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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 188 - Khand 5, Adhyaya 188

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कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि

राजा पृथुने कहा- मुने! आपने कार्तिक और मापके स्नानका महान फल बतलायाः अब उनमें किये जानेवाले स्नानको विधि और नियमोंका भी वर्णन कीजिये, साथ ही उनको उद्यापन विधिको भी ठीक ठीक बताइये।

नारदजी बोले - राजन्! तुम भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए हो, तुम्हारे लिये कोई बात अज्ञात नहीं है। तथापि तुम पूछते हो, इसलिये में कार्तिकके परम उत्तम माहात्म्यका वर्णन करता हूँ; सुनो। आश्विन मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी आती है, उसी दिन आलस्य छोड़कर कार्तिकके उत्तम व्रतोंका नियम ग्रहण करे व्रत करनेवाला पुरुष पहरभर रात बाकी रहे, तभी उठे और जलसहित लोटा लेकर गाँवसे बाहर नैर्ऋऋत्यकोणकी और जाय दिन और सन्ध्याके समय उत्तरदिशाकी और मुँह करके तथा रात हो तो दक्षिणको और मुँह करके मल-मूत्रका त्याग करे। पहले जनेऊको दाहिने कानपर चढ़ा ले और भूमिको तिनकेसे ढककर अपने मस्तकको वस्त्रसे आच्छादित कर लें। शौचके समय मुखको यत्नपूर्वक मूंदे रखे। न तो थूके और न मुँहसे ऊपरको साँस ही खींचें। मलत्यागके पश्चात् गुदाभाग तथा हाथको इस प्रकार धोये, जिससे मलका लेप और दुर्गन्ध दूर हो जाय। इस कार्यमें आलस्य नहीं करना चाहिये। पाँच बार गुदामें, दस बार बायें हाथमें तथा सात-सात बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगाकर धीये। फिर एक बार लिंगमें, तीन बार बायें हाथमें और दो-दो बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगाकर धोये। यह गृहस्थके लिये शौचकी विधि बतायी गयी। ब्रह्मचारीके लिये इससे दूना, वानप्रस्थ के लिये तिगुना और संन्यासीके लिये चौगुना करनेका विधान है। रातको दिनकी अपेक्षा आधे शौच (मिट्टी (लगाकर धोने) का नियम है। रास्ता चलनेवाले व्यक्तिके लिये, स्वीके लिये तथा शूद्रोंके लिये उससे भी आधे शौचका विधान है। शौचकर्मसे हीन पुरुषकी समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं। जो अपने मुँहकोअच्छी तरह साफ नहीं रखता, उसके उच्चारण किये हुए मन्त्र फलदायक नहीं होते; इसलिये प्रयत्नपूर्वक दाँत और जो की शुद्धि करनी चाहिये। गृहस्थ पुरुष किसी दूधवाले वृक्षकी बारह अंगुलकी लकड़ी लेकर दाँतुन करे; किन्तु यदि घरमें पिताको क्षयाह तिथि या व्रत हो तो दाँतुन न करे। दाँतुन करनेके पहले वनस्पतिदेवतासे इस प्रकार प्रार्थना करे

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च ।

ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥

(94 । 11) 'हे वनस्पते! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, संतति, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान और स्मरणशक्ति प्रदान करें।'

इस मन्त्रका उच्चारण करके दाँतुनसे दाँत साफ करना चाहिये । प्रतिपदा, अमावास्या, नवमी, षष्ठी, रविवार तथा चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके दिन दाँतुन नहीं करना चाहिये। व्रत और श्राद्धके दिन भी लकड़ीकी दातुन करना मना है, उन दिनों जलके बारह कुल्ले करके मुख शुद्ध करनेका विधान है। काँटेदार वृक्ष, कपास, सिन्धुवार, ब्रह्मवृक्ष ( पलाश), बरगद, एरण्ड (रेंड) और दुर्गन्धयुक्त वृक्षोंकी लकड़ीको दाँतुनके काममें नहीं लेना चाहिये। फिर स्नान करनेके पश्चात् भक्तिपरायण एवं प्रसन्नचित्त होकर चन्दन, फूल और ताम्बूल आदि पूजाकी सामग्री ले भगवान् विष्णु अथवा शिवके मन्दिरमें जाय । वहाँ भगवान्‌को पृथक्-पृथक् पाद्य- अर्घ्य आदि उपचार अर्पण करके स्तुति करे तथा पुनः नमस्कार करके गीत आदि मांगलिक उत्सवका प्रबन्ध करे। ताल, वेषु और मृदंग आदि बाजोंके साथ भगवान् के सामने नृत्य और गान करनेवाले लोगोंका भी ताम्बूल आदिके द्वारा सत्कार करे। जो भगवान्‌के मन्दिरमें गान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुरूप है। कलियुगमे किये हुए यज्ञ, दान और तप भक्तिसे युक्त होनेपर ही भगवान्‌को संतोष देनेवाले होते हैं।राजन्! एक बार मैंने भगवान्से पूछा-'देवेश्वर! आप कहाँ निवास करते हैं?' तो वे मेरी भष्टि होकर बोले-'नारद न तो मैं कुष्ठ निवास करता हूँ और न योगियोंके हृदयमें मेरे भक्त जहाँ मेरा गुण गान करते हैं, वहीं मैं भी रहता हूँ।1 यदि मनुष्य इन्ध, पुष्प आदिके द्वारा मेरे भौंका पूजन करते हैं। तो उससे मुझे जितनी अधिक प्रसन्नता होती है, उतनी स्वयं मेरी पूजा करनेसे भी नहीं होती। जो मूर्ख मानव मेरी पुराण कथा और मेरे भक्तोंका गान सुनकर निन्दा करते हैं, वे मेरे द्वेषके पात्र होते हैं।

शिरीष, (सिरस), उन्मत्त (धतूरा), गिरिजा (मातुलुंगी), मल्लिका (मालती), सेमल, मदार और कनेर के फूलोंसे तथा अक्षतोंके द्वारा श्रीविष्णुकी पूजा नहीं करनी चाहिये। जया, कुन्द, सिरस, जूही, मालती और केवड़ेके फूलोंसे श्रीशंकरजीका पूजन नहीं करना चाहिये। लक्ष्मी प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाला पुरुष तुलसीदलसे गणेशका दूर्वादलसे दुर्गाका तथा अगस्त्यके फूलोंसे सूर्यदेवका पूजन न करे। 2 इनके अतिरिक्त जो उत्तम पुष्प हैं, वे सदा सब देवताओंकी पूजाके लिये प्रशस्त माने गये हैं। इस प्रकार पूजा विधि पूर्ण करके देवदेव भगवान्से क्षमा-प्रार्थना करे

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीन सुरेश्वर मे॥

यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ॥

(94 । 30)

'देवेश्वर! देव! मेरे द्वारा किये गये आपके पूजनमें जो मन्त्र, विधि तथा भक्तिकी न्यूनता हुई हो, वह सब आपकी कृपासे पूर्ण हो जाय। तदनन्तर प्रदक्षिणा करके दण्डवत् प्रणाम करे तथा पुनः भगवान्से त्रुटियोंके लिये क्षमा-याचना करते हुए गायन आदि समाप्त करे। जो इस कार्तिककी रात्रिमेंभगवान् विष्णु अथवा शिवकी भलीभाँति पूजा करते हैं, वे मनुष्य पापहीन हो अपने पूर्वजोंके साथ श्रीविष्णुके धाममें जाते हैं।

नारदजी कहते हैं—जब दो घड़ी रात बाकी रहे, तब तिल, कुश, अक्षत, फूल और चन्दन आदि लेकर पवित्रतापूर्वक जलाशयके तटपर जाय मनुष्यका खुदवाया हुआ पोखरा हो अथवा कोई देवकुण्ड हो या नदी अथवा उसका संगम हो– इनमें उत्तरोत्तर दसगुने पुण्यकी प्राप्ति होती हैं तथा यदि तीर्थमें स्नान करे तो उसका अनन्त फल माना गया है। तत्पश्चात् भगवान् विष्णुका स्मरण करके स्नानका संकल्प करे तथा तीर्थ आदिके देवताओंको क्रमशः अर्घ्य आदि निवेदन करे। फिर भगवान् विष्णुको अर्घ्य देते हुए निम्नांकित मन्त्रका पाठ करे

नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।

नमस्तेऽस्तु हृषीकेश गृहाणार्ध्व नमोऽस्तु ते ॥

कार्त्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातः स्नानं जनार्दन

प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह ॥

ध्यात्वाऽहं त्वां च देवेश जलेऽस्मिन् स्नातुमुद्यतः ।

तव प्रसादात्पापं मे दामोदर विनश्यतु ॥

(95 । 4, 7, 8) 'भगवान् पद्मनाभको नमस्कार है। जलमें शयन करनेवाले श्रीनारायणको नमस्कार है। हृषीकेश! आपको बारंबार नमस्कार है। यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये। जनार्दन! देवेश! लक्ष्मीसहित दामोदर मैं आपकी प्रसन्नताके लिये कार्तिकमें प्रातः स्नान करूंगा। देवेश्वर आपका ध्यान करके मैं इस जलमें स्नान करनेको उद्यत हूँ। दामोदर! आपकी कृपासे मेरा पाप नष्ट हो जाय।' तत्पश्चात् राधासहित भगवान् श्रीकृष्णको निम्नांकित
मन्त्रसे अर्घ्य दे

नित्ये नैमित्तिके कृष्ण कार्त्तिके पापनाशने।

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ।। (95/9)

'श्रीराधासहित भगवान् श्रीकृष्ण ! नित्य और

नैमित्तिक कर्मरूप इस पापनाशक कार्तिकस्नानके व्रतके

निमित्त मेरा दिया हुआ यह अर्घ्य स्वीकार करें। ' इसके बाद व्रत करनेवाला पुरुष भागीरथी, श्रीविष्णु, शिव और सूर्यका स्मरण करके नाभिके बराबर जलमें खड़ा हो विधिपूर्वक स्नान करें। गृहस्थ पुरुषको तिल और आँवलेका चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिये। वनवासी संन्यासी तुलसीके मूलकी मिट्टी लगाकर स्नान करे। सप्तमी, अमावास्या, नवमी, द्वितीया, दशमी और त्रयोदशीको आँवलेके फल और तिलके द्वारा स्नान करना निषिद्ध है। पहले मल स्नान करे अर्थात् शरीरको खूब मल मलकर उसकी मैल छुड़ाये। उसके बाद मन्त्रस्नान करे। स्त्री और शूद्रोंको वेदोक्त मन्त्रोंसे स्नान नहीं करना चाहिये। उनके लिये पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग बताया गया है।

व्रती पुरुष अपने हाथमें पवित्रक धारण करके निम्नांकित मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए स्नान करे

त्रिधाभूद्देवकार्यार्थं यः पुरा भक्तिभावितः

स विष्णुः सर्वपापघ्नः पुनातु कृपयात्र माम् ॥

विष्णोराज्ञामनुप्राप्य कार्तिकव्रतकारणात्।

क्षमन्तु देवास्ते सर्वे मां पुनन्तु सवासवाः ॥

वेदमन्त्राः सबीजाश्च सरहस्या मखान्विताः

कश्यपाद्याश्च मुनयो मां पुनन्तु सदैव ते ॥

गङ्गाद्याः सरितः सर्वास्तीर्थानि जलदा नदाः ।

ससप्तसागराः सर्वे मां पुनन्तु सदैव ते ॥

पतिव्रतास्त्वदित्याद्या यक्षाः सिद्धाः सपन्नगाः ।

ओषध्यः पर्वताश्चापि मां पुनन्तु त्रिलोकजाः ॥

(95। 14–18) 'जो पूर्वकालमें भक्तिपूर्वक चिन्तन करनेपर देवताओंके कार्यकी सिद्धिके लिये तीन स्वरूपोंमें प्रकट हुए तथा जो समस्त पापका नाश करनेवाले हैं, ये भगवान् विष्णु यहाँ कृपापूर्वक मुझे पवित्र करें।श्रीविष्णुकी आज्ञा प्राप्त करके कार्तिकका व्रत करनेके कारण यदि मुझसे कोई त्रुटि हो जाय तो उसके लिये समस्त देवता मुझे क्षमा करें तथा इन्द्र आदि देवता मुझे पवित्र करें। बीज, रहस्य और यज्ञसहित वेदमन्त्र और कश्यप आदि मुनि मुझे सदा ही पवित्र करें। गंगा आदि सम्पूर्ण नदियाँ तीर्थ मेघ, नद और सात समुद्र- ये सभी मुझे सर्वदा पवित्र करें। अदिति आदि पतिव्रताएँ, यक्ष, सिद्ध, नाग तथा त्रिभुवनकी ओषधि और पर्वत भी मुझे पवित्र करें।'

स्नान के पश्चात् विधिपूर्वक देवता, ऋषि मनुष्य (सनकादि) तथा पितरोंका तर्पण करे। कार्तिक मासमें पितृतर्पणके समय जितने तिलोंका उपयोग किया जाता है, उतने ही वर्षोंतक पितर स्वर्गलोकमें निवास करते हैं। तदनन्तर जलसे बाहर निकलकर व्रती मनुष्य पवित्र वस्त्र धारण करे और प्रातः कालोचित नित्यकर्म पूरा करके श्रीहरिका पूजन करे। फिर भक्तिसे भगवान्में मन लगाकर तीर्थों और देवताओंका स्मरण करते हुए पुनः गन्ध, पुष्प और फलसे युक्त अर्घ्य निवेदन करे। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है

व्रतिनः कार्त्तिके मासि स्नातस्य विधिवन्मम ।

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ॥ (95।23)

'भगवन्! मैं कार्तिक मासमें स्नानका व्रत लेकर विधिपूर्वक स्नान कर चुका है। मेरे दिये हुए इस अर्घ्यको आप श्रीराधिकाजीके साथ स्वीकार करें।' इसके बाद वेदविद्याके पारंगत ब्राह्मणोंका गन्ध, पुष्प और ताम्बूलके द्वारा भक्तिपूर्वक पूजन करे और बारंबार उनके चरणोंमें मस्तक झुकावे ब्राह्मणके दाहिने पैर में सम्पूर्ण तीर्थ, मुखमें वेद और समस्त अंगोंमें देवता निवास करते हैं; अतः ब्राह्मणके पूजन करनेसे इन सबकी पूजा हो जाती है। इसके पश्चात् हरिप्रिया भगवती तुलसीकी पूजा करे। प्रयागमें स्नान करने, काशीमै मृत्यु होने और वेदोंके स्वाध्याय करनेसे जो फल प्राप्त होता है; वह सब श्रीतुलसीके पूजनसे मिल जाता है, अतः एकाग्रचित्त होकर निम्नांकित मन्त्रसे तुलसीकी प्रदक्षिणा और नमस्कार करे

देवैस्त्वं निर्मिता पूर्वमर्चिताऽसि मुनीश्वरैः

नमो नमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये ॥

(95।30)

'हरिप्रिया तुलसीदेवी! पूर्वकालमें देवताओंने तुम्हें उत्पन्न किया और मुनीश्वरोंने तुम्हारी पूजा की। तुम्हें बारंबार नमस्कार है। मेरे सारे पाप हर लो।'तुलसी पूजनके पश्चात् व्रत करनेवाला भक्तिमान् पुरुष चित्तको एकाग्र करके भगवान् विष्णुकी पौराणिक कथा सुने तथा कथा वाचक विद्वान् ब्राह्मण अथवा मुनिकी पूजा करे। जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर पूर्वोक्त सम्पूर्ण विधियोंका भलीभाँति पालन करता है, वह अन्तमें भगवान् नारायणके परमधाममें जाता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार