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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 75 - Khand 2, Adhyaya 75

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कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— धर्मात्मा कुंजलने अपने चौथे पुत्र कपिंजलको पुकार कर बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- 'बेटा! तुम मेरे उत्तम पुत्र हो; बोलो, आहार लानेके लिये यहाँसे किस स्थानपर जाते हो ? वहाँ तुमने कौन-सी अपूर्व बात देखी अथवा सुनी है ? वह मुझे बताओ।'

कपिंजलने कहा - पिताजी! मैंने जो अपूर्व बात देखी है, उसे बताता हूँ, सुनिये कैलास सब पर्वतों में श्रेष्ठ है। उसकी कान्ति चन्द्रमाके समान श्वेत है। वह नाना प्रकारकी धातुओंसे व्याप्त है। भाँति-भाँति के वृक्ष उसकी शोभा बढ़ाते हैं। गंगाजीका शुभ्र एवं पावन जल सब ओरसे उस पर्वतको नहलाता रहता है। वहाँसे सहस्रों विख्यात नदियोंका प्रादुर्भाव हुआ है। उस पर्वत शिखरपर भगवान् शिवका मन्दिर है, जहाँ कोटि कोटि शिवगण भरे रहते हैं। पिताजी! एक दिन मैं उसी कैलासपर, जो शंकरजीका घर है, गया था। वहाँ मुझे एक ऐसा आश्चर्य दिखायी दिया, जो पहले कभी देखने या सुननेमें नहीं आया था। मैं उस अद्भुत घटनाका वर्णन करता हूँ, सुनिये। गिरिराज मेरुका पवित्र शिखर महान् अभ्युदयसे युक्त है; वहाँसे हिम और दूधके समान रंगवाला गंगानदीका प्रवाह बड़े वेगसे पृथ्वीकी ओर गिरता है। वह स्रोत कैलासके शिखरपर पहुँचकर सब ओर फैल जाता है। उस जलसे दस योजनका लंबा चौड़ा एक भारी तालाब बन गया है, उसे 'गंगाहद'कहते हैं। वह तालाब परम पवित्र और निर्मल जलसे सुशोभित है। महामते! गंगाह्रदके सामने ही शिलाके ऊपर एक कन्या बैठी थी, जिसके केश खुले थे। रूपके वैभवस उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वह कन्या दिव्य रूप और सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उसने दिव्य आभूषण धारण कर रखे थे। उस स्थानपर वह बड़ी शोभासम्पन्न दिखायी देती थी। पता नहीं, वहगिरिराज हिमालयकी कन्या पार्वती थी या समुद्रतनया लक्ष्मी । इन्द्र या यमराजकी पत्नी भी ऐसी सुन्दरी नहीं दिखायी देतीं। उसके शील, सद्भाव, गुण तथा रूप जैसे दीख पड़ते थे, वैसे अन्य दिव्यांगनाओंमें नहीं दृष्टिगोचर होते शिलाके ऊपर बैठी हुई वह कन्या किसी भारी दुःखसे व्याकुल थी और फूट-फूटकर रो रही थी और कोई स्वजन सम्बन्धी उसके पास नहीं थे। नेत्रोंसे गिरते हुए निर्मल अश्रुबिन्दु मोतीके दाने जैसे चमक रहे थे। वे सब-के-सब गंगाजीके स्रोतमें ही गिरते और सुन्दर कमल पुष्पके रूपमें परिणत हो जाते थे। इस प्रकार अगणित सुन्दर पुष्प गंगाजीके जलमें पड़े थे और पानीके वेगके साथ बह रहे थे।

पिताजी! इस प्रकार मैंने यह अपूर्व बात देखी है। आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; यदि इसका कारण जानते हों तो मुझपर कृपा करके बतायें। गंगाके मुहानेपर जो सुन्दरी स्त्री रो रही थी, जिसके नेत्रोंसे गिरे हुए आँसू सुन्दर कमलके फूल बन जाते थे, वह कौन थी ? यदि मैं आपका प्रिय हूँ तो मुझे यह सारा रहस्य बताइये ।

कुंजल बोला- बेटा ! बता रहा हूँ, सुनो। यह देवताओंका रचा हुआ वृत्तान्त है। इसमें महात्मा श्रीविष्णुके चरित्रका वर्णन है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। एक समयकी बात है, राजा नहुषने संग्राममें महापराक्रमी हुंड नामक दैत्यको मार डाला। उस दैत्यके पुत्रका नाम विहुण्ड था, वह भी बड़ा पराक्रमी और तपस्वी था। उसने जब सुना कि राजा नहुषने उसके पिताका मन्त्री तथा सेनासहित वध किया है, तब उसे बड़ा क्रोध हुआ और वह देवताओंका विनाश करनेके लिये उद्यत होकर तपस्या करने लगा। तपसे बढ़े हुए उस दुष्ट दैत्यका पुरुषार्थ सम्पूर्ण देवताओंको विदित था। वे जानते थे कि समरभूमिमें विहुण्डके वेगको सहन करना अत्यन्त कठिन है। उधर, विहुण्डके मनमें त्रिलोकीका नाश कर डालने की इच्छा हुई। उसने निश्चय किया, मैं मनुष्यों और देवताओंको मारकर पिताके वैरका बदला लूँगा। इस प्रकार अत्याचारके लिये उद्यत हो देवताओं और ब्राह्मणोंकेलिये कण्टकरूप उस पापी दैत्यने उपद्रव मचाना आरम्भ किया। समस्त प्रजाको पीड़ा देने लगा। उसके तेजसे संतप्त होकर इन्द्र आदि देवता परम तेजस्वी देवाधिदेव भगवान् श्रीविष्णुकी शरणमें गये और बोले- 'भगवन् ! विहुडके महान् भयसे आप हमारी रक्षा करें।'

भगवान् विष्णु बोले- पापी विहुण्ड देवताओंके लिये कण्टकरूप है, मैं अवश्य उसका नाश करूँगा। देवताओंसे यों कहकर भगवान् श्रीविष्णुने मायाको प्रेरित किया। सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाली महाभागा विष्णुमायाने विहुण्डका वध करनेके लिये रूप और लावण्यसे सुशोभित तरुणी स्त्रीका रूप धारण किया। वह नन्दनवनमें आकर तपस्या करने लगी। इसी समय दैत्यराज विहुण्ड देवताओंका वध करनेके लिये दिव्य मार्गसे चला। नन्दनवनमें पहुँचनेपर उसकी दृष्टि तपस्विनी मायापर पड़ी। वह इस बातको नहीं जान सका कि यह मेरा ही नाश करनेके लिये उत्पन्न हुई है। यह सुन्दरी स्त्री कालरूपा है, यह बात उसकी समझमें नहीं आयी मायाका शरीर तपाये हुए सुवर्णके समान दमक रहा था। रूपका वैभव उसकी शोभा बढ़ा रहा था। पापात्मा विहुण्ड उस सुन्दरी युवतीको देखते ही लुभा गया और बोला- 'भद्रे ! तुम कौन हो ? कौन हो? तुम्हारे शरीरका मध्यभाग बड़ा सुन्दर है, तुम है. मेरे चित्तको मथे डालती हो। सुमुखि! मुझे संगम प्रदान करो और कामजनित वेदनासे मेरी रक्षा करो। देवेश्वरि ! अपने समागमके बदले इस समय तुम जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करो, वह सब तुम्हें देनेको तैयार हूँ।'

माया बोली - दानव ! यदि तुम मेरा ही उपभोग करना चाहते हो, तो सात करोड़ कमलके फूलोंसे भगवान् शंकरकी पूजा करो। वे फूल कामोदसे उत्पन्न, दिव्य, सुगन्धित और देवदुर्लभ होने चाहिये । उन्हीं फूलोंकी सुन्दर माला बनाकर मेरे कण्ठमें भी पहनाओ। तभी मैं तुम्हारी प्रिय भार्या बनूँगी।

विहुण्डने कहा- देवि ! मैं ऐसा ही करूँगा। तुम्हारा माँगा हुआ वर तुम्हें दे रहा हूँ। यह कहकर दैत्यराज विहुण्ड जितने भी दिव्य एवंपवित्र वन थे, उनमें विचरण करने लगा। उसके चित्तपर कामका आवेश छा रहा था। बहुत खोजनेपर भी उसे कामोद नामक वृक्ष कहीं नहीं दिखायी दिया। वह स्वयं इधर-उधर जाकर पूछ-ताछ करता रहा; किन्तु सर्वत्र लोगंकि मुँहसे उसे यही उत्तर मिलता था कि 'यहाँ कामोद वृक्ष नहीं है।' दुष्टात्मा विहुण्ड उस वृक्षका पता लगाता हुआ शुक्राचार्यके पास गया और भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर पूछने लगा- 'ब्रह्मन्। मुझे फूलोंसे लदे सुन्दर कामोद वृक्षका पता बताइये।'

शुक्राचार्य बोले- दानव! कामोद नामका कोई वृक्ष नहीं है। कामोदा तो एक स्त्रीका नाम है। वह जब किसी प्रसंगसे अत्यन्त हर्षमें भरकर हँसती है, तब उसके मनोहर हास्यसे सुगन्धित, श्रेष्ठ तथा दिव्य कामोद पुण्प उत्पन्न होते हैं। उनका रंग अत्यन्त पीला होता है तथा वे दिव्य गन्धसे युक्त होते हैं। उनमेंसे एक फूलके द्वारा भी जो भगवान् शंकरकी पूजा करता है, उसकी बड़ी से बड़ी कामनाको भी भगवान् शिव पूर्ण कर देते हैं। कामोदाके रोदनसे भी वैसे ही सुन्दर फूल उत्पन्न होते हैं; किन्तु उनमें सुगन्ध नहीं होती। अतः उनका स्पर्श नहीं करना चाहिये।

शुक्राचार्यकी यह बात सुनकर ने पूछा 'भृगुनन्दन। कामोदा कहाँ रहती है?"

शुक्राचार्य बोले सम्पूर्ण पातकौका शोधन करनेवाले परम पावन गंगाद्वार (हरिद्वार) नामक तीर्थके पास कामोद नामक पुर है, जिसे विश्वकर्माने बनाया था। उस कामोद नगरमें दिव्य भोगोंसे विभूषित एक सुन्दरी स्त्री रहती है, जो सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित है। वह भाँति-भाँति के आभूषणोंसे अत्यन्त सुशोभित जान पड़ती है। तुम वहीं चले जाओ और उस युवतीकी पूजा करो। साथ ही किसी पवित्र उपायका अवलम्बन करके उसे हँसाओ यह कहकर शुक्राचार्य चुप हो गये और वह महातेजस्वी दानव अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये उद्यत हुआ।

कपिंजलने पूछा- पिताजी! कामोदाके हास्यसेजो पवित्र दिव्यगन्धसे युद्ध और देवता तथा दानवोंके लिये दुर्लभ सुन्दर फूल उत्पन्न होते हैं, उन्हें सम्पूर्ण देवता क्यों चाहते हैं? उन हास्यजनित फूलोंसे पूजित होनेपर भगवान् शंकर क्यों सन्तुष्ट होते हैं? उस फूलका क्या गुण है? कामोदा कौन है और वह किसकी पुत्री है?

कुंजल बोला- पूर्वकालकी बात है, देवताओं और बड़े-बड़े दैत्योंने अमृतके लिये परस्पर उत्तम सौहार्द स्थापित करके उद्यमपूर्वक क्षीरसागरका मन्थन किया। देवताओं और दैत्योंके मधनेसे चार कन्याएँ प्रकट हुईं। फिर कलशमें रखा हुआ पुण्यमय अमृत दिखायी पड़ा। उपर्युक्त कन्याओंमेंसे एकका नाम लक्ष्मी था, दूसरी वारुणी नामसे प्रसिद्ध थी, तीसरीका नाम कामोदा और चौथीका ज्येष्ठा था। कामोदा अमृतकी लहरसे प्रकट हुई थी। वह भविष्यमें भगवान् श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये वृक्षरूप धारण करेगी और सदा ही श्रीविष्णुको आनन्द देनेवाली होगी। वृक्षरूपमें वह परम पवित्र तुलसीके नामसे विख्यात होगी। उसके साथ भगवान् जगन्नाथ सदा ही रमण करेंगे जो तुलसीका एक पत्ता भी ले जाकर श्रीकृष्णभगवान‌को समर्पित करेगा, उसका भगवान् बड़ा उपकार मानेंगे और 'मैं इसे क्या दे डालूँ ?' यह सोचते हुए वे उसके ऊपर बहुत प्रसन्न होंगे।

इस प्रकार पूर्वोक्त चार कन्याओंमेंसे जो कामोदा नामसे प्रसिद्ध देवी है, वह जब हर्षसे गद्गद होकर बोलती और हँसती है, तब उसके मुखसे सुनहरे रंगके सुगन्धित फूल झड़ते हैं। वे फूल बड़े सुन्दर होते हैं। कभी कुम्हलाते नहीं हैं जो उन फूलोंका यत्नपूर्वक संग्रह करके उनके द्वारा भगवान् शंकर ब्रह्मा तथा विष्णुकी पूजा करता है, उसके ऊपर सब देवता संतुष्ट होते हैं और वह जो-जो चाहता है, वही वही उसे अर्पण करते हैं। इसी प्रकार जब कामोदा किसी दुःखसे दुःखी होकर रोने लगती है, तब उसकी आँखोंके आँसुओंसे भी फूल पैदा होते और झड़ते हैं। महाभाग ! वे फूल भी देखनेमें बड़े मनोहर होते हैं; किन्तु उनमें सुगन्ध नहीं होती। वैसे फूलोंसे जो शंकरका पूजन करता है, उसेदुःख और संताप होता है जो पापात्मा एक बार भी उस तरहके फूलोंसे देवताओंकी पूजा करता है, उसे वे निश्चय ही दुःख देते हैं।

भगवान् श्रीविष्णुने पापी विडुण्डके पराक्रम और दुःसाहसपर दृष्टि डालकर देवर्षि नारदको उसके पास भेजा। उस समय वह दुरात्मा दानव कामोदाके पास जा रहा था। नारदजी उसके समीप जाकर हँसते हुए बोले—' दैत्यराज ! कहाँ जा रहे हो? इस समय तुम बड़े उतावले और व्यग्र जान पड़ते हो।' विहुण्डने ब्रह्मकुमार नारदजीको हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा- 'द्विजश्रेष्ठ ! मैं कामोद पुष्पके लिये चला हूँ।' यह सुनकर नारदजीने कहा- 'दैत्य ! तुम कामोद नामक श्रेष्ठ नगरमें कदापि न जाना; क्योंकि वहाँ सम्पूर्ण देवताओंको विजय दिलानेवाले परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीविष्णु रहते हैं। दानव जिस उपायसे कामोद नामक फूल तुम्हारे हाथ लग सकते हैं, वह मैं बता रहा हूँ। वे दिव्य पुष्प गंगाजीके जलमें गिरेंगे और प्रवाहके पावन जलके साथ बहते हुए तुम्हारे पास आ जायँगे। वे देखनेमें बड़े सुन्दर होंगे। तुम उन्हें पानीसे निकाल लाना। इस प्रकार उन फूलोंका संग्रह करके अपना मनोरथ सिद्ध करो।'

दानवश्रेष्ठ विहुण्डसे यह कहकर धर्मात्मा नारदजी कामोद नगरकी ओर चल दिये। जाते-जाते उन्हें वह दिव्य नगर दिखायी दिया। उस नगरमें प्रवेश करके वे कामोदाके घर गये और उससे मिले। कामोदाने स्वागत आदिके द्वारा मुनिको प्रसन्न किया और मीठे वचनोंमें कुशल- समाचार पूछा। द्विजश्रेष्ठ नारदजीने कामोदाके दिये हुए दिव्य सिंहासनपर बैठकर उससे पूछा भगवान् श्रीविष्णुके तेजसे प्रकट हुई कल्याणमयी देवी! तुम यहाँ सुखसे रहती हो न ? किसी तरहका कष्ट तो नहीं है?'

कामोदा बोली- महाभाग। मैं आप जैसे महात्माओं तथा भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही हूँ। इस समय आपसे कुछ प्रश्नोत्तर करनेका कारण उपस्थित हुआ है आप मेरेप्रश्नका समाधान कीजिये। मुने! सोते समय मैंने एक दारुण स्वप्न देखा है, मानो किसीने मेरे सामने आकर कहा है- 'अव्यक्तस्वरूप भगवान् हृषीकेश संसारमें जायेंगे - वहाँ जन्म ग्रहण करेंगे।' महामते। ऐसा स्वप्न देखनेका क्या कारण है? आप ज्ञानवानोंमें श्रेष्ठ हैं, कृपया बताइये।

नारदजीने कहा- भद्रे । मनुष्य जो स्वप्न देखते हैं, वह तीन प्रकारका होता है-वातिक (वातज), पैत्तिक (पित्तज) और कफज सुन्दरी! देवताओंको न नींद आती है न स्वप्न । मनुष्य शुभ और अशुभ नाना प्रकारके स्वप्न देखता है। वे सभी स्वप्न कर्मसे प्रेरित होकर दृष्टिपथमें आते हैं। पर्वत तथा ऊँचे-नीचे नाना प्रकारके दुर्गम स्थानोंका दर्शन होना वातिक स्वप्न है। अब कफाधिक्यके कारण दिखायी देनेवाले स्वप्न बता रहा हूँ। जल, नदी, तालाब तथा पानीके विभिन्न स्थान ये सब कफज स्वप्नके अन्तर्गत हैं। देवि! अग्नि तथा बहुत से उत्तम सुवर्णका जो दर्शन होता है, उसे पैत्तिक स्वप्न समझो अब मैं भावी (भविष्यमें तुरंत फल देनेवाले) स्वप्नका वर्णन करता हूँ- प्रातःकाल जो कर्मप्रेरित शुभ या अशुभ स्वप्न दिखायी देता है, वह क्रमशः लाभ और हानिको व्यक्त करनेवाला है। सुन्दरी इस प्रकार मैंने तुमसे स्वप्नकी अवस्थाएँ बतायीं। भगवान् श्रीविष्णुके सम्बन्धमें यह बात अवश्य होनेवाली हैं, इसी कारण तुम्हें दुःस्वप्न दिखायी दिया है।

कामोदा बोली- नारदजी सम्पूर्ण देवता भी जिनका अन्त नहीं जानते, उन्हें भी जिनके स्वरूपका ज्ञान नहीं है, जिनमें सम्पूर्ण विश्वका लय होता है, जिन्हें विश्वात्मा कहते हैं और सारा संसार जिनकी मायासे मुग्ध हो रहा है, वे मेरे स्वामी जगदीश्वर श्रीविष्णु संसारमें क्यों जन्म ले रहे हैं ?

नारदजीने कहा- देवि! इसका कारण सुनोः महर्षि भृगुके शापसे भगवान् संसारमें अवतार लेनेवाले हैं। [यही बात बतानेके लिये उन्होंने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।] इसीलिये तुम्हें दुःस्वप्नका दर्शन हुआ है। बेटा! यों कहकर नारदजी ब्रह्मलोकको चले गये।उस समय कामोदा भगवान्‌के दुःखसे दुःखी हो गयी और गंगाजीके तटपर जलके समीप बैठकर बारंबार हाहाकार करती हुई करुण स्वरसे विलाप करने लगी। वह अपने नेत्रोंसे जो दुःखके आँसू बहाती थी, वे ही गंगाजीके जलमें गिरते थे। पानीमें पड़ते ही वे पुनः पद्म-पुष्पके रूपमें प्रकट होते और धाराके साथ वह जाते थे। दानवश्रेष्ठ विहुण्ड भगवान् श्रीविष्णुकी मायासे मोहित था। उसने उन फूलोंको देखा; किन्तु महर्षि शुक्राचार्यके बतानेपर भी वह इस बातको न जान सका कि ये दुःखके आँसुओंसे उत्पन्न फूल हैं। उन्हें देखकर वह असुर बड़े हर्षमें भर गया और उन सबको जलसे निकाल लाया। फिर वह उन खिले हुए पद्म-पुष्पोंसे गिरिजापतिकी पूजा करने लगा। विष्णुकी मायाने उसके मनको हर लिया था; अतः विवेकशून्य होकर उस दैत्यराजने सात करोड़ फूलोंसे भगवान् शिवका पूजन किया। यह देख जगन्माता पार्वतीको बड़ा क्रोध हुआ; उन्होंने शंकरजीसे कहा- नाथ! इस दुर्बुद्धि दानवका कुकर्म तो देखिये - यह शोकसे उत्पन्न फूलों द्वारा आपका पूजन कर रहा है, इसे दुःख और संताप ही मिलेगा; यह सुख पानेका अधिकारी नहीं है।'

भगवान् शिव बोले- भद्रे ! तुम सच कहती हो, इस पापीने सत्यपूर्ण उद्योगको पहलेसे ही छोड़ रखा है। इसकी चेतना कामसे आकुल है; अतः यह दुष्टात्मा गंगाजीके जलमें पड़े हुए शोकजनित फूलोंको ग्रहण करता है तथा उनसे मेरा पूजन भी करता है। दुःख और शोकसे उत्पन्न ये फूल तो शोक और संताप ही देनेवाले हैं; इनके द्वारा किसीका कल्याण कैसे हो सकता है। देवि! मैं तो समझता हूँ, यह ध्यानहीन है; क्योंकि अब पापाचारी हो गया है। अतः तुम इसे अपने ही तेजसे मार डालो।

भगवान् शंकरके ये वचन सुनकर भगवती पार्वतीने कहा-'नाथ में आपकी आनसे इसका अवश्य संहार करूँगी।' यो कहकर देवी वहाँ गयीं और विहुण्डके वधका उपाय सोचने लगीं। वे एक महात्मा ब्राह्मणका मायामय रूप बनाकर पारिजातके सुन्दरफूलोंसे अपने स्वामी शंकरजीकी पूजा करने लगी। इतनेमें ही उस पापी दानवने आकर देवीकी दिव्य पूजाको नष्ट कर दिया। वह दुष्टात्मा कालके वशीभूत हो चुका था। उसने पार्वतीद्वारा पारिजातके फूलोंसे की हुई पूजाको मिटा दिया और स्वयं लोभवश शोकजनित पुष्पोंसे शंकरजीका पूजन करने लगा। उस समय उस दुष्टके नेत्रोंसे की अविरल बूँदे निकलकर शिवलिंगके मस्तकपर पड़ रही थीं। यह देखकर देवीने ब्राह्मणके रूपमें ही पूछा- आप कौन हैं, जो शोकाकुल चित भगवान् शिवकी पूजा कर रहे हैं? ये शोकजनित अपवित्र आँसू भगवान्के मस्तकपर पड़ रहे हैं। आप ऐसा क्यों करते हैं? मुझे इसका कारण बताइये।

विहुण्ड बोला - ब्रह्मन्! कुछ दिन हुए मैंने एक सुन्दरी स्त्री देखी, जो सब प्रकारकी सौभाग्य सम्पदासे युक्त और समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। देखने में वह कामदेवका विशाल निकेतन जान पड़ती थी। उसके मोहसे मैं संतप्त हो उठा, कामसे मेरा चित्त व्याकुल हो गया। जब मैंने उससे समागमकी प्रार्थना की, तब वह बोली- 'कामोदके फूलोंसे भगवान् शंकरकी पूजा करो तथा उन्हीं फूलोंको माला बनाकर मेरे कण्ठमें पहनाओ। सात करोड़ पुष्पोंसे महेश्वरका पूजन करो।' उस स्त्रीको पानेके लिये ही मैं पूजा करता हूँ; क्योंकि भगवान् शिव अभीष्ट फलके दाता हैं।

देवीने कहा- अरे ! कहाँ तेरा भाव है, कहाँ ध्यान है और कहाँ तुझ दुरात्माका ज्ञान है ? [तू कामोद पुष्पोंसे पूजा कर रहा है न?] अच्छा बता, कामोदाका सुन्दर रूप कैसा है ? तूने उसके हास्यसे उत्पन्न सुन्दर फूल कहाँ पाये हैं?

विहुण्ड बोला- 'ब्रह्मन् ! मैं भाव और ध्यान कुछ नहीं जानता। कामोदाको मैंने कभी देखा भी नहीं है। गंगाजीके जलमें जो फूल बहकर आते हैं, उन्हींका मैं प्रतिदिन संग्रह करता हूँ और उन्हींसे एकमात्र शंकरजीका पूजन करता हूँ। महात्मा शुक्राचार्यने मेरे सामने इस फूलका परिचय दिया था। मैं उन्हींकी आज्ञासे नित्यप्रति पूजा करता हूँ।देवीने कहा- पापी! ये फूल कामोदाके रोदनसे उत्पन्न हुए हैं। इनकी उत्पत्ति दुःखसे हुई है। इन्हींसे तू पापपूर्ण भावना लेकर, प्रतिदिन भगवान्‌की पूजा करता है, किन्तु दिव्य पूजा नष्ट करके तू शोकजनित पुष्पोंसे पूजन कर रहा है- यह आज तेरे द्वारा भयंकर अपराध हुआ है; इसके लिये मैं तुझे दण्ड दूँगा ।

यह सुनकर कालके वशीभूत हुआ दानव विहुण्ड बोला- 'रे दुष्ट ! रे अनाचारी! तू मेरे कर्मकी निन्दा करता है? तुझे अभी इस तलवारसे मौतके घाट उतारता हूँ।' यों कहकर वह ब्राह्मणको मारनेके लिये तीखी तलवार ले उसकी ओर झपटा। यह देख ब्राह्मणरूपमेंखड़ी हुई भगवती परमेश्वरी कुपित हो उठीं और ज्यों ही वह दैत्य उनके पास पहुँचा त्यों ही उन्होंने अपने मुँहसे 'हुंकार' का उच्चारण किया। हुंकारकी ध्वनि होते ही वह अधम दानव निश्चेष्ट होकर गिर पड़ा, मानो वज्रके आघातसे पर्वत फट पड़ा हो। उस लोक संहारक दानवके मारे जानेपर सम्पूर्ण जगत् स्वस्थ हो गया, सबके दुःख और सन्ताप दूर हो गये। बेटा ! गंगाजीके तीरपर दुःखसे व्याकुलचित्त होकर बैठी हुई जो सुन्दरी स्त्री रो रही थी, [ वह कामोदा ही थी; ] उसके रोनेका यही कारण था। यह सारा रहस्य जो तुमने पूछा था, मैंने कह सुनाया ।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार