भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! जो अभ्यास न होनेके कारण अथवा रोगवश उपवास करनेमें असमर्थ है, किन्तु उसका फल चाहता है, उसके लिये कौन-सा व्रत उत्तम है- यह बताइये। पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! जो लोग उपवास करनेमें असमर्थ हैं, उनके लिये वहीं व्रत अभीष्ट हैं,जिसमें दिनभर उपवास करके रात्रिमें भोजनका विधान हो; मैं ऐसे महान् व्रतका परिचय देता हूँ, सुनो। उस व्रतका नाम है- आदित्य-शयन। उसमें विधिपूर्वक भगवान् शंकरकी पूजा की जाती है। पुराणोंके ज्ञाता महर्षि जिन नक्षत्रोंके योगमें इस व्रतका उपदेश करते हैं, उन्हें बताता हूँ। जब सप्तमी तिथिको हस्त नक्षत्रके साथरविवार हो अथवा सूर्यकी संक्रान्ति हो, वह तिथि समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली होती है उस दिन सूर्यके नामोंसे भगवती पार्वती और महादेवजीकी पूजा करनी चाहिये। सूर्यदेवकी प्रतिमा तथा शिवलिंगका भी भक्तिपूर्वक पूजन करना उचित है। हस्त नक्षत्रमें 'सूर्याय नमः' का उच्चारण करके सूर्यदेवके चरणोंकी, चित्रा नक्षत्रमें 'अर्काय नमः' कहकर उनके गुल्फों (घुट्टियों) की स्वाती नक्षत्रमें 'पुरुषोत्तमाय नमः' से पिण्डलियोंकी, विशाखायें 'धात्रे नमः' से घुटनोंकी तथा अनुराधामें 'सहस्वभानवे नमः' से दोनों जाँघोंकी पूजा करनी चाहिये। ज्येष्ठा नक्षत्रमें 'अनङ्गाय नमः' से गुह्य प्रदेशकी मूलमें 'इन्द्राय नमः' और 'भीमाय नमः' से कटिभागकी, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढामें 'त्वष्ट्रे नमः' और 'सप्ततुरङ्गमाय नमः' से नाभिकी, श्रवणमें 'तीक्ष्णांशवे नमः' से उदरकी, धनिष्ठामें 'विकर्तनाय नमः' से दोनों बगलोंकी और शतभिषा नक्षत्रमें 'ध्वान्तविनाशनाय नमः' से सूर्यके वक्षःस्थलकी पूजा करनी चाहिये। पूर्वा और उत्तराभाद्रपदामें 'चण्डकराय नमः' से दोनों भुजाओंका, रेवतीमें 'साम्नामधीशाय नमः ' से दोनों हाथोंका, अश्विनीमें 'सप्ताश्वधुरन्धराय नमः' से नखोंका और भरणीमें 'दिवाकराय नमः' से भगवान् सूर्यके कण्ठका पूजन करे। कृत्तिकामें ग्रीवाकी, रोहिणी में ओठोंकी, मृगशिरामें जिह्वाकी तथा आर्द्रा 'हरये नमः' से सूर्यदेवके दाँतोंकी अर्चना करे। पुनर्वसुमें 'सवित्रे नमः' से शंकरजीकी नासिकाका, पुष्यमें 'अम्भोरुहवल्लभाय नमः' से ललाटका 'वेदशरीरधारिणे नमः' से बालोंका, आश्लेषामें 'विबुधप्रियाय नमः' से मस्तकका, मघामें दोनों कानोंका, पूर्वाफाल्गुनी में 'गोब्राह्मणनन्दनाय नमः' से शम्भुके सम्पूर्ण अंगोंका तथा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें 'विश्वेश्वराय नमः' से उनकी दोनों भौंहोंका पूजन करें। 'पाश, अंकुश, कमल, त्रिशूल, कपाल, सर्प, चन्द्रमा तथा धनुष धारणकरनेवाले श्रीमहादेवजीको नमस्कार है। '2 'गयासुर कामदेव, त्रिपुर और अन्धकासुर आदिके विनाशके मूल कारण भगवान् श्रीशिवको प्रणाम है। '2 इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करके प्रत्येक अंगकी पूजा करनेके पश्चात् 'विश्वेश्वराय नमः' से भगवान्के मस्तकका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर अन्न भोजन करना उचित है। भोजनमें तेल और खारे नमकका सम्पर्क नहीं रहना चाहिये। मांस और उच्छिष्ट अन्नका तो कदापि सेवन न करे।
राजन् ! इस प्रकार रात्रिमें शुद्ध भोजन करके पुनर्वसु नक्षत्रमें दान करना चाहिये। किसी बर्तनमें एक सेर अगहनीका चावल, गूलरकी लकड़ीका पात्र तथा मृत रखकर सुवर्णके साथ उसे ब्राह्मणको दान करे। सातवें दिन के पारणमें और दिनोंकी अपेक्षा एक जोड़ा वस्त्र अधिक दान करना चाहिये। चौदहवें दिनके पारणमें गुड़, खीर और घृत आदिके द्वारा ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक भोजन कराये। तदनन्तर कर्णिकासहित सोनेका अष्टदल कमल बनवाये, जो आठ अंगुलका हो तथा जिसमें पद्मरागमणि (नीलम) की पत्तियाँ अंकित की गयी हों फिर सुन्दर शय्या तैयार करावे, जिसपर सुन्दर बिछौने बिछाकर तकिया रखा गया हो और ऊपरसे चैदोवा तना हो । शय्याके ऊपर पंखा रखा गया हो। उसके आस-पास खड़ाऊँ, जूता, छत्र, चँवर, आसन और दर्पण रखे गये हों। फल, वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणोंसे वह शय्या सुशोभित होनी चाहिये। ऊपर बताये हुए सोनेके कमलको उस शय्यापर रख दे। इसके बाद मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूध देनेवाली अत्यन्त सीधी कपिला गौका दान करे। वह गौ उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित और बछड़ेसहित होनी चाहिये। उसके खुर चाँदीसे और सींग सोनेसे मॅढ़े होने चाहिये तथा उसके साथ कौसीकी दोहनी होनी चाहिये। दिनके पूर्व भागमें ही दान करना उचित है। समयका उल्लंघनकदापि नहीं करना चाहिये। शय्यादानके पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करे सूर्यदेव! जिस प्रकार आपकी शय्या कान्ति, धृति, श्री और पुष्टिसे कभी सूनी नहीं होती, वैसे ही मेरी भी वृद्धि हो। वेदोंके विद्वान् आपके सिवा और किसीको निष्पाप नहीं जानते, इसलिये आप सम्पूर्ण दुःखोंसे भरे हुए इस संसार सागरसे मेरा उद्धार कीजिये।' इसके पश्चात् भगवान्की प्रदक्षिणा करके उन्हें प्रणाम करनेके अनन्तर विसर्जन करे। शय्या और श्री आदिको ब्राह्मणके घर पहुँचा दे।
भगवान् शंकरके इस व्रतकी चर्चा दुराचारी और दम्भी पुरुषके सामने नहीं करनी चाहिये जो गी. ब्राह्मण देवता, अतिथि और धार्मिक पुरुषोंको विशेषरूपसे निन्दा करता है, उसके सामने भी इसको प्रकट न करे। भगवान्के भक्त और जितेन्द्रिय पुरुषके समक्ष ही यह आनन्ददायी एवं कल्याणमय गूढ़ रहस्य प्रकाशित करने योग्य है। वेदवेता पुरुषोंका कहना है कि यह व्रत महापातकी मनुष्योंके भी पापोंका नाश कर देता है। जो पुरुष इस व्रतका अनुष्ठान करता है, उसका बन्धु, पुत्र, धन और स्त्रीसे कभी वियोग नहीं होता तथा वह देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला माना जाता है। इसी प्रकार जो नारी भक्तिपूर्वक इस व्रतका पालन करती है, उसे कभी रोग, दुःख और मोहका शिकार नहीं होना पड़ता। प्राचीन कालमें महर्षि वसिष्ठ, अर्जुन, कुबेर तथा इन्द्रने इस व्रतका आचरण किया था। इस व्रतके कीर्तनमात्रसे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो पुरुष इस आदित्यशयन नामक व्रतके माहात्म्य एवं विधिका पाठ या श्रवण करता है, वह इन्द्रका प्रियतम होता है तथा जो इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह नरकमें भी पड़े हुए समस्त पितरोंको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है। भीष्मजीने कहा—मुने! अब आप चन्द्रमाके व्रतका वर्णन कीजिये पुलस्त्यजी बोले- राजन्। तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है। अब मैं तुम्हें वह गोपनीय व्रत बतलाता हूँ, जो अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है तथा जिसेपुराणवेत्ता विद्वान् ही जानते हैं। इस लोकमें 'रोहिणी चन्द्र-शयन' नामक व्रत बड़ा ही उत्तम है। इसमें चन्द्रमाके नामद्वारा भगवान् नारायणकी प्रतिमाका पूजन करना चाहिये। जब कभी सोमवारके दिन पूर्णिमा तिथि हो अथवा पूर्णिमाको रोहिणी नक्षत्र हो, उस दिन मनुष्य सबेरे पंचगव्य और सरसोंके दानोंसे युक्त जलसे स्नान करे तथा विद्वान् पुरुष 'आप्यायस्व0' इत्यादि मन्त्रको आठ सौ बार जपे यदि शूद्र भी इस व्रतको करे तो अत्यन्त भक्तिपूर्वक 'सोमाय नमः', 'वरदाय नमः', 'विष्णवे नमः ' - इन मन्त्रोंका जप करे और पाखण्डियोंसे-विधर्मियोंसे बातचीत न करे। जप करनेके पश्चात् घर आकर फल-फूल आदिके द्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजा करे। साथ ही चन्द्रमाके नामोंका उच्चारण करता रहे। 'सोमाय शान्ताय नमः' कहकर भगवान्के चरणोंका, 'अनन्तधाम्ने नमः' का उच्चारण करके उनके घुटनों और पिण्डलियोंका, 'जलोदराय नमः' से दोनों जाँघोंका, 'कामसुखप्रदाय नमः' से चन्द्रस्वरूप भगवान्के कटिभागका, ‘अमृतोदराय नमः' से उदरका, 'शशाङ्काय नमः' से नाभिका, 'चन्द्राय नमः' से मुखमण्डलका, 'द्विजानामधिपाय नमः' से दाँतोंका, 'चन्द्रमसे नमः ' से मुँहका, 'कौमोदवनप्रियाय नमः' से ओठोंका, 'वनौषधीनामधिनाथाय नमः' से नासिकाका, आनन्दबीजाय से दोनों भौंहोंका, 'इन्दीवरव्यासकराय नमः' से भगवान् श्रीकृष्णके कमल-सदृश नेत्रका, 'समस्तासुरवन्दिताय दैत्यनिषूदनाय नमः' से दोनों कानोंका, 'उदधिप्रियाय नमः' से चन्द्रमाके ललाटका, 'सुषुम्नाधिपतये नमः' से केशोंका, 'शशाङ्काय नमः' से मस्तकका और 'विश्वेश्वराय नमः' से भगवान् मुरारिके किरीटका पूजन करे। फि 'रोहिणीनामधेयलक्ष्मी सौभाग्यसौख्यामृत सागराय पद्मश्रिये नमः' (रोहिणी नाम धारण करने वाली लक्ष्मीके सौभाग्य और सुखरूप अमृतके समुद्र तथा कमलकी-सी कान्तिवाले भगवान्को नमस्कार है) – इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान्के सामनेमस्तक झुकाये। तत्पश्चात् सुगन्धित पुष्प, नैवेद्य और धूप आदिके द्वारा इन्दुपत्नी रोहिणी देवीका भी पूजन करे।
इसके बाद रात्रिके समय भूमिपर शयन करे और सबेरे उठकर स्नानके पश्चात् 'पापविनाशाय नमः' का उच्चारण करके ब्राह्मणको घृत और सुवर्णसहित जलसे भरा कलश दान करे। फिर दिनभर उपवास करनेके पश्चात् गोमूत्र पीकर मांसवर्जित एवं खारे नमकसे रहित अन्नके इकतीस ग्रास घीके साथ भोजन करे। तदनन्तर दो घड़ीतक इतिहास, पुराण आदिका श्रवण करे। राजन् ! चन्द्रमाको कदम्ब, नील कमल, केवड़ा, जाती पुष्प, कमल, शतपत्रिका बिना कुम्हलाये कुब्जके फूल, सिन्दुवार, चमेली, अन्यान्य श्वेत पुष्प, करवीर तथा चम्पा- ये ही फूल चढ़ाने चाहिये। उपर्युक्त फूलोंकी जातियोंमेंसे एक-एकको त्रावण आदि महीनों में क्रमशः अर्पण करे। जिस महीने में व्रत शुरू किया जाय, उस समय जो भी पुष्प सुलभ हों, उन्हींके द्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये।
इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिवत् अनुष्ठान करके समाप्तिके समय शयनोपयोगी सामग्रियोंके साथ शय्यादान करे। रोहिणी और चन्द्रमाकी सुवर्णमयी मूर्ति बनवाये। उनमें चन्द्रमा छः अंगुलके और रोहिणी चार अंगुलकी होनी चाहिये। आठ मोतियोंसे युक्त श्वेत नेत्रोंवाली उन प्रतिमाओंको अक्षतसे भरे हुए काँसीके पात्रमें रखकर दुग्धपूर्ण कलशके ऊपर स्थापित कर दे। फिर वस्त्र और दोहनीके साथ दूध देनेवाली गौ, शंख तथा पात्र प्रस्तुत करे। उत्तम गुणोंसे युक्त ब्राह्मण-दम्पतीको बुलाकर उन्हें आभूषणोंसे अलंकृत करे तथा मनमें यह भावना रखे कि ब्राह्मण-दम्पतीके रूपमें ये रोहिणीसहित चन्द्रमा ही विराजमान हैं। तत्पश्चात् इनकी इस प्रकार प्रार्थना करे- 'चन्द्रदेव! आप ही सबको परम आनन्द और मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। आपकी कृपासे मुझे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हो।' [ इस प्रकारविनय करके शय्या, प्रतिमा तथा धेनु आदि सब कुछ ब्राह्मणको दान कर दे।]
राजन्। जो संसारसे भयभीत होकर मोक्ष पानेकी इच्छा रखता है, उसके लिये यही एक व्रत सर्वोत्तम है। यह रूप और आरोग्य प्रदान करनेवाला है। यही पितरोंको सर्वदा प्रिय है। जो इसका अनुष्ठान करता है वह त्रिभुवनका अधिपति होकर इक्कीस सी कल्पोंतक चन्द्र-लोकमें निवास करता है। उसके बाद विद्युत् होकर मुक्त हो जाता है। चन्द्रमा नाम कीर्तनद्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजाका यह प्रसंग जो पढ़ता अथवा सुनता है, उसे भगवान् उत्तम बुद्धि प्रदान करते हैं तथा वह भगवान् श्रीविष्णुके धाममें जाकर देवसमूहके द्वारा पूजित होता है।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन्! अब मुझे तालाब, बगीचा कुआँ, बावली, पुष्करिणी तथा देवमन्दिरको प्रतिष्ठा आदिका विधान बतलाइये।
पुलस्त्यजी बोले- महाबाहो ! सुनो; तालाब आदिकी प्रतिष्ठाका जो विधान है, उसका इतिहास पुराणोंमें इस प्रकार वर्णन है। उत्तरायण आनेपर शुभ | शुक्लपक्षमें ब्राह्मणद्वारा कोई पवित्र दिन निश्चित करा ले। उस दिन ब्राह्मणोंका वरण करे और तालाबके समीप, जहाँ कोई अपवित्र वस्तु न हो, चार हाथ लम्बी और उतनी ही चौड़ी चौकोर वेदी बनाये वेदी सब ओर समतल हो और चारों दिशाओंमें उसका मुख हो । फिर सोलह हाथका मण्डप तैयार कराये। जिसके चारों ओर एक-एक दरवाजा हो। वेदीके सब ओर कुण्ठोंका निर्माण कराये। कुण्डोंकी संख्या नी. सात या पाँच होनी चाहिये। कुण्डोंकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक रनिकी हो तथा वे सभी तीन-तीन मेखलाओंसे सुशोभित हो। उनमें यथास्थान योनि और मुख भी बने होने चाहिये। योनिको लम्बाई एक बित्ता और चौड़ाई छ: सात अंगुलकी हो । मेखलाएँ तीन पर्व 2 ऊँची और एक हाथ लम्बी होनीचाहिये। वे चारों ओरसे एक समान- एक रंगकी बनी हो। सबके समीप ध्वजा और पताकाएँ लगायी जायँ । पाकड़ मण्डपके चारों ओर क्रमशः पीपल, गूलर, उ और बरगदकी शाखाओंके दरवाजे बनाये जायें। वहाँ आठ होता, आठ द्वारपाल तथा आठ जप कानेवाले ब्राह्मणका वरण किया जाय वे सभी ब्राह्मण वेदोंके पारगामी विद्वान् होने चाहिये। सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, मन्त्रोंक ज्ञाता, जितेन्द्रिय कुलीन, शीलवान् एवं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको ही इस कार्यमें नियुक्त करना चाहिये। प्रत्येक कुण्डके पास कलश, यज्ञ-सामग्री, निर्मल आसन और दिव्य एवं विस्तृत ताम्रपात्र प्रस्तुत रहें।
तदनन्तर प्रत्येक देवताके लिये नाना प्रकारकी बलि (दही, अक्षत आदि उत्तम भक्ष्य पदार्थ) उपस्थित करे। विद्वान् आचार्य मन्त्र पढ़कर उन सामग्रियोंके द्वारा पृथ्वीपर सब देवताओंके लिये बलि समर्पण करे। अलिके बराबर एक ग्रुप (यज्ञस्तम्भ) स्थापित किया जाय, जो किसी दूधवाले वृक्षकी शाखाका बना हुआ हो ऐश्वर्य चाहनेवाले पुरुषको यजमानके शरीरके बराबर ऊँचा यूप स्थापित करना चाहिये। उसके बाद पचीस ऋत्विजोंका वरण करके उन्हें सोनेके आभूषणोंसे विभूषित करे। सोनेके बने कुण्डल, बाजूबंद, कड़े, अंगूठी, पवित्री तथा नाना प्रकारके वस्त्र- ये सभी आभूषण प्रत्येक ऋत्विजको बराबर-बराबर दे और आचार्यको दूना अर्पण करे। इसके सिवा उन्हें शय्या तथा अपनेको प्रिय लगनेवाली अन्यान्य वस्तुएँ भी प्रदान करे सोनेका बना हुआ कछुआ और मगर, चाँदीके मत्स्य और दुन्दुभ, ताँबेके केंकड़ा और मेढक तथा लोहेके दो सूँस बनवाकर सबको सोनेके पात्रमें रखे इसके बाद यजमान वेद विद्वानोंकी बतायी हुई विधिके अनुसार सर्वोषधि-मिश्रित जलसे स्नान करके श्वेत वस्त्र और श्वेत माला धारण करे। फिर श्वेत 1 चन्दन लगाकर पत्नी और पुत्र-पौत्र के साथ पश्चिमद्वारसे यह मण्डप प्रवेश करे। उस समय मांगलिक शब्द होने चाहिये और भेरी आदि बाजे बजने चाहिये।तदनन्तर विद्वान् पुरुष पाँच रंगके चूर्णोंसे मण्डल बनाये और उसमें सोलह अरोंसे युक्त चक्र चिह्नित करे। उसके गर्भमें कमलका आकार बनाये। चक्र देखनेमें सुन्दर और चौकोर हो। चारों ओरसे गोल होनेके साथ ही मध्यभागमें अधिक शोभायमान जान पड़ता हो। उस चक्रको वेदीके ऊपर स्थापित करके उसके चारों ओर प्रत्येक दिशामें मन्त्र - पाठपूर्वक ग्रहों और लोकपालोंकी स्थापना करे। फिर मध्यभागमें वरुण सम्बन्धी मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए एक कलश स्थापित करे और उसीके ऊपर ब्रह्मा, शिव, विष्णु, गणेश, लक्ष्मी तथा पार्वतीकी भी स्थापना करे। इसके पश्चात् सम्पूर्ण लोकोंकी शान्तिके लिये भूतसमुदायको स्थापित करे। इस प्रकार पुष्प, चन्दन और फलोंके द्वारा सबकी स्थापना करके कलशोंके भीतर पंचरत्न छोड़कर उन्हें वस्त्रोंसे आवेष्टित कर दे। फिर पुष्प और चन्दनके द्वारा उन्हें अलंकृत करके द्वार- रक्षाके लिये नियुक्त ब्राह्मणोंसे वेदपाठ करनेके लिये कहे और स्वयं आचार्यका पूजन करे। पूर्वद्वारकी ओर दो ऋग्वेदी, दक्षिणद्वारपर दो यजुर्वेदी, पश्चिमद्वारपर दो सामवेदी तथा उत्तरद्वारपर दो अथर्ववेदी विद्वानोंको रखना चाहिये। यजमान मण्डलके दक्षिण भागमें उत्तराभिमुख होकर बैठे और द्वार-रक्षक विद्वानोंसे कहे- 'आपलोग वेदपाठ करें।' फिर यज्ञ करानेवाले आचार्यसे कहे- 'आप यज्ञ प्रारम्भ करायें।' तत्पश्चात् जप करनेवाले ब्राह्मणोंसे कहे- 'आपलोग उत्तम मन्त्रका जप करते रहें।' इस प्रकार सबको प्रेरित करके मन्त्रज्ञ पुरुष अग्निको प्रज्वलित करे तथा मन्त्र पाठपूर्वक घी और समिधाओंकी आहुति दे । ऋत्विजोंको भी वरुण सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा सब ओरसे हवन करना चाहिये। ग्रहोंके निमित्त विधिवत् आहुति देकर उस यज्ञकर्ममें इन्द्र, शिव, मरुद्गण और लोकपालोंके निमित्त भी विधिपूर्वक होम करे।
पूर्वद्वारपर नियुक्त ऋग्वेदी ब्राह्मण शान्ति, रुद्र, पवमान, सुमंगल तथा पुरुषसम्बन्धी सूक्तोंका पृथक् पृथक् जप करे। दक्षिणद्वारपर स्थित यजुर्वेदी विद्वान् इन्द्र, रुद्र, सोम, कूष्माण्ड, अग्नि तथा सूर्य-सम्बन्धीकोंका जप करे पश्चिमद्वारपर रहनेवाले सामवेदी ब्राह्मण वैराजसाम, पुरुषसूक्त, सुपर्णसूक्त, रुद्रसंहिता, शिशु पंचनिधनत, गायत्रसाम, ज्येष्ठसाम वामदेव्यसाम, बृहत्साम, रौरवसाम, रथन्तरसाम, गोव्रत, विकीर्ण, रक्षोघ्न और यम सम्बन्धी सामोंका गान करें। उत्तरद्वारके अर्थवेदी विद्वान् मन-ही-मन भगवान् वरुणदेवकी शरण ले शान्ति और पुष्टि सम्बन्धी मन्त्रोंका जप करें। इस प्रकार पहले दिन मन्त्रद्वारा देवताओंकी स्थापना करके हाथी और घोड़ेके पैरोंके नीचेकी, जिसपर रथ चलता हो ऐसी सड़क, बाँबीकी, दो नदियोंके संगमकी, गोशालाकी तथा साक्षात् गौओके पैर नीचेकी मिट्टी लेकर कलोंमें छोड़ दे। उसके बाद सर्वौषधि, गोरोचन, सरसोंके दाने, चन्दन और गूगल भी छोड़े। फिर पंचगव्य (दधि, दूध, घी, गोबर और गोमूत्र) मिलाकर उन कलशोंके जलसे यजमानका विधिपूर्वक अभिषेक करे। अभिषेकके समय विद्वान् पुरुष वेदमन्त्रोंका पाठ करते रहें।
इस प्रकार शास्त्रविहित कर्मके द्वारा रात्रि व्यतीत करके निर्मल प्रभातका उदय होनेपर हवनके अन्तमें ब्राह्मणोंको सौ, पचास, छत्तीस अथवा पचीस गौ दान करे। तदनन्तर शुद्ध एवं सुन्दर लग्न आनेपर वेदपाठ, संगीत तथा नाना प्रकारके बाजकी मनोहर ध्वनिके साथ एक गौको सुवर्ण अलंकृत करके तालाबके जलमें उतारे और उसे सामगान करनेवाले ब्राह्मणको दान कर दे। तत्पश्चात् पंचरत्नोंसे युक्त सोनेका पात्र लेकर उसमें पूर्वोक्त मगर और मछली आदिको रखे और उसे किसी बड़ी नदीसे मँगाये हुए जलसे भर दे। फिर उस पात्रको दही- अक्षत से विभूषित करके वेद और वेदांगों के विद्वा चार ब्राह्मण हाथसे पकड़ें और यजमानकी प्रेरणासे उसे उत्तराभिमुख उलटकर तालाब जल डाल दें। इस प्रकार 'आपो मयो0' इत्यादि मन्त्रके द्वारा उसे जलमें डालकर पुनः सब लोग यज्ञ मण्डपमें आ जायें और यजमान सदस्योंकी पूजा करके सब ओर देवताओंके उद्देश्यसे बलि अर्पण करे। इसके बाद लगातार चार दिनोंतक हवन होना चाहिये। चौथे दिन चतुर्थी-कर्मकरना उचित है। उसमें भी यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये। चतुर्थी कर्म पूर्ण करके यज्ञ सम्बन्धी जितने पात्र और सामग्री हों, उन्हें ऋत्विजोंमें बराबर बाँट देना चाहिये। फिर मण्डपको भी विभाजित करे। सुवर्णपात्र और शय्या किसी ब्राह्मणको दान कर दे। इसके बाद अपनी शक्तिके अनुसार हजार, एक सौ आठ, पचास अथवा बीस ब्राह्मणोंको भोजन कराये। पुराणोंमें तालाबकी प्रतिष्ठा के लिये यही विधि बतलायी गयी है। कुआँ बावली और पुष्करिणीके लिये भी यही विधि है। देवताओंकी प्रतिष्ठामें भी ऐसा ही विधान समझना चाहिये। मन्दिर और बगीचे आदिके प्रतिष्ठा कार्यमें केवल मन्त्रोंका ही भेद है। विधि-विधान प्रायः एक से ही हैं। उपर्युक्त विधिका यदि पूर्णतया पालन करनेकी शक्ति न हो तो आधे व्ययसे भी यह कार्य सम्पन्न हो सकता है। यह बात ब्रह्माजीने कही है।
जिस पोखरेमें केवल वर्षाकालमें ही जल रहता है, वह सौ अग्निष्टोम यज्ञोंके बराबर फल देनेवाला होता है। जिसमें शरत्कालतक जल रहता हो, उसका भी यही फल है। हेमन्त और शिशिरकालतक रहनेवाला जल क्रमशः वाजपेय और अतिरात्र नामक यज्ञका फल देता है। वसन्तकालतक टिकनेवाले जलको अश्वमेध यज्ञके समान फलदायक बतलाया गया है तथा जो जल ग्रीष्मकालतक मौजूद रहता है, वह राजसूय यज्ञसे भी अधिक फल देनेवाला होता है।
महाराज ! जो मनुष्य पृथ्वीपर इन विशेष धर्मोका पालन करता है-विधिपूर्वक कुआँ, बावली, पोखरा आदि खुदवाता है तथा मन्दिर, बगीचा आदि बनवाता है, वह शुद्धचित्त होकर ब्रह्माजीके लोकमें जाता है और वहाँ अनेकों कल्पोंतक दिव्य आनन्दका अनुभव करता है। दो परार्द्ध (ब्रह्माजीकी आयु तक वहाँका मुख भोगनेके पश्चात् ब्रह्माजीके साथ ही योगबल से श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! अब आप मुझे विस्तारके साथ वृक्ष लगाने की यथार्थ विधि बतलाइये। विद्वानोंको किस विधिसे वृक्ष लगाने चाहिये ?पुलस्त्यजी बोले- राजन्! बगीचेमें वृक्षोंके लगानेकी अ विधि मैं तुम्हें बतलाता हूँ। तालाबकी प्रतिष्ठाकेद विषयमें जो विधान बतलाया गया है, उसीके समान सारी विधि पूर्ण करके वृक्षके पौधोंको सर्वोषधि मिश्रित जलसे सींचे फिर उनके ऊपर दही और अक्षत छोड़े। उसके बाद उन्हें पुष्प-मालाओंसे अलंकृत करके वस्त्रमें लपेट दे। वहाँ गूगलका धूप देना श्रेष्ठ माना गया है। वृक्षोंको पृथक्-पृथक् ताम्रपात्रमें रखकर उन्हें सप्तधान्यसे आवृत करे तथा उनके ऊपर वस्त्र और चन्दन चढ़ाये फिर प्रत्येक वृक्षके पास कलश स्थापन करके उन कलशोंकी पूजा करे और रात में द्विजातियोंद्वारा इन्द्रादि लोकपालों तथा वनस्पतिका विधिवत् अधिवास कराये। तदनन्तर दूध देनेवाली एक गौको लाकर उसे श्वेत वस्त्र ओढ़ाये। उसके मस्तकपर सोनेकी कलगी लगाये, सींगोंको सोनेसे मँझ दे। उसको दुहनेके लिये काँसेकी दोहनी प्रस्तुत करे। इस प्रकार अत्यन्त शोभासम्पन्न उस गौको उत्तराभिमुख खड़ी करके वृक्षोंके बीचसे छोड़े। तत्पश्चात् श्रेष्ठ ब्राह्मण बाजों और मंगलगीतोंकी ध्वनिके साथ अभिषेकके मन्त्र- तीनों वेदोंकी वरुणसम्बन्धिनी ऋचाएँ पढ़ते हुए उक्त कलशोंके जलसे यजमानका अभिषेक करें। अभिषेकके पश्चात् नहाकर यज्ञकर्ता पुरुष श्वेत वस्त्र धारण करे और अपनी सामर्थ्यके अनुसार गौ, सोनेकी जंजीर, कड़े, अँगूठी, पवित्री, वस्त्र, शय्या, शय्योपयोगी सामान तथा चरणपादुका देकर एकाग्र चित्तवाले सम्पूर्ण ऋत्विजोंका पूजन करे। इसके बाद चार दिनोंतक दूधसे अभिषेक तथा घी, जौ और काले तिलोंसे होम करे। होममें पलाश (ढाक) की लकड़ी उत्तम मानी गयी है। वृक्षारोपणके पश्चात् चौथे दिन विशेष उत्सव करे। उसमें अपनी शक्तिके । अनुसार पुनः दक्षिणा दे। जो-जो वस्तु अपनेको अधिक प्रिय हो, ईर्ष्या छोड़कर उसका दान करे। आचार्यको दूनी दक्षिणा दे तथा प्रणाम करके यड़की | समाप्ति करे। जो विद्वान् उपर्युक्त विधिसे वृक्षारोपणका उत्सव करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती है तथा वहअक्षय फलका भागी होता है। राजेन्द्र ! जो इस प्रकार वृक्षकी प्रतिष्ठा करता है, वह जबतक तीस हजार इन्द्र समाप्त हो जाते हैं, तबतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। उसके शरीरमें जितने रोम होते हैं, अपने पहले और पीछेकी उतनी ही पीढ़ियोंका वह उद्धार कर देता है तथा उसे पुनरावृत्तिसे रहित परम सिद्धि प्राप्त होती है। जो मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसंगको सुनता या सुनाता है, वह भी देवताओंद्वारा सम्मानित और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। वृक्ष पुत्रहीन पुरुषको पुत्रवान् होनेका फल देते हैं। इतना ही नहीं, वे अधिदेवतारूपसे तीर्थोंमें जाकर वृक्ष लगानेवालोंको पिण्ड भी देते हैं। अतः भीष्म ! तुम यत्नपूर्वक पीपलके वृक्ष लगाओ। वह अकेला ही तुम्हें एक हजार पुत्रोंका फल देगा। पीपलका पेड़ लगानेसे मनुष्य धनी होता है। अशोक शोकका नाश करनेवाला है। पाकड़ यज्ञका फल देनेवाला बताया गया है। नीमका वृक्ष आयु प्रदान करनेवाला माना गया है। जामुन कन्या देनेवाला कहा गया है। अनारका वृक्ष पत्नी प्रदान करता है। पीपल रोगका नाशक और पलाश ब्रह्मतेज प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य बहेड़ेका वृक्ष लगाता है, वह प्रेत होता है। अंकोल लगानेसे वंशकी वृद्धि होती है। खैरका वृक्ष लगानेसे आरोग्यकी प्राप्ति होती है। नीम लगानेवालोंपर भगवान् सूर्य प्रसन्न होते हैं। बेलके वृक्षमें भगवान् शंकरका और गुलाबके पेड़में देवी पार्वतीका निवास है। अशोक वृक्षमें अप्सराएँ और कुन्द (मोगरे)-के पेड़में श्रेष्ठ गन्धर्व निवास करते हैं। बेंतका वृक्ष लुटेरोंको भय प्रदान करनेवाला है। चन्दन और कटहलके वृक्ष क्रमशः पुण्य और लक्ष्मी देनेवाले हैं। चम्पाका वृक्ष सौभाग्य प्रदान करता है। ताड़का वृक्ष सन्तानका नाश करनेवाला है। मौलसिरीसे कुलकी वृद्धि होती है। नारियल लगानेवाला अनेक स्त्रियोंका पति होता है। दाखका पेड़ सर्वांगसुन्दरी स्त्री प्रदान करनेवाला है। केवड़ा शत्रुका नाश करनेवाला है। इसी प्रकार अन्यान्य वृक्ष भी जिनका यहाँ नाम नहीं लिया गया है, यथायोग्य फल प्रदान करते हैं। जो लोग वृक्ष लगाते हैं, उन्हें [परलोकमें] प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन्! इसी प्रकार एक दूसरा व्रत बतलाता हूँ, जो समस्त मनोवांछित फलकों देनेवाला है। उसका नाम है- सौभाग्यशयन इसे पुराणोंके विद्वान् ही जानते हैं। पूर्वकालमें जब भूलोक, भुवर्लोक, स्वलॉक तथा महलोंक आदि सम्पूर्ण लोक दग्ध हो गये, तब समस्त प्राणियोंका सौभाग्य एकत्रित होकर वैकुण्ठमें जा भगवान् श्रीविष्णुके वक्षःस्थलमें स्थित हो गया। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् जब पुनः सृष्टि रचनाका समय आया, तब प्रकृति और पुरुषसे युक्त सम्पूर्ण लोकोंके अहंकारसे आवृत हो जानेपर श्रीब्रह्माजी तथा भगवान् श्रीविष्णुमें स्पर्धा जाग्रत् हुई। उस समय एक पीले रंगकी भयंकर अग्निज्वाला प्रकट हुई। उससे भगवान्का वक्षःस्थल तप उठा, जिससे वह सौभाग्यपुंज वहाँ गलित हो गया। श्रीविष्णु के वक्षःस्थलका वह सौभाग्य अभी रसरूप होकर धरतीपर गिरने नहीं पाया था कि ब्रह्माजीके बुद्धिमान् पुत्र दक्षने उसे आकाशमें ही रोककर पी लिया। दक्षके पीते ही वह अद्भुत रूप और लावण्य प्रदान करनेवाला सिद्ध हुआ। प्रजापति दक्षका बल और तेज बहुत बढ़ गया। उनके पीनेसे बचा हुआ जो अंश पृथ्वीपर गिर पड़ा वह आठ भागोंमें बँट गया। उनमेंसे सात भागोंसे सात सौभाग्यदायिनी ओषधियाँ उत्पन्न हुई, जिनके नाम इस प्रकार हैं- ईख, तरुराज, निष्पाव, राजधान्य (शालि या अगहनी), गोक्षीर (क्षीरजीरक), कुसुम्भ और कुसुम आठवाँ नमक है। इन आठोंकी सौभाग्याष्टक संज्ञा कहते हैं।
योग और जानके तत्वको जाननेवाले ब्रह्मपुत्र दक्षने पूर्वकालमें जिस सौभाग्य रसका पान किया था, उसके अंशसे उन्हें सती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। नील कमलके समान मनोहर शरीरवाली वह कन्या लोकमें ललिताके नामसे भी प्रसिद्ध है। पिनाकधारी भगवान् शंकरने उस त्रिभुवनसुन्दरी देवीके साथ विवाह किया। सती तीनों लोकोंकी सौभाग्यरूपा हैं। वे भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं। उनकी आराधना करके नर या नारी क्या नहीं प्राप्त कर सकती।भीष्मजीने पूछा- मुने! जगद्धात्री सतीकी आराधना कैसे की जाती है? जगत्की शान्तिके लिये जो विधान हो, वह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये।
पुलस्त्यजी बोले- चैत्र मासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको दिनके पूर्व भागमें मनुष्य तिलमिश्रित जलसे स्थान करे। उस दिन परम सुन्दरी भगवती सतीका विश्वात्मा भगवान् शंकरके साथ वैवाहिक मन्त्रोंद्वारा विवाह हुआ था अतः तृतीयाको सती देवी के साथ ही भगवान् शंकरका भी पूजन करे। पंचगव्य तथा चन्दन मिश्रित जलके द्वारा गौरी और भगवान् चन्द्रशेखरकी प्रतिमाको स्नान कराकर धूप, दीप, नैवेद्य तथा नाना प्रकारके फलोंद्वारा उन दोनोंकी पूजा करनी चाहिये। 'पार्वतीदेव्यै नमः', 'शिवाय नमः' इन मन्त्रोंसे क्रमशः पार्वती और शिवके चरणोंका 'जयायै नमः', 'शिवाय नमः' से दोनोंकी घुट्टियोंका; 'त्र्यम्बकाय नमः', 'भवान्यै नमः' से पिण्डलियोंका 'भद्रेश्वराय नमः ' 'विजयायै नमः' से घुटनोंका 'हरिकेशाय नमः', 'वरदायै नमः' से जाँघोंका; 'ईशाय शङ्कराय नमः' "रत्यै नमः' से दोनोंके कटिभागका; 'कोटिन्यै नमः', 'शूलिने नमः' से कुक्षिभागका; 'शूलपाणये नमः', 'मंगलायै नमः' से उदरका: 'सर्वात्मने नमः', 'ईशान्यै नमः' से दोनों स्तनोंका 'चिदात्मने नमः', 'रुद्राण्यै नमः' से कण्ठका: 'त्रिपुरघ्नाय नमः', 'अनन्तायै नमः' से दोनों हाथोंका 'त्रिलोचनाय नमः', 'कालानलप्रियायै नमः' से बाँहोंका 'सौभाग्यभवनाय नमः' से आभूषणोंका; 'स्वधायै नमः', 'ईश्वराय नमः' से दोनोंके मुखमण्डलका 'अशोकवनवासिन्यै नमः ' - इस मन्त्रसे ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले ओठोंका; 'स्थाणवे नमः', 'चन्द्रमुखप्रियायै नमः' से मुँहका; 'अर्द्धनारीश्वराय नमः', 'असितायै नमः' से नासिकाका 'उग्राय नमः', 'ललितायै नमः' से दोनों भौहोका 'शर्वाय नमः', 'वासुदेव्यै नमः' से केशका; 'श्रीकण्ठनाथाय नमः' से केवल शिवके बालोंका तथा 'भीमोग्ररूपिण्यै नमः', 'सर्वात्मने नमः' से दोनों के मस्तकोंका पूजन करे। इस प्रकार शिव और पार्वतीकीविधिवत् पूजा करके उनके आगे सौभाग्याष्टक रखे। स निष्पाव, कुसुम्भ, क्षीरजीरक, तरुराज, इक्षु, लवण, कुसुम तथा राजधान्य - इन आठ वस्तुओंको देनेसे स सौभाग्यकी प्राप्ति होती है; इसलिये इनकी 'सौभाग्याष्टक' र संज्ञा है। इस प्रकार शिव-पार्वतीके आगे सब सामग्री निवेदन करके चैत्रमें सिंघाड़ा खाकर रातको भूमिपर शयन करे। फिर सबेरे उठकर स्नान और जप करके इ पवित्र हो माला, वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा ब्राह्मण दम्पतीका पूजन करे। इसके बाद सौभाग्याष्टकसहित शिव और पार्वतीकी सुवर्णमयी प्रतिमाओंको ललिता देवीकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मणको निवेदन करे। दानके समय इस प्रकार कहे- 'ललिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, शिवा, वासुदेवा, गौरी, मंगला, कमला, सती और उमा—ये प्रसन्न हों।'
बारह महीनोंकी प्रत्येक द्वादशीको भगवान् श्रीविष्णुकी तथा उनके साथ लक्ष्मीजीकी भी पूजा करे। इसी प्रकार परलोकमें उत्तम गति चाहनेवाले पुरुषको प्रत्येक मासकी पूर्णिमाको सावित्रीसहित ब्रह्माजीकी विधिवत् आराधना करनी चाहिये तथा ऐश्वर्यकी कामनावाले मनुष्यको सौभाग्याष्टकका दान भी करना चाहिये। इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिपूर्वक अनुष्ठान करके पुरुष, स्त्री या कुमारी भक्तिके साथ रात्रिमें शिवजीकी पूजा करे। व्रतकी समाप्तिके समय सम्पूर्ण ।सामग्रियोंसे युक्त शय्या, शिव-पार्वतीकी सुवर्णमयी प्रतिमा, बैल और गौका दान करे। कृपणता छोड़कर दृढ़ निश्चयके साथ भगवान्का पूजन करे। जो स्त्री इस प्रकार उत्तम सौभाग्यशयन नामक व्रतका अनुष्ठान करती है, उसकी कामनाएँ पूर्ण होती हैं अथवा [ यदि वह निष्कामभावसे इस व्रतको करती है तो ] उसे नित्यपदकी प्राप्ति होती है। इस व्रतका आचरण करनेवाले पुरुषको एक फलका परित्याग कर देना चाहिये । प्रतिमास इसका आचरण करनेवाला पुरुष यश और कीर्ति प्राप्त करता है। राजन् ! सौभाग्यशयनका दान करनेवाला पुरुष कभी सौभाग्य, आरोग्य, सुन्दर रूप, वस्त्र, अलंकार और आभूषणोंसे वंचित नहीं होता। जो बारह, आठ या सात वर्षोंतक सौभाग्यशयन-व्रतका अनुष्ठान करता है, वह ब्रह्मलोकनिवासी पुरुषोंद्वारा पूजित होकर दस हजार कल्पोंतक वहाँ निवास करता है। इसके बाद वह विष्णुलोक तथा शिवलोकमें भी जाता है। जो नारी या कुमारी इस व्रतका पालन करती है, वह भी ललितादेवीके अनुग्रहसे ललित होकर पूर्वोक्त फलको प्राप्त करती है। जो इस व्रतकी कथाका श्रवण करता है अथवा दूसरोंको इसे करनेकी सलाह देता है, वह भी विद्याधर होकर चिरकालतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। पूर्वकालमें इस अद्भुत व्रतका अनुष्ठान कामदेवने, राजा शतधन्वाने, वरुणदेवने, भगवान् सूर्यने तथा धनके स्वामी कुबेरने भी किया था।