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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 225 - Khand 5, Adhyaya 225

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कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन

सूतजी कहते हैं— शौनकजी! तदनन्तर अपने भक्तोंके हृदयमें अलौकिक भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे। उनके गलेमें वनमाला शोभा पा रही थी। श्रीविग्रह नूतन मेघके समान श्यामवर्ण था। उसपर पीताम्बर सुशोभित हो रहा था भगवान्की वह झाँकी चित्तको चुराये लेती थी। उनका कटिप्रदेश करधनीकी लड़ियोंसे अलंकृत था। मस्तकपर मुकुट और कानोंमें कुण्डल शोभा पा रहे थे। बाँकी अदासे खड़े होनेके कारण वे बड़े मनोहर प्रतीत होते थे। वक्षःस्थलपर सुन्दर कौस्तुभमणि दमक रही थी। सारा श्री अंग हरिचन्दनसे चर्चित था। करोड़ों कामदेवकी रूप- माधुरी उनपर निछावर हो रही थी। इस प्रकार वे परमानन्द- चिन्मूर्ति परम मधुर मुरलीधर श्रीकृष्ण अपने भक्तोंके निर्मल हृदयमें प्रकट हुए। वैकुण्ठ (गोलोक ) में निवास करनेवाले जो उद्भव आदि वैष्णव हैं, वे भी वह कथा सुननेके लिये गुप्तरूपसे वहाँ उपस्थित थे। भगवान्‌के पधारते ही वहाँ चारों ओरसे जय जयकारकी ध्वनि होने लगी। उस समय भक्तिरसका अलौकिक प्रवाह वह चला। अबीर और गुलालके साथ ही फूलोंकी वर्षा होने लगी वारंवार शंखध्वनि होती रहती थी। उस सभामें जितने लोग विराजमान थे, उन्हें अपने देह गेह और आत्मातककी सुध-बुध भूल गयी थी। उनकी यह तन्मयताको अवस्था देख देवर्षि नारदजी इस प्रकार कहने लगे

नारदजी बोले – मुनीश्वरो! आज मैंने सप्ताह श्रवणकी यह बड़ी अलौकिक महिमा देखी है। यहाँ जोमूढ़, शठ और पशु-पक्षी आदि हैं, वे भी इसके प्रभावसे पापशून्य प्रतीत होते हैं। अतः इस मर्त्यलोकमें चित्त-शुद्धिके लिये इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। कलिकालमें यह श्रीमद्भागवतकी कथा ही पाप राशिका विनाश करनेवाली है। इस कथाके समान पृथ्वीपर दूसरा कोई साधन नहीं है। अच्छा, अब मुझे यह बताइये कि इस कथामय सप्ताहयज्ञसे संसारमें कौन-कौन लोग शुद्ध होते हैं। मुनिवर ! आपलोग बड़े दयालु हैं। आपलोगोंने लोकहितका विचार करके यह बिलकुल निराला मार्ग निकाला है।

सनकादिने कहा- देवर्षे ! जो लोग सदा ही भाँति-भाँतिके पाप करते हैं, दुराचारमें प्रवृत्त रहते हैं और शास्त्र - विरुद्ध मार्गोंसे चलते हैं तथा जो क्रोधाग्निसे जलनेवाले, कुटिल और कामी हैं, वे सभी कलिकालमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो सत्यसे हीन, पिता माताकी निन्दा करनेवाले, तृष्णासे व्याकुल, आश्रम धर्मसे रहित, दम्भी, दूसरोंसे डाह रखनेवाले और प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, गुरुपत्नी-गमन और विश्वासघात - ये पाँच भयंकर पाप करनेवाले, छल-छद्ममें प्रवृत्त रहनेवाले, क्रूर, पिशाचोंके समान निर्दयी, ब्राह्मणोंके धनसे पुष्ट होनेवाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो शठ हठपूर्वक मन, वाणी और शरीरके द्वारा सदा पाप करते रहते हैं, दूसरोंके धनसे पुष्ट होते हैं, मलिन शरीर तथा खोटे हृदयवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं।नारदजी! इस विषयमें अब हम तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं, जिसके श्रवणमात्र पापका हो जाता है। पूर्वकालकी बात है-तुंगभद्रा नदीके तटपर एक उत्तम नगर बसा हुआ था। वहाँ सभी लोग अपने-अपने धर्मोका पालन करते और सत्य एवं सत्कर्ममें लगे रहते थे। उस नगरमें आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो समस्त वेदोंका विशेषज्ञ और श्रौतस्मार्त कर्मोंमें निष्णात था। वह ब्राह्मण द्वितीय सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ता था। यद्यपि वह भिक्षासे ही जीवन निर्वाह करता था, तो भी लोकमे धनवान् समझा जाता था। उसकी स्त्रीका नाम धुन्धुली था। वह सुन्दरी तो थी ही, अच्छे कुलमें भी उत्पन्न हुई थी। फिर भी स्वभावकी बड़ी हठीली थी। सदा अपनी ही टेक रखती थी हमेशा दूसरे लोगोंकी चर्चा किया करती थी। उसमें क्रूरता भी थी तथा वह प्रायः बहुत बकवाद किया करती थी, परन्तु घरका काम-काज करनेमें बड़ी बहादुर थी। कंजूस भी कम नहीं थी। कलहका तो उसे व्यसन-सा हो गया था। । ये दोनों पति-पत्नी बड़े प्रेमसे रहते थे फिर भी उन्हें कोई सन्तान नहीं थी इस कारण धन, भोग-सामग्री तथा घर आदि कोई भी वस्तु उन्हें सुखद नहीं जान पड़ती थी। कुछ कालके पश्चात् उन्होंने सन्तान प्राप्ति के लिये धर्मका अनुष्ठान आरम्भ किया। वे दीनोंको सदा गौ, भूमि, सुवर्ण और वस्त्र आदि दान करने लगे। उन्होंने अपने धनका आधा भाग धर्मके मार्गपर खर्च कर दिया; तो भी उनके न कोई पुत्र हुआ, न पुत्री। इससे ब्राह्मणको बड़ी चिन्ता हुई। वह आकुल हो उठा और एक दिन अत्यन्त दुःखके कारण घर छोड़कर वनमें चला गया। वहाँ दोपहरके समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक पोखरेके किनारे गया और वहाँ जल पीकर बैठ रहा। सन्तानहीनताके दुःखसे उसका सारा शरीर सूख गया था। उसके बैठने के दो ही घड़ी बाद एक संन्यासी वहाँ आये। उन्होंने भी पोखरेमें जल पीया ब्राह्मणने देखा, वे जल । पी चुके हैं, तो वह उनके पास गया और चरणों में मस्तक झुकाकर जोर-जोरसे साँस लेता हुआ सामनेखड़ा हो गया।

संन्यासीने पूछा- ब्राह्मण! तुम रोते कैसे हो? तुम्हें क्या भारी चिन्ता सता रही है? तुम शीघ्र ही मुझसे अपने दुःखका कारण बताओ।

ब्राह्मणने कहा- मुने! मैं अपना दुःख क्या कहूँ. यह सब मेरे पूर्वपापों का संचित फल है। [मेरे कोई सन्तान नहीं है, इससे मेरे पितर भी दुःखी हैं; वे] मेरे पूर्वज मेरी दी हुई जलांजलिको जब पीने लगते हैं, उस समय वह उनकी चिन्ताजनित साँसोंसे कुछ गरम हो जाती है। देवता और ब्राह्मण भी मेरी दी हुई वस्तुको प्रसन्नतापूर्वक नहीं लेते। सन्तानके दुःखसे मेरा संसार सूना हो गया है, अतः अब मैं यहाँ प्राण त्यागनेके लिये आया हूँ। सन्तानहीन पुरुषका जीवन धिक्कारके योग्य है जिस घरमें कोई सन्तान कोई बाल-बच्चे न हों, वह घर भी धिक्कार देनेयोग्य है। निस्सन्तान पुरुषके धनको भी धिक्कार है। तथा सन्तानहीन कुल भी धिक्कारके ही योग्य है। [मैं अपने दुर्भाग्यको कहाँतक बताऊँ ? ] जिस गायको पालता हूँ, वह भी सर्वथा वन्ध्या हो जाती है। मैं जिसको रोपता हूँ, उस वृक्षमें भी फल नहीं लगते। इतना ही नहीं, मेरे घरमें बाहरसे जो फल आता है, वह भी शीघ्र ही सूख जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और सन्तानहीन हूँ, तो इस जीवनको रखनेसे क्या लाभ है। यों कहकर वह ब्राह्मण दुःखसे व्यथित हो उठा और उन संन्यासी बाबाके पास फूट-फूटकर रोने लगा। संन्यासीके हृदयमें बड़ी करुणा भर आयी। वे योगी भी थे, उन्होंने ब्राह्मणके ललाटमें लिखे हुए विधाताके अक्षरोंको पढ़ा और सब कुछ जानकर विस्तारपूर्वक कहना आरम्भ किया।

संन्यासीने कहा- ब्राह्मण! सुनो, मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखा है उससे जान पड़ता है कि सात जन्मोंतक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो सकती; अतः सन्तानका मोह छोड़ो, क्योंकि यह महान् अज्ञान है देखो, कर्मकी गति बड़ी प्रबल है; अतः विवेकका आश्रय लेकर संसारकी वासना त्याग दो। अजी पूर्वकालमें सन्तानके ही कारण राजा सगर औरअंगको दुःख भोगना पड़ा था इसलिये अब तुम कुटुम्बकी आशा छोड़ दो। त्यागमें ही सब प्रकारका सुख है।

ब्राह्मण बोले- बाबा ! विवेकसे क्या होगा ? मुझे तो जैसे बने वैसे पुत्र ही दीजिये नहीं तो मैं शोकसे मूर्च्छित होकर आपके आगे ही प्राण त्याग दूँगा पुत्र र आदिके सुखसे हीन यह संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। संसारमें पुत्र-पौत्रोंसे भरा हुआ गृहस्थाश्रम ही सरस है।

ब्राह्मणका यह आग्रह देख उन तपोधनने कहा 'देखो, विधाताके लेखको मिटानेका हठ करनेसे राजा 2 चित्रकेतुको कष्ट भोगना पड़ा; अतः दैवने जिसके पुरुषार्थको कुचल दिया हो, ऐसे पुरुषके समान तुम्हे 1 पुत्रसे सुख नहीं मिलेगा; फिर भी तुम हठ करते जा रहे हो। तुम्हें केवल अपना स्वार्थ ही सूझ रहा है; अतः मैं तुमसे क्या कहूँ।"

अन्तमें ब्राह्मणका बहुत आग्रह देख संन्यासीने उसे एक फल दिया और कहा- 'इसे तुम अपनी पत्नीको खिला देना इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्वीको चाहिये कि वह एक वर्षातक सत्य, शौच, दया और दानका नियम पालती हुई प्रतिदिन एक समय भोजन करे। इससे उसका बालक अत्यन्त शुद्ध स्वभाववाला होगा।' ऐसा कहकर वे योगी महात्मा चले गये और ब्राह्मण अपने घर लौट आया। यहाँ उसने अपनी पत्नीकेहाथमें वह फल दे दिया और स्वयं कहीं चला गया। उसकी पत्नी तो कुटिल स्वभावकी थी ही अपनी सखीके आगे रो-रोकर इस प्रकार कहने लगी 'अहो! मुझे तो बड़ी भारी चिन्ता हो गयी। मैं तो इस फलको नहीं खाऊँगी। सखी इस फलको खानेसे गर्भ रहेगा और गर्भसे पेट बढ़ जायगा। फिर तो खाना पीना कम होगा और इससे मेरी शक्ति घट जायगी। ऐसी दशामें तुम्हीं बताओ, परका काम-धंधा कैसे होगा? यदि दैववश गाँवमें लूट पड़ जाय तो गर्भिणी स्त्री भाग कैसे सकेगी? यदि कहीं शुकदेवजीकी तरह यह गर्भ भी [बारह वर्षोंतक] पेटमें ही रह गया, तो इसे बाहर कैसे निकाला जायगा ? यदि कहीं प्रसवकालमें बच्चा टेढ़ा हो गया, तब तो मेरी मौत ही हो जायगी। बच्चा पैदा होते समय बड़ी असह्य पीड़ा होती है। मैं सुकुमारी स्त्री, भला उसे कैसे सह सकूँगी ? गर्भवती अवस्थामें जब मेरा शरीर भारी हो जायगा और चलने फिरनेमें आलस्य लगेगा, उस समय मेरी ननद रानी आकर घरका सारा माल मता उड़ा ले जायँगी। और तो और, यह सत्य शौचादिका नियम पालना तो मेरे लिये बहुत ही कठिन दिखायी देता है। जिस स्त्रीके सन्तान होती है, उसे बच्चोंके लालन-पालनमें भी कष्ट भोगना पड़ता है। मैं तो समझती हूँ, बाँझ अथवा विधवा स्त्रियाँ ही अधिक सुखी होती हैं।'

नारदजी! इस प्रकार कुतर्क करके उस ब्राह्मणीने फल नहीं खाया। जब पतिने पूछा- 'तुमने फल खाया?' तो उसने कह दिया- 'हाँ, खा लिया।' एक दिन उसकी बहिन अपने आप ही उसके घर आयी। धुन्धुलीने उसके आगे अपना सारा वृतान्त सुनाकर कहा- 'बहिन मुझे इस बातकी बड़ी चिन्ता है कि सन्तान न होनेपर मैं पतिको क्या उत्तर दूँगी इस दुःखके कारण मैं दिनोदिन दुबली हुई जा रही हूँ। बताओ, मैं क्या करूँ? तब उसने कहा 'दीदी! मेरे पेटमें बच्चा है। प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुमको दे दूँगी। तबतक तुम गर्भवती स्त्रीकी भाँति घरमें छिपकर मौजसे रहो। तुम मेरे पतिको धन दे देना। इससे वे अपना बालकतुम्हें दे देंगे तथा लोगोंमें इस बातका प्रचार कर देंगे कि मेरा बच्चा छः महीनेका होकर मर गया। मैं प्रतिदिन तुम्हारे घरमें आकर बच्चेका पालन-पोषण करती रहूँगी। तुम इस समय परीक्षा लेनेके लिये यह फल गौको खिला दो।' तब उस ब्राह्मणीने स्त्रीस्वभावके कारण वह सब कुछ वैसे ही किया। तदनन्तर समय आनेपर उसकी बहिनको बच्चा पैदा हुआ। बच्चे के पिताने बालकको लाकर एकान्तमें धुन्धुलीको दे दिया। उसने अपने स्वामीको सूचना दे दी कि मेरे बच्चा पैदा हो गया और कोई कष्ट नहीं हुआ। आत्मदेवके पुत्र होनेसे लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। ब्राह्मणने बालकका जातकर्म संस्कार करके ब्राह्मणोंको दान दिया। उसके दरवाजेपर गाना, बजाना आदि नाना प्रकारका मांगलिक उत्सव होने लगा। धुन्धुलीने स्वामीसे कहा- 'मेरे स्तनोंमें दूध नहीं है, फिर गाय-भैंस आदि अन्य जीवोंके दूधसे मैं बालकका पोषण कैसे करूँगी ? मेरी बहिनको भी बच्चा हुआ था, किन्तु वह मर गया है; अतः अब उसीको बुलाकर घरमें रखिये, वही आपके बालकका पालन-पोषण करेगी।' उसके पतिने पुत्रकी जीवन-रक्षाके लिये सब कुछ किया। माताने उसका नाम 'धुन्धुकारी' रखा।

तदनन्तर तीन महीने बीतनेके बाद ब्राह्मणकी गौने भी एक बालकको जन्म दिया, जो सर्वांगसुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्णकी-सी कान्तिवाला था। उसेदेखकर ब्राह्मणदेवताको बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने स्वयं ही बालकके सब संस्कार किये। यह आश्चर्यजनक समाचार सुनकर सब लोग उसे देखनेके लिये आये और आपसमें कहने लगे-'देखो, इस समय आत्मदेवका कैसा भाग्य उदय हुआ है। कितने आश्चर्यकी बात है कि गायके पेटसे भी देवताके समान रूपवाला बालक उत्पन्न हुआ।' किन्तु दैवयोगसे किसीको भी इस गुप्त रहस्यका पता न लगा। उस बालकके कान गौके समान थे, यह देखकर आत्मदेवने उसका नाम गोकर्ण रख दिया। कुछ काल व्यतीत होनेपर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो पण्डित और ज्ञानी हुआ; किन्तु धुन्धुकारी महादुष्ट निकला। स्नान और शौचाचारका तो उसमें नाम भी नहीं था। वह अभक्ष्य भक्षण करता, क्रोधमें भरा रहता और बुरी-बुरी वस्तुओंका संग्रह किया करता था। भोजन तो वह सबके हाथका कर लेता था। चोरी करता, सब लोगोंसे द्वेष बढ़ाता, दूसरोंके घरोंमें आग लगा देता और खेलानेके बहाने छोटे बच्चोंको पकड़कर कुएँमें डाल देता था। जीवोंकी हिंसा करनेका उसका स्वभाव हो गया था। वह हमेशा हथियार लिये रहता और दीन, दुःखियों तथा अंधोंको कष्ट पहुँचाया करता था । चाण्डालोंके साथ उसने खूब हेल-मेल बढ़ा लिया था। वह प्रतिदिन हाथमें फंदा लिये कुत्तोंकी टोलीके साथ शिकारकी टोहमें घूमता रहता था। उसने वेश्याके कुसंगमें पड़कर पिताका सारा धन बरबाद कर दिया। एक दिन तो माता-पिताको खूब पीटकर वह घरके सारे वर्तन - भाँड़े उठा ले गया। इस प्रकार धनहीन हो जानेके कारण बेचारा बाप फूट-फूटकर रोने लगा। वह बोला- 'इस प्रकार पुत्रवान् बननेसे तो अपुत्र रहना ही अच्छा है। कुपुत्र बड़ा ही दुःखदायी होता है। अब मैं कहाँ रहूँ? कहाँ जाऊँ? कौन मेरा दुःख दूर करेगा ? हाय! मुझपर बड़ा भारी कष्ट आ पहुँचा। अब तो मैं इस दुःखसे अपना प्राण त्याग दूँगा ।'

इसी समय ज्ञानवान् गोकर्णजी वहाँ आये और वैराग्यका महत्त्व दिखलाते हुए अपने पिताको समझाने लगे- 'पिताजी! इस संसारमें कुछ भी सार नहीं है।दुःख ही इसका स्वरूप है। यह जीवोंको मोहमें डालनेवाला है। भला, यहाँ कौन किसका पुत्र है और कौन किसका धन जो इनमें आसक्त होता है, उसे ही रात-दिन जलना पड़ता है। इन्द्र अथवा चक्रवर्ती राजाओंको भी कोई सुख नहीं है। सुख तो बस, एकान्तवासी वैराग्यवान् मुनिको हो है सन्तानके प्रति जो आपकी ममता है, यह महान् अज्ञान है इसे छोड़िये। मोहमें फँसनेसे मनुष्यको नरकमें ही जाना पड़ता है। औरोंकी तो बात ही क्या है, आपका यह प्रिय शरीर भी एक न एक दिन नष्ट हो जायगा आपको छोड़कर चल देगा; इसलिये आप अभीसे सब कुछ छोड़कर वनमें चले जाइये।"गोकर्णकी बात सुनकर उनके पिता आत्मदेव वनमें जानेके लिये उद्यत होकर बोले- 'तात! मुझे वनमें रहकर क्या करना चाहिये? यह विस्तारपूर्वक बताओ! मैं बड़ा शठ हूँ। अबतक कर्मवश स्नेहके बन्धनमें बँधकर में अपंगकी भाँति इस गृहरूपी अँधेरे कुएँ में ही पड़ा हुआ हूँ। दयानिधे! तुम निश्चय ही मेरा उद्धार करो!"

गोकर्णने कहा- पिताजी! हड्डी, मांस और रक्तके पिण्डरूप इस शरीरमें आप 'मैं' पनका अभिमान छोड़ दीजिये और स्त्री-पुत्र आदिमें भी 'बे छोड़ मेरे हैं इस भावको सदाके लिये त्याग दीजिये। इस संसारको निरन्तर क्षणभंगुर देखिये और एकमात्र वैराग्य-रसके रसिक होकर भगवान्‌के भजनमें लग जाइये। सदा भगवद्भजनरूप दिव्य धर्मका ही आश्रय लीजिये। सकामभावसे किये जानेवाले लौकिक धर्मोको छोड़िये साधु पुरुषोंकी सेवा कीजिये, भोगोंकी तृष्णाको त्याग दीजिये तथा दूसरोंके गुण-दोषोंका विचार करना शीघ्र छोड़कर निरन्तर भगवत्सेवा एवं भगवत्कथाके रसका पान कीजिये। *

इस प्रकार पुत्रके कहने से आत्मदेव साठ वर्षकी अवस्था बीत जानेपर घर छोड़कर स्थिरचित्तसे वनको चले गये और वहाँ प्रतिदिन भगवान् श्रीहरिकी परिचर्या करते हुए नियमपूर्वक दशम स्कन्धका पाठ करनेसे उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्राप्त कर लिया।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार