शेषजी कहते हैं— द्विजश्रेष्ठ! तदनन्तर बंधे हुए चँवरसे सुशोभित वह यज्ञसम्बन्धी अश्व हजारों योद्धाओंसे सुरक्षित होकर भारतवर्षके अन्तमें स्थित हेमकूट पर्वतपर गया, जो चारों ओरसे दस हजार योजन लंबा चौड़ा है। उसके सुन्दर शिखर सोने-चाँदी आदि धातुओंके हैं। वहाँ एक विशाल उद्यान है, जो बहुत ही सुन्दर और भाँत भाँतिके वृक्षोंसे सुशोभित है। घोड़ा उसमें प्रवेश कर गया। वहाँ जानेपर उस अश्वके सम्बन्धमें सहसा एक आश्चर्यजनक घटना हुई; उसे बतलाता हूँ, सुनिये - अकस्मात् उसका सारा शरीर अकड़ गया, वह हिल-डुल नहीं पाता था। मार्गमेंखड़ा खड़ा वह हेमकूट पर्वतकी ही भाँति अविचल प्रतीत होने लगा। अश्वके रक्षकोंने शत्रुघ्नके पास जाकर पुकार मचायी - 'स्वामिन्! हम नहीं जानते घोड़ेको क्या हो गया। अकस्मात् उसका सम्पूर्ण शरीर स्तब्ध हो गया है। इस बातपर विचार कर जो कुछ करना उचित जान पड़े, कीजिये।' यह सुनकर राजा शत्रुघ्नको बड़ा विस्मय हुआ। वे अपने समस्त सैनिकोंके साथ अश्वके निकट गये। पुष्कलने अपनी बाँहसे पकड़कर उसके दोनों चरणोंको धरतीसे ऊपर उठानेका प्रयत्न किया। परन्तु वे अपने स्थानसे हिल भी न सके। तब शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा - 'मन्त्रिवर! घोड़ेको क्या हुआ है, जो इसकासारा शरीर अकड़ गया? अब यहाँ क्या उपाय करना चाहिये, जिससे इसमें चलनेकी शक्ति आ जाय ?' सुमतिने कहा- स्वामिन्! किन्हीं ऐसे ऋषि मुनिकी खोज करनी चाहिये, जो सब बातोंको जाननेमें कुशल हो। मैं तो लोकमें होनेवाले प्रत्यक्ष विषयोंको ही जानता हूँ परोक्षमें मेरी गति नहीं है।
शेषजी कहते हैं— सुमतिकी यह बात सुनकर धर्मके ज्ञाता शत्रुघ्नने अपने सेवकोंद्वारा ऋषिकी खोज करायी। एक सेवक वहाँसे एक योजन दूर पूर्व दिशाकी ओर गया। वहाँ उसे एक बहुत बड़ा आश्रम दिखायी दिया, जहाँके पशु और मनुष्य- सभी परस्पर और भावसे रहित थे। गंगाजी में स्नान करनेके कारण उनके समस्त पाप दूर हो गये थे तथा वे सब-के सब बड़े मनोहर दिखायी देते थे वह शौनक मुनिका मनोहर आश्रम था। उसका पता लगाकर सेवक लौट आया और विस्मित होकर उसने राजा शत्रुघ्नसे उस आश्रमका समाचार निवेदन किया। सेवककी बात सुनकर अनुचरोंसहित शत्रुघ्नको बड़ा हर्ष हुआ और वे हनुमान् तथा पुष्कल आदिके साथ ऋषिके आश्रमपर गये। वहाँ जाकर उन्होंने मुनिके पापहारी चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। बलवानोंमें श्रेष्ठ राजा शत्रुघ्नको आया जान शौनक मुनिने अर्घ्य, पाद्य आदि देकर उनका स्वागत किया। उनके दर्शनसे मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। शत्रुघ्नजी सुखपूर्वक बैठकर जब विश्राम कर चुके तो मुनीश्वरने पूछा- 'राजन्! तुम किसलिये भ्रमण कर रहे हो? तुम्हारी यह यात्रा तो बड़ी दूरकी जान पड़ती है।' मुनिकी यह बात सुनकर राजा शत्रुघ्नका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा। वे अपना परिचय देते हुए गद्गद वाणीमें बोले-'महर्षे! मेरा अश्व अकस्मात् एक फूलोंसे सुशोभित उद्यानमें चला गया। उसके भीतर एक किनारेपर पहुँचते ही तत्काल उसका शरीर अकड़ गया। इसके कारण हमलोग अपार दुःखके समुद्रमें डूब रहे हैं; आप नौका बनकर हमें बचाइये। हमारे बड़े भाग्य थे, जो दैवात् आपका दर्शन हुआ। घोड़ेकी इस अवस्थाका प्रधान कारण क्या है? यह बताने की कृपा कीजिये।'शत्रुघ्नके इस प्रकार पूछनेपर परम बुद्धिमान् मुनिश्रेष्ठ शौनकने थोड़ी देरतक ध्यान किया। फिर एक ही क्षणमें सारा रहस्य समझमें आ गया। उनकी आँखें आश्चर्यसे खिल उठीं तथा वे दुःख और संशय में पड़े हुए राजा शत्रुघ्नसे बोले- राजन्! मैं अश्वके गात्र स्तम्भका कारण बताता हूँ, सुनो। गौड़ देशके सुरम्य प्रदेशमें, कावेरीके तटपर सात्त्विक नामका एक ब्राह्मण बड़ी भारी तपस्या कर रहा था। वह एक दिन जल पीता, दूसरे दिन हवा पीकर रहता और तीसरे दिन कुछ भी नहीं खाता था। इस प्रकार तीन-तीन दिनका व्रत लेकर वह समय व्यतीत करता था। उसका यह व्रत चल ही रहा था कि सबका विनाश करनेवाले कालने उसे अपने दाढ़ोंमें ले लिया। उस महान् व्रतधारी तपस्वीकी मृत्यु हो गयी। तत्पश्चात् वह सात्त्विक नामका ब्राह्मण सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित तथा सब तरहकी शोभासे सम्पन्न विमानपर बैठकर मेरुगिरिके शिखरपर गया। वहाँ जम्बू नामकी नदी बहती थी, जिसके किनारे तप और ध्यानमें संलग्न रहनेवाले ऋषि महर्षि निवास करते थे। वह ब्राह्मण वहीं आनन्दमग्न होकर अपनी इच्छाके अनुसार अप्सराओंके साथ विहार करने लगा। अभिमान और मदसे उन्मत्त होकर उसने वहाँ रहनेवाले ऋषियोंके प्रतिकूल बर्ताव किया। इससे रुष्ट होकर उन ऋषियोंने शाप दिया "जा, तू राक्षस हो जा; तेरा मुख विकृत हो जाय।' यह शाप सुनकर ब्राह्मणको बड़ा दुःख हुआ और उसने उन विद्वान् एवं तपस्वी ब्राह्मणोंसे कहा- 'ब्रह्मर्षियो ! आप सब लोग दयालु हैं; मुझपर कृपा कीजिये।' तब उन्होंने उसपर अनुग्रह करते हुए कहा-'जिस समय तुम श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको अपने वेगसे स्तब्ध कर दोगे, उस समय तुम्हें श्रीरामकी कथा सुननेका अवसर मिलेगा। उसके बाद इस भयंकर शापसे तुम्हारी मुक्ति हो जायगी। मुनियोंके कथनानुसार उसने यहाँ राक्षस होकर श्रीरघुनाथजीके अश्वको स्तम्भित किया है; अतः तुम कीर्तनके द्वारा घोड़ेको उसके चंगुलसेछुड़ाओ।'
मुनिका यह कथन सुनकर शत्रुवीरोंका दमनकरनेवाले शत्रुघ्नके मनमे बड़ा विस्मय हुआ वे शौनकसे बोले-'कर्मकी बात बड़ी गहन है, जिससे सात्त्विक नामधारी ब्राह्मण अपने महान् कर्मसे स्वर्गमें पहुँचकर भी पुनः राक्षसभावको प्राप्त हो गया। स्वामिन् आप कर्मोंक अनुसार जैसी गति होती है, उसका वर्णन कीजिये। जिस कर्मके परिणामसे जैसे नरककी प्राप्ति होती है, उसे बताइये।'
शौनकने कहा- रघुकुलश्रेष्ठ। तुम धन्य हो, जो तुम्हारी बुद्धि सदा ऐसी बातोंको जानने और सुननेमें लगी रहती है। इसमें संदेह नहीं कि तुम इस विषयको भलीभाँति जानते हो; तो भी लोगोंके हिसके लिये मुझसे पूछ रहे हो। महाराज! कर्मोके स्वरूप विचित्र हैं तथा उनकी गति भी नाना प्रकारकी है; मैं उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। इस विषयका श्रवण करने से मनुष्यको मोक्षको प्राप्ति हो सकती है।
जो दुष्ट बुद्धिवाला पुरुष पराये धन, परायी संतान और परायी स्त्रीको भोग-बुद्धिसे बलात् अपने अधिकारमें कर लेता है, उसको महाबली यमदूत काल पाशमें बाँधकर तामिस्र नामक नरकमें गिराते हैं और जबतक एक हजार वर्ष पूरे नहीं हो जाते, तबतक उसीमें रखते हैं। यमराजके प्रचण्ड दूत वहाँ उस पापीको खूब पीटते हैं। इस प्रकार पाप भोगके द्वारा भलीभाँति क्लेश उठाकर अन्तमें वह सूअरकी योनिमें जन्म लेता है और उसमें भी महान् दुःख भोगनेके पश्चात् वह फिर मनुष्यकी योनिमें जाता है; परन्तु वहाँ भी अपने पूर्वजन्मके कलंकको सूचित करनेवाला कोई रोग आदिका चिह्न धारण किये रहता है जो केवल दूसरे प्राणियोंसे द्रोह करके ही अपने कुटुम्बका पोषण करता है, वह पापपरायण पुरुष अन्धतामिस्र नरकमें पड़ता है। जो लोग यहाँ दूसरे प्राणियोंका वध करते हैं, ये रौरव नरकमें गिराये जाते हैं तथा रुरु नामक पक्षी रोषमें भरकर उनका शरीर नोचते हैं। जो अपने पेटके लिये दूसरे जीवोंका वध करता है, उसे यमराजकी आज्ञासे महारौरव नामक नरकमें डाला जाता है। जो पापी अपने पिता और ब्राह्मणसे द्वेष करता है, वह महान् दुःखमय कालसूत्रनरकमें, जिसका विस्तार दस हजार योजन है, पड़ता है। जो गौओंसे द्रोह करता है, उसे यमराजके किंकर नरकमें डालकर पकाते हैं; वह भी थोड़े समयतक नहीं, गौओंके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक। जो इस पृथ्वीका राजा होकर दण्ड न देनेयोग्य पुरुषको दण्ड देता है तथा लोभवश (अन्यायपूर्वक ) ब्राह्मणको भी शारीरिक दण्ड देता है, उसे सूअरके समान मुँहवाले दुष्ट यमदूत पीड़ा देते हैं। तत्पश्चात् वह शेष पापोंसे छुटकारा पानेके लिये दुष्ट योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है। जो मनुष्य मोहवश ब्राह्मणों तथा गौओंके थोड़े-से भी द्रव्य, धन अथवा जीविकाको लेते या लूटते हैं, वे परलोकमें जानेपर अन्धकूप नामक नरकमें गिराये जाते हैं। वहाँ उनको महान् कष्ट भोगना पड़ता है। जो जीभके लिये आतुर हो लोलुपतावश स्वयं ही मधुर अन्न लेकर खा जाता है, देवताओं तथा सुइदोंको नहीं देता, वह निश्चय ही 'कृमिभोजन' नामक नरकमें पड़ता है जो मनुष्य सुवर्ण आदिका अपहरण अथवा ब्राह्मणके धनकी चोरी करता है, वह अत्यन्त दुःखदायक 'संदेश' नामक नरकमें गिरता है।
जो मूढ बुद्धिवाला पुरुष केवल अपने शरीरका पोषण करता है, दूसरेको नहीं जानता, वह तपाये हुए तेलसे पूर्ण अत्यन्त भयंकर कुम्भीपाक नरकमें डाला जाता है। जो पुरुष मोहवश अगम्या स्त्रीको भार्याबुद्धिसे भोगना चाहता है, उसे यमराजके दूत उसी स्त्रीकी लोहमयी तपायी हुई प्रतिमाके साथ आलिंगन करवाते हैं। जो अपने बलसे उन्मत्त होकर बलपूर्वक वेदकी मर्यादाका लोप करते हैं, वे वैतरणी नदीमें डूबकर मांस और रक भोजन करते हैं। जो द्विज होकर शूद्रकी स्त्रीको अपनी भार्या बनाकर उसके साथ गृहस्थी चलाता है, वह निश्चय ही 'प्योद' नामक नरकमें गिरता है। वहाँ उसे बहुत दुःख भोगना पड़ता है। जो धूर्त लोगोंको धोखेमें डालनेके लिये दम्भका आश्रय लेते हैं, वे मूढ वैशस नामक नरकमै डाले जाते हैं और वहाँ उनपर यमराजकी मार पड़ती है। जो मूढ सवर्णा (समान गोत्रवाली) स्त्रीकी योनिमें वीर्यपात करते हैं, उन्हें वीर्यकी नहरमेंडाला जाता है और वे वीर्य पीकर ही रहते हैं। जो लोग चोर, आग लगानेवाले, दुष्ट, जहर देनेवाले और गाँवोंको लूटनेवाले हैं, वे महापातकी जीव 'सारमेयादन' नरकमें गिराये जाते हैं। जो पापराशिका संचय करनेवाला पुरुष झूठी गवाही देता या बलपूर्वक दूसरोंका धन छीन लेता है, वह पापी 'अवीचि' नामक नरकमें नीचे सिर करके डाल दिया जाता है। उसमें महान् दुःख भोगनेके पश्चात् वह पुनः अत्यन्त पापमयी योनिमें जन्म लेता है। जो मूढ सुरापान करता है, उसे धर्मराजके दूत गरम-गरम लोहेका रस पिलाते हैं। जो अपनी विद्या और आचारके घमंडमें आकर गुरुजनोंका अनादर करता है, वह मनुष्य मृत्युके पश्चात् 'क्षार' रकमें नीचे मुँह करके गिराया जाता है। जो लोग धर्मसे बहिष्कृत होकर विश्वासघात करते हैं, उन्हें अत्यन्त यातनापूर्ण 'शूलप्रोत' नरकमें डाला जाता है। जो चुगली करके सब लोगोंको अपने वचनसे उद्वेगमें डाला करता है, वह 'दंदशूक' नामक नरकमें पड़कर दंदशूकों (सर्पों) द्वारा डँसा जाता है। राजन्। इस प्रकार पापियोंके लिये अनेकों नरक हैं: पाप करके वे उन्होंमें जाते और अत्यन्त भयंकर यातना भोगते हैं। जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजीकी कथा नहीं सुनी है तथा दूसरोंका उपकार नहीं किया है, उनको नरकके भीतर सब तरहके दुःख भोगने पड़ते हैं। इस लोकमें भी जिसको अधिक सुख प्राप्त है, उसके लिये वह स्वर्ग कहलाता है तथा जो रोगी और दुःखी हैं, वे नरकमें ही हैं। दान-पुण्यमें लगे रहने, तीर्थ आदिका सेवन
करने, श्रीरघुनाथजीकी लीलाओंको सुनने अथवा तपस्या
करनेसे पापका नाश होता है। हरिकीर्तनरूपी नदी हीमनुष्योंके लिये सब उपायोंसे श्रेष्ठ है। वह पापियोंके सारे पाप पंकको धो डालती है। इस विषय में कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। * जो भगवान्का अपमान करता है, उसे गंगा भी पवित्र नहीं कर सकती। पवित्र से पवित्र तीर्थ भी उसे पावन बनानेकी शक्ति नहीं रखते। जो ज्ञानहीन होनेके कारण भगवान्के लीला कीर्तनका उपहास करता है, उसको कल्पके अन्ततक भी नरकसे छुटकारा नहीं मिलता। राजन्! अब तुम जाओ और घोड़ेको संकटसे छुड़ानेके लिये सेवकोंसहित भगवान्का चरित्र सुनाओ, जिससे अश्वमें पुनः चलने-फिरनेकी शक्ति आ जाय।
शेषजी कहते हैं-शौनकजीकी उपर्युक्त बात सुनकर शत्रुघ्नको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे मुनिको प्रणाम और परिक्रमा करके सेवकोंसहित चले गये। वहाँ जाकर हनुमान्जीने घोड़ेके पास श्रीरघुनाथजीके चरित्रका वर्णन किया, जो बड़ी-से-बड़ी दुर्गतिका नाश करनेवाला है। अन्तमें उन्होंने कहा- 'देव! आप श्रीरामचन्द्रजीके कीर्तनके पुण्यसे अपने विमानपर सवार होइये और स्वेच्छानुसार अपने लोकमें विचरण कीजिये। इस कुत्सित योनिसे अब आपका छुटकारा हो जाय।' यह वाक्य सुनकर देवताने कहा- 'राजन् ! मैं श्रीरामचन्द्रजीका कीर्तन सुननेसे पवित्र हो गया। महामते! अब मैं अपने लोकको जा रहा हूँ; आप मुझे आज्ञा दीजिये।' यह कहकर देवता विमानपर बैठे हुए स्वर्ग चले गये। उस समय यह दृश्य देखकर शत्रुघ्न और उनके सेवकोंको बड़ा विस्मय हुआ। तदनन्तर वह अश्व गात्र-स्तम्भसे मुक्त होकर पक्षियोंसे भरे हुए उस उद्यानमें सब ओर भ्रमण करने लगा ।