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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 189 - Khand 5, Adhyaya 189

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कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि

नारदजी कहते हैं-राजन्। कार्तिकका व्रत करनेवाले पुरुषोंके लिये जो नियम बताये गये हैं, उनका मैं संक्षेपसे वर्णन करता हूँ। ध्यान देकर सुनो। अन्नदान देना, गौओंको ग्रास अर्पण करना, वैष्णव पुरुषोंके साथ वार्तालाप करना तथा दूसरेके दीपकको जलाना या उकसाना – इन सब कार्योंसे मनीषी पुरुष धर्मकी प्राप्ति बतलाते हैं। बुद्धिमान् पुरुष दूसरेके अन्न, दूसरेकी शय्या, दूसरेकी निन्दा और दूसरेको स्वीका सदा ही परित्याग करे तथा कार्तिकमें तो इन्हें त्यागनेको विशेषरूपसे चेष्टा करे। उड़द, मधु, सौवीरक तथा राजमाष (किराव) आदि अन्न कार्तिकका व्रत करनेवाले मनुष्यको नहीं खाने चाहिये। दाल, तिलका तेल, भाव- दूषित तथा शब्द दूषित अन्नका भी व्रती मनुष्य परित्याग करे। कार्तिकका व्रत करनेवाला पुरुष देवता, वेद, द्विज, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा तथा महापुरुषोंकी निन्दा छोड़ दे। बकरी, गाय और भैंसके दूधको छोड़कर अन्य सभी पशुओंका दूध मांसके समान वर्जित है। ब्राह्मणोंके खरीदे हुए सभी प्रकारके रस, ताँबेके पात्रमें रखा हुआ गायका दूध, दही और घी, गढ़ेका पानी और केवल अपने लिये बनाया हुआ भोजन – इन सबको विद्वान् पुरुषोंने आमिषके तुल्य माना है। व्रती मनुष्योंको सदा ही ब्रह्मचर्यका पालन, भूमिपर शयन, पत्तलमें भोजन और दिनके चौथे पहरमें एक बार अन्न ग्रहण करना चाहिये। कार्तिकका व्रत करनेवाला मानव प्याज, लहसुन, हींग, छत्राक (गोबर- छत्ता), गाजर, नालिक (भसड़), मूली और साग खाना छोड़ दे। लौकी, भाँटा(बैगन), कोहड़ा, भतुआ, लसोड़ा और कैथ भी त्याग दे। व्रती पुरुष रजस्वलाका स्पर्श न करे; म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही तथा वेदके अनधिकारी पुरुषोंसे कभी वार्तालाप न करे। इन लोगोंने जिस अन्नको देख लिया हो, उस अन्नको भी न खाय; कौओंका जूठा किया हुआ, सूतकयुक्त घरका बना हुआ, दो बार पकाया तथा जला हुआ अन्न भी वैष्णवव्रतका पालन करनेवाले पुरुषोंके लिये अखाद्य है जो कार्तिकमें तेल लगाना, खाटपर सोना, दूसरेका अन्न लेना और काँसके बर्तनमें भोजन करना छोड़ देता है, उसीका व्रत परिपूर्ण होता है। व्रती पुरुष प्रत्येक व्रतमें सदा ही पूर्वोक्त निषिद्ध वस्तुओंका त्याग करे तथा अपनी शक्तिके अनुसार भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये कृच्छ्र आदि व्रतोंका अनुष्ठान करता रहे। गृहस्थ पुरुष रविवारके दिन सदा ही आँवलेके फलका त्याग करे।

इसी प्रकार माघमें भी व्रती पुरुष उक्त नियमोंका पालन करे और श्रीहरिके समीप शास्त्रविहित जागरण भी करे यथोक्त नियमोंके पालनमें लगे हुए कार्तिकव्रत करनेवाले मनुष्यको देखकर यमदूत उसी प्रकार भागते हैं, जैसे सिंहसे पीड़ित हाथी । भगवान् विष्णुके इस व्रतको सौ यज्ञोंकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ जानना चाहिये; क्योंकि यज्ञ करनेवाला पुरुष स्वर्गलोकको पाता है। और कार्तिकका व्रत करनेवाला मनुष्य वैकुण्ठधामको इस पृथ्वीपर भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले जितने भी क्षेत्र हैं, वे सभी कार्तिकका व्रत करनेवाले पुरुषके शरीरमें निवास करते हैं। मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वाराहोनेवाला जो कुछ भी दुष्कर्म या दुःस्वप्न होता है, वह कार्तिक- व्रतमें लगे हुए पुरुषको देखकर तत्काल नष्ट हो जाता है। इन्द्र आदि देवता भगवान् विष्णुकी आज्ञासे प्रेरित होकर कार्तिकका व्रत करनेवाले पुरुषकी निरन्तर रक्षा करते रहते हैं-ठीक उसी तरह, जैसे सेवक राजाकी रक्षा करते हैं। जहाँ सबके द्वारा सम्मानित वैष्णव- व्रतका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष नित्य निवास करता है, वहाँ ग्रह, भूत, पिशाच आदि नहीं रहते।

राजन्! अब मैं कार्तिक व्रतके अनुष्ठानमें लगे हुए पुरुषके लिये उत्तम उद्यापन विधिका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो व्रती मनुष्य कार्तिक शुक्लपक्षको चतुर्दशीको व्रतकी पूर्ति तथा भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये उद्यापन करे। तुलसीजीके ऊपर एक सुन्दर मण्डप बनाये, जिसमें चार दरवाजे बने हों; उस मण्डपमें सुन्दर बंदनवार लगाकर उसे पुष्पमय चैवरसे सुशोभित करे चारों दरवाजोंपर पृथक्-पृथक् मिट्टी के चार द्वारपाल - पुण्यशील, सुशील, जय और विजयकी स्थापना करके उन सबका पूजन करे। तुलसीके मूलभागमें बेदीपर सर्वतोभद्र मण्डल बनाये, जो चार रंगोंसे रंजित होकर सुन्दर शोभासम्पन्न और अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता हो । सर्वतोभद्रके ऊपर पंचरत्नयुक्त कलशकी स्थापना करे। उसके ऊपर नारियलका महान् फल रख दे। इस प्रकार कलश स्थापित करके उसके ऊपर समुद्रकन्या लक्ष्मीजीके साथ शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले पीताम्बरधारी देवेश्वर श्रीविष्णुकी पूजा करे। सर्वतोभद्रके करे । मण्डलमें इन्द्र आदि लोकपालोंका भी पूजन करना चाहिये। भगवान् द्वादशीको शयनसे उठे त्रयोदशीको देवताओंने उनका दर्शन किया और चतुर्दशीको 6 सबने उनकी पूजा की इसीलिये इस समय भी उसी तिथिको इनकी पूजा की जाती है। उस दिन शान्त एवं शुद्धचित्त होकर भक्तिपूर्वक उपवास करना चाहिये तथा आचार्यकी आज्ञासे देवदेवेश्वर श्रीविष्णुको सुवर्णमयी प्रतिमाका षोडशोपचारद्वारा नाना प्रकारके भक्ष्यभोज्य पदार्थ प्रस्तुत करते हुएपूजन करना चाहिये। रात्रिमें गीत और वाद्य आदि मांगलिक उत्सवके साथ भगवान्‌के समीप जागरण करना चाहिये। जो भगवान् विष्णुके समीप जागरणकालमें भक्तिपूर्वक गान करते हैं, वे सौ जन्मोंकी पापराशिसे मुक्त हो जाते हैं। भगवान् विष्णुके निमित्त जागरणकालमें गीत वाद्य करनेवालों तथा सहस्र गोदान करनेवालोंको भी समान फलकी हो प्राप्ति बतलायी गयी है। जो रात्रिमें वासुदेवके समक्ष जागरण करते समय भगवान् विष्णुके चरित्रोंका पाठ करके वैष्णव पुरुषोंका मनोरंजन करता है तथा मनमानी बातें नहीं करता, उसे प्रतिदिन कोटि तीर्थो के सेवनके समान पुण्य प्राप्त होता है।

रात्रि जागरणके पश्चात् पूर्णिमाको प्रातः काल अपनी शक्तिके अनुसार तीस या एक सपत्नीक ब्राह्मणको भोजनके लिये निमन्त्रित करे। उस दिन किया हुआ दान, होम और जप अक्षय फल देनेवाला माना गया है; अतः व्रती पुरुष खीर आदिके द्वारा ब्राह्मणोंको भलीभाँति भोजन कराये। 'अतो देवाः' आदि दो मन्त्रोंसे देवदेव भगवान् विष्णु तथा अन्य देवताओंकी प्रसन्नताके लिये पृथक्-पृथक् तिल और खीरकी आहुति छोड़े। फिर यथाशक्ति दक्षिणा दे उन्हें प्रणाम करे। इसके बाद भगवान् विष्णु देवगण तथा तुलसीका पुन: पूजन करे। कपिला गायकी विधिपूर्वक पूजा करे और व्रतका उपदेश करनेवाले सपत्नीक आचार्यका भी वस्त्र तथा आभूषण आदिके द्वारा पूजन करे। अन्तमें सब ब्राह्मणोंसे क्षमा-प्रार्थना करे- 'विप्रवरो! आपलोगोंकी कृपासे देवेश्वर भगवान् विष्णु मुझपर सदा प्रसन्न रहें। मैंने गत सात जन्मोंमें जो पाप किये हों, वे सब इस व्रतके प्रभावसे नष्ट हो जायें। प्रतिदिन भगवान के पूजन मेरे सम्पूर्ण मनोरथ सफल हों तथा इस देहका अन्त होनेपर मैं अत्यन्त दुर्लभ वैकुण्ठधामको प्राप्त करूँ।"

इस प्रकार क्षमायाचना करके ब्राह्मणोंको प्रसन्न करनेके पश्चात् उन्हें विदा करे और गौसहित भगवान् विष्णु सुवर्णमयी प्रतिमा आचार्यको दान कर दे। तत्पश्चात् भक्त पुरुष सुइदों और गुरुजनोंके साथ स्वयं भी भोजन करे कार्तिक हो या माथ, उसके लिये ऐसी ही विध बतायी गयी है। जो मनुष्य इस प्रकार कार्त्तिककेउत्तम व्रतका पालन करता है, वह निष्पाप एवं मुक्त होकर भगवान् विष्णुकी समीपता प्राप्त करता है। सम्पूर्ण व्रतों, तीर्थों और दानोंसे जो फल मिलता है, वही इस कार्तिक व्रतका विधिपूर्वक पालन करनेसे करोड़गुना होकर मिलता है। जो कार्तिक व्रतका अनुष्ठान करते हुए भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर होते हैं, वे धन्य हैं, वे सदा पूज्य हैं तथा उन्हींके यहाँ सब प्रकारके शुभफलोंका उदय होता है। देहमें स्थित हुए पाप उस मनुष्यके भयसे काँप उठते हैं और आपसमें कहने लगते हैं-'अरे यह तो कार्तिकका व्रत करने लगा, अब हम कहाँ जायेंगे।' जो कार्तिक व्रतके इन नियमोंको भक्तिपूर्वक सुनता तथा वैष्णव पुरुषके आगे इनका वर्णन करता है, वे दोनों ही उत्तम व्रत करनेका फल पाते हैं और उनका दर्शन करनेसे मनुष्योंके पापोंका नाश हो जाता है।

नारदजी कहते हैं- राजन्! कार्तिक-व्रतके उद्यापनमें तुलसीके मूलप्रदेशमें भगवान् विष्णुकी पूजा की जाती है; क्योंकि तुलसी उनके लिये अत्यन्त प्रीतिदायिनी मानी गयी हैं। जिसके घरमें तुलसीका बगीचा लगा होता है, उसका वह घर तीर्थस्वरूप है। यहाँ यमराजके दूत नहीं जाते। तुलसीवन सब पापको हरनेवाला पवित्र तथा मनोवांछित भोगोंको देनेवाला है। जो श्रेष्ठ मानव तुलसीका वृक्ष लगाते हैं, वे कभी यमराजको नहीं देखते। नर्मदाका दर्शन, गंगाका स्नान और तुलसीवनके पास रहना-ये तीनों एक समान माने गये हैं। रोपने, रक्षा करने, सींचने तथा दर्शन और स्पर्श करनेसे तुलसी मन, वाणी और शरीरद्वारा किये हुए समस्त पापको भस्म कर डालती है। जो तुलसीकी मंजरियाँसे भगवान् विष्णु और शिवकी पूजा करता है, वह कभी गर्भमें नहीं आता तथा निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। पुष्कर आदि तीर्थ, गंगा आदि नदियाँ तथा वासुदेव आदि देवता- ये सभी तुलसीदलमें निवास करते हैं। नृपश्रेष्ठ जो तुलसीकी मंजरीसे संयुक्त होकर प्राणोंका परित्याग करता है, उसे श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त होता है—यह सत्य है, सत्य है। जोशरीरमें तुलसीकी मिट्टी लगाकर मृत्युको प्राप्त होता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त हो तो भी उसकी ओर साक्षात् यमराज भी नहीं देख सकते जो मनुष्य तुलसीकाष्ठका चन्दन लगाता है, उसके शरीरको पाप नहीं छू सकते। जहाँ-जहाँ तुलसीवनकी छाया हो, वहीं श्राद्ध करना चाहिये; क्योंकि वहाँ पितरोंके निमित्त दिया हुआ दान अक्षय होता है।

नृपश्रेष्ठ! जो आँवलेकी छायामें पिण्डदान करता है, उसके नरकमें पड़े हुए पितर भी मुक्त हो जाते हैं। जो मस्तकपर, हाथमें, मुखमें तथा शरीरके अन्य किसी अवयवमें आँवलेका फल धारण करता है, उसे साक्षात् श्रीहरिका स्वरूप समझना चाहिये। आँवला, तुलसी और द्वारकाकी मिट्टी (गोपीचन्दन) - ये जिसके शरीरमें स्थित हों, वह मनुष्य सदा जीवन्मुक्त कहलाता है। जो मनुष्य आँवलेके फल और तुलसीदलसे मिश्रित जलके द्वारा स्नान करता है, उसके लिये गंगास्नानका फल बताया गया है। जो आँवलेके पत्ते और फलोंसे देवताकी पूजा करता है, वह भाँति-भाँतिके सुवर्णमय पुष्पोंसे पूजा करनेका फल पाता है। कार्तिकमें जब सूर्य तुलाराशिपर स्थित होते हैं, उस समय समस्त तीर्थ, मुनि, देवता और यज्ञ- ये सभी आँवलेके वृक्षका आश्रय लेकर रहते हैं जो द्वादशीको तुलसीदल और कार्त्तिकमें आँवलेका पत्ता तोड़ता है, वह अत्यन्त निन्दित नरकोंमें पड़ता है। जो कार्तिकमें आँवलेकी छायामें बैठकर भोजन करता है, उसका वर्षभरका अन्नसंसर्गजनित दोष दूर हो जाता है। जो मनुष्य कार्त्तिकमें आँवलेकी जड़में भगवान् विष्णुकी पूजा करता है, उसके द्वारा सदा सम्पूर्ण क्षेत्रों में श्रीविष्णुका पूजन सम्पन्न हो जाता है। जैसे भगवान् विष्णुकी महिमाका पूरा-पूरा वर्णन असम्भव है, उसी प्रकार आँवले और तुलसीके माहात्म्यका भी वर्णन नहीं हो सकता। जो आँवले और तुलसीकी उत्पत्ति कथाको भक्तिपूर्वक सुनता और सुनाता है, वह पापरहित हो अपने पूर्वजोंके साथ श्रेष्ठ विमानपर बैठकर स्वर्गलोकमें जाता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार