तदनन्तर वक्ताओंमें श्रेष्ठ कुंजलने विज्वलको परम पवित्र श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्रका उपदेश किया इस श्रीवासुदेवाभिधानस्तोके अनुष्टुप् छन्द नारद ऋषि और ओंकार देवता हैं; सम्पूर्ण पातकोंके नाशतथा चतुर्वर्गकी सिद्धिके लिये इसका विनियोग है ।' 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' – यही इस स्तोत्रका मूलमन्त्र है। ll3 llजो परम पावन, पुण्यस्वरूप, वेदके ज्ञाता,वेदमन्दिर, विद्याके आधार तथा यज्ञके आश्रय हैं, उन प्रणवस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। जो आवास (गृह) और आकारसे रहित, उत्तम प्रकाशरूप, महान् अभ्युदयशाली, निर्गुण तथा गुणोंके उत्पादकहैं, उन प्रणवस्वरूप परमात्माको मैं प्रणाम करता हूँ। जो गायत्री-सामका गान करनेवाले, गीतके ज्ञाता, गीतप्रेमी तथा गन्धर्वगीतका अनुभव करनेवाले हैं, उन प्रणव स्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ।जो महान् कान्तिमान्, अत्यन्त उत्साही, महामोहके नाशक, सम्पूर्ण जगत्में व्यापक तथा गुणातीत हैं; जो सर्वत्र विद्यमान रहकर शोभायमान हो रहे हैं, प्राणियोंके ऐश्वर्य एवं कल्याणकी वृद्धि करते हैं तथा समताका भाव उत्पन्न करनेके लिये सद्धर्मका प्रसार करनेवाले हैं, उन प्रणवस्वरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। जो विचारक हैं, वेद जिनका स्वरूप है, जो 'यज्ञ' के नामसे पुकारे जाते हैं, यज्ञ जिन्हें अत्यन्त प्रिय है, जो सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्तिके स्थान तथा समस्त जगत्का उद्धार करनेवाले हैं; संसार सागरमें डूबे हुए प्राणियोंको बचानेके लिये जो नौकारूपसे विराजमान हैं, उन प्रणवस्वरूप श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ। जो सम्पूर्ण भूतोंमें निवास करते हैं, नाना रूपोंमें प्रतीत होते हुए भी एक रूपसे विराजमान हैं तथा जो परमधाम और कैवल्य (मोक्ष) के रूपमें प्रतिष्ठित हैं, उन सुखस्वरूप वरदाता भगवान्को मैं प्रणाम करता हूँ।
जो सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, शुद्ध, निर्गुण, गुणोंके नियन्ता और प्राकृत भावोंसे रहित हैं, उन वेदसंज्ञक परमात्माको नमस्कार करता हूँ। जो देवताओं और दैत्योंके वियोगसे वर्जित (सर्वदा सबसे संयुक्त), तुष्टियोंसे रहित तथा वेदों और योगियोंके ध्येय हैं, उन ॐ कारस्वरूप परमेश्वरको नमस्कार करता हूँ। व्यापक, विश्वके ज्ञाता, विज्ञानस्वरूप परमपदरूप, शिव, कल्याणमय गुणोंसे युक्त, शान्त एवं प्रणवरूप ईश्वरको मैं प्रणाम करता हूँ। जिनकी मायाके प्रभावमें आकर ब्रह्मा आदि देवता और असुर भी उनके परम शुद्ध रूपको नहीं जानते तथा जो मोक्षके द्वार हैं, उन परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ।
जो आनन्दके मूलस्रोत, केवल (अद्वितीय) तथा शुद्ध हंसस्वरूप हैं; कार्य-कारणमय जगत् जिनका स्वरूप है; जो गुणोंके नियन्ता तथा महान् प्रभा-पुंजसेपरिपूर्ण हैं, उन श्रीवासुदेवको नमस्कार है। जो पांचजन्य नामक शंख और सूर्यके समान तेजस्वी सुदर्शन चक्रसे विराजमान हैं तथा कौमोदकी गदा जिनकी शोभा बढ़ा रही है, उन भगवान् श्रीविष्णुकी मैं सदा शरण लेता हूँ। जो उत्तम गुणोंसे सम्पन्न हैं, जिन्हें गुणोंका कोश माना जाता है, जो चराचर जगत्के आधार तथा सूर्य एवं अग्निके समान तेजस्वी हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो अपने प्रकाशकी किरणोंसे अविद्याके बादलोंको छिन्न-भिन्न कर देते हैं, संन्यास धर्मके प्रवर्तक हैं तथा सूर्यके समान तेजसे सबसे ऊँचे लोकमें प्रकाशित होते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो चन्द्रमाके रूपमें अमृतके भंडार हैं, आनन्दकी मात्रासे जिनकी विशेष शोभा हो रही है, देवताओंसे लेकर सम्पूर्ण जीव जिनका आश्रय पाकर ही जीवन धारण करते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो सूर्यके रूपमें सर्वत्र विराजमान रहकर पृथ्वीके रसको सोखते और पुनः नवीन रसकी वृष्टि करते हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर प्राणरूपसे व्याप्त हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो महात्मा स्वरूपसे सबकी अपेक्षा ज्येष्ठ हैं, देवताओंके भी आराध्य देव हैं, सम्पूर्ण लोकोंका पालन करते हैं तथा प्रलयकालीन जलमें नौकाकी भाँति स्थित रहते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, जो स्थावर और जंगम-सभी प्राणियोंके भीतर निवास करते हैं, स्वाहा जिनका मुख है तथा जो देववृन्दकी उत्पत्तिके कारण हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो सब प्रकारके परम पवित्र रसोंसे परिपुष्ट और शान्तिमय रूपोंसे युक्त हैं, संसारमें गुणज्ञ माने जाते हैं, रत्नोंके अधीश्वर हैं और निर्मल तेजसे शोभा पाते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैंशरण लेता हूँ। जो सर्वत्र विद्यमान, सबकी मृत्युके हेतु, सबके आश्रय, सर्वमय तथा सर्वस्वरूप हैं, जो इन्द्रियाँके बिना ही विषयोंका अनुभव करते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो अपने तेजोमय स्वरूपसे समस्त लोकों तथा चराचर जगत्के सम्पूर्ण जीवोंका पालन करते हैं तथा केवल ज्ञान ही जिनका स्वरूप है, उन परम शुद्ध भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ।
जो दैत्योंका अन्त करनेवाले, दुःख नाशके मूल कारण, परम शान्त, शक्तिशाली और विराट्रूपधारी हैं; जिनको पाकर देवता भी मुक्त हो जाते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो सुखस्वरूप और सुखसे पूर्ण हैं, सबके अकारण प्रेमी हैं, जो देवताओंके स्वामी और ज्ञानके महासागर हैं, जो परम हितैषी, कल्याणस्वरूप, सत्यके आश्रय और सत्त्व गुणमें स्थित हैं, उन भगवान् वासुदेवका मैं आश्रय लेता हूँ। यज्ञ और पुरुषार्थ जिनके रूप हैं; जो सत्यसे युक्त, लक्ष्मीके प्रति, पुण्यस्वरूप, विज्ञानमय तथा सम्पूर्ण जगत्के आश्रय हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जो क्षीर सागरके बीचमें शेषनागकी विशाल शय्यापर शयन करते हैं तथा भगवती लक्ष्मी जिनके युगल चरणारविन्दोंकी सेवा करती रहती हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। श्रीवासुदेवके दोनों चरणकमल पुण्यसे युक्त, सबका कल्याण करनेवाले तथा सर्वदा अनेकों तीर्थोंसे सुसेवित हैं, मैं उन्हें प्रतिदिन प्रणाम करता हूँ। श्रीवासुदेवका चरण समस्त पापको हरनेवाला है, वह लाल कमलकी शोभा धारण करता है; उसके तलवेमें ध्वजा और वायुके चिह्न हैं; वह नूपुरों तथा मुद्रिकाओंसे विभूषित है। ऐसी सुषमासे युक्त भगवान् वासुदेवके चरणको मैं प्रणाम करता हूँ। देवता, सिद्ध, मुनि तथा नागराज वासुकि आदि जिसका भक्तिपूर्वक सदा ही स्तवन करते हैं, श्रीवासुदेवके उस पवित्र चरणकमलको मैं प्रतिदिन प्रणाम करता हूँ। जिनकी चरणोदकस्वरूपा गंगाजीमें गोते लगानेवाले प्राणी पवित्र एवं निष्पाप होकर स्वर्गलोकको जाते हैं तथा परम संतुष्ट मुनिजनउसमें अवगाहन करके मोक्ष प्राप्त करते हैं, उन भगवान् वासुदेवकी मैं शरण लेता हूँ। जहाँ भगवान् श्रीविष्णुका चरणोदक रहता है, वहाँ गंगा आदि तीर्थ सदैव मौजूद रहते हैं; आज भी जो लोग उसका पान करते हैं, वे पापी रहे हों तो भी शुद्ध होकर श्रीविष्णु भगवान् के उत्तम धामको जाते हैं। जिनका शरीर अत्यन्त भयंकर पाप-पंकमें सना है, वे भी जिनके चरणोदकसे अभिषिक्त होनेपर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, उन परमेश्वरके युगलचरणोंको मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ। उत्तम सुदर्शन चक्र धारण करनेवाले महात्मा श्रीविष्णुके नैवेद्यका भक्षण करनेमात्रसे मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त करते हैं तथा सम्पूर्ण पदार्थ पा जाते हैं। दुःखका नाश करनेवाले, मायासे रहित, सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त तथा समस्त गुणोंके ज्ञाता जिन भगवान् नारायणका ध्यान करके मनुष्य उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं, उन श्रीवासुदेवको मैं सदा प्रणाम करता हूँ।
जो ऋषि, सिद्ध और चारणोंके वन्दनीय हैं; देवगण सदा जिनकी पूजा करते हैं, जो संसारकी सृष्टिका साधन जुटानेमें ब्रह्मा आदिके भी प्रभु हैं, संसाररूपी महासागरमें गिरे हुए जीवका जो उद्धार करनेवाले हैं, जिनमें वत्सलता भरी हुई है, जो श्रेष्ठ और समस्त कामनाओंको सिद्ध करनेवाले हैं; उन भगवान्के उत्तम चरणोंको मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ। जिन्हें असुरोंने अपने यज्ञमण्डपमें देवताओंसहित सामगान करते हुए वामन ब्रह्मचारीके रूपमें देखा था, जो सामगान के लिये उत्सुक रहते हैं, त्रिलोकीके जो एकमात्र स्वामी हैं तथा युद्धमें पाप या मृत्युसे डरे हुए आत्मीयजनोंको जो अपनी ध्वनिमात्रसे निर्भय बना देते हैं, उन भगवान्के परम पावन युगल चरणारविन्दोंकी मैं वन्दना करता हूँ। जो यज्ञके मुहानेपर विप्र-मण्डलीमें खड़े हो अपने ब्राह्मणोचित तेजसे देदीप्यमान एवं पूजित हो रहे हैं, दिव्य तेजके कारण किरणोंके समूहसे जान पड़ते हैं तथा इन्द्रनीलमणिके समान दिखायी देते हैं, जो देवताओंके हितकी इच्छासे विरोचनके दानी पुत्र बलिके समक्ष मुझे तीन पग भूमि दीजिये।' ऐसा कहकरयाचना करते हैं, उन श्रेष्ठ ब्राह्मण श्रीवामनजीको मैं प्रणाम करता हूँ। भगवान्ने जब वामनसे विराट्रूप होकर अपना पैर बढ़ाया, तब उनका विक्रम (विशाल डग) आकाशको आच्छादित करके सहसा तपते हुए सूर्य और चन्द्रमातक पहुँच गया; इस बातको सूर्यमण्डलमें स्थित हुए मुनिगणोंने भी देखा। फिर उन चक्रधारी भगवान्के विराट्रूपमें, जो समस्त विश्वका खजाना है, सम्पूर्ण देवता भी लीन हो गये।भगवान् वामनके उस विक्रमकी कहीं तुलना नहीं है, मैं इस समय उस विक्रमका स्तवन करता हूँ।
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार यह सारा वृत्तान्त मैंने तुम्हें सुना दिया । कुंजल पक्षी तथा महात्मा च्यवनका चरित्र नाना प्रकारकी कल्याणमयी वार्ताओंसे युक्त है। मैं इसका वर्णन करूँगा, तुम सुनो।