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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 120 - Khand 4, Adhyaya 120

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अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति

शेषजी कहते हैं— द्विजश्रेष्ठ! तदनन्तर बंधे हुए चँवरसे सुशोभित वह यज्ञसम्बन्धी अश्व हजारों योद्धाओंसे सुरक्षित होकर भारतवर्षके अन्तमें स्थित हेमकूट पर्वतपर गया, जो चारों ओरसे दस हजार योजन लंबा चौड़ा है। उसके सुन्दर शिखर सोने-चाँदी आदि धातुओंके हैं। वहाँ एक विशाल उद्यान है, जो बहुत ही सुन्दर और भाँत भाँतिके वृक्षोंसे सुशोभित है। घोड़ा उसमें प्रवेश कर गया। वहाँ जानेपर उस अश्वके सम्बन्धमें सहसा एक आश्चर्यजनक घटना हुई; उसे बतलाता हूँ, सुनिये - अकस्मात् उसका सारा शरीर अकड़ गया, वह हिल-डुल नहीं पाता था। मार्गमेंखड़ा खड़ा वह हेमकूट पर्वतकी ही भाँति अविचल प्रतीत होने लगा। अश्वके रक्षकोंने शत्रुघ्नके पास जाकर पुकार मचायी - 'स्वामिन्! हम नहीं जानते घोड़ेको क्या हो गया। अकस्मात् उसका सम्पूर्ण शरीर स्तब्ध हो गया है। इस बातपर विचार कर जो कुछ करना उचित जान पड़े, कीजिये।' यह सुनकर राजा शत्रुघ्नको बड़ा विस्मय हुआ। वे अपने समस्त सैनिकोंके साथ अश्वके निकट गये। पुष्कलने अपनी बाँहसे पकड़कर उसके दोनों चरणोंको धरतीसे ऊपर उठानेका प्रयत्न किया। परन्तु वे अपने स्थानसे हिल भी न सके। तब शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा - 'मन्त्रिवर! घोड़ेको क्या हुआ है, जो इसकासारा शरीर अकड़ गया? अब यहाँ क्या उपाय करना चाहिये, जिससे इसमें चलनेकी शक्ति आ जाय ?' सुमतिने कहा- स्वामिन्! किन्हीं ऐसे ऋषि मुनिकी खोज करनी चाहिये, जो सब बातोंको जाननेमें कुशल हो। मैं तो लोकमें होनेवाले प्रत्यक्ष विषयोंको ही जानता हूँ परोक्षमें मेरी गति नहीं है।

शेषजी कहते हैं— सुमतिकी यह बात सुनकर धर्मके ज्ञाता शत्रुघ्नने अपने सेवकोंद्वारा ऋषिकी खोज करायी। एक सेवक वहाँसे एक योजन दूर पूर्व दिशाकी ओर गया। वहाँ उसे एक बहुत बड़ा आश्रम दिखायी दिया, जहाँके पशु और मनुष्य- सभी परस्पर और भावसे रहित थे। गंगाजी में स्नान करनेके कारण उनके समस्त पाप दूर हो गये थे तथा वे सब-के सब बड़े मनोहर दिखायी देते थे वह शौनक मुनिका मनोहर आश्रम था। उसका पता लगाकर सेवक लौट आया और विस्मित होकर उसने राजा शत्रुघ्नसे उस आश्रमका समाचार निवेदन किया। सेवककी बात सुनकर अनुचरोंसहित शत्रुघ्नको बड़ा हर्ष हुआ और वे हनुमान् तथा पुष्कल आदिके साथ ऋषिके आश्रमपर गये। वहाँ जाकर उन्होंने मुनिके पापहारी चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। बलवानोंमें श्रेष्ठ राजा शत्रुघ्नको आया जान शौनक मुनिने अर्घ्य, पाद्य आदि देकर उनका स्वागत किया। उनके दर्शनसे मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। शत्रुघ्नजी सुखपूर्वक बैठकर जब विश्राम कर चुके तो मुनीश्वरने पूछा- 'राजन्! तुम किसलिये भ्रमण कर रहे हो? तुम्हारी यह यात्रा तो बड़ी दूरकी जान पड़ती है।' मुनिकी यह बात सुनकर राजा शत्रुघ्नका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा। वे अपना परिचय देते हुए गद्गद वाणीमें बोले-'महर्षे! मेरा अश्व अकस्मात् एक फूलोंसे सुशोभित उद्यानमें चला गया। उसके भीतर एक किनारेपर पहुँचते ही तत्काल उसका शरीर अकड़ गया। इसके कारण हमलोग अपार दुःखके समुद्रमें डूब रहे हैं; आप नौका बनकर हमें बचाइये। हमारे बड़े भाग्य थे, जो दैवात् आपका दर्शन हुआ। घोड़ेकी इस अवस्थाका प्रधान कारण क्या है? यह बताने की कृपा कीजिये।'शत्रुघ्नके इस प्रकार पूछनेपर परम बुद्धिमान् मुनिश्रेष्ठ शौनकने थोड़ी देरतक ध्यान किया। फिर एक ही क्षणमें सारा रहस्य समझमें आ गया। उनकी आँखें आश्चर्यसे खिल उठीं तथा वे दुःख और संशय में पड़े हुए राजा शत्रुघ्नसे बोले- राजन्! मैं अश्वके गात्र स्तम्भका कारण बताता हूँ, सुनो। गौड़ देशके सुरम्य प्रदेशमें, कावेरीके तटपर सात्त्विक नामका एक ब्राह्मण बड़ी भारी तपस्या कर रहा था। वह एक दिन जल पीता, दूसरे दिन हवा पीकर रहता और तीसरे दिन कुछ भी नहीं खाता था। इस प्रकार तीन-तीन दिनका व्रत लेकर वह समय व्यतीत करता था। उसका यह व्रत चल ही रहा था कि सबका विनाश करनेवाले कालने उसे अपने दाढ़ोंमें ले लिया। उस महान् व्रतधारी तपस्वीकी मृत्यु हो गयी। तत्पश्चात् वह सात्त्विक नामका ब्राह्मण सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित तथा सब तरहकी शोभासे सम्पन्न विमानपर बैठकर मेरुगिरिके शिखरपर गया। वहाँ जम्बू नामकी नदी बहती थी, जिसके किनारे तप और ध्यानमें संलग्न रहनेवाले ऋषि महर्षि निवास करते थे। वह ब्राह्मण वहीं आनन्दमग्न होकर अपनी इच्छाके अनुसार अप्सराओंके साथ विहार करने लगा। अभिमान और मदसे उन्मत्त होकर उसने वहाँ रहनेवाले ऋषियोंके प्रतिकूल बर्ताव किया। इससे रुष्ट होकर उन ऋषियोंने शाप दिया "जा, तू राक्षस हो जा; तेरा मुख विकृत हो जाय।' यह शाप सुनकर ब्राह्मणको बड़ा दुःख हुआ और उसने उन विद्वान् एवं तपस्वी ब्राह्मणोंसे कहा- 'ब्रह्मर्षियो ! आप सब लोग दयालु हैं; मुझपर कृपा कीजिये।' तब उन्होंने उसपर अनुग्रह करते हुए कहा-'जिस समय तुम श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको अपने वेगसे स्तब्ध कर दोगे, उस समय तुम्हें श्रीरामकी कथा सुननेका अवसर मिलेगा। उसके बाद इस भयंकर शापसे तुम्हारी मुक्ति हो जायगी। मुनियोंके कथनानुसार उसने यहाँ राक्षस होकर श्रीरघुनाथजीके अश्वको स्तम्भित किया है; अतः तुम कीर्तनके द्वारा घोड़ेको उसके चंगुलसेछुड़ाओ।'

मुनिका यह कथन सुनकर शत्रुवीरोंका दमनकरनेवाले शत्रुघ्नके मनमे बड़ा विस्मय हुआ वे शौनकसे बोले-'कर्मकी बात बड़ी गहन है, जिससे सात्त्विक नामधारी ब्राह्मण अपने महान् कर्मसे स्वर्गमें पहुँचकर भी पुनः राक्षसभावको प्राप्त हो गया। स्वामिन् आप कर्मोंक अनुसार जैसी गति होती है, उसका वर्णन कीजिये। जिस कर्मके परिणामसे जैसे नरककी प्राप्ति होती है, उसे बताइये।'

शौनकने कहा- रघुकुलश्रेष्ठ। तुम धन्य हो, जो तुम्हारी बुद्धि सदा ऐसी बातोंको जानने और सुननेमें लगी रहती है। इसमें संदेह नहीं कि तुम इस विषयको भलीभाँति जानते हो; तो भी लोगोंके हिसके लिये मुझसे पूछ रहे हो। महाराज! कर्मोके स्वरूप विचित्र हैं तथा उनकी गति भी नाना प्रकारकी है; मैं उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। इस विषयका श्रवण करने से मनुष्यको मोक्षको प्राप्ति हो सकती है।

जो दुष्ट बुद्धिवाला पुरुष पराये धन, परायी संतान और परायी स्त्रीको भोग-बुद्धिसे बलात् अपने अधिकारमें कर लेता है, उसको महाबली यमदूत काल पाशमें बाँधकर तामिस्र नामक नरकमें गिराते हैं और जबतक एक हजार वर्ष पूरे नहीं हो जाते, तबतक उसीमें रखते हैं। यमराजके प्रचण्ड दूत वहाँ उस पापीको खूब पीटते हैं। इस प्रकार पाप भोगके द्वारा भलीभाँति क्लेश उठाकर अन्तमें वह सूअरकी योनिमें जन्म लेता है और उसमें भी महान् दुःख भोगनेके पश्चात् वह फिर मनुष्यकी योनिमें जाता है; परन्तु वहाँ भी अपने पूर्वजन्मके कलंकको सूचित करनेवाला कोई रोग आदिका चिह्न धारण किये रहता है जो केवल दूसरे प्राणियोंसे द्रोह करके ही अपने कुटुम्बका पोषण करता है, वह पापपरायण पुरुष अन्धतामिस्र नरकमें पड़ता है। जो लोग यहाँ दूसरे प्राणियोंका वध करते हैं, ये रौरव नरकमें गिराये जाते हैं तथा रुरु नामक पक्षी रोषमें भरकर उनका शरीर नोचते हैं। जो अपने पेटके लिये दूसरे जीवोंका वध करता है, उसे यमराजकी आज्ञासे महारौरव नामक नरकमें डाला जाता है। जो पापी अपने पिता और ब्राह्मणसे द्वेष करता है, वह महान् दुःखमय कालसूत्रनरकमें, जिसका विस्तार दस हजार योजन है, पड़ता है। जो गौओंसे द्रोह करता है, उसे यमराजके किंकर नरकमें डालकर पकाते हैं; वह भी थोड़े समयतक नहीं, गौओंके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक। जो इस पृथ्वीका राजा होकर दण्ड न देनेयोग्य पुरुषको दण्ड देता है तथा लोभवश (अन्यायपूर्वक ) ब्राह्मणको भी शारीरिक दण्ड देता है, उसे सूअरके समान मुँहवाले दुष्ट यमदूत पीड़ा देते हैं। तत्पश्चात् वह शेष पापोंसे छुटकारा पानेके लिये दुष्ट योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है। जो मनुष्य मोहवश ब्राह्मणों तथा गौओंके थोड़े-से भी द्रव्य, धन अथवा जीविकाको लेते या लूटते हैं, वे परलोकमें जानेपर अन्धकूप नामक नरकमें गिराये जाते हैं। वहाँ उनको महान् कष्ट भोगना पड़ता है। जो जीभके लिये आतुर हो लोलुपतावश स्वयं ही मधुर अन्न लेकर खा जाता है, देवताओं तथा सुइदोंको नहीं देता, वह निश्चय ही 'कृमिभोजन' नामक नरकमें पड़ता है जो मनुष्य सुवर्ण आदिका अपहरण अथवा ब्राह्मणके धनकी चोरी करता है, वह अत्यन्त दुःखदायक 'संदेश' नामक नरकमें गिरता है।

जो मूढ बुद्धिवाला पुरुष केवल अपने शरीरका पोषण करता है, दूसरेको नहीं जानता, वह तपाये हुए तेलसे पूर्ण अत्यन्त भयंकर कुम्भीपाक नरकमें डाला जाता है। जो पुरुष मोहवश अगम्या स्त्रीको भार्याबुद्धिसे भोगना चाहता है, उसे यमराजके दूत उसी स्त्रीकी लोहमयी तपायी हुई प्रतिमाके साथ आलिंगन करवाते हैं। जो अपने बलसे उन्मत्त होकर बलपूर्वक वेदकी मर्यादाका लोप करते हैं, वे वैतरणी नदीमें डूबकर मांस और रक भोजन करते हैं। जो द्विज होकर शूद्रकी स्त्रीको अपनी भार्या बनाकर उसके साथ गृहस्थी चलाता है, वह निश्चय ही 'प्योद' नामक नरकमें गिरता है। वहाँ उसे बहुत दुःख भोगना पड़ता है। जो धूर्त लोगोंको धोखेमें डालनेके लिये दम्भका आश्रय लेते हैं, वे मूढ वैशस नामक नरकमै डाले जाते हैं और वहाँ उनपर यमराजकी मार पड़ती है। जो मूढ सवर्णा (समान गोत्रवाली) स्त्रीकी योनिमें वीर्यपात करते हैं, उन्हें वीर्यकी नहरमेंडाला जाता है और वे वीर्य पीकर ही रहते हैं। जो लोग चोर, आग लगानेवाले, दुष्ट, जहर देनेवाले और गाँवोंको लूटनेवाले हैं, वे महापातकी जीव 'सारमेयादन' नरकमें गिराये जाते हैं। जो पापराशिका संचय करनेवाला पुरुष झूठी गवाही देता या बलपूर्वक दूसरोंका धन छीन लेता है, वह पापी 'अवीचि' नामक नरकमें नीचे सिर करके डाल दिया जाता है। उसमें महान् दुःख भोगनेके पश्चात् वह पुनः अत्यन्त पापमयी योनिमें जन्म लेता है। जो मूढ सुरापान करता है, उसे धर्मराजके दूत गरम-गरम लोहेका रस पिलाते हैं। जो अपनी विद्या और आचारके घमंडमें आकर गुरुजनोंका अनादर करता है, वह मनुष्य मृत्युके पश्चात् 'क्षार' रकमें नीचे मुँह करके गिराया जाता है। जो लोग धर्मसे बहिष्कृत होकर विश्वासघात करते हैं, उन्हें अत्यन्त यातनापूर्ण 'शूलप्रोत' नरकमें डाला जाता है। जो चुगली करके सब लोगोंको अपने वचनसे उद्वेगमें डाला करता है, वह 'दंदशूक' नामक नरकमें पड़कर दंदशूकों (सर्पों) द्वारा डँसा जाता है। राजन्। इस प्रकार पापियोंके लिये अनेकों नरक हैं: पाप करके वे उन्होंमें जाते और अत्यन्त भयंकर यातना भोगते हैं। जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजीकी कथा नहीं सुनी है तथा दूसरोंका उपकार नहीं किया है, उनको नरकके भीतर सब तरहके दुःख भोगने पड़ते हैं। इस लोकमें भी जिसको अधिक सुख प्राप्त है, उसके लिये वह स्वर्ग कहलाता है तथा जो रोगी और दुःखी हैं, वे नरकमें ही हैं। दान-पुण्यमें लगे रहने, तीर्थ आदिका सेवन
करने, श्रीरघुनाथजीकी लीलाओंको सुनने अथवा तपस्या
करनेसे पापका नाश होता है। हरिकीर्तनरूपी नदी हीमनुष्योंके लिये सब उपायोंसे श्रेष्ठ है। वह पापियोंके सारे पाप पंकको धो डालती है। इस विषय में कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। * जो भगवान्का अपमान करता है, उसे गंगा भी पवित्र नहीं कर सकती। पवित्र से पवित्र तीर्थ भी उसे पावन बनानेकी शक्ति नहीं रखते। जो ज्ञानहीन होनेके कारण भगवान्‌के लीला कीर्तनका उपहास करता है, उसको कल्पके अन्ततक भी नरकसे छुटकारा नहीं मिलता। राजन्! अब तुम जाओ और घोड़ेको संकटसे छुड़ानेके लिये सेवकोंसहित भगवान्‌का चरित्र सुनाओ, जिससे अश्वमें पुनः चलने-फिरनेकी शक्ति आ जाय।

शेषजी कहते हैं-शौनकजीकी उपर्युक्त बात सुनकर शत्रुघ्नको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे मुनिको प्रणाम और परिक्रमा करके सेवकोंसहित चले गये। वहाँ जाकर हनुमान्जीने घोड़ेके पास श्रीरघुनाथजीके चरित्रका वर्णन किया, जो बड़ी-से-बड़ी दुर्गतिका नाश करनेवाला है। अन्तमें उन्होंने कहा- 'देव! आप श्रीरामचन्द्रजीके कीर्तनके पुण्यसे अपने विमानपर सवार होइये और स्वेच्छानुसार अपने लोकमें विचरण कीजिये। इस कुत्सित योनिसे अब आपका छुटकारा हो जाय।' यह वाक्य सुनकर देवताने कहा- 'राजन् ! मैं श्रीरामचन्द्रजीका कीर्तन सुननेसे पवित्र हो गया। महामते! अब मैं अपने लोकको जा रहा हूँ; आप मुझे आज्ञा दीजिये।' यह कहकर देवता विमानपर बैठे हुए स्वर्ग चले गये। उस समय यह दृश्य देखकर शत्रुघ्न और उनके सेवकोंको बड़ा विस्मय हुआ। तदनन्तर वह अश्व गात्र-स्तम्भसे मुक्त होकर पक्षियोंसे भरे हुए उस उद्यानमें सब ओर भ्रमण करने लगा ।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान