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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 73 - Khand 2, Adhyaya 73

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कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन

तदनन्तर कुंजलने अपने पुत्र विश्वलको उपदेश देते हुए कहा- 'बेटा! प्रत्येक भोगमें शुभ और अशुभ कर्म ही कारण हैं। पुण्य कर्मसे जीव सुख भोगता है। और पाप कर्मसे दुःखका अनुभव करता है। किसान अपने खेतमें जैसा बीज बोता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त होता है। इसी प्रकार जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फलका उपभोग किया जाता है। इस शरीर के विनाशका कारण भी कर्म ही है। हम सब लोग कर्मके अधीन हैं। संसारमें कर्म ही जीवोंकी संतान है। कर्म ही उनके बन्धु बान्धव हैं तथा कर्म ही यहाँ पुरुषको सुख-दुःखमें प्रवृत्त करते हैं। जैसे किसानको उसके प्रयत्नके अनुसार खेतीका फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार पूर्वजन्मका किया हुआ कर्म ही कर्ताको मिलता है। जीव अपने कर्मोंके अनुसार ही देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी और स्थावर योनियोंमें जन्म लेता है तथा उन योनियोंमें वह सदा अपने किये हुए कर्मको ही भोगता है। दुःख और सुख दोनों अपने ही किये हुए कर्मोके फल हैं। जीव गर्भकी शय्यापर सोकर पूर्व शरीरके किये हुए शुभाशुभ कर्मो का फल भोगता है पृथ्वीपर कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है, जो पूर्वजन्मके किये हुए कर्मको अन्यथा कर सके। सभी जीव अपने कमाये हुए सुख-दुःखको ही भोगते हैं। भोगके बिना किये हुए कर्मका नाश नहीं होता। पूर्वजन्मके बन्धनस्वरूप कर्मको कौन मेट सकता है।

बेटा! विषय एक प्रकारके विघ्न हैं। जरा आदि अवस्थाएं उपद्रव हैं। ये पूर्वजन्मके कमसे पीड़ित मनुष्यको पुनः पुनः पीड़ा पहुँचाते रहते हैं। जिसको जहाँ भी सुख या दुःख भोगना होता है, दैव उसे बलपूर्वक वहाँ पहुँचा देता है, जीव कमसे बंधा रहता है। प्रारब्धको ही जीवोंके सुख-दुःखका उत्पादक बताया गया है।

महाप्राज्ञ चोल देशमें सुबाहु नामके एक राजा हो गये हैं। जैमिनि नामके ब्राह्मण उनके पुरोहित थे। एकदिन पुरोहितने राजा सुबाहुको सम्बोधित करके कहा 'राजन्! आप उत्तम उत्तम दान दीजिये। दानके ही प्रभावसे सुख भोगा जाता है। मनुष्य मरनेके पश्चात् दानके ही बलसे दुर्गम लोकोंको प्राप्त होता है। दानसे सुख और सनातन यशकी प्राप्ति होती है। दानसे ही मर्त्यलोकमें मनुष्यकी उत्तम कीर्ति होती है। जबतक इस जगत् में कीर्ति स्थिर रहती है, तबतक उसका कर्ता स्वर्गलोकमें निवास करता है। अतः मनुष्योंको चाहिये कि वे पूर्ण प्रयत्न करके सदा दान करते रहें ।'

राजाने पूछा-द्विजश्रेष्ठ! दान और तपस्या इन दोमें दुष्कर कौन है? तथा परलोकमें जानेपर कौन महान् फलको देनेवाला होता है? यह मुझे बतलाइये।

जैमिनि बोले- राजन्! इस पृथ्वीपर दानसे बढ़कर दुष्कर कार्य दूसरा कोई नहीं है। यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है। सारा लोक इसका साक्षी है। संसारमें लोभसे मोहित मनुष्य धनके लिये अपने प्यारे प्राणोंकी भी परवा न करके समुद्र और घने जंगलोंमें प्रवेश कर जाते हैं। कितने ही मनुष्य धनके लिये दूसरोंकी सेवातक स्वीकार कर लेते हैं। विद्वान् लोग धनके लिये पाठ करते हैं तथा दूसरे दूसरे लोग धनकी इच्छासे ही हिंसापूर्ण और कष्टसाध्य कार्य करते हैं। इसी प्रकार कितने ही लोग खेतीके कार्यमें संलग्न होते हैं। इस तरह दुःख उठाकर कमाया हुआ धन प्राणोंसे भी अधिक प्रिय जान पड़ता है। ऐसे धनका परित्याग करना अत्यन्त कठिन है। महाराज! उसमें भी जो न्यायसे उपार्जित धन है, उसे यदि श्रद्धापूर्वक विधिके अनुसार सुपात्रको दान दिया जाय तो उसका फल अनन्त होता है। श्रद्धा देवी धर्मकी पुत्री हैं, वे विश्वको पवित्र एवं अभ्युदयशील बनानेवाली हैं। इतना ही नहीं, वे सावित्रीके समान पावन, जगत्को उत्पन्न करनेवाली तथा संसारसागरसे उद्धार करनेवाली हैं। आत्मवादी विद्वान् श्रद्धासे ही धर्मका चिन्तन करते हैं। जिनके पास किसी भी वस्तुकासंग्रह नहीं है, ऐसे अकिंचन मुनि श्रद्धालु होनेके कारण ही स्वर्गको प्राप्त हुए हैं।"

नृपश्रेष्ठ! दानके कई प्रकार हैं। परन्तु अन्नदानसे बढ़कर प्राणियोंको सद्गति प्रदान करनेवाला दूसरा कोई दान नहीं है। इसलिये जलसहित अन्नका दान अवश्य करना चाहिये। दानके समय मधुर और पवित्र वचन बोलनेकी भी आवश्यकता है। अन्नदान संसार सागरसे तारनेवाला, हितसाधक तथा सुख-सम्पत्तिका हेतु है। यदि शुद्ध चित्तसे श्रद्धापूर्वक सुपात्र व्यक्तिको एक बार भी अन्नका दान दिया जाय तो मनुष्य सदा ही उसका उत्तम फल भोगता रहता है। अपने भोजनमें से मुट्ठीभर अन्न 'अग्रग्रास' के रूपमें अवश्य दान करना चाहिये। उस दानका बहुत बड़ा फल है, उसे अक्षय बताया गया है। जो प्रतिदिन सेरभर या मुट्ठीभर भी अन्न न दे सके, वह मनुष्य पर्व आनेपर आस्तिकता, श्रद्धा तथा भक्तिके साथ एक ब्राह्मणको भोजन करा दे राजन् जो प्रतिदिन ब्राह्मणको अन्न देते और जलसहित मिष्टान्न भोजन कराते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। वेदोंके पारगामी ऋषि अन्नको ही प्राणस्वरूप बतलाते हैं: अनकी उत्पत्ति अमृतसे हुई है। महाराज! जिसने किसीको अन्नका दान किया है, उसने मानो प्राणदान दिया है। इसलिये आप यत्न करके अन्नका दान दीजिये। सुबाहुने कहा- द्विजश्रेष्ठ! अब मुझसे स्वर्गके गुणोंका वर्णन कीजिये।

जैमिनि बोले- राजन् स्वर्गमें नन्दनवन आदि अनेकों दिव्य उद्यान हैं, जो अत्यन्त मनोहर, पवित्र और समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। इनके सिवा वहाँ परम सुन्दर दिव्य विमान भी हैं। पुण्यात्मा मनुष्य उन विमानोंपर सुखपूर्वक विचरण किया करते हैं। वहाँ नास्तिक नहीं जाते; चोर, असंयमी, निर्दय, चुगलखोर, कृतघ्न और अभिमानी भी नहीं जाने पाते जो सत्यकेआधारपर रहनेवाले, शूर, दयालु, क्षमाशील, याज्ञिक तथा दानशील हैं, वे ही मनुष्य वहाँ जाने पाते हैं। वहाँ किसीको रोग, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, जाड़ा, गर्मी, भूख, प्यास और ग्लानि नहीं सताती। राजन्! ये तथा और भी बहुत -से स्वर्गलोकके गुण हैं। अब वहाँके दोषोंका वर्णन सुनिये। वहाँ सबसे बड़ा दोष यह है कि दूसरोंकी अपनेसे बढ़ी हुई सम्पत्ति देखकर मनमें असंतोष होता है तथा स्वर्गीय सुखमें आसक्त चित्तवाले प्राणियोंका [पुण्य क्षीण होते ही] सहसा वहाँसे पतन हो जाता है। यहाँ जो शुभ कर्म किया जाता है, उसका फल वहीं (स्वर्गमें) भोगा जाता है। राजन्! यह कर्मभूमि है और स्वर्गको भोगभूमि माना गया है।

सुबाहुने कहा- ब्रह्मन् ! स्वर्गके अतिरिक्त जो दोषरहित सनातन लोक हों, उनका मुझसे वर्णन कीजिये

जैमिनि बोले- राजन् ! ब्रह्मलोकसे ऊपर भगवान् श्रीविष्णुका परम पद है। वह शुभ, सनातन एवं ज्योतिर्मय धाम है। उसीको परब्रह्म कहा गया है। विषयासक्त मूढ़ पुरुष वहाँ नहीं जा सकते। दम्भ, लोभ, भय, क्रोध, द्रोह और द्वेषसे आक्रान्त मनुष्योंका वहाँ प्रवेश नहीं हो सकता। जो ममता और अहंकारसे रहित, निर्द्वन्द्व, जितेन्द्रिय तथा ध्यान-योगपरायण हैं, वे साधु पुरुष ही उस धाममें प्रवेश करते हैं।

सुबाहुने कहा – महाभाग! मैं स्वर्गमें नहीं जाऊँगा, मुझे उसकी इच्छा नहीं है। जिस स्वर्गसे एक दिन नीचे गिरना पड़ता है, उसकी प्राप्ति करानेवाला कर्म ही मैं नहीं करूँगा। मैं तो ध्यानयोगके द्वारा देवेश्वर लक्ष्मीपतिका पूजन करूँगा और दाह तथा प्रलयसे रहित विष्णु लोकमें जाऊँगा ।

जैमिनि बोले- राजन् ! तुम्हारा कहना ठीक है, तुमने सबके कल्याणकी बात कही है। वास्तवमें राजा दानशील हुआ करते हैं। वे बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा भगवान्श्रीविष्णुका यजन करते हैं। यहाँ सब प्रकारके दान दिये जाते हैं। उत्तम यज्ञोंमें पहले अन्न और फिर वस्त्र एवं ताम्बूलका दान किया जाता है। इसके बाद सुवर्णदान, भूमिदान और गोदानकी बात कही जाती है। इस प्रकार उत्तम यज्ञ करके राजालोग अपने शुभ कमोंके फलस्वरूप विष्णुलोकमें जाते हैं। दानसे तृप्तिलाभ करते और संतुष्ट रहते हैं। अतः राजेन्द्र आप भी न्यायोपार्जित धनका दान कीजिये। दानसे ज्ञान और ज्ञानसे आपको सिद्धि प्राप्त होगी।

जो मनुष्य इस उत्तम और पवित्र आख्यानका श्रवण करेगा, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें जायगा। सुबाहुने पूछा- ब्रह्मन्! मनुष्य किस दुष्कर्मसे नरक में पड़ते हैं और किस शुभकर्मके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं? यह बात मुझे बताइये।

जैमिनिने कहा- जो द्विज लोभसे मोहित हो पावन ब्राह्मणत्वका परित्याग करके कुकर्मसे जीविका चलाते हैं, वे नरकगामी होते हैं जो नास्तिक हैं, जिन्होंने धर्मकी मर्यादा भंग की है; जो काम-भोगके लिये उत्कण्ठित, दाम्भिक और कृतघ्न हैं; जो ब्राह्मणोंको धन देनेकी प्रतिज्ञा करके भी नहीं देते, चुगली खाते, अभिमान रखते और झूठ बोलते हैं जिनकी बातें परस्पर विरुद्ध होती हैं; जो दूसरोंका धन हड़प लेते, दूसरोंपर कलंक लगानेके लिये उत्सुक रहते और परायी सम्पत्ति देखकर जलते हैं, वे नरकमें जाते हैं। जो मनुष्य सदा प्राणियोंके प्राण लेनेमें लगे रहते, परायी निन्दामें प्रवृत्त होते; कुएँ, बगीचे, पोखरे और पाँसलेको दूषित करते; सरोवरोंको नष्ट-भ्रष्ट करते तथा शिशुओं, भृत्यों और अतिथियोंको भोजन दिये बिना ही स्वयं भोजन कर लेते हैं, जिन्होंने पितृयाग (श्राद्ध) और देवयाग (यज्ञ) का त्याग कर दिया है, जो संन्यास तथा अपने रहनेके आश्रमको कलंकित करते हैं और मित्रोंपर लांच्छन लगाते हैं, वे सब-के-सब नरकगामी होते हैं।

जो प्रयाज नामक यज्ञों, शुद्ध चित्तवाली कन्याओं, साधु पुरुषों और गुरुजनोंको दूषित करते हैं जो काठ, कील, शूल अथवा पत्थर गाड़कर रास्ता रोकते हैं,कामसे पीड़ित रहते और सब वर्णोंके यहाँ भोजन कर लेते हैं तथा जो भोजनके लिये द्वारपर आये हुए जीविकाहीन ब्राह्मणोंकी अवहेलना करते हैं, वे नरकोंमें पड़ते हैं। जो दूसरोंके खेत, जीविका, घर और प्रेमको नष्ट करते हैं; जो हथियार बनाते और धनुष-बाणका विक्रय करते हैं; जो मूढ़ मानव अनाथ, वैष्णव, दीन, रोगातुर और वृद्ध पुरुषोंपर दया नहीं करते तथा जो पहले कोई नियम लेकर फिर संयमहीन होनेके कारण चंचलतावश उसका परित्याग कर देते हैं, वे नरकगामी होते हैं।

अब मैं स्वर्गगामी पुरुषोंका वर्णन करूँगा। जो मनुष्य सत्य, तपस्या, ज्ञान, ध्यान तथा स्वाध्यायके द्वारा धर्मका अनुसरण करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं। जो प्रतिदिन हवन करते तथा भगवान्‌के ध्यान और देवताओंके पूजनमें संलग्न रहते हैं, वे महात्मा स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं। जो बाहर-भीतरसे पवित्र रहते, पवित्र स्थानमें निवास करते, भगवान् वासुदेवके भजनमें लगे रहते तथा भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी शरण में जाते हैं; जो सदा आदरपूर्वक माता-पिताकी सेवा करते और दिनमें नहीं सोते; जो सब प्रकारकी हिंसासे दूर रहते, साधुओंका संग करते और सबके हितमें संलग्न रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो गुरुजनोंकी सेवामें संलग्न, बड़ोंको आदर देनेवाले, दान न लेनेवाले, सहस्रों मनुष्योंको भोजन परोसनेवाले, सहस्रों मुद्राओंका दान करनेवाले तथा सहस्रों मनुष्योंको दान देनेवाले हैं, वे पुरुष स्वर्गलोकको जाते हैं। जो युवावस्थामें भी क्षमाशील और जितेन्द्रिय हैं; जिनमें वीरता भरी है; जो सुवर्ण, गौ, भूमि, अन्न और वस्त्रका दान करते हैं; जो अपनेसे द्वेष रखनेवालोंके भी दोष कभी नहीं कहते, बल्कि उनके गुणोंका ही वर्णन करते हैं; जो विज्ञ पुरुषको देखकर प्रसन्न होते, दान देकर प्रिय वचन बोलते तथा दानके फलकी इच्छाका परित्याग कर देते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो पुरुष प्रवृत्तिमार्गमें तथा निवृत्तिमार्ग में भी मुनियों और शास्त्रोंके कथनानुसार ही आचरण करते हैं, वे स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं।जो मनुष्योंसे कटु वचन बोलना नहीं जानते, जो प्रिय वचन बोलनेके लिये प्रसिद्ध हैं; जिन्होंने बावली, कुआँ, सरोवर, पाँसला, धर्मशाला और बगीचे बनवाये हैं; जो मिथ्यावादियोंके लिये भी सत्यपूर्ण बर्ताव करनेवाले और कुटिल मनुष्योंके लिये भी सरल हैं, वे दयालु तथा सदाचारी मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं।

जो एकमात्र धर्मका अनुष्ठान करके अपने प्रत्येक दिवसको सदा सफल बनाते हैं तथा नित्य ही व्रतका पालन करते हैं; जो शत्रु और मित्रकी समान भावसे सराहना करते और सबको समान दृष्टिसे देखते हैं; जिनका चित्त शान्त है, जो अपने मनको वशमें कर चुके हैं, जिन्होंने भयसे डरे हुए ब्राह्मणों तथा स्त्रियोंकी रक्षाका नियम ले रखा है; जो गंगा, पुष्कर तीर्थ और विशेषतः गया में पितरोंको पिण्ड दान करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं। जो इन्द्रियोंके वशमें नहीं रहते, जिनकी संयममें प्रवृत्ति है; जिन्होंने लोभ, भय और क्रोधका परित्याग कर दिया है; जो शरीरमें पीड़ा देनेवाले जूँ, खटमल और डाँस आदि जन्तुओंका भी पुत्रकी भाँति पालन करते हैं- उन्हें मारते नहीं; सर्वदा मन और इन्द्रियोंके निग्रहमें लगे रहते हैं और परोपकारमें ही जीवन व्यतीत करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं। जो विशेष विधिके अनुसार यज्ञोंका अनुष्ठान करते, सब प्रकारकेद्वन्द्वोंको सहते तथा इन्द्रियोंको वशमें रखते हैं; जो पवित्र और सत्त्वगुणमें स्थित रहकर मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा भी कभी परायी स्त्रियोंके साथ रमण नहीं करते; निन्दित कर्मोंसे दूर रहते, विहित कर्मोंका अनुष्ठान करते तथा आत्माकी शक्तिको जानते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं।

जो दूसरोंके प्रतिकूल आचरण करता है, उसे अत्यन्त दुःखदायी घोर नरकमें गिरना पड़ता है तथा जो सदा दूसरोंके अनुकूल चलता है, उस मनुष्यके लिये सुखदायिनी मुक्ति दूर नहीं है। राजन् ! कर्मोंद्वारा जिस प्रकार दुर्गति और सुगति प्राप्त होती है, वह सब मैंने तुम्हें यथार्थरूपसे बतला दिया।

कुंजल कहता है-धर्म-अधर्मकी सम्पूर्ण गतिके विषयमें महर्षि जैमिनिका भाषण सुनकर राजा सुबाहुने कहा—'द्विजश्रेष्ठ! मैं भी धर्मका ही अनुष्ठान करूँगा, पापका नहीं। जगत्की उत्पत्तिके स्थानभूत भगवान् वासुदेवका निरन्तर भजन करूँगा।'

इस निश्चयके अनुसार राजा सुबाहुने धर्मके द्वारा भगवान् मधुसूदनका पूजन किया तथा नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान्‌की आराधना करके तथा सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर वे शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक विष्णुलोकको पधार गये।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य