साथ और प्रद्युम्न कार्तिकेयजीके साथ भिड़ गये। दोनों पक्षोंके योद्धा महान् पराक्रमी औरसिंहके समान उत्कट बलवाले थे। गणेशजीने अपने दौतसे बलरामजीकी छाती प्रहार किया, तब बलरामजीने मूसल उठाकर उनके दाँतपर दे मारा। मूसलकी मार पढ़ते ही गणेशजीका दाँत टूट गया और वे चूहेपर चढ़कर रणभूमिसे भाग खड़े हुए तभी से टूटे हुए दाँतवाले गणेशजी इस लोकमें तथा देवता, दानव और गन्धर्वोके यहाँ 'एकदन्त' के नामसे प्रसिद्ध हुए । कार्तिकेयजी प्रद्युम्नके साथ युद्ध कर रहे थे। हल धारण करनेवाले बलरामजीने मूसलकी मारसे शिवगणको युद्धभूमिसे भगा दिया।
भगवान् शिव श्रीकृष्णसे बहुत देरतक युद्ध करते रहे। इसके बाद उन्होंने क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके अपने वाणपर अत्यन्त प्रज्वलित तापज्वरका आधान किया और उसे भगवान् श्रीकृष्णपर छोड़ दिया; किन्तु श्रीकृष्ण शीतज्वरसे उस अस्त्रका निवारण कर दिया। इस प्रकार श्रीहरि और हरके छोड़े हुए वे दोनों ज्वर उन्हींकी आज्ञासे मनुष्यलोकमें चले गये जो मानव श्रीहरि और शंकरके युद्धका वृत्तान्त सुनते हैं, वे ज्वरसे मुक्त होकर नीरोग हो जाते हैं।
इसके बाद दैत्यराज बाणासुर रथपर सवार हो भगवान् श्रीकृष्णके साथ युद्ध करनेके लिये आया; किन्तु भगवान्ने अपने चक्रसे उसकी भुजाएँ काट डालीं। यह देख भगवान् शंकरने कहा- 'प्रभो! यह बाणासुर राजा बलिका पुत्र है। मैंने इसे अमरत्वका वरदान दिया है। यदुश्रेष्ठ! आप मेरे उस वरदानकी रक्षा करें और इस बलिकुमारके अपराधोंको क्षमा कर दें।' 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् श्रीकृष्णने अपने चक्रको समेट लिया और प्राणोंके संकटमें पढ़े हुए बाणासुरको छोड़ दिया। उसको छुड़ाकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले भगवान् शंकर वृषभपर सवार हो कैलासपर चले गये। फिर बाणासुरने महाबली बलराम और श्रीकृष्णको नमस्कार किया और उन दोनोंके साथ नगरमें जाकर अनिरुद्धको बन्धनसे मुक्त कर दिया। तत्पश्चात् उसने दिव्य वस्त्राभूषणोंसे पूजा करके कृष्णपौत्र अनिरुद्धको अपनी कन्या ऊषाका दान कर दिया। अनिरुद्धका विधिपूर्वक विवाह हो जानेके पश्चात् बाणासुरने प्रद्युम्नसहित बलराम और श्रीकृष्णका भी पूजन किया। फिर भगवान् जनार्दनऊषा और अनिरुद्धको एक दिव्य रथपर बिठाकर द्वारकाकी ओर प्रस्थित हुए। बलराम, प्रद्युम्न और सेनाके साथ श्रीहरिने अपनी रमणीय पुरीमें प्रवेश किया।वहाँ अनिरुद्ध अनेक रत्नोंद्वारा निर्मित मनोहर भवनमें बाणपुत्री ऊषाके साथ भाँति-भाँतिके भोगोंका उपभोग करते हुए निरन्तर प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे।