सूतजी कहते हैं— शौनकजी! तदनन्तर अपने भक्तोंके हृदयमें अलौकिक भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे। उनके गलेमें वनमाला शोभा पा रही थी। श्रीविग्रह नूतन मेघके समान श्यामवर्ण था। उसपर पीताम्बर सुशोभित हो रहा था भगवान्की वह झाँकी चित्तको चुराये लेती थी। उनका कटिप्रदेश करधनीकी लड़ियोंसे अलंकृत था। मस्तकपर मुकुट और कानोंमें कुण्डल शोभा पा रहे थे। बाँकी अदासे खड़े होनेके कारण वे बड़े मनोहर प्रतीत होते थे। वक्षःस्थलपर सुन्दर कौस्तुभमणि दमक रही थी। सारा श्री अंग हरिचन्दनसे चर्चित था। करोड़ों कामदेवकी रूप- माधुरी उनपर निछावर हो रही थी। इस प्रकार वे परमानन्द- चिन्मूर्ति परम मधुर मुरलीधर श्रीकृष्ण अपने भक्तोंके निर्मल हृदयमें प्रकट हुए। वैकुण्ठ (गोलोक ) में निवास करनेवाले जो उद्भव आदि वैष्णव हैं, वे भी वह कथा सुननेके लिये गुप्तरूपसे वहाँ उपस्थित थे। भगवान्के पधारते ही वहाँ चारों ओरसे जय जयकारकी ध्वनि होने लगी। उस समय भक्तिरसका अलौकिक प्रवाह वह चला। अबीर और गुलालके साथ ही फूलोंकी वर्षा होने लगी वारंवार शंखध्वनि होती रहती थी। उस सभामें जितने लोग विराजमान थे, उन्हें अपने देह गेह और आत्मातककी सुध-बुध भूल गयी थी। उनकी यह तन्मयताको अवस्था देख देवर्षि नारदजी इस प्रकार कहने लगे
नारदजी बोले – मुनीश्वरो! आज मैंने सप्ताह श्रवणकी यह बड़ी अलौकिक महिमा देखी है। यहाँ जोमूढ़, शठ और पशु-पक्षी आदि हैं, वे भी इसके प्रभावसे पापशून्य प्रतीत होते हैं। अतः इस मर्त्यलोकमें चित्त-शुद्धिके लिये इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। कलिकालमें यह श्रीमद्भागवतकी कथा ही पाप राशिका विनाश करनेवाली है। इस कथाके समान पृथ्वीपर दूसरा कोई साधन नहीं है। अच्छा, अब मुझे यह बताइये कि इस कथामय सप्ताहयज्ञसे संसारमें कौन-कौन लोग शुद्ध होते हैं। मुनिवर ! आपलोग बड़े दयालु हैं। आपलोगोंने लोकहितका विचार करके यह बिलकुल निराला मार्ग निकाला है।
सनकादिने कहा- देवर्षे ! जो लोग सदा ही भाँति-भाँतिके पाप करते हैं, दुराचारमें प्रवृत्त रहते हैं और शास्त्र - विरुद्ध मार्गोंसे चलते हैं तथा जो क्रोधाग्निसे जलनेवाले, कुटिल और कामी हैं, वे सभी कलिकालमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो सत्यसे हीन, पिता माताकी निन्दा करनेवाले, तृष्णासे व्याकुल, आश्रम धर्मसे रहित, दम्भी, दूसरोंसे डाह रखनेवाले और प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, गुरुपत्नी-गमन और विश्वासघात - ये पाँच भयंकर पाप करनेवाले, छल-छद्ममें प्रवृत्त रहनेवाले, क्रूर, पिशाचोंके समान निर्दयी, ब्राह्मणोंके धनसे पुष्ट होनेवाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो शठ हठपूर्वक मन, वाणी और शरीरके द्वारा सदा पाप करते रहते हैं, दूसरोंके धनसे पुष्ट होते हैं, मलिन शरीर तथा खोटे हृदयवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं।नारदजी! इस विषयमें अब हम तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं, जिसके श्रवणमात्र पापका हो जाता है। पूर्वकालकी बात है-तुंगभद्रा नदीके तटपर एक उत्तम नगर बसा हुआ था। वहाँ सभी लोग अपने-अपने धर्मोका पालन करते और सत्य एवं सत्कर्ममें लगे रहते थे। उस नगरमें आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो समस्त वेदोंका विशेषज्ञ और श्रौतस्मार्त कर्मोंमें निष्णात था। वह ब्राह्मण द्वितीय सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ता था। यद्यपि वह भिक्षासे ही जीवन निर्वाह करता था, तो भी लोकमे धनवान् समझा जाता था। उसकी स्त्रीका नाम धुन्धुली था। वह सुन्दरी तो थी ही, अच्छे कुलमें भी उत्पन्न हुई थी। फिर भी स्वभावकी बड़ी हठीली थी। सदा अपनी ही टेक रखती थी हमेशा दूसरे लोगोंकी चर्चा किया करती थी। उसमें क्रूरता भी थी तथा वह प्रायः बहुत बकवाद किया करती थी, परन्तु घरका काम-काज करनेमें बड़ी बहादुर थी। कंजूस भी कम नहीं थी। कलहका तो उसे व्यसन-सा हो गया था। । ये दोनों पति-पत्नी बड़े प्रेमसे रहते थे फिर भी उन्हें कोई सन्तान नहीं थी इस कारण धन, भोग-सामग्री तथा घर आदि कोई भी वस्तु उन्हें सुखद नहीं जान पड़ती थी। कुछ कालके पश्चात् उन्होंने सन्तान प्राप्ति के लिये धर्मका अनुष्ठान आरम्भ किया। वे दीनोंको सदा गौ, भूमि, सुवर्ण और वस्त्र आदि दान करने लगे। उन्होंने अपने धनका आधा भाग धर्मके मार्गपर खर्च कर दिया; तो भी उनके न कोई पुत्र हुआ, न पुत्री। इससे ब्राह्मणको बड़ी चिन्ता हुई। वह आकुल हो उठा और एक दिन अत्यन्त दुःखके कारण घर छोड़कर वनमें चला गया। वहाँ दोपहरके समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक पोखरेके किनारे गया और वहाँ जल पीकर बैठ रहा। सन्तानहीनताके दुःखसे उसका सारा शरीर सूख गया था। उसके बैठने के दो ही घड़ी बाद एक संन्यासी वहाँ आये। उन्होंने भी पोखरेमें जल पीया ब्राह्मणने देखा, वे जल । पी चुके हैं, तो वह उनके पास गया और चरणों में मस्तक झुकाकर जोर-जोरसे साँस लेता हुआ सामनेखड़ा हो गया।
संन्यासीने पूछा- ब्राह्मण! तुम रोते कैसे हो? तुम्हें क्या भारी चिन्ता सता रही है? तुम शीघ्र ही मुझसे अपने दुःखका कारण बताओ।
ब्राह्मणने कहा- मुने! मैं अपना दुःख क्या कहूँ. यह सब मेरे पूर्वपापों का संचित फल है। [मेरे कोई सन्तान नहीं है, इससे मेरे पितर भी दुःखी हैं; वे] मेरे पूर्वज मेरी दी हुई जलांजलिको जब पीने लगते हैं, उस समय वह उनकी चिन्ताजनित साँसोंसे कुछ गरम हो जाती है। देवता और ब्राह्मण भी मेरी दी हुई वस्तुको प्रसन्नतापूर्वक नहीं लेते। सन्तानके दुःखसे मेरा संसार सूना हो गया है, अतः अब मैं यहाँ प्राण त्यागनेके लिये आया हूँ। सन्तानहीन पुरुषका जीवन धिक्कारके योग्य है जिस घरमें कोई सन्तान कोई बाल-बच्चे न हों, वह घर भी धिक्कार देनेयोग्य है। निस्सन्तान पुरुषके धनको भी धिक्कार है। तथा सन्तानहीन कुल भी धिक्कारके ही योग्य है। [मैं अपने दुर्भाग्यको कहाँतक बताऊँ ? ] जिस गायको पालता हूँ, वह भी सर्वथा वन्ध्या हो जाती है। मैं जिसको रोपता हूँ, उस वृक्षमें भी फल नहीं लगते। इतना ही नहीं, मेरे घरमें बाहरसे जो फल आता है, वह भी शीघ्र ही सूख जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और सन्तानहीन हूँ, तो इस जीवनको रखनेसे क्या लाभ है। यों कहकर वह ब्राह्मण दुःखसे व्यथित हो उठा और उन संन्यासी बाबाके पास फूट-फूटकर रोने लगा। संन्यासीके हृदयमें बड़ी करुणा भर आयी। वे योगी भी थे, उन्होंने ब्राह्मणके ललाटमें लिखे हुए विधाताके अक्षरोंको पढ़ा और सब कुछ जानकर विस्तारपूर्वक कहना आरम्भ किया।
संन्यासीने कहा- ब्राह्मण! सुनो, मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखा है उससे जान पड़ता है कि सात जन्मोंतक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो सकती; अतः सन्तानका मोह छोड़ो, क्योंकि यह महान् अज्ञान है देखो, कर्मकी गति बड़ी प्रबल है; अतः विवेकका आश्रय लेकर संसारकी वासना त्याग दो। अजी पूर्वकालमें सन्तानके ही कारण राजा सगर औरअंगको दुःख भोगना पड़ा था इसलिये अब तुम कुटुम्बकी आशा छोड़ दो। त्यागमें ही सब प्रकारका सुख है।
ब्राह्मण बोले- बाबा ! विवेकसे क्या होगा ? मुझे तो जैसे बने वैसे पुत्र ही दीजिये नहीं तो मैं शोकसे मूर्च्छित होकर आपके आगे ही प्राण त्याग दूँगा पुत्र र आदिके सुखसे हीन यह संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। संसारमें पुत्र-पौत्रोंसे भरा हुआ गृहस्थाश्रम ही सरस है।
ब्राह्मणका यह आग्रह देख उन तपोधनने कहा 'देखो, विधाताके लेखको मिटानेका हठ करनेसे राजा 2 चित्रकेतुको कष्ट भोगना पड़ा; अतः दैवने जिसके पुरुषार्थको कुचल दिया हो, ऐसे पुरुषके समान तुम्हे 1 पुत्रसे सुख नहीं मिलेगा; फिर भी तुम हठ करते जा रहे हो। तुम्हें केवल अपना स्वार्थ ही सूझ रहा है; अतः मैं तुमसे क्या कहूँ।"
अन्तमें ब्राह्मणका बहुत आग्रह देख संन्यासीने उसे एक फल दिया और कहा- 'इसे तुम अपनी पत्नीको खिला देना इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्वीको चाहिये कि वह एक वर्षातक सत्य, शौच, दया और दानका नियम पालती हुई प्रतिदिन एक समय भोजन करे। इससे उसका बालक अत्यन्त शुद्ध स्वभाववाला होगा।' ऐसा कहकर वे योगी महात्मा चले गये और ब्राह्मण अपने घर लौट आया। यहाँ उसने अपनी पत्नीकेहाथमें वह फल दे दिया और स्वयं कहीं चला गया। उसकी पत्नी तो कुटिल स्वभावकी थी ही अपनी सखीके आगे रो-रोकर इस प्रकार कहने लगी 'अहो! मुझे तो बड़ी भारी चिन्ता हो गयी। मैं तो इस फलको नहीं खाऊँगी। सखी इस फलको खानेसे गर्भ रहेगा और गर्भसे पेट बढ़ जायगा। फिर तो खाना पीना कम होगा और इससे मेरी शक्ति घट जायगी। ऐसी दशामें तुम्हीं बताओ, परका काम-धंधा कैसे होगा? यदि दैववश गाँवमें लूट पड़ जाय तो गर्भिणी स्त्री भाग कैसे सकेगी? यदि कहीं शुकदेवजीकी तरह यह गर्भ भी [बारह वर्षोंतक] पेटमें ही रह गया, तो इसे बाहर कैसे निकाला जायगा ? यदि कहीं प्रसवकालमें बच्चा टेढ़ा हो गया, तब तो मेरी मौत ही हो जायगी। बच्चा पैदा होते समय बड़ी असह्य पीड़ा होती है। मैं सुकुमारी स्त्री, भला उसे कैसे सह सकूँगी ? गर्भवती अवस्थामें जब मेरा शरीर भारी हो जायगा और चलने फिरनेमें आलस्य लगेगा, उस समय मेरी ननद रानी आकर घरका सारा माल मता उड़ा ले जायँगी। और तो और, यह सत्य शौचादिका नियम पालना तो मेरे लिये बहुत ही कठिन दिखायी देता है। जिस स्त्रीके सन्तान होती है, उसे बच्चोंके लालन-पालनमें भी कष्ट भोगना पड़ता है। मैं तो समझती हूँ, बाँझ अथवा विधवा स्त्रियाँ ही अधिक सुखी होती हैं।'
नारदजी! इस प्रकार कुतर्क करके उस ब्राह्मणीने फल नहीं खाया। जब पतिने पूछा- 'तुमने फल खाया?' तो उसने कह दिया- 'हाँ, खा लिया।' एक दिन उसकी बहिन अपने आप ही उसके घर आयी। धुन्धुलीने उसके आगे अपना सारा वृतान्त सुनाकर कहा- 'बहिन मुझे इस बातकी बड़ी चिन्ता है कि सन्तान न होनेपर मैं पतिको क्या उत्तर दूँगी इस दुःखके कारण मैं दिनोदिन दुबली हुई जा रही हूँ। बताओ, मैं क्या करूँ? तब उसने कहा 'दीदी! मेरे पेटमें बच्चा है। प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुमको दे दूँगी। तबतक तुम गर्भवती स्त्रीकी भाँति घरमें छिपकर मौजसे रहो। तुम मेरे पतिको धन दे देना। इससे वे अपना बालकतुम्हें दे देंगे तथा लोगोंमें इस बातका प्रचार कर देंगे कि मेरा बच्चा छः महीनेका होकर मर गया। मैं प्रतिदिन तुम्हारे घरमें आकर बच्चेका पालन-पोषण करती रहूँगी। तुम इस समय परीक्षा लेनेके लिये यह फल गौको खिला दो।' तब उस ब्राह्मणीने स्त्रीस्वभावके कारण वह सब कुछ वैसे ही किया। तदनन्तर समय आनेपर उसकी बहिनको बच्चा पैदा हुआ। बच्चे के पिताने बालकको लाकर एकान्तमें धुन्धुलीको दे दिया। उसने अपने स्वामीको सूचना दे दी कि मेरे बच्चा पैदा हो गया और कोई कष्ट नहीं हुआ। आत्मदेवके पुत्र होनेसे लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। ब्राह्मणने बालकका जातकर्म संस्कार करके ब्राह्मणोंको दान दिया। उसके दरवाजेपर गाना, बजाना आदि नाना प्रकारका मांगलिक उत्सव होने लगा। धुन्धुलीने स्वामीसे कहा- 'मेरे स्तनोंमें दूध नहीं है, फिर गाय-भैंस आदि अन्य जीवोंके दूधसे मैं बालकका पोषण कैसे करूँगी ? मेरी बहिनको भी बच्चा हुआ था, किन्तु वह मर गया है; अतः अब उसीको बुलाकर घरमें रखिये, वही आपके बालकका पालन-पोषण करेगी।' उसके पतिने पुत्रकी जीवन-रक्षाके लिये सब कुछ किया। माताने उसका नाम 'धुन्धुकारी' रखा।
तदनन्तर तीन महीने बीतनेके बाद ब्राह्मणकी गौने भी एक बालकको जन्म दिया, जो सर्वांगसुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्णकी-सी कान्तिवाला था। उसेदेखकर ब्राह्मणदेवताको बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने स्वयं ही बालकके सब संस्कार किये। यह आश्चर्यजनक समाचार सुनकर सब लोग उसे देखनेके लिये आये और आपसमें कहने लगे-'देखो, इस समय आत्मदेवका कैसा भाग्य उदय हुआ है। कितने आश्चर्यकी बात है कि गायके पेटसे भी देवताके समान रूपवाला बालक उत्पन्न हुआ।' किन्तु दैवयोगसे किसीको भी इस गुप्त रहस्यका पता न लगा। उस बालकके कान गौके समान थे, यह देखकर आत्मदेवने उसका नाम गोकर्ण रख दिया। कुछ काल व्यतीत होनेपर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो पण्डित और ज्ञानी हुआ; किन्तु धुन्धुकारी महादुष्ट निकला। स्नान और शौचाचारका तो उसमें नाम भी नहीं था। वह अभक्ष्य भक्षण करता, क्रोधमें भरा रहता और बुरी-बुरी वस्तुओंका संग्रह किया करता था। भोजन तो वह सबके हाथका कर लेता था। चोरी करता, सब लोगोंसे द्वेष बढ़ाता, दूसरोंके घरोंमें आग लगा देता और खेलानेके बहाने छोटे बच्चोंको पकड़कर कुएँमें डाल देता था। जीवोंकी हिंसा करनेका उसका स्वभाव हो गया था। वह हमेशा हथियार लिये रहता और दीन, दुःखियों तथा अंधोंको कष्ट पहुँचाया करता था । चाण्डालोंके साथ उसने खूब हेल-मेल बढ़ा लिया था। वह प्रतिदिन हाथमें फंदा लिये कुत्तोंकी टोलीके साथ शिकारकी टोहमें घूमता रहता था। उसने वेश्याके कुसंगमें पड़कर पिताका सारा धन बरबाद कर दिया। एक दिन तो माता-पिताको खूब पीटकर वह घरके सारे वर्तन - भाँड़े उठा ले गया। इस प्रकार धनहीन हो जानेके कारण बेचारा बाप फूट-फूटकर रोने लगा। वह बोला- 'इस प्रकार पुत्रवान् बननेसे तो अपुत्र रहना ही अच्छा है। कुपुत्र बड़ा ही दुःखदायी होता है। अब मैं कहाँ रहूँ? कहाँ जाऊँ? कौन मेरा दुःख दूर करेगा ? हाय! मुझपर बड़ा भारी कष्ट आ पहुँचा। अब तो मैं इस दुःखसे अपना प्राण त्याग दूँगा ।'
इसी समय ज्ञानवान् गोकर्णजी वहाँ आये और वैराग्यका महत्त्व दिखलाते हुए अपने पिताको समझाने लगे- 'पिताजी! इस संसारमें कुछ भी सार नहीं है।दुःख ही इसका स्वरूप है। यह जीवोंको मोहमें डालनेवाला है। भला, यहाँ कौन किसका पुत्र है और कौन किसका धन जो इनमें आसक्त होता है, उसे ही रात-दिन जलना पड़ता है। इन्द्र अथवा चक्रवर्ती राजाओंको भी कोई सुख नहीं है। सुख तो बस, एकान्तवासी वैराग्यवान् मुनिको हो है सन्तानके प्रति जो आपकी ममता है, यह महान् अज्ञान है इसे छोड़िये। मोहमें फँसनेसे मनुष्यको नरकमें ही जाना पड़ता है। औरोंकी तो बात ही क्या है, आपका यह प्रिय शरीर भी एक न एक दिन नष्ट हो जायगा आपको छोड़कर चल देगा; इसलिये आप अभीसे सब कुछ छोड़कर वनमें चले जाइये।"गोकर्णकी बात सुनकर उनके पिता आत्मदेव वनमें जानेके लिये उद्यत होकर बोले- 'तात! मुझे वनमें रहकर क्या करना चाहिये? यह विस्तारपूर्वक बताओ! मैं बड़ा शठ हूँ। अबतक कर्मवश स्नेहके बन्धनमें बँधकर में अपंगकी भाँति इस गृहरूपी अँधेरे कुएँ में ही पड़ा हुआ हूँ। दयानिधे! तुम निश्चय ही मेरा उद्धार करो!"
गोकर्णने कहा- पिताजी! हड्डी, मांस और रक्तके पिण्डरूप इस शरीरमें आप 'मैं' पनका अभिमान छोड़ दीजिये और स्त्री-पुत्र आदिमें भी 'बे छोड़ मेरे हैं इस भावको सदाके लिये त्याग दीजिये। इस संसारको निरन्तर क्षणभंगुर देखिये और एकमात्र वैराग्य-रसके रसिक होकर भगवान्के भजनमें लग जाइये। सदा भगवद्भजनरूप दिव्य धर्मका ही आश्रय लीजिये। सकामभावसे किये जानेवाले लौकिक धर्मोको छोड़िये साधु पुरुषोंकी सेवा कीजिये, भोगोंकी तृष्णाको त्याग दीजिये तथा दूसरोंके गुण-दोषोंका विचार करना शीघ्र छोड़कर निरन्तर भगवत्सेवा एवं भगवत्कथाके रसका पान कीजिये। *
इस प्रकार पुत्रके कहने से आत्मदेव साठ वर्षकी अवस्था बीत जानेपर घर छोड़कर स्थिरचित्तसे वनको चले गये और वहाँ प्रतिदिन भगवान् श्रीहरिकी परिचर्या करते हुए नियमपूर्वक दशम स्कन्धका पाठ करनेसे उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्राप्त कर लिया।