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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 153 - Khand 5, Adhyaya 153

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अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा

नारदजीने पूछा – भगवन्! गुणोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको देनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य इस लोकमें किन किन वस्तुओंका दान करे? यह सब बताइये।

महादेवजी बोले- देवर्षिप्रवर! सुनो-लोकमें तत्त्वको जानकर सज्जन पुरुष अन्नदानकी ही प्रशंसा करते हैं; क्योंकि सब कुछ अन्नमें ही प्रतिष्ठित हैं। अतएव साधु महात्मा विशेषरूपसे अन्नका ही दान करना चाहते हैं। अन्नके समान कोई दान न हुआ है न होगा। यह चराचर जगत् अन्नके ही | आधारपर टिका हुआ है। लोकमें अन्न ही बलवर्धक है। अन्नमें ही प्राणोंकी स्थिति है। कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उचित है कि वह अपने कुटुम्बको कष्ट देकर भी अन्नकी भिक्षा माँगनेवाले महात्मा ब्राह्मणको अवश्य दान दे। नारद! जो याचना करनेवाले पीड़ित ब्राह्मणको अन्न दे, वही विद्वानोंमें श्रेष्ठ है। यह दान आत्माके पारलौकिक सुखका साधन है। रास्तेका थका-माँदा गृहस्थ ब्राह्मण यदि भोजनके समय घरपर आकर उपस्थित हो जाय तो कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको अवश्य उसे अन्न देना चाहिये। अन्नदाता इहलोक और परलोकमें भी सुख उठाता है। थके-माँदे अपरिचित राहगीरको जो बिना क्लेशके अन्न देता है, वह सब धर्मोंका फल प्राप्त करता है। अतिथिकी न तो निन्दा करे और न उससे द्रोह ही रखे। उसे अन्न अर्पण करे। उस दानकी विशेष प्रशंसा है। महामुने! जो मनुष्य अन्नसे देवताओं, पितरों,ब्राह्मणों तथा अतिथियोंको तृप्त करता है, उसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। महान् पाप करके भी जो याचकको - विशेषतः ब्राह्मणको अन्न-दान करता है, वह पापसे मुक्त हो जाता है। ब्राह्मणको दिया हुआ दान अक्षय होता है। शूद्रको भी किया हुआ अन्न-दान महान् फल देनेवाला है। अन्न-दान करते समय याचकसे यह न पूछे कि वह किस गोत्र और किस शाखाका है तथा उसने कितना अध्ययन किया है? अन्नका अभिलाषी कोई भी क्यों न हो, उसे दिया हुआ अन्न-दान महान् फल देनेवाला होता है। अतः मनुष्योंको इस पृथ्वीपर विशेषरूपसे अन्नका दान करना चाहिये।

जलका दान भी श्रेष्ठ है; वह सदा सब दानोंमें उत्तम है। इसलिये बावली, कुआँ और पोखरा बनवाना चाहिये। जिसके खोदे हुए जलाशयमें गौ, ब्राह्मण और साधु पुरुष सदा पानी पीते हैं, वह अपने कुलको तार देता है। नारद! जिसके पोखरेमें गर्मी के समयतक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकटका सामना नहीं करता। पोखरा बनवानेवाला पुरुष तीनों लोकोंमें सर्वत्र सम्मानित होता है। मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ और कामका यही फल बतलाते हैं कि देशमें खेतके भीतर उत्तम पोखरा बनवाया जाय, जो प्राणियोंके लिये महान् आश्रय हो। देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणी भी जलाशयका आश्रय लेते हैं। जिसके पोखरेमें केवल वर्षा ऋतु ही जल रहता है, उसे अग्निहोत्रका फल मिलता है। जिसके तालाब में हेमन्त और शिशिर कालतक जल ठहरता है, उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। यदि वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतुतक पानी रुकता हो तो मनीषी पुरुष अतिरात्र और अश्वमेध यज्ञोंका फल बतलाते हैं।अब वृक्ष लगानेके जो लाभ हैं, उनका वर्णन सुनो। महामुने। वृक्ष लगानेवाला पुरुष अपने भूतकालीन पितों तथा होनेवाले वंशजोंका भी उद्धार कर देता है। इसलिये वृक्षको अवश्य लगाना चाहिये। वह पुरुष परलोकमें जानेपर वहाँ अक्षय लोकोंको प्राप्त करता है। वृक्ष अपने फूलोंसे देवताओंका पत्तोंसे पितरोंका तथा छायासे समस्त अतिथियोंका पूजन करते हैं। किन्नर, यक्ष, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मानव तथा ऋषि भी वृक्षोंका आश्रय लेते हैं। वृक्ष फूल और फलोंसे युक्त होकर इस लोकमें मनुष्योंको तृप्त करते हैं। वे इस लोक और परलोकमें भी धर्मतः पुत्र माने गये हैं। जो पोखरेके किनारे वृक्ष लगाते, यज्ञानुष्ठान करते तथा जो सदा सत्य बोलते हैं, वे कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होते।

सत्य ही परम मोक्ष है, सत्य ही उत्तम शास्त्र है, सत्य देवताओंमें जाग्रत् रहता है तथा सत्य परम पद है तप, यज्ञ, पुण्यकर्म, देवर्षि-पूजन, आद्यविधि और विद्या- ये सभी सत्यमें प्रतिष्ठित हैं। सत्य ही यज्ञ दान, मन्त्र और सरस्वती देवी हैं: सत्य ही व्रतचर्या है तथा सत्य ही ॐकार है। सत्यसे ही वायु चलती है, सत्यसे ही सूर्य तपता है, सत्यके प्रभावसे ही आग जलती है तथा सत्यसे ही स्वर्ग टिका हुआ है। लोकमें जो सत्य बोलता है, वह सब देवताओंके पूजन तथा सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करनेका फल निस्संदेह प्राप्त कर लेता है। एक हजार अश्वमेध यज्ञका पुण्य और सत्य- इन दोनोंको यदि तराजूपर रखकर तौला जाय तो सम्पूर्ण यज्ञोंको अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होगा। देवता, पितर और ऋषि सत्यमें ही विश्वास करते हैं। सत्यको ही परम धर्म और सत्यको ही परम पद कहते हैं। सत्यकोपरब्रह्मका स्वरूप बताया गया है; इसलिये मैं तुम्हें सत्यका उपदेश करता हूँ। सत्यपरायण मुनि अत्यन्त दुष्कर तपस्या करके सत्यधर्मका पालन करते हुए इस लोकसे स्वर्गको प्राप्त हुए हैं सदा सत्य ही बोलना चाहिये, सत्यसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। सत्यरूपी तीर्थ अगाध, विस्तृत एवं पवित्र हृद (कुण्ड) से युक्त है; योगयुक्त पुरुषोंको उसमें मनसे स्नान करना चाहिये। यही स्नान उत्तम माना गया है। जो मनुष्य अपने पराये अथवा पुत्रके लिये भी असत्य भाषण नहीं करते, वे स्वर्गगामी होते हैं ब्राह्मणोंमें वेद, यज्ञ तथा मन्त्र नित्य निवास करते हैं; किन्तु जो ब्राह्मण सत्यका परित्याग कर देते हैं, उनमें वेद आदि शोभा नहीं देते; अतः सत्य भाषण करना चाहिये।

नारदजीने कहा- भगवन्! अब मुझे विशेषतःतपस्याका फल बताइये, क्योंकि प्रायः सभी वर्णोंका तथा मुख्यतः ब्राह्मणोंका तपस्या ही बल है।

महादेवजी बोले- नारद! तपस्याको श्रेष्ठ बताया गया है। तपसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है जो सदा तपस्या में संलग्न रहते हैं, वे सदा देवताओंके साथ आनन्द भोगते हैं। तपसे मनुष्य मोक्ष पा लेता है, तपसे 'महत्' पदकी प्राप्ति होती है। मनुष्य अपने मनसे ज्ञान-विज्ञानका खजाना, सौभाग्य और रूप आदि जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब उसे तपस्यासे मिल जाती है। जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे कभी ब्रह्मलोकमें नहीं जाते। पुरुष जिस किसी कार्यका उद्देश्य लेकर तप करता है, वह सब इस लोक और परलोकमें उसे प्राप्त हो जाता है। शराबी, परस्त्रीगामी, ब्रह्महत्यारा तथा गुरुपत्नीगामी - जैसा पापी भी तपस्याके बलसे सबसे पार हो जाता है-सब पापोंसे छुटकारा पा लेता है। तपस्याके प्रभावसे छियासी हजार ऊर्ध्वरेतामुनि स्वर्गमें रहकर देवताओंके साथ आनन्द भोग रहे हैं। तपस्यासे राज्य प्राप्त होता है। इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवता और असुरोंने तपस्यासे ही सदा सबका पालन किया है। तपस्यासे ही वे वृत्तिदाता हुए हैं। सम्पूर्ण लोकोंके हितमें लगे रहनेवाले दोनों देवता सूर्य और चन्द्रमा तपसे ही प्रकाशित होते हैं। नक्षत्र और ग्रह भी तपस्यासे ही कान्तिमान् हुए हैं। तपस्यासे मनुष्य सब कुछ पा लेता है, सब सुखोंका अनुभव करता है। मुने! जो जंगलमें फल-मूल खाकर तपस्या करता है तथा जो पहले केवल वेदका अध्ययन ही करता है - वे दोनों समान हैं। वह अध्ययन तपस्याके ही तुल्य है। श्रेष्ठ द्विज वेद पढ़ानेसे जो पुण्य प्राप्त करता है, स्वाध्याय और जपसे इसकी अपेक्षा दूना फल पा जाता है। जो सदा तपस्या करते हुए शास्त्रके अभ्याससे ज्ञानोपार्जन करता है और लोकको उस ज्ञानका बोध कराता है, वह परम पूजनीय गुरु है। पुराणवेत्ता पुरुष दानका सबसे श्रेष्ठ पात्र है। वह पतनसे त्राण करता है, इसलिये पात्र कहलाता है। जो लोग सुपात्रको धन, धान्य, सुवर्ण तथा भाँति-भाँति के वस्त्र दान करते हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो श्रेष्ठ पात्रको गौ, भैंस, हाथी और सुन्दर-सुन्दर घोड़े दान करता है, वह सम्पूर्ण लोकोंमें अश्वमेधके अक्षय फलको प्राप्त होता है। जो सुपात्रको जोती- बोयी एवं फलसे भरी हुई सुन्दर भूमि दान करता है, वह अपने दस पीढ़ी पहलेके पूर्वजों और दस पीढ़ी बादतककी संतानोंको तार देता है तथा दिव्य विमानसे विष्णुलोकको जाता है। देवगण पुस्तक बाँचनेसे जितना संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें यज्ञोंसे, प्रोक्षण (अभिषेक) से तथा फूलोंद्वारा की हुई पूजाओंसे भी नहीं होता। जो भगवान् विष्णुके मन्दिरमें धर्म-ग्रन्थका पाठ कराता है तथा देवी, शिव, गणेश और सूर्यकेमन्दिरमें भी उसकी व्यवस्था करता है, वह मानव राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता है। इतिहास पुराणके ग्रन्थोंका बाँचना पुण्यदायक है। ऐसा करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है तथा अन्तमें सूर्यलोकका भेदन करके ब्रह्मलोकको चला जाता है। वहाँ सौ कल्पोंतक रहनेके पश्चात् इस पृथ्वीपर जन्म ले राजा होता है। एक हजार अश्वमेधयज्ञोंका जो फल बताया गया है, उसे वह मनुष्य भी प्राप्त कर लेता है, जो देवताके आगे महाभारतका पाठ करता है। अतः सब प्रकारका प्रयत्न करके भगवान् विष्णुके मन्दिरमें इतिहास - पुराणके ग्रन्थोंका पाठ करना चाहिये। वह शुभकारक होता है। विष्णु तथा अन्य देवताओंके लिये दूसरा कोई साधन इतना प्रीतिकारक नहीं है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार