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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 35 - Khand 1, Adhyaya 35

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उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा

भीष्णजीने पूछा- विप्रवर। मनुष्यको भी देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकारके मंगलकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह बतानेकी कृपा कीजिये।

पुलस्त्यजीने कहा- राजन्। इस पृथ्वीपर ब्राह्मण सदा ही विद्या आदि गुणोंसे युक्त और श्रीसम्पन्न होता है तीनों लोकों और प्रत्येक युगमें ब्राह्मण देवता नित्य पवित्र माने गये हैं। ब्राह्मण देवताओंका भी देवता है । संसारमें उसके समान दूसरा कोई नहीं है। वह साक्षात् धर्मकी मूर्ति है और इस पृथ्वीपर सबको मोक्ष प्रदान करनेवाला है। ब्राह्मण सब लोगोंका गुरु, पूज्य और तीर्थस्वरूप मनुष्य है। ब्रह्माजीने उसे सब देवताओंका आश्रय बनाया है। पूर्वकालमें नारदजीने इसी विषयको ब्रह्माजीसे इस प्रकार पूछा था-'ब्रह्मन् किसकी पूजा करनेपर भगवान् लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं?'

ब्रह्माजी बोले- जिसपर ब्राह्मण प्रसन्न होते हैं, उसपर भगवान् श्रीविष्णु भी प्रसन्न हो जाते हैं। अतः ब्राह्मणकी सेवा करनेवाला मनुष्य परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होता है। ब्राह्मणके शरीरमें सदा ही श्रीविष्णुका निवास है जो दान, मान और सेवा आदिके द्वारा प्रतिदिन ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, उसके द्वारा मानो शास्त्रीय विधिके अनुसार उत्तम दक्षिणासे युक्त सौ यज्ञोंका अनुष्ठान हो जाता है। जिसके घरपर आया हुआ विद्वान् ब्राह्मण निराश नहीं लौटता, उसके सम्पूर्ण पापका नाश हो जाता है तथा वह अक्षय स्वर्गको प्राप्त होता है। पवित्र देश-कालमें सुपात्र ब्राह्मणको जो धन दान किया जाता है, उसे अक्षय जानना चाहिये; वह जन्म-जन्मान्तरों में भी फल देता रहता है। ब्राह्मणोंकी पूजा करनेवाला मनुष्य कभी दरिद्र, दुःखी और रोगी नहींहोगा जिस घर आँगन ब्राह्मणोंकी चरणधूलिप पवित्र एवं शुद्ध होते रहते हैं, वे पुण्यक्षेत्रके समान हैं। उन्हें यज्ञ कर्मके लिये श्रेष्ठ माना गया है। भीष्म पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मुखसे पहले ब्राह्मणका प्रादुर्भाव हुआ; फिर उसी मुखसे जगत्‌की सृष्टि और पालनके हेतुभूत वेद प्रकट हुए। अत: विधाताने समस्त लोकोंकी पूजा ग्रहण करनेके लिये और समस्त यज्ञोंकि अनुष्ठान के लिये ब्राह्मणके ही मुखमें वेदोंको समर्पित किया। पितृयज्ञ (श्राद्ध-तर्पण), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म तथा सब प्रकारके मांगलिक कार्योंमें ब्राह्मण सदा उत्तम माने गये हैं। ब्राह्मणके ही मुखसे देवता हव्यका और पितर कव्यका उपभोग करते हैं। ब्राह्मणके बिना दान, होम और बलि - सब निष्फल होते हैं। जहाँ ब्राह्मणको भोजन नहीं दिया जाता, वहाँ असुर, प्रेत, दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं। अतः दान- होम आदिमें ब्राह्मणको बुलाकर उन्हींसे सब कर्म कराना चाहिये। उत्तम देश-कालमें और उत्तम पात्रको दिया हुआ दान लाखगुना अधिक फलदायक होता है। ब्राह्मणको देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिये। उसके आशीर्वादसे मनुष्यकी आयु बढ़ती है, वह चिरजीवी होता है। ब्राह्मणको देखकर उसे प्रणाम न करनेसे, ब्राह्मणके साथ द्वेष रखनेसे तथा उसके प्रति अश्रद्धा करनेसे मनुष्योंकी आयु क्षीण होती है, उनके धन-ऐश्वर्यका नाश होता है तथा परलोकमें उनकी दुर्गति होती है। ब्राह्मणका पूजन करनेसे आयु, यश, विद्या और धनकी वृद्धि होती है तथा मनुष्य श्रेष्ठ दशाको प्राप्त होता है— इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जिन घरोंमें ब्राह्मणके चरणोदकसे कीच नहीं होती, जहाँ वेद और शास्त्रोंकी ध्वनि नहीं सुनायी देती, जो यह, तर्पण और ब्राह्मणोंके आशीर्वादसे वंचित रहते हैं. वे श्मशानके समान हैं।"नारदजीने पूछा- पिताजी! कौन ब्राह्मण अत्यन्त पूजनीय है? ब्राह्मण और गुरुके लक्षणका यथावत् वर्णन कीजिये।

ब्रह्माजीने कहा- वत्स! श्रोत्रिय और सदाचारी ब्राह्मणकी नित्य पूजा करनी चाहिये। जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाला और पापोंस मुक्त है, वह मनुष्य तीर्थस्वरूप है। उत्तम श्रोत्रियकुलमें उत्पन्न होकर भी जो वैदिक कमका अनुष्ठान नहीं करता, वह पूजित नहीं होता तथा असत् क्षेत्र (मातृकुल) में जन्म लेकर भी जो वेदानुकूल कर्म करता है, वह पूजाके योग्य है-जैसे महर्षि वेदव्यास और ऋष्यश्रृंग । विश्वामित्र यद्यपि क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हैं, तथापि अपने सत्कर्मोके कारण वे मेरे समान हैं; इसलिये बेटा! तुम पृथ्वीके तीर्थस्वरूप श्रोत्रिय आदि ब्राह्मणोंके लक्षण सुनो, इनके सुननेसे सब पापों का नाश होता है। ब्राह्मणके बालकको जन्मसे ब्राह्मण समझना चाहिये। संस्कारोंसे उसकी 'द्विज' संज्ञा होती है तथा विद्या पढ़नेसे वह 'विप्र' नाम धारण करता है। इस प्रकार जन्म संस्कार और विद्या - इन तीनोंसे युक्त होना श्रोत्रियका लक्षण है। जो विद्या, मन्त्र तथा वेदोंसे शुद्ध होकर तीर्थस्नानादिके कारण और भी पवित्र हो गया है, वह ब्राह्मण परम पूजनीय माना गया है। जो सदा भगवान् श्रीनारायणमें भक्ति रखता है, जिसका अन्तःकरण शुद्ध है, जिसने अपनी इन्द्रियों और क्रोधको जीत लिया है, जो सब लोगोंके प्रति समान भाव रखता है, जिसके हृदयमें गुरु, देवता और अतिथिके प्रति भक्तिहै, जो पिता-माताकी सेवामें लगा रहता है, जिसका मन परायी स्त्रीमें कभी सुखका अनुभव नहीं करता, जो सदा पुराणोंकी कथा कहता और धार्मिक उपाख्यानोंका प्रसार करता है, उस ब्राह्मणके दर्शनसे प्रतिदिन अश्वमेध आदि यज्ञका फल प्राप्त होता है। 2 जो प्रतिदिन स्नान, ब्राह्मणोंका पूजन तथा नाना प्रकारके व्रतोंका अनुष्ठान करनेसे पवित्र हो गया है तथा जो गंगाजीके जलका सेवन करता है, उसके साथ वार्तालाप करनेसे ही उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। जो शत्रु और मित्र दोनोंके प्रति दयाभाव रखता है, सब लोगोंके साथ समताका बर्ताव करता है, दूसरेका धन-जंगलमें पड़ा हुआ तिनका भी नहीं चुराता, काम और क्रोध आदि दोषोंसे मुक्त है, जो इन्द्रियोंके वशमें नहीं होता, यजुर्वेद में वर्णित चतुर्वेदमयी शुद्ध तथा चौबीस अक्षरोंसे युक्त त्रिपदा गायत्रीका प्रतिदिन जप करता है तथा उसके भेदोंको जानता है, वह ब्रह्मपदको प्राप्त होता है।

नारदजीने पूछा- पिताजी! गायत्रीका क्या लक्षण है, उसके प्रत्येक अक्षरमें कौन-सा गुण है तथा उसकी कुक्षि, चरण और गोत्रका क्या निर्णय है-इस बातको स्पष्टरूपसे बताइये।

ब्रह्माजी बोले- वत्स ! गायत्री मन्त्रका छन्द गायत्री और देवता सविता निश्चित किये गये हैं। गायत्री देवीका वर्ण शुक्ल, मुख अग्नि और ऋषि विश्वामित्र हैं। ब्रह्माजी उनके मस्तकस्थानीय हैं। उनकी शिखा रुद्र और हृदय श्रीविष्णु हैं। उनका उपनयन-कर्ममें विनियोग होताहै। गायत्री देवी सांख्यायन गोत्रमें उत्पन्न हुई हैं। तीनों लोक उनके तीन चरण हैं। पृथ्वी उनके उदरमें स्थित है। पैरसे लेकर मस्तकतक शरीरके चौबीस स्थानों में गायत्रीके चौबीस अक्षरोंका न्यास करके द्विज ब्रह्म लोकको प्राप्त होता है तथा प्रत्येक अक्षरके देवताका ज्ञान प्राप्त करनेसे विष्णुका सायुज्य मिलता है। अब मैं गायत्रीका दूसरा निश्चित लक्षण बतलाता हूँ। वह अठारह अक्षरोंका यजुर्मन्त्र है। 'अग्नि' शब्दसे उसका आरम्भ होता है और 'स्वाहा' के हकारपर उसकी समाप्ति। जलमें खड़ा होकर इस मन्त्रका सौ बार जप करना चाहिये। इससे करोड़ों पातक और उपपातक नष्ट हो जाते हैं तथा जप करनेवाले पुरुष ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होते हैं। यह मन्त्र इस प्रकार है - ॐ अग्नेर्वाक्पुंसि यजुर्वेदेन जुष्टा सोमं पिब स्वाहा'। इसी प्रकार विष्णु- मन्त्र, माहेश्वर महामन्त्र, देवीमन्त्र, सूर्यमन्त्र, गणेश-मन्त्र तथा अन्यान्य देवताओंके मन्त्रोंका जप करनेसे भी मनुष्य पापरहित होकर उत्तम गति पाता है। जिस किसी कुलमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण भी यदि जप-परायण हो तो वह साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है; उसका यत्नपूर्वक पूजन करना चाहिये। ऐसे ब्राह्मणको प्रत्येक पर्वपर विधिपूर्वक दान देना चाहिये। इससे दाताको करोड़ों जन्मोंतक अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। जो ब्राह्मण स्वाध्यायपरायण होकर स्वयं पढ़ता, दूसरोंको पढ़ाता और संसारमें द्विजातियों यहाँ धर्म, सदाचार, श्रुति, स्मृति, पुराणसंहिता तथा धर्मसंहिताका श्रवण कराता है, वह इस पृथ्वीपर भगवान् श्रीविष्णुके समान है। मनुष्यों और देवताओंका भी पूज्य है उस तीर्थस्वरूप और निष्पाप ब्राह्मणका बल अक्षय होता है। उसका आदरपूर्वक पूजन करके मनुष्य श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। जो द्विज गायत्रीके प्रत्येक अक्षरका उसके देवतासहित अपने शरीरमें न्यास करके प्रतिदिन प्राणायामपूर्वक उसका जप करता है, वह करोड़ों जन्मोंके किये हुए सम्पूर्ण पापोंसे छुटकारा पाजाता है। इतना ही नहीं, वह ब्रह्मपदको प्राप्त होकर प्रकृति से परे हो जाता है इसलिये नारद तुम प्राणायामसहित गायत्रीका जप किया करो।

नारदजीने पूछा- ब्रह्मन् ! प्राणायामका क्या स्वरूप है, गायत्रीके प्रत्येक अक्षरके देवता कौन-कौन हैं तथा शरीरके किन-किन अवयवों में उनका न्यास किया जाता है? तात! इन सभी बातोंका क्रमशः वर्णन कीजिये।

ब्रह्माजी बोले- प्रत्येक देहधारीके गुदादेशमें अपान और हृदयमें प्राण रहता है; इसलिये गुदाको संकुचित करके पूरक क्रियाके द्वारा अपान वायुको के साथ संयुक्त करे। तत्पश्चात् वायुको रोका कुम्भक करे [और उसके बाद रेचककी क्रियाद्वारा वायुको बाहर निकाले। पूरक आदि प्रत्येक क्रियाके साथ तीन-तीन बार प्राणायाम मन्त्रका जप करना चाहिये]। द्विजको तीन प्राणायाम करके गायत्रीका जप करना उचित है। इस प्रकार जो जप करता है, उसके महापातकोंकी राशि भस्म हो जाती है। तथा दूसरे दूसरे पातक भी एक ही बारके मन्त्रोच्चारणसे नष्ट हो जाते हैं। जो प्रत्येक वर्णके देवताका ज्ञान प्राप्त करके अपने शरीरमें उसका न्यास करता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त होता है; उसे मिलनेवाले फलका वर्णन नहीं किया जा सकता। बेटा! प्रत्येक अक्षरके जो-जो देवता हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो – [इन अक्षरोंका जप करनेसे द्विजको फिर जन्म नहीं लेना पड़ता ।] प्रथम अक्षरके देवता अग्नि, दूसरेके वायु, तीसरेके सूर्य, चौथेके वियत् (आकाश), पाँचवेंके यमराज, छठेके वरुण, सातवेंके बृहस्पति, आठवेंके पर्जन्य, नवेंके इन्द्र, दसवेंके गन्धर्व, ग्यारहवेंके पुषा बारहवेंके मित्र. तेरहवेंके त्वष्टा, चौदहवेंके वसु, पंद्रहवेंके मरुद्गण, सोलहवेंके सोम, सत्रहवेंके अंगिरा, अठारहवेंके विश्वेदेव, उन्नीसवें अश्विनीकुमार, बीसवेंके प्रजापति इक्कीसवेंके सम्पूर्ण देवता, बाईसवें रुद्र, तेईसवें ब्रह्मा और चौबीसवेंके श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार चौबीसअक्षरोंके ये चौबीस देवता माने गये हैं। गायत्री मन्त्रके इन देवताओंका ज्ञान प्राप्त कर लेनेपर सम्पूर्ण वाङ्मय (वाणीके विषय) का बोध हो जाता है। जो इन्हें जानता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मपदको प्राप्त होता है।

विज्ञ पुरुषको चाहिये कि अपने शरीरके पैरसे लेकर सिरतक चौबीस स्थानोंमें पहले गायत्रीके अक्षरोंका 'न्यास करे। 'तत्' का पैरके अँगूठेमें, 'स' का गुल्फ (घुट्ठी)-में, 'वि' का दोनों पिंडलियोंमें, 'तु' का घुटनोंमें, 'र्व' का जाँघोंमें, 'रे' का गुदामें, 'ण्य' का अण्डकोषमें, 'म्' का कटिभागमें, 'भ' का नाभिमण्डलमें, 'र्गो' का उदरमें, 'दे' का दोनों स्तनोंमें, 'व' का हृदयमें, 'स्य' का दोनों हाथोंमें, ‘धी' का मुँहमें, 'म' का तालुमें, 'हि' का नासिकाके अग्रभागमें, 'धि' का दोनों नेत्रोंमें, 'यो' का दोनों भौंहोंमें, 'यो' का ललाटमें 'नः' का मुखके पूर्वभागमें, 'प्र' का दक्षिण भागमें, 'चो' का पश्चिम भागमें और 'द' का मुखके उत्तर भागमें न्यास करे। फिर 'यात्' का मस्तक में न्यास करके सर्वव्यापी स्वरूपसे स्थित हो जाय। धर्मात्मा पुरुष इन अक्षरोंका न्यास करके ब्रह्मा, विष्णु और शिवका स्वरूप हो जाता है। वह महायोगी और महाज्ञानी होकर परम शान्तिको प्राप्त होता है।

नारद! अब सन्ध्या-कालके लिये एक और न्यास बतलाता हूँ, उसका भी यथार्थ वर्णन सुनो। 'ॐ भूः ' इसका हृदयमें? न्यास करके, 'ॐ भुवः' का सिरमें रेन्यास करे। फिर 'ॐ स्वः' का शिखामे 4 ॐ तत्सवितुर्वरेण्यम्' का समस्त शरीरमें5 'ॐ भर्गो देवस्य धीमहि' इसका नेत्रोंमें 6 तथा 'ॐ धियो यो नः प्रचोदयात् 'का 'दोनों हाथोंमें न्यास करे। तत्पश्चात् 'ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ' का उच्चारण करके जल-स्पर्श मात्र करनेसे द्विज पापसे शुद्ध होकर श्रीहरिको प्राप्त होता है।

इस प्रकार व्याहृति और बारह ॐ कारोंसे युक्त गायत्रीका सन्ध्याके समय कुम्भक क्रियाके साथ तीन बार जप करके सूर्योपस्थानकालमें जो चौबीस अक्षरोंकी गायत्रीका जप करता है, वह महाविद्याका अधीश्वर होता है और ब्रह्मपदको प्राप्त करता है।

व्याहृतियाँसहित इस गायत्रीका पुनः न्यास करना चाहिये। ऐसा करनेसे द्विज सब पापोंसे मुक्त होकर श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। न्यास- विधि यह है-'ॐ भूः पादाभ्याम्' का उच्चारण करके दोनों चरणोंका स्पर्श करे। इसी प्रकार 'ॐ भुवः जानुभ्याम्' कहकर दोनों घुटनोंका, ॐ स्वः कट्याम्' बोलकर कटिभागका, ॐ महः नाभी' का उच्चारण करके नाभिस्थानका, ॐ जनः हृदये कहकर हृदयका, ॐ तपः करयोः' बोलकर दोनों हाथोंका, ॐ सत्यं مد ललाटे' का उच्चारण करके ललाटका तथा गायत्री मन्त्रका पाठ करके शिखाका स्पर्श करना चाहिये। सब बीजोंसे युक्त इस गायत्रीको जो जानता है, वह मानो चारों वेदोंका, योगका तथा तीनों प्रकारके(वाचिक, उपांशु और मानसिक) जपका ज्ञान रखता है जो इस गायत्रीको नहीं जानता, वह शुद्रसे भी अधम माना गया है। उस अपवित्र ब्राह्मणको पितरोंके निमित्त किये हुए पार्वण श्राद्धका दान नहीं देना चाहिये। उसे कोई भी तीर्थ स्नानका फल नहीं देता। उसका किया हुआ समस्त शुभ कर्म निष्फल हो जाता है। उसकी विद्या, धन-सम्पत्ति, उत्तम जन्म, द्विजत्व तथा जिस पुण्यके कारण उसे यह सब कुछ मिला है, वह भी व्यर्थ होता है। ठीक उसी तरह, जैसे कोई पवित्र पुष्प किसी गंदे स्थानमें पड़ जानेपर काममें लेनेयोग्य नहीं रह जाता। मैंने पूर्वकालमें चारों वेद और गायत्रीकी तुलना की थी, उस समय चारों वेदोंकी अपेक्षा गायत्री ही गुरुतर सिद्ध हुई क्योंकि गायत्री मोक्ष देनेवाली मानी गयी है। गायत्री दस बार जपनेसे वर्तमान जन्मके, सौ बार जपनेसे पिछले जन्मके तथा एक हजार बार जपनेसे तीन युगों के पाप नष्ट कर देती हैं जो सवेरे और शामको रुद्राक्षकी मालापर गायत्रीका जप करता है, वह निःसन्देह चारों वेदोंका फल प्राप्त करता है। जो द्विज एक वर्षतक तीनों समय गायत्रीका जप करता है, उसके करोड़ों जन्मोंके उपार्जित पाप नष्ट हो जाते हैं। गायत्रीके उच्चारणमात्रसे पापराशिसे छुटकारा मिल जाता है-मनुष्य शुद्ध हो जाता है। तथा जो द्विजश्रेष्ठ प्रतिदिन गायत्रीका जप करता है, उसे स्वर्ग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं। जो नित्यप्रति वासुदेवमन्त्रका जप और भगवान्श्रीविष्णु के चरणोंमें प्रणाम करता है, वह मोक्षका अधिकारी हो जाता है। जिसके मुखमें भगवान् वासुदेवके स्तोत्र और उनकी उत्तम कथा रहती है, उसके शरीर में पापका लेशमात्र भी नहीं रहता। वेदशास्त्रोंका अवगाहन करने— उनके विचारमें संलग्न रहनेसे गंगा स्नानके समान फल होता है। लोकमें धार्मिक ग्रन्थोंका पाठ करनेवाले मनुष्योंको करोड़ों यज्ञोंका फल मिलता है। नारद मुझमें ब्राह्मणोंके गुणोंका पूरा-पूरा वर्णन करनेकी शक्ति नहीं है। ब्राह्मणके सिवा, दूसरा कौन देहधारी है, जो विश्वस्वरूप हो। ब्राह्मण श्रीहरिका मूर्तिमान् विग्रह है। उसके शापसे विनाश होता है और वरदानसे आयु, विद्या, यश, धन तथा सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। ब्राह्मणोंके ही प्रसादसे भगवान् श्रीविष्णु सदा ब्रह्मण्य कहलाते हैं जो ब्रह्मण्य (ब्राह्मणौके प्रति अनुराग रखनेवाले) देव हैं, गौ और ब्राह्मणोंके हितकारी हैं तथा संसारकी भलाई करनेवाले हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्णको बारम्बार नमस्कार है 2 । जो सदा इस मन्त्रसे श्रीहरिका पूजन करता है, उसके ऊपर भगवान् प्रसन्न होते हैं तथा वह श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त करता है। जो इस धर्मस्वरूप पवित्र आख्यानका श्रवण करता है, उसके जन्म-जन्मान्तरोंके किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। जो इसे पढ़ता, पढ़ाता तथा दूसरे लोगोंको उपदेश करता है, उसे पुन: इस संसारमें नहीं आना पड़ता। वह इस लोकमें धन, धान्य, राजोचित भोग, आरोग्य, उत्तम पुत्र तथा शुभ-कीर्ति प्राप्त करता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा