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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 139 - Khand 4, Adhyaya 139

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अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण

ऋषियोंने कहा- महाभाग ! हमलोगोंने आपके मुखसे भगवान् श्रीकृष्णका अत्यन्त अद्भुत चरित्र सुना है और इससे हमें पूरा संतोष हुआ है। अहो भगवान् श्रीकृष्णका माहात्म्य भक्तोंको सद्गति प्रदान करनेवाला है, उससे किसको तृप्ति हो सकती है। अतः हम पुनः श्रीकृष्णका चरित्र सुनना चाहते हैं।

सूतजी बोले- द्विजवरो! आपने बहुत उत्तम प्रश्न किया, यह जगत्‌को तारनेवाला है। आपलोग स्वयं तो कृतार्थ ही हैं क्योंकि श्रीकृष्णके भक्तोंका मनोरथ सदा पूर्ण रहता है। श्रीकृष्णका पावन चरित्र साधु पुरुषोंको अत्यन्त हर्ष प्रदान करनेवाला है। अब मैं इस विषयमें एक अत्यन्त अद्भुत उपाख्यान सुनाता हूँ। एक समयकी बात है, भगवान्के प्रिय भक्त देवर्षि नारदशी सब लोकोंमें घूमते हुए मथुरामें गये और वहाँ राज अम्बरीषसे मिले, जिनका चिन श्रीकृष्णकी आराधनामेंलगा हुआ था। मुनिश्रेष्ठ नारदके पधारनेपर साधु राजा अम्बरीषने उनका सत्कार किया और प्रसन्नचित्त होकर श्रद्धाके साथ आपलोगोंकी ही भाँति प्रश्न किया- 'मुने! वेदोंके वक्ता विद्वान् पुरुष जिन्हें परम ब्रह्म कहते हैं, वे स्वयं भगवान् कमलनयन नारायण ही हैं जो सबसे परे हैं, जिनकी कोई मूर्ति न होनेपर भी जो मूर्तिमान् स्वरूप धारण करते हैं, जो सबके ईश्वर, व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप हैं, सनातन हैं, समस्त भूत जिनके स्वरूप हैं, जिनका चित्तद्वारा चिन्तन नहीं किया जा सकता, ऐसे भगवान् श्रीहरिका ध्यान किस प्रकार हो सकता है? जिनमें यह सारा विश्व ओतप्रोत है, जो अव्यक्त, एक, पर (उत्कृष्ट) और परमात्मा के नामसे प्रसिद्ध हैं, जिनसे इस जगत्का जन्म, पालन और संहार होता है, जिन्होंने ब्रह्माजीको उत्पन्न करके उन्हें अपने ही भीतर स्थित वेदोंका ज्ञान दिया, जो समस्त पुरुषार्थोंको देनेवाले हैं, योगीजनोंको भी जिनके तत्त्वका बड़ी कठिनाईसे बोध होता है, उनकी आराधना कैसे की जा सकती है ? कृपया यह बात बताइये। जिसने श्रीगोविन्दकी आराधना नहीं की, वह निर्भय पदको नहीं प्राप्त कर सकता। इतना ही नहीं, उसे तप, यज्ञ और दानका भी उत्तम फल नहीं मिलता। जिसने श्रीगोविन्दके चरणारविन्दोंका रसास्वादन नहीं किया, उसे मनोवांछित फलकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? भगवान्‌की आराधना समस्त पापको दूर करनेवाली है, उसे छोड़कर मैं मनुष्योंके लिये दूसरा कोई प्रायश्चित्त नहीं देखता। जिनके भ्रूभंग मात्रसे समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति सुनी जाती है, उन क्लेशहारी केशवकी आराधना कैसे होती है? स्त्रियाँ भी किस प्रकारसे उनकी उपासना कर सकती हैं? ये सब बातें संसारकी भलाईके लिये आप मुझे बताइये। भगवान् भक्तिके प्रेमी हैं। सब लोग उनकी आराधनाकिस प्रकार कर सकते हैं? नारदजी! आप वैष्णव हैं, भगवान् के प्रिय भक्त हैं, परमार्थतत्त्वके ज्ञाता तथा ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; इसलिये मैं आपसे ही यह बात पूछता भगवान् श्रीकृष्णके विषयमें किया हुआ प्रश्न वक्ता, श्रोता और प्रश्नकर्ता – इन तीनों पुरुषोंको पवित्र करता है; ठीक उसी तरह, जैसे उनके चरणोंका जल श्रीगंगाजीके रूपमें प्रवाहित होकर तीनों लोकोंको पावन बनाता है। देहधारियोंका यह देह क्षणभंगुर है, इसमें मनुष्य-शरीरका मिलना बड़ा दुर्लभ है, उसमें भी भगवान्के प्रेमी भक्तोंका दर्शन तो मैं और भी दुर्लभ समझता हूँ। इस संसारमें यदि क्षणभरके लिये भी सत्संग मिल जाय तो वह मनुष्योंके लिये निधिका काम देता है; क्योंकि उससे चारों पुरुषार्थ प्राप्त हो जाते हैं। भगवन्! आपकी यात्रा सम्पूर्ण प्राणियोंका मंगल करनेके लिये होती है। जैसे माता-पिताका प्रत्येक विधान बालकोंके हितके लिये ही होता है, उसी प्रकार भगवान्के पथपर चलनेवाले संत-महात्माओंकी हर एक क्रिया जगत्के जीवोंका कल्याण करनेके लिये ही होती है। देवताओंका चरित्र प्राणियोंके लिये कभी दुःखका कारण होता है और कभी सुखका; किन्तु आप जैसे भगवत्परायण साधु पुरुषोंका प्रत्येक कार्य जीवोंके सुखका ही साधक होता है। जो देवताओंकी जैसी सेवा करते हैं, देवता भी उन्हें उसी प्रकार सुख पहुँचानेकी चेष्टा करते हैं। जैसे छाया सदा शरीरके साथ ही रहती है, उसी प्रकार देवता भी कर्मोंके साथ रहते हैं—जैसा कर्म होता है, वैसी ही सहायता उनसे प्राप्त होती है, किन्तु साधु पुरुष स्वभावसे ही दीनोंपर दया करनेवाले होते हैं। इसलिये भगवन्! मुझे वैष्णव-धर्मो का उपदेश कीजिये, जिससे वेदोंके स्वाध्यायका फल प्राप्त होता है।नारदजीने कहा- राजन्! तुमने बहुत उत्तम प्रश्न किया है। तुम भगवान् श्रीविष्णुके भक्त हो और एकमात्र लक्ष्मीपतिका सेवन ही परमधर्म है-इस बातको जानते हो जिन विष्णुकी आराधना करनेपर समस्त विश्वकी आराधना हो जाती है तथा जिन सर्वदेवमय श्रीहरिके संतुष्ट होनेपर सारा जगत् संतुष्ट हो जाता है, जिनके स्मरण मात्रसे महापातकोंकी सेना तत्काल थर्रा उठती है, वे भगवान् श्रीनारायण ही सेवनके योग्य हैं। राजन् ! सब ओर मृत्युसे घिरा हुआ कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो अपनी इन्द्रियोंके सकुशल रहते हुए श्रीमुकुन्दके चरणारविन्दोंका सेवन न करे। भगवान् तो ऋषियों और देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। भगवानके नाम और लीलाओंका श्रवण, उनका निरन्तर पाठ, श्रीहरिके स्वरूपका ध्यान, उनका आदर तथा उनकी भक्तिका अनुमोदन - ये सब मनुष्यको तत्काल पवित्र कर देते हैं। वीर भगवान् उत्तम धर्मस्वरूप हैं, वे विश्व द्रोहियोंको भी पावन बना देते हैं। कारण कार्य आदिके भी जो कारण हैं, भगवान् उनके भी कारण हैं; किन्तु उनका कोई कारण नहीं है। वे योगी हैं। जगत्के जीव उन्हींके स्वरूप हैं। सम्पूर्ण जगत् ही उनका रूप है। श्रीहरि अणु, बृहत् कृश, स्थूल, निर्गुण, गुणवान् महान् अजन्मा तथा जन्म-मृत्युसे परे हैं उनका सदा ही ध्यान करना चाहिये। सत्पुरुषोंके संगसे कीर्तन करनेयोग्य भगवान् श्रीकृष्णकी निर्मल कथाएँ सुननेको मिलती हैं, जो आत्मा, मन तथा कानोंको अत्यन्त सरस एवं मधुर जान पड़ती हैं। भगवान् भावसे- हृदयके प्रगाढ़ प्रेमसे प्राप्त होते हैं, इस बातको तुम स्वयं भीजानते हो; तथापि तुम्हारे गौरवका खयाल करके संसारके हितके लिये मैं भी कुछ निवेदन करूँगा। जिसे परब्रह्म कहते हैं, जो पुरुषसे परे और सर्वोत्कृष्ट है तथा जिसकी मायासे ही इस सम्पूर्ण जगत्की सत्ता प्रतीत होती है, वह तत्त्व भगवान् अच्युत ही हैं। वे भक्तिपूर्वक पूजित होनेपर सभी मनोवांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं। राजन्! जो मनुष्य मन, वाणी और क्रियासे भगवान्की आराधनामें लगे हैं, उनके व्रत नियम बतलाया हूँ, इससे तुम्हें प्रसन्नता होगी। अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) तथा निष्कपटभावसे रहना-ये भगवान्की प्रसन्नताके लिये मानसिक व्रत कहे गये हैं। नरेश्वर । दिनमें एक बार भोजन करना, रात्रिमें उपवास करना और बिना माँगे जो अपने-आप प्राप्त हो जाय उसी अन्नका उपयोग करना - यह पुरुषोंके लिये कायिक व्रत बताया गया है। वेदोंका स्वाध्याय, श्रीविष्णुके नाम एवं लीलाओंका कीर्तन तथा सत्यभाषण करना एवं चुगली न करना यह वाणीसे सम्पन्न होनेवाला व्रत कहा गया है। चक्रधारी भगवान् विष्णुके नामोंका सदा और सर्वत्र कीर्तन करना चाहिये। वे नित्य शुद्धि करनेवाले हैं; अतः उनके कीर्तनमें कभी अपवित्रता आती ही नहीं। वर्ण और आश्रम -सम्बन्धी आचारोंका विधिवत् पालन करनेवाले पुरुषके द्वारा परम पुरुष श्रीविष्णुकी सम्यक् आराधना होती है। यह मार्ग भगवान्‌को संतुष्ट करनेवाला है। स्त्रियाँ मन, वाणी और शरीरके संयमरूप व्रतों तथा हितकारी आचरणोंके द्वारा अपने पतिरूपी दयानिधान वासुदेवकी उपासना करती हैं। शूद्रोंके लिये द्विजाति तथा स्त्रियोंके लिये पति ही श्रीकृष्णचन्द्रकेस्वरूप हैं; अतः उनको शास्त्रोक्त मार्गसे इन्हींका पूजन करना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीन वर्णोंके लोग ही वेदोक्त मार्गसे भगवान्की आराधना करें। स्त्री और शूद्र आदि केवल नाम-जप या नाम कीर्तनके द्वारा ही भगवदाराधनके अधिकारी हैं। भगवान् लक्ष्मीपति केवल पूजन, यजन तथा व्रतॉसे ही नहीं संतुष्ट होते। वे भक्ति चाहते हैं; क्योंकि उन्हें 'भक्तिप्रिय' कहा गया है। पतिव्रता स्त्रियोंका तो पति ही देवता है। उन्हें पतिमें ही श्रीविष्णुके समान भक्ति रखनी चाहिये तथा मन, वाणी, शरीर और क्रियाओंद्वारा पतिकी ही पूजा करनी चाहिये। अपने पतिका प्रिय करनेमें लगी हुई स्त्रियोंके लिये पति सेवा ही विष्णुकी उत्तम आराधना है। यह सनातन श्रुतिका आदेश है। विद्वान् पुरुष अग्निमें हविष्यके द्वारा, जलमें पुष्पोंके द्वारा, हृदयमें ध्यानके द्वारा तथा सूर्यमण्डलमें जपके द्वारा प्रतिदिन श्रीहरिकी पूजा करते हैं।

अहिंसा पहला, इन्द्रिय- संयम दूसरा, जीवॉपर दया करना तीसरा, क्षमा चौथा, शम पाँचवाँ दम छठा, ध्यान सातवाँ और सत्य आठवाँ पुष्प है। इन पुष्पके द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण संतुष्ट होते हैं। नृपश्रेष्ठ! अन्य पुष्प तो पूजाके बाह्य अंग हैं, भगवान् उपर्युक्त पुष्पोंसे ही प्रसन्न होते हैं; क्योंकि वे भक्तिके प्रेमी हैं। जल वरुण देवताका [प्रिय] पुष्प है, घी, दूध और दही- चन्द्रमाके पुष्प हैं, अन्न आदि प्रजापतिके, धूप-दीप अग्निका और फल-पुष्पादि वनस्पतिका पुष्प है। कुश-मूलादि पृथ्वीका, गन्ध और चन्दन वायुका तथा श्रद्धा विष्णुका पुष्प है। बाजा विष्णुपद (विष्णु-प्राप्तिका साधन) माना गया है। इन आठ पुष्पोंसे पूजित होनेपर भगवान् विष्णु तत्काल प्रसन्न होते हैं। सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, हृदयाकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और सम्पूर्णप्राणी-ये भगवान्की पूजाके स्थान हैं। सूर्यमें त्रयीविद्या (ऋक्, यजु, साम) के द्वारा और अग्निमें हविष्यको आहुतिके द्वारा भगवान्की पूजा करनी चाहिये । श्रेष्ठ ब्राह्मणमें आवभगतके द्वारा, गौओंमें घास और जल आदिके द्वारा, वैष्णवमें बन्धुजनोचित आदरके द्वारा तथा हृदयाकाशमें ध्याननिष्ठाके द्वारा श्रीहरिकी आराधना करनी उचित है। वायुमें मुख्य प्राण-बुद्धिके द्वारा, जलमें जलसहित पुष्पादि द्रव्योंके द्वारा, पृथ्वी अर्थात् वेदी या मृन्मयी मूर्ति मन्त्रपाठपूर्वक हार्दिक श्रद्धाके साथ समस्त भोग-समर्पणके द्वारा, आत्मामें अभेद बुद्धिसे क्षेत्रज्ञके चिन्तनद्वारा तथा सम्पूर्ण भूतोंमें भगवान्को व्यापक मानकर उनके प्रति समतापूर्ण भावके द्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। इन सभी स्थानोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्मसे सुशोभित भगवान्‌के चतुर्भुज एवं शान्त रूपका ध्यान करते हुए एकाग्रचित्त होकर आराधन करना उचित है। ब्राह्मणोंके पूजनसे भगवान् की भी पूजा हो जाती है। तथा ब्राह्मणोंके फटकारे जानेपर भगवान् भी तिरस्कृत होते हैं। वेद और धर्मशास्त्र जिनके आधारपर टिके हुए हैं, वे ब्राह्मण भगवान् विष्णुके ही स्वरूप हैं; उनका नामोच्चारण करनेसे मनुष्य पवित्र हो जाते हैं। राजन् ! संसारमें धर्मसे ही सब प्रकारके शुभ फलोंकी प्राप्ति होती है और धर्मका ज्ञान वेद तथा धर्मशास्त्रसे होता है। उन दोनोंके भी आधार इस पृथ्वीपर ब्राह्मण ही हैं; अतः उनकी पूजा करनेसे जगदीश्वर ही पूजित होते हैं। देवाधिदेव विष्णु यज्ञ और दानोंसे, उग्र तपस्यासे, योगके अभ्याससे तथा सम्यक् पूजनसे भी उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना ब्राह्मणोंको संतुष्ट करनेसे होते हैं। वेदोंके जाननेवाले ब्रह्माजी भी ब्राह्मणोंके भक्त हैं। ब्राह्मण देवता हैं, इस बातके वे ही प्रवर्तक हैं। वे ब्राह्मणोंको देवता मानते हैं; अतःब्राह्मणोंके संतुष्ट होनेपर ही उन्हें भी संतोष होता है। मातृकुल और पितृकुल- दोनों कुलोंके पूर्वज चिरकालसे नरकमें डूबे हों तो भी जब उनका वंशधर पुत्र श्रीहरिकी पूजा आरम्भ करता है, उसी समय वे स्वर्गमें चले जाते हैं। जिनका चित्त विश्वरूप वासुदेवमें आसक्त नहीं हुआ, उनके जीवनसे तथा पशुओंकी भाँति आहार-विहार आदि चेष्टाओंसे क्या लाभ । " राजन्! अब मैं विष्णुका ध्यान बतलाता हूँ, जो अबतक किसीने देखा न होगा, वह नित्य, निर्मल एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला ध्यान तुम सुनो। जैसे वायुहीन स्थानमें रखा हुआ दीपक स्थिरभावसे अग्निमय स्वरूप धारण करके प्रज्वलित होता रहता है और घरके समूचे अन्धकारका नाश करता है, उसी प्रकार ध्यानस्थ आत्मा सब प्रकारके दोषोंसे रहित, निरामय, निष्काम, निश्चल तथा वैर और मैत्रीसे शून्य हो जाता है। श्रीकृष्णका ध्यान करनेवाला पुरुष शोक, दुःख, भय, द्वेष, लोभ, मोह तथा भ्रम आदिसे और इन्द्रियोंके विषयोंसे भी मुक्त हो जाता है जैसे दीपक जलते रहनेसे तेलको सोख लेता है, उसी प्रकार ध्यान करनेसे कर्मका भी क्षय हो जाता है।

मानद! भगवान् शंकर आदिने ध्यान दो प्रकारका बतलाया है- निर्गुण और सगुण । उनमेंसे प्रथम अर्थात् निर्गुण ध्यानका वर्णन सुनो। जो लोग योग-शास्त्रोक्त यम-नियमादि साधनोंके द्वारा परमात्म-साक्षात्कारका प्रयत्न कर रहे हैं, वे ही सदा ध्यानपरायण होकर केवल ज्ञानदृष्टिसे परमात्माका दर्शन करते हैं। परमात्मा हाथ और पैरसे रहित है, तो भी वह सब कुछ ग्रहण करता और सर्वत्र जाता है। मुखके बिना ही भोजन करता और नाकके बिना ही पता है उसके कान नहीं हैं, तथापि वह सब कुछ सुनता है। वह सबका साक्षी और इस जगत्‌का स्वामी है। रूपहीन होकर भी रूपसे सम्बद्ध हो पाँचों इन्द्रियोंके वशीभूत हुआ-सा प्रतीत होता है। वह समस्त लोकोंका प्राण है, सम्पूर्ण चराचरजगत्के प्राणी उसकी पूजा करते हैं। बिना जीभके ही वह सब कुछ वेद-शास्त्रोंके अनुकूल बोलता है। उसके त्वचा नहीं है, तथापि वह शीत-उष्ण आदि सब प्रकारके स्पर्शका अनुभव करता है। सत्ता और आनन्द उसके स्वरूप हैं। वह जितेन्द्रिय, एकरूप, आश्रयविहीन, निर्गुण, ममतारहित, व्यापक, सगुण, निर्मल, ओजस्वी, सबको वशमें करनेवाला, सब कुछ देनेवाला और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है। वह सर्वत्र व्यापक एवं सर्वमय है। इस प्रकार जो अनन्य बुद्धिसे उस सर्वमय ब्रह्मका ध्यान करता है, वह निराकार एवं अमृततुल्य परम पदको प्राप्त होता है।

महामते ! अब मैं द्वितीय अर्थात् सगुण ध्यानका वर्णन करता हूँ, इसे सुनो। इस ध्यानका विषय भगवान्का मूर्त किंवा साकार रूप है। वह निरामय रोग-व्याधिसे रहित है, उसका दूसरा कोई आलम्ब आधार नहीं है [ वह स्वयं ही सबका आधार है] राजन् ! जिनकी वासनासे यह सारा ब्रह्माण्ड वासित है— जिनके संकल्पमें इस जगत्‌का वास है, वे भगवान् श्रीहरि इस विश्वको वासित करनेके कारण ही वासुदेव कहलाते हैं। उनका श्रीविग्रह वर्षा ऋतुके सजल मेघके समान श्याम है, उनकी प्रभा सूर्यके तेजको भी लज्जित करती है। उनके दाहिने भागके एक हाथमें बहुमूल्य मणियोंसे चित्रित शंख शोभा पा रहा है और दूसरेमें बड़े-बड़े असुरोंका संहार करनेवाली कौमोदकी गदा विराजमान है। उन जगदीश्वरके बायें हाथमें पद्म और चक्र सुशोभित हो रहे हैं। इस प्रकार उनके चार भुजाएँ हैं। वे सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी हैं। 'शार्ङ्ग' नामक धनुष धारण करनेके कारण उन्हें शार्ङ्ग भी कहते हैं। वे लक्ष्मीके स्वामी हैं। [ उनकी झाँकी बड़ी सुन्दर है-] शंखके समान मनोहर ग्रीवा, सुन्दर गोलाकार मुखमण्डल तथा पद्म पत्रके समान बड़ी-बड़ी आँखें [ सभी आकर्षक हैं]। कुन्द-जैसे चमकते हुए दाँतोंसे भगवान्हृषीकेशकी बड़ी शोभा हो रही है। राजन् ! श्रीहरि निद्राके ऊपर शासन करनेवाले हैं, उनका नीचेका ओठ मूँगेकी तरह लाल है। नाभिसे कमल प्रकट होनेके कारण उन्हें पद्मनाभ कहते हैं। अत्यन्त तेजस्वी किरीटके कारण बड़ी शोभा पा रहे हैं। श्रीवत्सके चिह्नने उनकी छविको और बढ़ा दिया है। श्रीकेशवका वक्षःस्थल कौस्तुभमणिसे अलंकृत है। वे जनार्दन सूर्यके समान तेजस्वी कुण्डलोंद्वारा अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे हैं। केयूर, हार, कड़े, कटिसूत्र, करधनी तथा अँगूठियोंसे उनके श्रीअंग विभूषित हैं, जिससे उनकी शोभा बहुत बढ़गयी है। भगवान् तपाये हुए सुवर्णके रंगका पीताम्बर पहने हुए हैं और गरुड़की पीठपर विराजमान हैं। वे भक्तोंकी पापराशिको दूर करनेवाले हैं। इस प्रकार श्रीहरिके सगुण स्वरूपका ध्यान करना चाहिये ।

राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हें दो तरहका ध्यान बतलाया है। इसका अभ्यास करके मनुष्य मन, वाणी तथा शरीरद्वारा होनेवाले सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। वह जिस-जिस फलको प्राप्त करना चाहता है, वह सब उसे निश्चितरूपसे मिल जाता है, देवता भी उसका आदर करते हैं तथा अन्तमें वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान