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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 76 - Khand 2, Adhyaya 76

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कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन् धर्मात्मा पक्षी महाप्राज्ञ कुंजल अपने पुत्रोंसे यों कहकर चुप हो गया। तब वटके नीचे बैठे हुए द्विजश्रेष्ठ च्यवनने उस महाशुकसे कहा—'महात्मन्! आप कौन हैं, जो पक्षीके रूपसे धर्मका उपदेश कर रहे हैं? आप देवता, गन्धर्व अथवा विद्याधर तो नहीं हैं? किसके शापसे आपको यह तोतेकी योनि प्राप्त हुई है? यह अतीन्द्रिय ज्ञान आपको किससे प्राप्त हुआ है ?"

कुंजल बोला- सिद्धपुरुष मैं आपको जानता हूँ; आपके कुल, उत्तम गोत्र, विद्या, तप और प्रभावसे भी परिचित है तथा आप जिस उद्देश्यसे पृथ्वीपर विचरण करते हैं, उसका भी मुझे ज्ञान है। श्रेष्ठ व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण! आपका स्वागत है। मैं आपकी पूछी हुई सब बातें बताऊँगा। इस पवित्र आसनपर बैठकर शीतल छायाका आश्रय लीजिये। अव्यक्त परमात्मासे ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ। उनसे प्रजापति भृगु प्रकट हुए, जो ब्रह्माजीके समान गुणोंसे न्युक्त हैं। भृगुसे भार्गव (शुक्राचार्य) का जन्म हुआ, जो सम्पूर्ण धर्म और अर्थशास्त्रके तत्वज्ञ हैं। उन्होंके वंशआपने जन्म ग्रहण किया है। पृथ्वीपर आप च्यवनके नामसे विख्यात है [अब मेरा परिचय सुनिये ] मैं देवता, गन्धर्व या विद्याधर नहीं हूँ। पूर्वजन्ममें कश्यपजीके कुलमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए थे। उन्हें वेद वेदांगोंके तत्त्वका ज्ञान था। वे सब धर्मोको प्रकाशित करनेवाले थे। उनका नाम विद्याधर था; वे कुल, शील और गुण - सबसे युक्त थे। विप्रवर विद्याधर अपनी तपस्याके प्रभावसे सदा शोभायमान दिखायी देते थे। उनके तीन पुत्र हुए- वसुशर्मा, नामशर्मा और धर्मशर्मा उनमें धर्मशर्मा मैं ही था, अवस्थामें सबसे छोटा और गुणोंसे हीन । मेरे बड़े भाई वसुशर्मा वेद-शास्त्रोंके पारगामी विद्वान् थे। विद्या आदि सद्गुणोंके साथ उनमें सदाचार भी था नामशर्मा भी उन्हींकी भाँति महान् पण्डित थे। केवल मैं ही महामूर्ख निकला। विप्रवर! मैं विद्याके उत्तम भाव और शुभ अर्थको कभी नहीं सुनता था और गुरुके घर भी कभी नहीं जाता था।

यह देख मेरे पिता मेरे लिये बहुत चिन्तित रहने लगे। वे सोचते -'मेरा यह पुत्र धर्मशर्मा कहलाता है,पर इसके लिये यह नाम व्यर्थ है। इस पृथ्वीपर न तो यह विद्वान् हुआ और न गुणोंका आधार ही ।' यह विचारकर मेरे धर्मात्मा पिताको बड़ा दुःख हुआ। वे मुझसे बोले- 'बेटा! गुरुके घर जाओ और विद्या सीखो।' उनका यह कल्याणमय वचन सुनकर मैंने उत्तर दिया- 'पिताजी! गुरुके घरपर बड़ा कष्ट होता है । वहाँ प्रतिदिन मार खानी पड़ती है, धमकाया जाता है। नींद लेनेकी भी फुरसत नहीं मिलती। इन असुविधाओंके कारण मैं गुरुके मन्दिरपर नहीं जाना चाहता, मैं तो आपकी कृपासे यहीं स्वच्छन्दतापूर्वक खेलूँगा, खाऊँगा और सोऊँगा।'

धर्मात्मा पिता मुझे मूर्ख समझकर बहुत दुःखी हुए और बोले- 'बेटा! ऐसा दुःसाहस न करो। विद्या सीखनेका प्रयत्न करो। विद्यासे सुख मिलता है, यश और अतुलित कीर्ति प्राप्त होती है तथा ज्ञान, स्वर्ग और उत्तम मोक्ष मिलता है; अतः सीखो। विद्या पहले तो दुःखका मूल जान पड़ती है, किन्तु पीछे वह बड़ी सुखदायिनी होती है। इसलिये तुम गुरुके घर जाओ और विद्या सीखो।' पिताके इतना समझानेपर भी मैं उनकी बात नहीं मानता और प्रतिदिन इधर-उधर घूम-फिरकर अपनी हानि किया करता था। विप्रवर! मेरा बर्ताव देखकर लोगोंने मेरा बड़ा उपहास किया, मेरी बड़ी निन्दा हुई। इससे मैं बहुत लज्जित हुआ। जान पड़ा यह लज्जा मेरे प्राण लेकर रहेगी। तब मैं विद्या पढ़नेको तैयार हुआ। [ अवस्था अधिक हो चुकी थी,] सोचने लगा-'किस गुरुके पास चलकर पढ़ाने के लिये प्रार्थना करूँ ?' इस चिन्तामें पड़कर मैं दुःख शोकसे व्याकुल हो उठा। 'कैसे मुझे विद्या प्राप्त हो ? किस प्रकार मैं गुणोंका उपार्जन करूँ? कैसे मुझे स्वर्ग मिले और किस तरह मैं मोक्ष प्राप्त करूँ ?' यही सब सोचते-विचारते मेरा बुढ़ापा आ गया।

एक दिनकी बात है, मैं बहुत दुःखी होकर एक देवालय में बैठा था, वहाँ अकस्मात् कोई सिद्ध महात्माआ पहुँचे। मानो मेरे भाग्यने ही उन्हें भेज दिया था। उनका कहीं आश्रय नहीं था, वे निराहार रहते थे। सदा आनन्दमें मग्न और निःस्पृह थे प्रायः एकान्तमें हो रहा करते थे। बड़े दयालु और जितेन्द्रिय थे परब्रह्मायें लीन, ज्ञानी, ध्यानी और समाधिनिष्ठ थे। मैं उन परम बुद्धिमान् ज्ञानस्वरूप महात्माकी शरणमें गया और भक्तिसे मस्तक झुका उन्हें प्रणाम करके सामने खड़ा हो गया। मैं दीनताकी साक्षात् मूर्ति और मन्दभागी था। महात्माने मुझसे पूछा-'ब्रह्मन्! तुम इतने शोकमग्न कैसे हो रहे हो? किस अभिप्रायसे इतना दुःख भोगते हो ?' मैंने अपनी मूर्खताका सारा पूर्व वृत्तान्त उनसे कह सुनाया और निवेदन किया-'मुझे सर्वज्ञता कैसे प्राप्त हो? इसीके लिये मैं दुःखी हूँ। अब आप ही मुझे आश्रय देनेवाले हैं।'

सिद्ध महात्माने कहा- ब्रह्मन् सुनो, मैं तुम्हारे सामने ज्ञानके स्वरूपका वर्णन करता हूँ। ज्ञानका कोई आकार नहीं है [ ज्ञान परमात्माका स्वरूप है]। वह सदा सबको जानता है, इसलिये सर्वज्ञ है। मायामोहित मूढ़ पुरुष उसे नहीं प्राप्त कर सकते ज्ञान भगवत्तत्त्वके चिन्तनसे उद्दीप्त होता है, उसकी कहीं भी तुलना नहीं है। ज्ञानसे ही परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार होता है। चन्द्रमा और सूर्य आदिके प्रकाशसे उसका दर्शन नहीं किया जा सकता। ज्ञानके न हाथ हैं न पैर; न नेत्र हैं। न कान। फिर भी वह सर्वत्र गतिशील है। सबको ग्रहण करता और देखता है। सब कुछ सूँघता तथा सबकी बातें सुनता है। स्वर्ग, भूमि और पाताल तीनों लोकोंमें प्रत्येक स्थानपर वह व्यापक देखा जाता है। जिनकी बुद्धि दूषित है, वे उसे नहीं जानते। ज्ञान सदा प्राणियोंके हृदयमें स्थित होकर काम आदि महाभोगों तथा महामोह आदि सब दोषको विवेककी आगसे दग्ध करता रहता है। अतः पूर्ण शान्तिमय होकर इन्द्रियोंके विषयोंका मर्दन उनकी आसक्तिका नाश करना चाहिये। इससे समस्त तात्त्विक अर्थोका साक्षात्कार करानेवाला ज्ञानकट होता है। यह शान्तिमूलक ज्ञान निर्मल तथा पापनाशक है। इसलिये तुम शान्ति धारण करो; वह सब प्रकारके सुखोंको बढ़ानेवाली है। शत्रु और मित्रमें समान भाव रखो। तुम अपने प्रति जैसा भाव रखते हो, वैसा ही दूसरोंके प्रति भी बनाये रहो। सदा विपूर्वक रहकर आहारपर विजय प्राप्त करो, इन्द्रियोंको जीतो किसीसे मित्रता न जोड़ो; वैरका भी दूरसे ही त्याग करो। निस्संग और निःस्पृह होकर एकान्त स्थानमें रहो। इससे तुम सबको प्रकाश देनेवाले ज्ञानी, सर्वदर्शी बन जाओगे। बेटा! उस स्थितिमें पहुँचनेपर तुम मेरी कृपासे एक ही स्थानपर बैठे-बैठे तीनों कोंमें होनेवाली बातोंको जान लोगे- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

कुंजल कहता है- विप्रवर उन सिद्ध महात्माने ही मेरे सामने ज्ञानका रूप प्रकाशित किया था। उनकी आज्ञामें स्थित होकर मैं पूर्वोक्त भावनाका ही चिन्तन करने लगा। इससे सद्गुरुकी कृपा हुई, जिससे एक ही स्थानमें रहकर मैं त्रिभुवनमें जो कुछ हो रहा है, सबको जानता हूँ।

च्यवनने पूछा- खगश्रेष्ठ! आप तो ज्ञानवानों में श्रेष्ठ हैं, फिर आपको यह तोतेकी योनि कैसे प्राप्त हुई ?

कुंजलने कहा- ब्रह्मन्! संसर्गसे पाप और संसर्गसे पुण्य भी होता है। अतः शुद्ध आचार विचारवाले कल्याणमय पुरुषको कुसंगका त्याग कर देना चाहिये। एक दिन कोई पापी व्याध एक तोते के बच्चेको बाँधकर उसे बेचनेके लिये आया। वह बच्चा देखनेमें बड़ा सुन्दर और मीठी बोली बोलनेवाला था। एक ब्राह्मणने उसे खरीद लिया और मेरी प्रसन्नताके लिये उसको मुझे दे दिया। मैं प्रतिदिन ज्ञान और ध्यानमें स्थित रहता था। उस समय वह तोतेका बच्चा बाल स्वभावके कारण कौतूहलवश मेरे हाथपर आ बैठता और बोलने लगता तात । मेरे पास आओ, बैठो स्नानके लिये जाओ और अब देवताओंका पूजन करो।' इस तरहकी मीठी-मीठी बातें वह मुझसे कहा करता था। उसकेवाग्विनोदमें पड़कर मेरा सारा उत्तम ज्ञान चला गया। एक दिन मैं फूल और फल लानेके लिये वनमें गया था। इसी बीचमें एक बिलाव आकर तोतेको उठा ले गया। यह दुर्घटना मुझे केवल दुःख देनेका कारण हुई। बिलाव उस पक्षीको मारकर खा गया। इस प्रकार उस तोतेकी मृत्यु सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। असह्य शोकके कारण अत्यन्त पीड़ा होने लगी। मैं महान् मोह जालमें बँधकर उसके लिये प्रलाप करने लगा। सिद्ध महात्माने जिस ज्ञानका उपदेश दिया था, उसकी याद जाती रही। तब तो मीठे वचन बोलनेवाले उस तोतेको तथा उसके ज्ञानको याद करके मैं 'हा वत्स! हा वत्स!' कहकर प्रतिदिन विलाप करने लगा।

इस प्रकार विलाप करता हुआ मैं शोकसे अत्यन्त पीड़ित हो गया । अन्ततोगत्वा उसी दुःखसे मेरी मृत्यु हो गयी। उसीकी भावनासे मोहित होकर मुझे प्राण त्यागना पड़ा। द्विजश्रेष्ठ ! मृत्युके समय मेरा जैसा भाव था, जैसी बुद्धि थी, उसी भाव और बुद्धिके अनुसार मेरा तोतेकी योनिमें जन्म हुआ है । परन्तु मुझे जो गर्भवास प्राप्त हुआ, वह मेरे ज्ञान और स्मरण शक्तिको जाग्रत् करनेवाला था। गर्भमें स्वयं ही मुझे अपने पूर्वकर्मका स्मरण हो आया। मैंने सोचा- 'ओह ! मुझ मूर्ख, अजितेन्द्रिय तथा पापीने यह क्या कर डाला।' फिर गुरुदेवके अनुग्रहसे मुझे उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ। उनके वाक्यरूपी स्वच्छ जलसे मेरे शरीरके भीतर और बाहरका सारा मल धुल गया। मेरा अन्तःकरण निर्मल हो गया । पूर्वजन्ममें मृत्युकाल उपस्थित होनेपर मैंने तोतेका ही चिन्तन किया और उसीकी भावनासे भावित होकर मैं मृत्युको प्राप्त हुआ। यही कारण है कि मुझे पृथ्वीपर तोतेके रूपमें पुनः जन्म लेना पड़ा। मृत्युके समय प्राणियोंका जैसा भाव रहता है, वे वैसे ही जीवके रूपमें उत्पन्न होते हैं। उनका शरीर, पराक्रम, गुण और स्वरूप- सब उसी तरहके होते हैं। वे भावस्वरूप होकर ही जन्म लेते हैं। *महामते। इस तोतेके शरीरमें मुझे अतुलित ज्ञान प्राप्त हुआ है, जिसके प्रभावसे मैं भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालोंको प्रत्यक्ष देखता हूँ। यहाँ रहकर भी उसी ज्ञानके प्रभावसे मुझे सब कुछ ज्ञात हो जाता है। विप्रवर! संसारमें भटकनेवाले मनुष्योंको तारने के लिये गुरुके समान बन्धन-नाशक तीर्थ दूसरा कोई नहीं है।" भूतलपर प्रकट हुए जलसे बाहरका ही सारा मल नष्ट होता है; किन्तु गुरुरूपी तीर्थ जन्म जन्मान्तरके पापका भी नाश कर डालता है। संसारमें जीवोंका उद्धार करनेके लिये गुरु चलता-फिरता उत्तम तीर्थ है।

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— नृपश्रेष्ठ! वह परम ज्ञानी शुक महात्मा च्यवनको इस प्रकार तत्त्वज्ञानका उपदेश देकर चुप हो गया। यह सब परम उत्तम जंगम तीर्थकी महिमाका वर्णन किया गया। राजन्! तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसे वरके रूपमें माँग लो।

वेनने कहा- जनार्दन! मुझे राज्य पानेकी अभिलाषा नहीं है। मैं दूसरी कोई वस्तु भी नहीं चाहता। केवल आपके शरीरमें प्रवेश करना चाहता हूँ।

भगवान् श्रीविष्णु बोले- राजन्! तुम अश्वमेध और राजसूय यज्ञोंके द्वारा मेरा वजन करो गौ, भूमि, सुवर्ण, अन्न और जलका दान दो महामते। दानसे ब्रह्महत्या आदि घोर पाप भी नष्ट हो जाते हैं। दानसे चारों पुरुषार्थोंकी भी सिद्धि होती है, इसलिये मेरे उद्देश्यसे दान अवश्य करना चाहिये। जो जिस भावसे मेरे लिये दान देता है, उसके उस भावको मैं सत्य कर देता हूँ।" ऋषियोंके दर्शन और स्पर्शसे तुम्हारी पापराशि नष्ट हो चुकी है। यज्ञोंके अन्तमें तुम निश्चय ही मेरेशरीरमें आ मिलोगे।

वेनसे यों कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। उनके अदृश्य हो जानेपर नृपश्रेष्ठ वेन बड़े हर्षके घर आये और कुछ सोच-विचारकर अपने पुत्र पृथुको निकट बुला मधुर वाणीमें बोले–'बेटा! तुम वास्तवमें पुत्र हो। तुमने इस भूलोकमें बहुत बड़े पातकसे मेरा उद्धार कर दिया। मेरे वंशको उज्ज्वल बना दिया। मैंने अपने दोर्षोसे इस कुलका नाश कर दिया था, किन्तु तुमने फिर इसे चमका दिया है। अब मैं अश्वमेध यज्ञके द्वारा भगवान्‌का यजन करूँगा और नाना प्रकारके दान दूँगा। फिर भगवान् विष्णुकी कृपासे उनके उत्तम धामको जाऊँगा। अतः महाभाग ! अब तुम यज्ञकी उत्तम सामग्रियोंको जुटाओ और वेदोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करो।' साथ

सूतजी कहते हैं— वेनकी आज्ञा पाकर परम धर्मात्मा राजकुमार पृथुने नाना प्रकारकी पवित्र सामग्रियाँ एकत्रित कीं तथा नाना देशोंमें उत्पन्न हुए समस्त ब्राह्मणोंको निमन्त्रित किया। तदनन्तर राजा वेनने अश्वमेध यज्ञ किया और ब्राह्मणोंको अनेक प्रकारके दान दिये। इसके बाद वे भगवान् विष्णुके धामको चले गये। महर्षियो! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे राजा पृथुके समस्त चरित्रका वर्णन किया। यह सब पापोंकी शान्ति और सम्पूर्ण दुःखोंका विनाश करनेवाला है। धर्मात्मा राजा पृथुने इस प्रकार पृथ्वीका राज्य किया और तीनों लोकॉसहित भूमण्डलकी रक्षा की। उन्होंने पुण्य- धर्ममय कर्मोंके द्वारा समस्त प्रजाका मनोरंजन किया।

यह मैंने आपलोगोंसे परम उत्तम भूमिखण्डका वर्णन किया है। पहला सृष्टिखण्ड है और दूसराभूमिखण्ड अब भूमिखण्डके माहात्म्यका वर्णन आरम्भ करता हूँ। जो श्रेष्ठ मनुष्य इस खण्डके एक श्लोकका भी श्रवण करता है, उसके एक दिनका पाप नष्ट हो जाता है। जो श्रेष्ठ बुद्धिसे युक्त पुरुष इसके एक अध्यायको सुनता है, उसे पर्वके अवसरपर ब्राह्मणोंको एक हजार गोदान देनेका फल मिलता है। साथ ही उसपर भगवान् श्रीविष्णु भी प्रसन्न होते हैं। जो इस पद्मपुराणका प्रतिदिन पाठ करता है, उसपर कलियुगमें कभी विघ्नोंका आक्रमण नहीं होगा । ब्राह्मणो! अश्वमेध यज्ञका जो फल बतलाया जाता है, इस पद्मपुराणके पाठसे उसी फलकी प्राप्ति होती है। पुण्यमय अश्वमेध यज्ञ कलियुगमें नहीं होता, अतः उस समय यह पुराण ही अश्वमेधके समान फल देनेवाला है। कलियुगमें मनुष्य प्रायः पापी होते हैं, अतः उन्हें नरकके समुद्रमें गिरना पड़ता है; इसलिये उनको चाहिये कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थोंकेसाधक इस श्रवण करें । पुण्यमय पुराणका जिसने पुण्यके साधनभूत इस पद्मपुराणका श्रवण किया, उसने चतुर्वर्गके समस्त साधनोंको सिद्ध कर लिया। इसका श्रवण करनेवाले मनुष्यके ऊपर कभी भारी विघ्नका आक्रमण नहीं होता। धर्मपरायण पुरुषोंको पूरी पुराणसंहिताका श्रवण करना चाहिये । इससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी भी सिद्धि होती है। भूमिखण्डका श्रवण करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा रोग, दुःख और शत्रुओंके भयसे भी छुटकारा पाकर सदा सुखका अनुभव करता है। पद्मपुराणमें पहला सृष्टिखण्ड, दूसरा भूमिखण्ड, तीसरा स्वर्गखण्ड, चौथा पातालखण्ड और पाँचवाँ सब पापोंका नाश करनेवाला उत्तरखण्ड है। ब्राह्मणो! इन पाँचों खण्डोंको सुननेका अवसर बड़े भाग्यसे प्राप्त होता है। सुननेपर ये मोक्ष प्रदान करते हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य