View All Puran & Books

पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 160 - Khand 5, Adhyaya 160

Previous Page 160 of 266 Next

एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन

नारदजीने पूछा- महादेव! महाद्वादशीका उत्तम व्रत कैसा होता है। सर्वेश्वर प्रभो! उसके व्रतसे जो कुछ भी फल प्राप्त होता है उसे बताने की कृपा कीजिये।

महादेवजीने कहा- ब्रह्मन् ! यह एकादशी महान् पुण्यफलको देनेवाली है। श्रेष्ठ मुनियोंको भी इसका अनुष्ठान करना चाहिये। विशेष विशेष नक्षत्रोंका योग होनेपर यह तिथि जया, विजया, जयन्ती तथा पापनाशिनी इन चार नामोंसे विख्यात होती है। ये सभी पापका नाश करनेवाली हैं। इनका व्रत अवश्य करना चाहिये। जब शुक्लपक्षकी एकादशीको 'पुनर्वसु नक्षत्र हो तो वह उत्तम तिथि 'जया' कहलाती है। उसका व्रत करके मनुष्य निश्चय ही पापसे मुक्त हो जाता है। जब शुक्लपक्षकी द्वादशीको 'श्रवण नक्षत्र हो तो वह उत्तम तिथि 'विजया' के नामसे विख्यात होती है; इसमें किया हुआ दान और ब्राह्मण भोजन सहस्रगुना फल देनेवाला है तथा होम और उपवास तो सहस्रगुने से भी अधिक फल देता है। जब शुक्लपक्षकी द्वादशीको 'रोहिणी' नक्षत्र हो तो वह तिथि 'जयन्ती' कहलाती है; वह सब पापको हरनेवाली है। उस तिथिको पूजित होनेपर भगवान् गोविन्द निश्चय ही मनुष्यके सब पापको धो डालते हैं। जब कभी शुक्लपक्षकी द्वादशीको 'पुष्य नक्षत्र हो तो वह महापुण्यमयी 'पापनाशिनी' तिथि कहलाती है। जो एक वर्षतक प्रतिदिन एक प्रस्थ तिल दान करता है तथा जो केवल 'पापनाशिनी' एकादशीको उपवास करता है, उन दोनोंका पुण्य समान होता है। उस तिथिको पूजित होनेपर संसारके स्वामी सर्वेश्वर श्रीहरि संतुष्ट होते हैं तथा प्रत्यक्ष दर्शन भी देते हैं। उस दिन प्रत्येक पुण्यकर्मका अनन्त फल माना गया है। सगरनन्दन ककुत्स्थ नहुष तथा राजा गाधिने उस तिथिको भगवान्की आराधना की थी, जिससे भगवान्ने इस पृथ्वीपर उन्हें सब कुछ दिया था। इस तिथिके सेवनसे मनुष्य सात जन्मोंके कायिक, वाचिक और मानसिक पापसे मुक्त हो जाता है। इसमेंतनिक भी संदेह नहीं है। पुष्य नक्षत्रसे युक्त एकमात्र पापनाशिनी एकादशीका व्रत करके मनुष्य एक हजार एकादशियोंके व्रतका फल प्राप्त कर लेता है। उस दिन स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजा आदि जो कुछ भी किया जाता है, उसका अक्षय फल माना गया है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक इसका व्रत करना चाहिये। जिस समय धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर पंचम अश्वमेध यज्ञका स्नान कर चुके, उस समय उन्होंने यदुवंशावतंस भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रश्न किया।

युधिष्ठिर बोले- प्रभो ! नक्तव्रत तथा एकभुक्त व्रतका पुण्य एवं फल क्या है? जनार्दन ! यह सब मुझे बताइये।

श्रीभगवान् ने कहा – कुन्तीनन्दन! हेमन्त ऋतुमें जब परम कल्याणमय मार्गशीर्ष मास आये, तब उसके कृष्णपक्षकी द्वादशी तिथिको उपवास (व्रत) करना चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार है- दृढ़तापूर्वक उत्तमव्रतका पालन करनेवाला शुद्धचित्त पुरुष दशमीको सदा एकभुक्त रहे अथवा शौच-सन्तोषादि नियमोंके पालनपूर्वक नक्तव्रतके स्वरूपको जानकर उसके अनुसार एक बार भोजन करे। दिनके आठवें भागमें जब सूर्यका तेज मन्द पड़ जाता है, उसे 'नक्त' जानना चाहिये। रातको भोजन करना 'नक्त' नहीं है। गृहस्थ लिये तारोंके दिखायी देनेपर नक्त भोजनका विधान है और संन्यासीके लिये दिनके आठवें भागमें; क्योंकि उसके लिये रातमें भोजनका निषेध है। कुन्तीनन्दन ! दशमीकी रात व्यतीत होनेपर एकादशीको प्रातः काल व्रत करनेवाला पुरुष व्रतका नियम ग्रहण करे और सबेरे तथा मध्याह्नको पवित्रताके लिये स्नान करे। कुएँका स्नान निम्न श्रेणीका है। बावलीमें स्नान करना मध्यम, पोखरेमें उत्तम तथा नदीमें उससे भी उत्तम माना गया है। जहाँ जलमें खड़ा होनेपर जल जन्तुओंको पीड़ा होती हो, वहाँ स्नान करनेपर पाप और पुण्य बराबर होता है। यदि जलको छानकर शुद्ध कर ले तो घरपर भी स्नान करना उत्तम माना गया। है। इसलिये पाण्डव श्रेष्ठ! घरपर उक्त विधिसे स्नान करे। स्नानके पहले निम्नांकित मन्त्र पढ़कर शरीरमें मृत्तिका लगा ले

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे।

मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ॥

(40।28)

'वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं। भगवान् विष्णुने भी वामन अवतार धारण कर तुम्हें अपने पैरोंसे नापा था। मृत्तिके! मैंने पूर्वकालमें जो पाप संचित किया है, उस मेरे पापको हर लो। '

व्रती पुरुषको चाहिये कि वह एकचित और दृढ़ संकल्प होकर क्रोध तथा लोभका परित्याग करे। अन्त्यज, पाखण्डी, मिथ्यावादी, ब्राह्मणनिन्दक, अगम्या स्त्रीके साथ गमन करनेवाले अन्यान्य दुराचारी, परधनहारी तथा परस्त्रीगामी मनुष्योंसे वार्तालाप न करे भगवान् केशवकी पूजा करके उन्हें नैवेद्य भोग लगाये घरमें भक्तियुक्त मनसे दीपक जलाकर रखे पार्थ! उस दिन निद्रा और मैथुनका परित्याग करे। धर्मशास्त्रसेमनोरंजन करते हुए सम्पूर्ण दिन व्यतीत करे। नृपश्रेष्ठ भक्तियुक्त होकर रात्रिमें जागरण करे, ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे और प्रणाम करके उनसे त्रुटियोंके लिये क्षमा माँगे। जैसी कृष्णपक्षकी एकादशी है, वैसी ही शुक्लपक्षको भी है। इसी विधिसे उसका भी व्रत करना चाहिये।

पार्थ! द्विजको उचित है कि वह शुक्ल और कृष्णपक्षको एकादशी के व्रती लोगों में भेदबुद्धि न उत्पन्न करे। शंखोद्धार तीर्थमें स्नान करके भगवान् गदाधरका दर्शन करनेसे जो पुण्य होता है तथा संक्रान्तिके अवसरपर चार लाखका दान देकर जो पुण्य प्राप्त किया जाता है, वह सब एकादशीव्रतकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है। प्रभासक्षेत्रमें चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके अवसरपर स्नान-दानसे जो पुण्य होता है, वह निश्चय ही एकादशीको उपवास करनेवाले मनुष्यको मिल जाता है। केदारक्षेत्रमें जल पीनेसे पुनर्जन्म नहीं होता। एकादशीका भी ऐसा ही माहात्म्य है। यह भी गर्भवासका निवारण करनेवाली है। पृथ्वीपर अश्वमेध यज्ञका जो फल होता है, उससे सौगुना अधिक फल एकादशीव्रत करनेवालेको मिलता है। जिसके घरमें तपस्वी एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण भोजन करते हैं उसको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह एकादशीव्रत करनेवालेको भी अवश्य मिलता है। वेदांगों के पारगामी विद्वान् ब्राह्मणको सहस्र गोदान करनेसे जो पुण्य होता है, उससे सौगुना पुण्य एकादशीव्रत करनेवालेको प्राप्त होता है। इस प्रकार व्रतीको वह पुण्य प्राप्त होता है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। रातको भोजन कर लेनेपर उससे आधा पुण्य प्राप्त होता है तथा दिनमें एक बार भोजन करनेसे देहधारियोंको नक्त-भोजनका आधा फल मिलता है। जीव जबतक भगवान् विष्णुके प्रिय दिवस एकादशीको उपवास नहीं करता, तभीतक तीर्थ, दान और नियम अपने महत्वकी गर्जना करते हैं। इसलिये पाण्डव श्रेष्ठ! तुम इस व्रतका अनुष्ठान करो। कुन्तीनन्दन ! यह गोपनीय एवं उत्तम व्रत है, जिसका मैंने तुमसे वर्णन किया है। हजारों यज्ञोंका अनुष्ठान भी एकादशी व्रतकी तुलना नहीं कर सकता।युधिष्ठिरने पूछा – भगवन् पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई? इस संसारमें क्यों पवित्र मानी। गयी ? तथा देवताओंको कैसे प्रिय हुई ?

श्रीभगवान् बोले – कुन्तीनन्दन प्राचीन समयकी बात है, सत्ययुगमें मुर नामक दानव रहता था। वह बड़ा ही अद्भुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये भयंकर था। उस कालरूपधारी दुरात्मा महासुरने इन्द्रको भी जीत लिया था। सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्गसे निकाले जा चुके थे और शांकित तथा भयभीत होकर पृथ्वीपर विचरा करते थे एक दिन सब देवता महादेवजीके पास गये। वहाँ इन्द्रने भगवान् शिवके आगे सारा हाल कह सुनाया।

इन्द्र बोले- महेश्वर! ये देवता स्वर्गलोकसे भ्रष्ट होकर पृथ्वीपर विचर रहे हैं। मनुष्योंमें रहकर इनकी शोभा नहीं होती। देव! कोई उपाय बतलाइये। देवता किसका सहारा लें ?

महादेवजीने कहा- देवराज! जहाँ सबको शरण देनेवाले, सबकी रक्षामें तत्पर रहनेवाले जगत्के स्वामी भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, वहाँ जाओ। वे तुमलोगोंकी रक्षा करेंगे।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर। महादेवजीकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंके साथ वहाँ गये। भगवान् गदाधर क्षीरसागरके जलमें सो रहे थे। उनका दर्शन करके इन्द्रने हाथ जोड़कर स्तुति आरम्भ की।

इन्द्र बोले- देवदेवेश्वर। आपको नमस्कार है। देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं। पुण्डरीकाक्ष! आप दैत्योंके शत्रु हैं। मधुसूदन । हमलोगोंकी रक्षा कीजिये। जगन्नाथ सम्पूर्ण देवता मुरनामक दानवसे भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं।

भक्तवत्सल! हमें बचाइये। देवदेवेश्वर ! हमें बचाइये। जनार्दन! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। दानवोंका विनाश करनेवाले कमलनयन ! हमारी रक्षा कीजिये। प्रभो! हम सब लोग आपके समीप आये हैं। आपकी ही शरणमें आ पड़े हैं। भगवन् ! शरणमें आये हुए देवताओंकी सहायता कीजिये देव ! आप ही पति, आप ही मति, आप ही कर्ता और आप ही कारण हैं। आप ही सब लोगोंकी माता और आप ही इस जगत्के पिता हैं। भगवन्! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल ! देवता भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो! अत्यन्त उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्यने सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर इन्हें स्वर्गसे निकाल दिया है। *इन्द्रकी बात सुनकर भगवान् विष्णु बोले 'देवराज! वह दानव कैसा है ? उसका रूप और बल कैसा है तथा उस दुष्टके रहनेका स्थान कहाँ है ?'

इन्द्र बोले – देवेश्वर पूर्वकालमें ब्रह्माजीके वंशमें तालजंघ नामक एक महान् असुर उत्पन्न हुआ था, जो अत्यन्त भयंकर था। उसका पुत्र मुर दानवके नामसे विख्यात हुआ। वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी और देवताओंके लिये भयंकर है। चन्द्रावती नामसे प्रसिद्ध एक नगरी है, उसीमें स्थान बनाकर वह निवास करता है। उस दैत्यने समस्त देवताओंको परास्त करके स्वर्गलोकसे बाहर कर दिया है। उसने एक दूसरे ही इन्द्रको स्वर्गके सिंहासनपर बैठाया है। अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं। जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ। उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं। देवताओंको तो उसने प्रत्येक स्थानसे वंचित कर दिया है।

इन्द्रका कथन सुनकर भगवान् जनार्दनको बड़ा क्रोध हुआ। वे देवताओंको साथ लेकर चन्द्रावतीपुरीमें गये। देवताओंने देखा, दैत्यराज बारम्बार गर्जना कर रहाहै; उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओं में भाग गये। अब वह दानव भगवान् विष्णुको देखकर बोला-'खड़ा रह, खड़ा रह ।' उसकी ललकार सुनकर भगवान्के नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। वे बोले 'अरे दुराचारी दानव ! मेरी इन भुजाओंको देख।' यह कहकर श्रीविष्णुने अपने दिव्य बाणोंसे सामने आये हुए दुष्ट दानवोंको मारना आरम्भ किया। दानव भयसे विह्वल हो उठे। पाण्डुनन्दन ! तत्पश्चात् श्रीविष्णुने दैत्य सेनापर चक्रका प्रहार किया। उससे छिन्न-भिन्न होकर सैकड़ों योद्धा मौतके मुखमें चले गये। इसके बाद भगवान् मधुसूदन बदरिकाश्रमको चले गये। वहाँ सिंहावती नामकी गुफा थी, जो बारह योजन लम्बी थी। पाण्डुनन्दन ! उस गुफामें एक ही दरवाजा था। भगवान् विष्णु उसीमें सो रहे। दानव मुर भगवान्‌को मार डालनेके उद्योगमें लगा था। वह उनके पीछे लगा रहा। वहाँ पहुँचकर उसने भी उसी गुहामें प्रवेश किया। वहाँ भगवान्‌को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ। उसने सोचा- 'यह दानवोंको भय देनेवाला देवता है। अतः निस्सन्देह इसे मार डालूँगा ।' युधिष्ठिर! दानवके इस प्रकार विचारकरते ही भगवान् विष्णुके शरीरसे एक कन्या प्रकट हुई, जो बड़ी ही रूपवती, सौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे युक्त थी। वह भगवान्‌के तेजके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसका बल और पराक्रम महान् था। युधिष्ठिर! दानवराज मुरने उस कन्याको देखा। कन्याने युद्धका विचार करके दानवके साथ युद्धके लिये याचना की। युद्ध छिड़ गया। कन्या सब प्रकारकी युद्धकलामें निपुण थी! वह मुर नामक महान् असुर उसके हुंकार मात्रसे राखका ढेर हो गया। दानवके मारे जानेपर भगवान् जाग उठे। उन्होंने दानवको धरतीपर पड़ा देख, पूछा- 'मेरा यह शत्रु अत्यन्त उग्र और भयंकर था, किसने इसका वध किया है ?'

कन्या बोली- स्वामिन्! आपके ही प्रसादसे मैंने इस महादैत्यका वध किया है।

श्रीभगवान्ने कहा – कल्याणी ! तुम्हारे इस कर्मसे तीनों लोकोंके मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं! अतः तुम्हारे मनमें जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझसे कोई वर माँगो; देवदुर्लभ होनेपर भी वह वर मैं तुम्हें दूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी। उसने कहा - 'प्रभो! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपासे सब तीर्थोंमें प्रधान, समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाली तथा सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली देवी होऊँ । जनार्दन ! जो लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिनको उपवास करेंगे, उन्हें सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त हो। माधव! जो लोग उपवास, नक्त अथवा एकभुक्त करके मेरे व्रतका पालन करें, उन्हें आप धन, धर्म और मोक्ष प्रदान कीजिये।'श्रीविष्णु बोले – कल्याणी ! तुम जो कुछ कहती हो, वह सब पूर्ण होगा। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—युधिष्ठिर! ऐसा वर पाकर महाव्रता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई। दोनों पक्षोंकी एकादशी समान रूपसे कल्याण करनेवाली है। इसमें शुक्ल और कृष्णका भेद नहीं करना चाहिये । यदि उदयकालमें थोड़ी-सी एकादशी, मध्यमें पूरी द्वादशी और अन्तमें किंचित् त्रयोदशी हो तो वह 'त्रिस्पृशा' एकादशी कहलाती है। वह भगवान्को बहुत ही प्रिय है। यदि एक त्रिस्पृशा एकादशीको उपवास कर लिया जाय तो एक सहस्र एकादशीव्रतोंका फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशीमें पारण करनेपर सहस्रगुना फल माना गया है। अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीया और चतुर्दशी – ये यदि पूर्व तिथिसे विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिये । परवर्तिनी तिथिसे युक्त होनेपर ही इनमें उपवासका विधान है। पहले दिन दिनमें और रातमें भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रातः काल एक दण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथिका परित्याग करके दूसरे दिनकी द्वादशीयुक्त एकादशीको ही उपवास करना चाहिये यह विधि मैंने दोनों पक्षोंकी एकादशीके लिये बतायी है। जो मनुष्य एकादशीको उपवास करता है, वह वैकुण्ठधाममें, जहाँ साक्षात् भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, जाता है। जो मानव हर समय एकादशीके माहात्म्यका पाठ करता है, उसे सहस्र गोदानोंके पुण्यका फल प्राप्त होता है। जो दिन या रातमें भक्तिपूर्वक इस माहात्म्यका श्रवण करते हैं, वे निस्सन्देह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। एकादशीके समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है।

Previous Page 160 of 266 Next

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार