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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 21 - Khand 1, Adhyaya 21

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आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन

भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! जो अभ्यास न होनेके कारण अथवा रोगवश उपवास करनेमें असमर्थ है, किन्तु उसका फल चाहता है, उसके लिये कौन-सा व्रत उत्तम है- यह बताइये। पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! जो लोग उपवास करनेमें असमर्थ हैं, उनके लिये वहीं व्रत अभीष्ट हैं,जिसमें दिनभर उपवास करके रात्रिमें भोजनका विधान हो; मैं ऐसे महान् व्रतका परिचय देता हूँ, सुनो। उस व्रतका नाम है- आदित्य-शयन। उसमें विधिपूर्वक भगवान् शंकरकी पूजा की जाती है। पुराणोंके ज्ञाता महर्षि जिन नक्षत्रोंके योगमें इस व्रतका उपदेश करते हैं, उन्हें बताता हूँ। जब सप्तमी तिथिको हस्त नक्षत्रके साथरविवार हो अथवा सूर्यकी संक्रान्ति हो, वह तिथि समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली होती है उस दिन सूर्यके नामोंसे भगवती पार्वती और महादेवजीकी पूजा करनी चाहिये। सूर्यदेवकी प्रतिमा तथा शिवलिंगका भी भक्तिपूर्वक पूजन करना उचित है। हस्त नक्षत्रमें 'सूर्याय नमः' का उच्चारण करके सूर्यदेवके चरणोंकी, चित्रा नक्षत्रमें 'अर्काय नमः' कहकर उनके गुल्फों (घुट्टियों) की स्वाती नक्षत्रमें 'पुरुषोत्तमाय नमः' से पिण्डलियोंकी, विशाखायें 'धात्रे नमः' से घुटनोंकी तथा अनुराधामें 'सहस्वभानवे नमः' से दोनों जाँघोंकी पूजा करनी चाहिये। ज्येष्ठा नक्षत्रमें 'अनङ्गाय नमः' से गुह्य प्रदेशकी मूलमें 'इन्द्राय नमः' और 'भीमाय नमः' से कटिभागकी, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढामें 'त्वष्ट्रे नमः' और 'सप्ततुरङ्गमाय नमः' से नाभिकी, श्रवणमें 'तीक्ष्णांशवे नमः' से उदरकी, धनिष्ठामें 'विकर्तनाय नमः' से दोनों बगलोंकी और शतभिषा नक्षत्रमें 'ध्वान्तविनाशनाय नमः' से सूर्यके वक्षःस्थलकी पूजा करनी चाहिये। पूर्वा और उत्तराभाद्रपदामें 'चण्डकराय नमः' से दोनों भुजाओंका, रेवतीमें 'साम्नामधीशाय नमः ' से दोनों हाथोंका, अश्विनीमें 'सप्ताश्वधुरन्धराय नमः' से नखोंका और भरणीमें 'दिवाकराय नमः' से भगवान् सूर्यके कण्ठका पूजन करे। कृत्तिकामें ग्रीवाकी, रोहिणी में ओठोंकी, मृगशिरामें जिह्वाकी तथा आर्द्रा 'हरये नमः' से सूर्यदेवके दाँतोंकी अर्चना करे। पुनर्वसुमें 'सवित्रे नमः' से शंकरजीकी नासिकाका, पुष्यमें 'अम्भोरुहवल्लभाय नमः' से ललाटका 'वेदशरीरधारिणे नमः' से बालोंका, आश्लेषामें 'विबुधप्रियाय नमः' से मस्तकका, मघामें दोनों कानोंका, पूर्वाफाल्गुनी में 'गोब्राह्मणनन्दनाय नमः' से शम्भुके सम्पूर्ण अंगोंका तथा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें 'विश्वेश्वराय नमः' से उनकी दोनों भौंहोंका पूजन करें। 'पाश, अंकुश, कमल, त्रिशूल, कपाल, सर्प, चन्द्रमा तथा धनुष धारणकरनेवाले श्रीमहादेवजीको नमस्कार है। '2 'गयासुर कामदेव, त्रिपुर और अन्धकासुर आदिके विनाशके मूल कारण भगवान् श्रीशिवको प्रणाम है। '2 इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करके प्रत्येक अंगकी पूजा करनेके पश्चात् 'विश्वेश्वराय नमः' से भगवान्‌के मस्तकका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर अन्न भोजन करना उचित है। भोजनमें तेल और खारे नमकका सम्पर्क नहीं रहना चाहिये। मांस और उच्छिष्ट अन्नका तो कदापि सेवन न करे।

राजन् ! इस प्रकार रात्रिमें शुद्ध भोजन करके पुनर्वसु नक्षत्रमें दान करना चाहिये। किसी बर्तनमें एक सेर अगहनीका चावल, गूलरकी लकड़ीका पात्र तथा मृत रखकर सुवर्णके साथ उसे ब्राह्मणको दान करे। सातवें दिन के पारणमें और दिनोंकी अपेक्षा एक जोड़ा वस्त्र अधिक दान करना चाहिये। चौदहवें दिनके पारणमें गुड़, खीर और घृत आदिके द्वारा ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक भोजन कराये। तदनन्तर कर्णिकासहित सोनेका अष्टदल कमल बनवाये, जो आठ अंगुलका हो तथा जिसमें पद्मरागमणि (नीलम) की पत्तियाँ अंकित की गयी हों फिर सुन्दर शय्या तैयार करावे, जिसपर सुन्दर बिछौने बिछाकर तकिया रखा गया हो और ऊपरसे चैदोवा तना हो । शय्याके ऊपर पंखा रखा गया हो। उसके आस-पास खड़ाऊँ, जूता, छत्र, चँवर, आसन और दर्पण रखे गये हों। फल, वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणोंसे वह शय्या सुशोभित होनी चाहिये। ऊपर बताये हुए सोनेके कमलको उस शय्यापर रख दे। इसके बाद मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूध देनेवाली अत्यन्त सीधी कपिला गौका दान करे। वह गौ उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित और बछड़ेसहित होनी चाहिये। उसके खुर चाँदीसे और सींग सोनेसे मॅढ़े होने चाहिये तथा उसके साथ कौसीकी दोहनी होनी चाहिये। दिनके पूर्व भागमें ही दान करना उचित है। समयका उल्लंघनकदापि नहीं करना चाहिये। शय्यादानके पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करे सूर्यदेव! जिस प्रकार आपकी शय्या कान्ति, धृति, श्री और पुष्टिसे कभी सूनी नहीं होती, वैसे ही मेरी भी वृद्धि हो। वेदोंके विद्वान् आपके सिवा और किसीको निष्पाप नहीं जानते, इसलिये आप सम्पूर्ण दुःखोंसे भरे हुए इस संसार सागरसे मेरा उद्धार कीजिये।' इसके पश्चात् भगवान्‌की प्रदक्षिणा करके उन्हें प्रणाम करनेके अनन्तर विसर्जन करे। शय्या और श्री आदिको ब्राह्मणके घर पहुँचा दे।

भगवान् शंकरके इस व्रतकी चर्चा दुराचारी और दम्भी पुरुषके सामने नहीं करनी चाहिये जो गी. ब्राह्मण देवता, अतिथि और धार्मिक पुरुषोंको विशेषरूपसे निन्दा करता है, उसके सामने भी इसको प्रकट न करे। भगवान्‌के भक्त और जितेन्द्रिय पुरुषके समक्ष ही यह आनन्ददायी एवं कल्याणमय गूढ़ रहस्य प्रकाशित करने योग्य है। वेदवेता पुरुषोंका कहना है कि यह व्रत महापातकी मनुष्योंके भी पापोंका नाश कर देता है। जो पुरुष इस व्रतका अनुष्ठान करता है, उसका बन्धु, पुत्र, धन और स्त्रीसे कभी वियोग नहीं होता तथा वह देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला माना जाता है। इसी प्रकार जो नारी भक्तिपूर्वक इस व्रतका पालन करती है, उसे कभी रोग, दुःख और मोहका शिकार नहीं होना पड़ता। प्राचीन कालमें महर्षि वसिष्ठ, अर्जुन, कुबेर तथा इन्द्रने इस व्रतका आचरण किया था। इस व्रतके कीर्तनमात्रसे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो पुरुष इस आदित्यशयन नामक व्रतके माहात्म्य एवं विधिका पाठ या श्रवण करता है, वह इन्द्रका प्रियतम होता है तथा जो इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह नरकमें भी पड़े हुए समस्त पितरोंको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है। भीष्मजीने कहा—मुने! अब आप चन्द्रमाके व्रतका वर्णन कीजिये पुलस्त्यजी बोले- राजन्। तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है। अब मैं तुम्हें वह गोपनीय व्रत बतलाता हूँ, जो अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है तथा जिसेपुराणवेत्ता विद्वान् ही जानते हैं। इस लोकमें 'रोहिणी चन्द्र-शयन' नामक व्रत बड़ा ही उत्तम है। इसमें चन्द्रमाके नामद्वारा भगवान् नारायणकी प्रतिमाका पूजन करना चाहिये। जब कभी सोमवारके दिन पूर्णिमा तिथि हो अथवा पूर्णिमाको रोहिणी नक्षत्र हो, उस दिन मनुष्य सबेरे पंचगव्य और सरसोंके दानोंसे युक्त जलसे स्नान करे तथा विद्वान् पुरुष 'आप्यायस्व0' इत्यादि मन्त्रको आठ सौ बार जपे यदि शूद्र भी इस व्रतको करे तो अत्यन्त भक्तिपूर्वक 'सोमाय नमः', 'वरदाय नमः', 'विष्णवे नमः ' - इन मन्त्रोंका जप करे और पाखण्डियोंसे-विधर्मियोंसे बातचीत न करे। जप करनेके पश्चात् घर आकर फल-फूल आदिके द्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजा करे। साथ ही चन्द्रमाके नामोंका उच्चारण करता रहे। 'सोमाय शान्ताय नमः' कहकर भगवान्के चरणोंका, 'अनन्तधाम्ने नमः' का उच्चारण करके उनके घुटनों और पिण्डलियोंका, 'जलोदराय नमः' से दोनों जाँघोंका, 'कामसुखप्रदाय नमः' से चन्द्रस्वरूप भगवान्के कटिभागका, ‘अमृतोदराय नमः' से उदरका, 'शशाङ्काय नमः' से नाभिका, 'चन्द्राय नमः' से मुखमण्डलका, 'द्विजानामधिपाय नमः' से दाँतोंका, 'चन्द्रमसे नमः ' से मुँहका, 'कौमोदवनप्रियाय नमः' से ओठोंका, 'वनौषधीनामधिनाथाय नमः' से नासिकाका, आनन्दबीजाय से दोनों भौंहोंका, 'इन्दीवरव्यासकराय नमः' से भगवान् श्रीकृष्णके कमल-सदृश नेत्रका, 'समस्तासुरवन्दिताय दैत्यनिषूदनाय नमः' से दोनों कानोंका, 'उदधिप्रियाय नमः' से चन्द्रमाके ललाटका, 'सुषुम्नाधिपतये नमः' से केशोंका, 'शशाङ्काय नमः' से मस्तकका और 'विश्वेश्वराय नमः' से भगवान् मुरारिके किरीटका पूजन करे। फि 'रोहिणीनामधेयलक्ष्मी सौभाग्यसौख्यामृत सागराय पद्मश्रिये नमः' (रोहिणी नाम धारण करने वाली लक्ष्मीके सौभाग्य और सुखरूप अमृतके समुद्र तथा कमलकी-सी कान्तिवाले भगवान्‌को नमस्कार है) – इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान्के सामनेमस्तक झुकाये। तत्पश्चात् सुगन्धित पुष्प, नैवेद्य और धूप आदिके द्वारा इन्दुपत्नी रोहिणी देवीका भी पूजन करे।

इसके बाद रात्रिके समय भूमिपर शयन करे और सबेरे उठकर स्नानके पश्चात् 'पापविनाशाय नमः' का उच्चारण करके ब्राह्मणको घृत और सुवर्णसहित जलसे भरा कलश दान करे। फिर दिनभर उपवास करनेके पश्चात् गोमूत्र पीकर मांसवर्जित एवं खारे नमकसे रहित अन्नके इकतीस ग्रास घीके साथ भोजन करे। तदनन्तर दो घड़ीतक इतिहास, पुराण आदिका श्रवण करे। राजन् ! चन्द्रमाको कदम्ब, नील कमल, केवड़ा, जाती पुष्प, कमल, शतपत्रिका बिना कुम्हलाये कुब्जके फूल, सिन्दुवार, चमेली, अन्यान्य श्वेत पुष्प, करवीर तथा चम्पा- ये ही फूल चढ़ाने चाहिये। उपर्युक्त फूलोंकी जातियोंमेंसे एक-एकको त्रावण आदि महीनों में क्रमशः अर्पण करे। जिस महीने में व्रत शुरू किया जाय, उस समय जो भी पुष्प सुलभ हों, उन्हींके द्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये।

इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिवत् अनुष्ठान करके समाप्तिके समय शयनोपयोगी सामग्रियोंके साथ शय्यादान करे। रोहिणी और चन्द्रमाकी सुवर्णमयी मूर्ति बनवाये। उनमें चन्द्रमा छः अंगुलके और रोहिणी चार अंगुलकी होनी चाहिये। आठ मोतियोंसे युक्त श्वेत नेत्रोंवाली उन प्रतिमाओंको अक्षतसे भरे हुए काँसीके पात्रमें रखकर दुग्धपूर्ण कलशके ऊपर स्थापित कर दे। फिर वस्त्र और दोहनीके साथ दूध देनेवाली गौ, शंख तथा पात्र प्रस्तुत करे। उत्तम गुणोंसे युक्त ब्राह्मण-दम्पतीको बुलाकर उन्हें आभूषणोंसे अलंकृत करे तथा मनमें यह भावना रखे कि ब्राह्मण-दम्पतीके रूपमें ये रोहिणीसहित चन्द्रमा ही विराजमान हैं। तत्पश्चात् इनकी इस प्रकार प्रार्थना करे- 'चन्द्रदेव! आप ही सबको परम आनन्द और मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। आपकी कृपासे मुझे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हो।' [ इस प्रकारविनय करके शय्या, प्रतिमा तथा धेनु आदि सब कुछ ब्राह्मणको दान कर दे।]

राजन्। जो संसारसे भयभीत होकर मोक्ष पानेकी इच्छा रखता है, उसके लिये यही एक व्रत सर्वोत्तम है। यह रूप और आरोग्य प्रदान करनेवाला है। यही पितरोंको सर्वदा प्रिय है। जो इसका अनुष्ठान करता है वह त्रिभुवनका अधिपति होकर इक्कीस सी कल्पोंतक चन्द्र-लोकमें निवास करता है। उसके बाद विद्युत् होकर मुक्त हो जाता है। चन्द्रमा नाम कीर्तनद्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजाका यह प्रसंग जो पढ़ता अथवा सुनता है, उसे भगवान् उत्तम बुद्धि प्रदान करते हैं तथा वह भगवान् श्रीविष्णुके धाममें जाकर देवसमूहके द्वारा पूजित होता है।

भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन्! अब मुझे तालाब, बगीचा कुआँ, बावली, पुष्करिणी तथा देवमन्दिरको प्रतिष्ठा आदिका विधान बतलाइये।

पुलस्त्यजी बोले- महाबाहो ! सुनो; तालाब आदिकी प्रतिष्ठाका जो विधान है, उसका इतिहास पुराणोंमें इस प्रकार वर्णन है। उत्तरायण आनेपर शुभ | शुक्लपक्षमें ब्राह्मणद्वारा कोई पवित्र दिन निश्चित करा ले। उस दिन ब्राह्मणोंका वरण करे और तालाबके समीप, जहाँ कोई अपवित्र वस्तु न हो, चार हाथ लम्बी और उतनी ही चौड़ी चौकोर वेदी बनाये वेदी सब ओर समतल हो और चारों दिशाओंमें उसका मुख हो । फिर सोलह हाथका मण्डप तैयार कराये। जिसके चारों ओर एक-एक दरवाजा हो। वेदीके सब ओर कुण्ठोंका निर्माण कराये। कुण्डोंकी संख्या नी. सात या पाँच होनी चाहिये। कुण्डोंकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक रनिकी हो तथा वे सभी तीन-तीन मेखलाओंसे सुशोभित हो। उनमें यथास्थान योनि और मुख भी बने होने चाहिये। योनिको लम्बाई एक बित्ता और चौड़ाई छ: सात अंगुलकी हो । मेखलाएँ तीन पर्व 2 ऊँची और एक हाथ लम्बी होनीचाहिये। वे चारों ओरसे एक समान- एक रंगकी बनी हो। सबके समीप ध्वजा और पताकाएँ लगायी जायँ । पाकड़ मण्डपके चारों ओर क्रमशः पीपल, गूलर, उ और बरगदकी शाखाओंके दरवाजे बनाये जायें। वहाँ आठ होता, आठ द्वारपाल तथा आठ जप कानेवाले ब्राह्मणका वरण किया जाय वे सभी ब्राह्मण वेदोंके पारगामी विद्वान् होने चाहिये। सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, मन्त्रोंक ज्ञाता, जितेन्द्रिय कुलीन, शीलवान् एवं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको ही इस कार्यमें नियुक्त करना चाहिये। प्रत्येक कुण्डके पास कलश, यज्ञ-सामग्री, निर्मल आसन और दिव्य एवं विस्तृत ताम्रपात्र प्रस्तुत रहें।

तदनन्तर प्रत्येक देवताके लिये नाना प्रकारकी बलि (दही, अक्षत आदि उत्तम भक्ष्य पदार्थ) उपस्थित करे। विद्वान् आचार्य मन्त्र पढ़कर उन सामग्रियोंके द्वारा पृथ्वीपर सब देवताओंके लिये बलि समर्पण करे। अलिके बराबर एक ग्रुप (यज्ञस्तम्भ) स्थापित किया जाय, जो किसी दूधवाले वृक्षकी शाखाका बना हुआ हो ऐश्वर्य चाहनेवाले पुरुषको यजमानके शरीरके बराबर ऊँचा यूप स्थापित करना चाहिये। उसके बाद पचीस ऋत्विजोंका वरण करके उन्हें सोनेके आभूषणोंसे विभूषित करे। सोनेके बने कुण्डल, बाजूबंद, कड़े, अंगूठी, पवित्री तथा नाना प्रकारके वस्त्र- ये सभी आभूषण प्रत्येक ऋत्विजको बराबर-बराबर दे और आचार्यको दूना अर्पण करे। इसके सिवा उन्हें शय्या तथा अपनेको प्रिय लगनेवाली अन्यान्य वस्तुएँ भी प्रदान करे सोनेका बना हुआ कछुआ और मगर, चाँदीके मत्स्य और दुन्दुभ, ताँबेके केंकड़ा और मेढक तथा लोहेके दो सूँस बनवाकर सबको सोनेके पात्रमें रखे इसके बाद यजमान वेद विद्वानोंकी बतायी हुई विधिके अनुसार सर्वोषधि-मिश्रित जलसे स्नान करके श्वेत वस्त्र और श्वेत माला धारण करे। फिर श्वेत 1 चन्दन लगाकर पत्नी और पुत्र-पौत्र के साथ पश्चिमद्वारसे यह मण्डप प्रवेश करे। उस समय मांगलिक शब्द होने चाहिये और भेरी आदि बाजे बजने चाहिये।तदनन्तर विद्वान् पुरुष पाँच रंगके चूर्णोंसे मण्डल बनाये और उसमें सोलह अरोंसे युक्त चक्र चिह्नित करे। उसके गर्भमें कमलका आकार बनाये। चक्र देखनेमें सुन्दर और चौकोर हो। चारों ओरसे गोल होनेके साथ ही मध्यभागमें अधिक शोभायमान जान पड़ता हो। उस चक्रको वेदीके ऊपर स्थापित करके उसके चारों ओर प्रत्येक दिशामें मन्त्र - पाठपूर्वक ग्रहों और लोकपालोंकी स्थापना करे। फिर मध्यभागमें वरुण सम्बन्धी मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए एक कलश स्थापित करे और उसीके ऊपर ब्रह्मा, शिव, विष्णु, गणेश, लक्ष्मी तथा पार्वतीकी भी स्थापना करे। इसके पश्चात् सम्पूर्ण लोकोंकी शान्तिके लिये भूतसमुदायको स्थापित करे। इस प्रकार पुष्प, चन्दन और फलोंके द्वारा सबकी स्थापना करके कलशोंके भीतर पंचरत्न छोड़कर उन्हें वस्त्रोंसे आवेष्टित कर दे। फिर पुष्प और चन्दनके द्वारा उन्हें अलंकृत करके द्वार- रक्षाके लिये नियुक्त ब्राह्मणोंसे वेदपाठ करनेके लिये कहे और स्वयं आचार्यका पूजन करे। पूर्वद्वारकी ओर दो ऋग्वेदी, दक्षिणद्वारपर दो यजुर्वेदी, पश्चिमद्वारपर दो सामवेदी तथा उत्तरद्वारपर दो अथर्ववेदी विद्वानोंको रखना चाहिये। यजमान मण्डलके दक्षिण भागमें उत्तराभिमुख होकर बैठे और द्वार-रक्षक विद्वानोंसे कहे- 'आपलोग वेदपाठ करें।' फिर यज्ञ करानेवाले आचार्यसे कहे- 'आप यज्ञ प्रारम्भ करायें।' तत्पश्चात् जप करनेवाले ब्राह्मणोंसे कहे- 'आपलोग उत्तम मन्त्रका जप करते रहें।' इस प्रकार सबको प्रेरित करके मन्त्रज्ञ पुरुष अग्निको प्रज्वलित करे तथा मन्त्र पाठपूर्वक घी और समिधाओंकी आहुति दे । ऋत्विजोंको भी वरुण सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा सब ओरसे हवन करना चाहिये। ग्रहोंके निमित्त विधिवत् आहुति देकर उस यज्ञकर्ममें इन्द्र, शिव, मरुद्गण और लोकपालोंके निमित्त भी विधिपूर्वक होम करे।

पूर्वद्वारपर नियुक्त ऋग्वेदी ब्राह्मण शान्ति, रुद्र, पवमान, सुमंगल तथा पुरुषसम्बन्धी सूक्तोंका पृथक् पृथक् जप करे। दक्षिणद्वारपर स्थित यजुर्वेदी विद्वान् इन्द्र, रुद्र, सोम, कूष्माण्ड, अग्नि तथा सूर्य-सम्बन्धीकोंका जप करे पश्चिमद्वारपर रहनेवाले सामवेदी ब्राह्मण वैराजसाम, पुरुषसूक्त, सुपर्णसूक्त, रुद्रसंहिता, शिशु पंचनिधनत, गायत्रसाम, ज्येष्ठसाम वामदेव्यसाम, बृहत्साम, रौरवसाम, रथन्तरसाम, गोव्रत, विकीर्ण, रक्षोघ्न और यम सम्बन्धी सामोंका गान करें। उत्तरद्वारके अर्थवेदी विद्वान् मन-ही-मन भगवान् वरुणदेवकी शरण ले शान्ति और पुष्टि सम्बन्धी मन्त्रोंका जप करें। इस प्रकार पहले दिन मन्त्रद्वारा देवताओंकी स्थापना करके हाथी और घोड़ेके पैरोंके नीचेकी, जिसपर रथ चलता हो ऐसी सड़क, बाँबीकी, दो नदियोंके संगमकी, गोशालाकी तथा साक्षात् गौओके पैर नीचेकी मिट्टी लेकर कलोंमें छोड़ दे। उसके बाद सर्वौषधि, गोरोचन, सरसोंके दाने, चन्दन और गूगल भी छोड़े। फिर पंचगव्य (दधि, दूध, घी, गोबर और गोमूत्र) मिलाकर उन कलशोंके जलसे यजमानका विधिपूर्वक अभिषेक करे। अभिषेकके समय विद्वान् पुरुष वेदमन्त्रोंका पाठ करते रहें।

इस प्रकार शास्त्रविहित कर्मके द्वारा रात्रि व्यतीत करके निर्मल प्रभातका उदय होनेपर हवनके अन्तमें ब्राह्मणोंको सौ, पचास, छत्तीस अथवा पचीस गौ दान करे। तदनन्तर शुद्ध एवं सुन्दर लग्न आनेपर वेदपाठ, संगीत तथा नाना प्रकारके बाजकी मनोहर ध्वनिके साथ एक गौको सुवर्ण अलंकृत करके तालाबके जलमें उतारे और उसे सामगान करनेवाले ब्राह्मणको दान कर दे। तत्पश्चात् पंचरत्नोंसे युक्त सोनेका पात्र लेकर उसमें पूर्वोक्त मगर और मछली आदिको रखे और उसे किसी बड़ी नदीसे मँगाये हुए जलसे भर दे। फिर उस पात्रको दही- अक्षत से विभूषित करके वेद और वेदांगों के विद्वा चार ब्राह्मण हाथसे पकड़ें और यजमानकी प्रेरणासे उसे उत्तराभिमुख उलटकर तालाब जल डाल दें। इस प्रकार 'आपो मयो0' इत्यादि मन्त्रके द्वारा उसे जलमें डालकर पुनः सब लोग यज्ञ मण्डपमें आ जायें और यजमान सदस्योंकी पूजा करके सब ओर देवताओंके उद्देश्यसे बलि अर्पण करे। इसके बाद लगातार चार दिनोंतक हवन होना चाहिये। चौथे दिन चतुर्थी-कर्मकरना उचित है। उसमें भी यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये। चतुर्थी कर्म पूर्ण करके यज्ञ सम्बन्धी जितने पात्र और सामग्री हों, उन्हें ऋत्विजोंमें बराबर बाँट देना चाहिये। फिर मण्डपको भी विभाजित करे। सुवर्णपात्र और शय्या किसी ब्राह्मणको दान कर दे। इसके बाद अपनी शक्तिके अनुसार हजार, एक सौ आठ, पचास अथवा बीस ब्राह्मणोंको भोजन कराये। पुराणोंमें तालाबकी प्रतिष्ठा के लिये यही विधि बतलायी गयी है। कुआँ बावली और पुष्करिणीके लिये भी यही विधि है। देवताओंकी प्रतिष्ठामें भी ऐसा ही विधान समझना चाहिये। मन्दिर और बगीचे आदिके प्रतिष्ठा कार्यमें केवल मन्त्रोंका ही भेद है। विधि-विधान प्रायः एक से ही हैं। उपर्युक्त विधिका यदि पूर्णतया पालन करनेकी शक्ति न हो तो आधे व्ययसे भी यह कार्य सम्पन्न हो सकता है। यह बात ब्रह्माजीने कही है।

जिस पोखरेमें केवल वर्षाकालमें ही जल रहता है, वह सौ अग्निष्टोम यज्ञोंके बराबर फल देनेवाला होता है। जिसमें शरत्कालतक जल रहता हो, उसका भी यही फल है। हेमन्त और शिशिरकालतक रहनेवाला जल क्रमशः वाजपेय और अतिरात्र नामक यज्ञका फल देता है। वसन्तकालतक टिकनेवाले जलको अश्वमेध यज्ञके समान फलदायक बतलाया गया है तथा जो जल ग्रीष्मकालतक मौजूद रहता है, वह राजसूय यज्ञसे भी अधिक फल देनेवाला होता है।

महाराज ! जो मनुष्य पृथ्वीपर इन विशेष धर्मोका पालन करता है-विधिपूर्वक कुआँ, बावली, पोखरा आदि खुदवाता है तथा मन्दिर, बगीचा आदि बनवाता है, वह शुद्धचित्त होकर ब्रह्माजीके लोकमें जाता है और वहाँ अनेकों कल्पोंतक दिव्य आनन्दका अनुभव करता है। दो परार्द्ध (ब्रह्माजीकी आयु तक वहाँका मुख भोगनेके पश्चात् ब्रह्माजीके साथ ही योगबल से श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है।

भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! अब आप मुझे विस्तारके साथ वृक्ष लगाने की यथार्थ विधि बतलाइये। विद्वानोंको किस विधिसे वृक्ष लगाने चाहिये ?पुलस्त्यजी बोले- राजन्! बगीचेमें वृक्षोंके लगानेकी अ विधि मैं तुम्हें बतलाता हूँ। तालाबकी प्रतिष्ठाकेद विषयमें जो विधान बतलाया गया है, उसीके समान सारी विधि पूर्ण करके वृक्षके पौधोंको सर्वोषधि मिश्रित जलसे सींचे फिर उनके ऊपर दही और अक्षत छोड़े। उसके बाद उन्हें पुष्प-मालाओंसे अलंकृत करके वस्त्रमें लपेट दे। वहाँ गूगलका धूप देना श्रेष्ठ माना गया है। वृक्षोंको पृथक्-पृथक् ताम्रपात्रमें रखकर उन्हें सप्तधान्यसे आवृत करे तथा उनके ऊपर वस्त्र और चन्दन चढ़ाये फिर प्रत्येक वृक्षके पास कलश स्थापन करके उन कलशोंकी पूजा करे और रात में द्विजातियोंद्वारा इन्द्रादि लोकपालों तथा वनस्पतिका विधिवत् अधिवास कराये। तदनन्तर दूध देनेवाली एक गौको लाकर उसे श्वेत वस्त्र ओढ़ाये। उसके मस्तकपर सोनेकी कलगी लगाये, सींगोंको सोनेसे मँझ दे। उसको दुहनेके लिये काँसेकी दोहनी प्रस्तुत करे। इस प्रकार अत्यन्त शोभासम्पन्न उस गौको उत्तराभिमुख खड़ी करके वृक्षोंके बीचसे छोड़े। तत्पश्चात् श्रेष्ठ ब्राह्मण बाजों और मंगलगीतोंकी ध्वनिके साथ अभिषेकके मन्त्र- तीनों वेदोंकी वरुणसम्बन्धिनी ऋचाएँ पढ़ते हुए उक्त कलशोंके जलसे यजमानका अभिषेक करें। अभिषेकके पश्चात् नहाकर यज्ञकर्ता पुरुष श्वेत वस्त्र धारण करे और अपनी सामर्थ्यके अनुसार गौ, सोनेकी जंजीर, कड़े, अँगूठी, पवित्री, वस्त्र, शय्या, शय्योपयोगी सामान तथा चरणपादुका देकर एकाग्र चित्तवाले सम्पूर्ण ऋत्विजोंका पूजन करे। इसके बाद चार दिनोंतक दूधसे अभिषेक तथा घी, जौ और काले तिलोंसे होम करे। होममें पलाश (ढाक) की लकड़ी उत्तम मानी गयी है। वृक्षारोपणके पश्चात् चौथे दिन विशेष उत्सव करे। उसमें अपनी शक्तिके । अनुसार पुनः दक्षिणा दे। जो-जो वस्तु अपनेको अधिक प्रिय हो, ईर्ष्या छोड़कर उसका दान करे। आचार्यको दूनी दक्षिणा दे तथा प्रणाम करके यड़की | समाप्ति करे। जो विद्वान् उपर्युक्त विधिसे वृक्षारोपणका उत्सव करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती है तथा वहअक्षय फलका भागी होता है। राजेन्द्र ! जो इस प्रकार वृक्षकी प्रतिष्ठा करता है, वह जबतक तीस हजार इन्द्र समाप्त हो जाते हैं, तबतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। उसके शरीरमें जितने रोम होते हैं, अपने पहले और पीछेकी उतनी ही पीढ़ियोंका वह उद्धार कर देता है तथा उसे पुनरावृत्तिसे रहित परम सिद्धि प्राप्त होती है। जो मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसंगको सुनता या सुनाता है, वह भी देवताओंद्वारा सम्मानित और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। वृक्ष पुत्रहीन पुरुषको पुत्रवान् होनेका फल देते हैं। इतना ही नहीं, वे अधिदेवतारूपसे तीर्थोंमें जाकर वृक्ष लगानेवालोंको पिण्ड भी देते हैं। अतः भीष्म ! तुम यत्नपूर्वक पीपलके वृक्ष लगाओ। वह अकेला ही तुम्हें एक हजार पुत्रोंका फल देगा। पीपलका पेड़ लगानेसे मनुष्य धनी होता है। अशोक शोकका नाश करनेवाला है। पाकड़ यज्ञका फल देनेवाला बताया गया है। नीमका वृक्ष आयु प्रदान करनेवाला माना गया है। जामुन कन्या देनेवाला कहा गया है। अनारका वृक्ष पत्नी प्रदान करता है। पीपल रोगका नाशक और पलाश ब्रह्मतेज प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य बहेड़ेका वृक्ष लगाता है, वह प्रेत होता है। अंकोल लगानेसे वंशकी वृद्धि होती है। खैरका वृक्ष लगानेसे आरोग्यकी प्राप्ति होती है। नीम लगानेवालोंपर भगवान् सूर्य प्रसन्न होते हैं। बेलके वृक्षमें भगवान् शंकरका और गुलाबके पेड़में देवी पार्वतीका निवास है। अशोक वृक्षमें अप्सराएँ और कुन्द (मोगरे)-के पेड़में श्रेष्ठ गन्धर्व निवास करते हैं। बेंतका वृक्ष लुटेरोंको भय प्रदान करनेवाला है। चन्दन और कटहलके वृक्ष क्रमशः पुण्य और लक्ष्मी देनेवाले हैं। चम्पाका वृक्ष सौभाग्य प्रदान करता है। ताड़का वृक्ष सन्तानका नाश करनेवाला है। मौलसिरीसे कुलकी वृद्धि होती है। नारियल लगानेवाला अनेक स्त्रियोंका पति होता है। दाखका पेड़ सर्वांगसुन्दरी स्त्री प्रदान करनेवाला है। केवड़ा शत्रुका नाश करनेवाला है। इसी प्रकार अन्यान्य वृक्ष भी जिनका यहाँ नाम नहीं लिया गया है, यथायोग्य फल प्रदान करते हैं। जो लोग वृक्ष लगाते हैं, उन्हें [परलोकमें] प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन्! इसी प्रकार एक दूसरा व्रत बतलाता हूँ, जो समस्त मनोवांछित फलकों देनेवाला है। उसका नाम है- सौभाग्यशयन इसे पुराणोंके विद्वान् ही जानते हैं। पूर्वकालमें जब भूलोक, भुवर्लोक, स्वलॉक तथा महलोंक आदि सम्पूर्ण लोक दग्ध हो गये, तब समस्त प्राणियोंका सौभाग्य एकत्रित होकर वैकुण्ठमें जा भगवान् श्रीविष्णुके वक्षःस्थलमें स्थित हो गया। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् जब पुनः सृष्टि रचनाका समय आया, तब प्रकृति और पुरुषसे युक्त सम्पूर्ण लोकोंके अहंकारसे आवृत हो जानेपर श्रीब्रह्माजी तथा भगवान् श्रीविष्णुमें स्पर्धा जाग्रत् हुई। उस समय एक पीले रंगकी भयंकर अग्निज्वाला प्रकट हुई। उससे भगवान्का वक्षःस्थल तप उठा, जिससे वह सौभाग्यपुंज वहाँ गलित हो गया। श्रीविष्णु के वक्षःस्थलका वह सौभाग्य अभी रसरूप होकर धरतीपर गिरने नहीं पाया था कि ब्रह्माजीके बुद्धिमान् पुत्र दक्षने उसे आकाशमें ही रोककर पी लिया। दक्षके पीते ही वह अद्भुत रूप और लावण्य प्रदान करनेवाला सिद्ध हुआ। प्रजापति दक्षका बल और तेज बहुत बढ़ गया। उनके पीनेसे बचा हुआ जो अंश पृथ्वीपर गिर पड़ा वह आठ भागोंमें बँट गया। उनमेंसे सात भागोंसे सात सौभाग्यदायिनी ओषधियाँ उत्पन्न हुई, जिनके नाम इस प्रकार हैं- ईख, तरुराज, निष्पाव, राजधान्य (शालि या अगहनी), गोक्षीर (क्षीरजीरक), कुसुम्भ और कुसुम आठवाँ नमक है। इन आठोंकी सौभाग्याष्टक संज्ञा कहते हैं।

योग और जानके तत्वको जाननेवाले ब्रह्मपुत्र दक्षने पूर्वकालमें जिस सौभाग्य रसका पान किया था, उसके अंशसे उन्हें सती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। नील कमलके समान मनोहर शरीरवाली वह कन्या लोकमें ललिताके नामसे भी प्रसिद्ध है। पिनाकधारी भगवान् शंकरने उस त्रिभुवनसुन्दरी देवीके साथ विवाह किया। सती तीनों लोकोंकी सौभाग्यरूपा हैं। वे भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं। उनकी आराधना करके नर या नारी क्या नहीं प्राप्त कर सकती।भीष्मजीने पूछा- मुने! जगद्धात्री सतीकी आराधना कैसे की जाती है? जगत्‌की शान्तिके लिये जो विधान हो, वह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये।

पुलस्त्यजी बोले- चैत्र मासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको दिनके पूर्व भागमें मनुष्य तिलमिश्रित जलसे स्थान करे। उस दिन परम सुन्दरी भगवती सतीका विश्वात्मा भगवान् शंकरके साथ वैवाहिक मन्त्रोंद्वारा विवाह हुआ था अतः तृतीयाको सती देवी के साथ ही भगवान् शंकरका भी पूजन करे। पंचगव्य तथा चन्दन मिश्रित जलके द्वारा गौरी और भगवान् चन्द्रशेखरकी प्रतिमाको स्नान कराकर धूप, दीप, नैवेद्य तथा नाना प्रकारके फलोंद्वारा उन दोनोंकी पूजा करनी चाहिये। 'पार्वतीदेव्यै नमः', 'शिवाय नमः' इन मन्त्रोंसे क्रमशः पार्वती और शिवके चरणोंका 'जयायै नमः', 'शिवाय नमः' से दोनोंकी घुट्टियोंका; 'त्र्यम्बकाय नमः', 'भवान्यै नमः' से पिण्डलियोंका 'भद्रेश्वराय नमः ' 'विजयायै नमः' से घुटनोंका 'हरिकेशाय नमः', 'वरदायै नमः' से जाँघोंका; 'ईशाय शङ्कराय नमः' "रत्यै नमः' से दोनोंके कटिभागका; 'कोटिन्यै नमः', 'शूलिने नमः' से कुक्षिभागका; 'शूलपाणये नमः', 'मंगलायै नमः' से उदरका: 'सर्वात्मने नमः', 'ईशान्यै नमः' से दोनों स्तनोंका 'चिदात्मने नमः', 'रुद्राण्यै नमः' से कण्ठका: 'त्रिपुरघ्नाय नमः', 'अनन्तायै नमः' से दोनों हाथोंका 'त्रिलोचनाय नमः', 'कालानलप्रियायै नमः' से बाँहोंका 'सौभाग्यभवनाय नमः' से आभूषणोंका; 'स्वधायै नमः', 'ईश्वराय नमः' से दोनोंके मुखमण्डलका 'अशोकवनवासिन्यै नमः ' - इस मन्त्रसे ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले ओठोंका; 'स्थाणवे नमः', 'चन्द्रमुखप्रियायै नमः' से मुँहका; 'अर्द्धनारीश्वराय नमः', 'असितायै नमः' से नासिकाका 'उग्राय नमः', 'ललितायै नमः' से दोनों भौहोका 'शर्वाय नमः', 'वासुदेव्यै नमः' से केशका; 'श्रीकण्ठनाथाय नमः' से केवल शिवके बालोंका तथा 'भीमोग्ररूपिण्यै नमः', 'सर्वात्मने नमः' से दोनों के मस्तकोंका पूजन करे। इस प्रकार शिव और पार्वतीकीविधिवत् पूजा करके उनके आगे सौभाग्याष्टक रखे। स निष्पाव, कुसुम्भ, क्षीरजीरक, तरुराज, इक्षु, लवण, कुसुम तथा राजधान्य - इन आठ वस्तुओंको देनेसे स सौभाग्यकी प्राप्ति होती है; इसलिये इनकी 'सौभाग्याष्टक' र संज्ञा है। इस प्रकार शिव-पार्वतीके आगे सब सामग्री निवेदन करके चैत्रमें सिंघाड़ा खाकर रातको भूमिपर शयन करे। फिर सबेरे उठकर स्नान और जप करके इ पवित्र हो माला, वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा ब्राह्मण दम्पतीका पूजन करे। इसके बाद सौभाग्याष्टकसहित शिव और पार्वतीकी सुवर्णमयी प्रतिमाओंको ललिता देवीकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मणको निवेदन करे। दानके समय इस प्रकार कहे- 'ललिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, शिवा, वासुदेवा, गौरी, मंगला, कमला, सती और उमा—ये प्रसन्न हों।'

बारह महीनोंकी प्रत्येक द्वादशीको भगवान् श्रीविष्णुकी तथा उनके साथ लक्ष्मीजीकी भी पूजा करे। इसी प्रकार परलोकमें उत्तम गति चाहनेवाले पुरुषको प्रत्येक मासकी पूर्णिमाको सावित्रीसहित ब्रह्माजीकी विधिवत् आराधना करनी चाहिये तथा ऐश्वर्यकी कामनावाले मनुष्यको सौभाग्याष्टकका दान भी करना चाहिये। इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिपूर्वक अनुष्ठान करके पुरुष, स्त्री या कुमारी भक्तिके साथ रात्रिमें शिवजीकी पूजा करे। व्रतकी समाप्तिके समय सम्पूर्ण ।सामग्रियोंसे युक्त शय्या, शिव-पार्वतीकी सुवर्णमयी प्रतिमा, बैल और गौका दान करे। कृपणता छोड़कर दृढ़ निश्चयके साथ भगवान्का पूजन करे। जो स्त्री इस प्रकार उत्तम सौभाग्यशयन नामक व्रतका अनुष्ठान करती है, उसकी कामनाएँ पूर्ण होती हैं अथवा [ यदि वह निष्कामभावसे इस व्रतको करती है तो ] उसे नित्यपदकी प्राप्ति होती है। इस व्रतका आचरण करनेवाले पुरुषको एक फलका परित्याग कर देना चाहिये । प्रतिमास इसका आचरण करनेवाला पुरुष यश और कीर्ति प्राप्त करता है। राजन् ! सौभाग्यशयनका दान करनेवाला पुरुष कभी सौभाग्य, आरोग्य, सुन्दर रूप, वस्त्र, अलंकार और आभूषणोंसे वंचित नहीं होता। जो बारह, आठ या सात वर्षोंतक सौभाग्यशयन-व्रतका अनुष्ठान करता है, वह ब्रह्मलोकनिवासी पुरुषोंद्वारा पूजित होकर दस हजार कल्पोंतक वहाँ निवास करता है। इसके बाद वह विष्णुलोक तथा शिवलोकमें भी जाता है। जो नारी या कुमारी इस व्रतका पालन करती है, वह भी ललितादेवीके अनुग्रहसे ललित होकर पूर्वोक्त फलको प्राप्त करती है। जो इस व्रतकी कथाका श्रवण करता है अथवा दूसरोंको इसे करनेकी सलाह देता है, वह भी विद्याधर होकर चिरकालतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। पूर्वकालमें इस अद्भुत व्रतका अनुष्ठान कामदेवने, राजा शतधन्वाने, वरुणदेवने, भगवान् सूर्यने तथा धनके स्वामी कुबेरने भी किया था।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार