नारदजीने पूछा – भगवन्! गुणोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको देनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य इस लोकमें किन किन वस्तुओंका दान करे? यह सब बताइये।
महादेवजी बोले- देवर्षिप्रवर! सुनो-लोकमें तत्त्वको जानकर सज्जन पुरुष अन्नदानकी ही प्रशंसा करते हैं; क्योंकि सब कुछ अन्नमें ही प्रतिष्ठित हैं। अतएव साधु महात्मा विशेषरूपसे अन्नका ही दान करना चाहते हैं। अन्नके समान कोई दान न हुआ है न होगा। यह चराचर जगत् अन्नके ही | आधारपर टिका हुआ है। लोकमें अन्न ही बलवर्धक है। अन्नमें ही प्राणोंकी स्थिति है। कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उचित है कि वह अपने कुटुम्बको कष्ट देकर भी अन्नकी भिक्षा माँगनेवाले महात्मा ब्राह्मणको अवश्य दान दे। नारद! जो याचना करनेवाले पीड़ित ब्राह्मणको अन्न दे, वही विद्वानोंमें श्रेष्ठ है। यह दान आत्माके पारलौकिक सुखका साधन है। रास्तेका थका-माँदा गृहस्थ ब्राह्मण यदि भोजनके समय घरपर आकर उपस्थित हो जाय तो कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको अवश्य उसे अन्न देना चाहिये। अन्नदाता इहलोक और परलोकमें भी सुख उठाता है। थके-माँदे अपरिचित राहगीरको जो बिना क्लेशके अन्न देता है, वह सब धर्मोंका फल प्राप्त करता है। अतिथिकी न तो निन्दा करे और न उससे द्रोह ही रखे। उसे अन्न अर्पण करे। उस दानकी विशेष प्रशंसा है। महामुने! जो मनुष्य अन्नसे देवताओं, पितरों,ब्राह्मणों तथा अतिथियोंको तृप्त करता है, उसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। महान् पाप करके भी जो याचकको - विशेषतः ब्राह्मणको अन्न-दान करता है, वह पापसे मुक्त हो जाता है। ब्राह्मणको दिया हुआ दान अक्षय होता है। शूद्रको भी किया हुआ अन्न-दान महान् फल देनेवाला है। अन्न-दान करते समय याचकसे यह न पूछे कि वह किस गोत्र और किस शाखाका है तथा उसने कितना अध्ययन किया है? अन्नका अभिलाषी कोई भी क्यों न हो, उसे दिया हुआ अन्न-दान महान् फल देनेवाला होता है। अतः मनुष्योंको इस पृथ्वीपर विशेषरूपसे अन्नका दान करना चाहिये।
जलका दान भी श्रेष्ठ है; वह सदा सब दानोंमें उत्तम है। इसलिये बावली, कुआँ और पोखरा बनवाना चाहिये। जिसके खोदे हुए जलाशयमें गौ, ब्राह्मण और साधु पुरुष सदा पानी पीते हैं, वह अपने कुलको तार देता है। नारद! जिसके पोखरेमें गर्मी के समयतक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकटका सामना नहीं करता। पोखरा बनवानेवाला पुरुष तीनों लोकोंमें सर्वत्र सम्मानित होता है। मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ और कामका यही फल बतलाते हैं कि देशमें खेतके भीतर उत्तम पोखरा बनवाया जाय, जो प्राणियोंके लिये महान् आश्रय हो। देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणी भी जलाशयका आश्रय लेते हैं। जिसके पोखरेमें केवल वर्षा ऋतु ही जल रहता है, उसे अग्निहोत्रका फल मिलता है। जिसके तालाब में हेमन्त और शिशिर कालतक जल ठहरता है, उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। यदि वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतुतक पानी रुकता हो तो मनीषी पुरुष अतिरात्र और अश्वमेध यज्ञोंका फल बतलाते हैं।अब वृक्ष लगानेके जो लाभ हैं, उनका वर्णन सुनो। महामुने। वृक्ष लगानेवाला पुरुष अपने भूतकालीन पितों तथा होनेवाले वंशजोंका भी उद्धार कर देता है। इसलिये वृक्षको अवश्य लगाना चाहिये। वह पुरुष परलोकमें जानेपर वहाँ अक्षय लोकोंको प्राप्त करता है। वृक्ष अपने फूलोंसे देवताओंका पत्तोंसे पितरोंका तथा छायासे समस्त अतिथियोंका पूजन करते हैं। किन्नर, यक्ष, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मानव तथा ऋषि भी वृक्षोंका आश्रय लेते हैं। वृक्ष फूल और फलोंसे युक्त होकर इस लोकमें मनुष्योंको तृप्त करते हैं। वे इस लोक और परलोकमें भी धर्मतः पुत्र माने गये हैं। जो पोखरेके किनारे वृक्ष लगाते, यज्ञानुष्ठान करते तथा जो सदा सत्य बोलते हैं, वे कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होते।
सत्य ही परम मोक्ष है, सत्य ही उत्तम शास्त्र है, सत्य देवताओंमें जाग्रत् रहता है तथा सत्य परम पद है तप, यज्ञ, पुण्यकर्म, देवर्षि-पूजन, आद्यविधि और विद्या- ये सभी सत्यमें प्रतिष्ठित हैं। सत्य ही यज्ञ दान, मन्त्र और सरस्वती देवी हैं: सत्य ही व्रतचर्या है तथा सत्य ही ॐकार है। सत्यसे ही वायु चलती है, सत्यसे ही सूर्य तपता है, सत्यके प्रभावसे ही आग जलती है तथा सत्यसे ही स्वर्ग टिका हुआ है। लोकमें जो सत्य बोलता है, वह सब देवताओंके पूजन तथा सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करनेका फल निस्संदेह प्राप्त कर लेता है। एक हजार अश्वमेध यज्ञका पुण्य और सत्य- इन दोनोंको यदि तराजूपर रखकर तौला जाय तो सम्पूर्ण यज्ञोंको अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होगा। देवता, पितर और ऋषि सत्यमें ही विश्वास करते हैं। सत्यको ही परम धर्म और सत्यको ही परम पद कहते हैं। सत्यकोपरब्रह्मका स्वरूप बताया गया है; इसलिये मैं तुम्हें सत्यका उपदेश करता हूँ। सत्यपरायण मुनि अत्यन्त दुष्कर तपस्या करके सत्यधर्मका पालन करते हुए इस लोकसे स्वर्गको प्राप्त हुए हैं सदा सत्य ही बोलना चाहिये, सत्यसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। सत्यरूपी तीर्थ अगाध, विस्तृत एवं पवित्र हृद (कुण्ड) से युक्त है; योगयुक्त पुरुषोंको उसमें मनसे स्नान करना चाहिये। यही स्नान उत्तम माना गया है। जो मनुष्य अपने पराये अथवा पुत्रके लिये भी असत्य भाषण नहीं करते, वे स्वर्गगामी होते हैं ब्राह्मणोंमें वेद, यज्ञ तथा मन्त्र नित्य निवास करते हैं; किन्तु जो ब्राह्मण सत्यका परित्याग कर देते हैं, उनमें वेद आदि शोभा नहीं देते; अतः सत्य भाषण करना चाहिये।
नारदजीने कहा- भगवन्! अब मुझे विशेषतःतपस्याका फल बताइये, क्योंकि प्रायः सभी वर्णोंका तथा मुख्यतः ब्राह्मणोंका तपस्या ही बल है।
महादेवजी बोले- नारद! तपस्याको श्रेष्ठ बताया गया है। तपसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है जो सदा तपस्या में संलग्न रहते हैं, वे सदा देवताओंके साथ आनन्द भोगते हैं। तपसे मनुष्य मोक्ष पा लेता है, तपसे 'महत्' पदकी प्राप्ति होती है। मनुष्य अपने मनसे ज्ञान-विज्ञानका खजाना, सौभाग्य और रूप आदि जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब उसे तपस्यासे मिल जाती है। जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे कभी ब्रह्मलोकमें नहीं जाते। पुरुष जिस किसी कार्यका उद्देश्य लेकर तप करता है, वह सब इस लोक और परलोकमें उसे प्राप्त हो जाता है। शराबी, परस्त्रीगामी, ब्रह्महत्यारा तथा गुरुपत्नीगामी - जैसा पापी भी तपस्याके बलसे सबसे पार हो जाता है-सब पापोंसे छुटकारा पा लेता है। तपस्याके प्रभावसे छियासी हजार ऊर्ध्वरेतामुनि स्वर्गमें रहकर देवताओंके साथ आनन्द भोग रहे हैं। तपस्यासे राज्य प्राप्त होता है। इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवता और असुरोंने तपस्यासे ही सदा सबका पालन किया है। तपस्यासे ही वे वृत्तिदाता हुए हैं। सम्पूर्ण लोकोंके हितमें लगे रहनेवाले दोनों देवता सूर्य और चन्द्रमा तपसे ही प्रकाशित होते हैं। नक्षत्र और ग्रह भी तपस्यासे ही कान्तिमान् हुए हैं। तपस्यासे मनुष्य सब कुछ पा लेता है, सब सुखोंका अनुभव करता है। मुने! जो जंगलमें फल-मूल खाकर तपस्या करता है तथा जो पहले केवल वेदका अध्ययन ही करता है - वे दोनों समान हैं। वह अध्ययन तपस्याके ही तुल्य है। श्रेष्ठ द्विज वेद पढ़ानेसे जो पुण्य प्राप्त करता है, स्वाध्याय और जपसे इसकी अपेक्षा दूना फल पा जाता है। जो सदा तपस्या करते हुए शास्त्रके अभ्याससे ज्ञानोपार्जन करता है और लोकको उस ज्ञानका बोध कराता है, वह परम पूजनीय गुरु है। पुराणवेत्ता पुरुष दानका सबसे श्रेष्ठ पात्र है। वह पतनसे त्राण करता है, इसलिये पात्र कहलाता है। जो लोग सुपात्रको धन, धान्य, सुवर्ण तथा भाँति-भाँति के वस्त्र दान करते हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो श्रेष्ठ पात्रको गौ, भैंस, हाथी और सुन्दर-सुन्दर घोड़े दान करता है, वह सम्पूर्ण लोकोंमें अश्वमेधके अक्षय फलको प्राप्त होता है। जो सुपात्रको जोती- बोयी एवं फलसे भरी हुई सुन्दर भूमि दान करता है, वह अपने दस पीढ़ी पहलेके पूर्वजों और दस पीढ़ी बादतककी संतानोंको तार देता है तथा दिव्य विमानसे विष्णुलोकको जाता है। देवगण पुस्तक बाँचनेसे जितना संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें यज्ञोंसे, प्रोक्षण (अभिषेक) से तथा फूलोंद्वारा की हुई पूजाओंसे भी नहीं होता। जो भगवान् विष्णुके मन्दिरमें धर्म-ग्रन्थका पाठ कराता है तथा देवी, शिव, गणेश और सूर्यकेमन्दिरमें भी उसकी व्यवस्था करता है, वह मानव राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता है। इतिहास पुराणके ग्रन्थोंका बाँचना पुण्यदायक है। ऐसा करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है तथा अन्तमें सूर्यलोकका भेदन करके ब्रह्मलोकको चला जाता है। वहाँ सौ कल्पोंतक रहनेके पश्चात् इस पृथ्वीपर जन्म ले राजा होता है। एक हजार अश्वमेधयज्ञोंका जो फल बताया गया है, उसे वह मनुष्य भी प्राप्त कर लेता है, जो देवताके आगे महाभारतका पाठ करता है। अतः सब प्रकारका प्रयत्न करके भगवान् विष्णुके मन्दिरमें इतिहास - पुराणके ग्रन्थोंका पाठ करना चाहिये। वह शुभकारक होता है। विष्णु तथा अन्य देवताओंके लिये दूसरा कोई साधन इतना प्रीतिकारक नहीं है।