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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 150 - Khand 5, Adhyaya 150

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गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति

महादेवजी कहते हैं-मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं श्रीगंगाजीके माहात्म्यका यथावत् वर्णन करूंगा, जिसके श्रवणमात्रसे तत्काल पापोंका नाश हो जाता है। जो मनुष्य सैकड़ों योजन दूरसे भी 'गंगा-गंगा' का उच्चारण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होता और अन्तमें विष्णुलोकको जाता है।" नारद! श्रीहरिके चरणकमलोंसे प्रकट हुई 'गंगा' नामसे विख्यात नदी पापकी स्थूल राशियोंका भी नाश करनेवाली है। नर्मदा, सरयू वेत्रवती (बेतवा), तापी, पयोष्णी (मन्दाकिनी), चन्द्रा, विपाशा (व्यास), कर्मनाशिनी, पुष्पा, पूर्णा, दीपा, विदीपा तथा सूर्यतनया यमुना- इनमें स्नान करनेसे जो पुण्य होता है, वह सब पुण्य गंगा स्नानसे मनुष्य प्राप्त कर लेते हैं। जो मनीषी पुरुष समुद्रसहित पृथ्वीका दान करते हैं, उनको मिलनेवाला फल भी गंगा स्नानसे प्राप्त हो जाता है। सहस्र गोदान, सौ अश्वमेध यज्ञ तथा सहस्र वृषभ- दानसे जिस अक्षय फलकी प्राप्ति होती है, वह गंगाजीके दर्शनसे क्षणभरमें प्राप्त हो जाता है। वह गंगा नदी महान् पुण्यदायिनी है, विशेषतः ब्रह्महत्यारोंके लिये परम पावन है। वे नरकमें पड़नेवाले हों तो भी गंगाजी उनके पाप हर लेती है तात जैसे सूर्योदय होनेपरअन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार गंगाके प्रभावसे पातक नष्ट हो जाते हैं। ये माता गंगा संसारमें सदा पवित्र मानी गयी हैं। इनका स्वरूप परम कल्याणमय है। माता जाह्नवीका स्वरूप दिव्य है। जैसे देवताओंमें श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार नदियोंमें गंगा उत्तम हैं। जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती हैं, उन तीर्थोंमें स्नान और आचमन करके मनुष्य मोक्षका भागी होता है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

[ भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें जानेपर भगवान् श्रीविष्णु

तथा यमुना, गंगा आदि नदियोंका किस प्रकार स्तवन करना चाहिये, यह बताया जाता है- ]

त्वद्वार्तां प्रयतो ब्रवीमि यदहं सास्तु स्तुतिस्ते प्रभो

यद् भुजे तव सन्निवेदनमथो यद्यामि सा प्रेष्यता ।

यच्छ्रान्तः स्वपिमि त्वदङ्घ्रियुगले दण्डप्रणामोऽस्तु मे

स्वामिन् यच्च करोमि तेन स भवान् विश्वेश्वरः प्रीयताम् ॥

प्रभो ! मैं शुद्धभावसे आपके सम्बन्धमें जो कुछ भी चर्चा करता हूँ, वही आपके लिये स्तुति हो । जो कुछ भोजन करता हूँ, वह आपके लिये नैवेद्यका काम दे। जो चलता-फिरता हूँ, वही आपकी सेवा-टहल समझी जाय। जो थककर सो जाता हूँ, वही आपके लियेसाष्टांग प्रणाम हो तथा स्वामिन्! मैं जो कुछ करता हूँ, उससे आप जगदीश्वर श्रीविष्णु प्रसन्न हों।

दृष्टेन वन्दितेनापि स्पृष्टेन च धृतेन च । नरा येन विमुच्यन्ते तदेतद् यामुनं जलम् ॥ जिसके दर्शन, वन्दन, स्पर्श तथा धारण करनेसे मनुष्य भव-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं, वही यह यमुनाजीका जल है।

तावद् भ्रमन्ति भुवने मनुजा भवोत्थ

दारिद्र्यरोगमरणव्यसनाभिभूताः

यावज्जलं महानदि नीलनीलं

पश्यन्ति नो दधति मूर्धसु सूर्यपुत्रि ॥

सूर्यपुत्री महानदी यमुनाजी ! मनुष्य इस जगत्में प्राप्त होनेवाले दरिद्रता, रोग और मृत्यु आदि दुःखोंसे पीड़ित होकर तभीतक संसारमें भटकते रहते हैं, जबतक वे नीलमणिके सदृश आपके नीले जलका दर्शन नहीं करते अथवा उसे अपने मस्तकपर नहीं चढ़ाते ।

यत्संस्मृतिः सपदि कृन्तति दुष्कृतौघं

पापावलीं जयति योजनलक्षतोऽपि

यन्नाम नाम जगदुच्चरितं पुनाति

दिष्ट्या हि सा पथि दृशोर्भविताद्य गङ्गा ॥

जिनकी स्मृति पापराशिका तत्काल नाश कर देती है, जो लाख योजन दूरसे भी पापोंके समूहको परास्त करती हैं, जिनका नाम उच्चारण किये जानेपर सम्पूर्ण जगत्को पवित्र कर देता है, वे गंगाजी आज सौभाग्यवश मेरे दृष्टिपथमें आयेंगी।

आलोकोत्कण्ठितेन प्रमुदितमनसा वर्त्म यस्याः प्रयातं

सद् यस्मिन् कृत्यमेतामथ प्रथमकृती जज्ञिवान् स्वर्गसिन्धुम्

स्नानं सन्ध्या निवापः सुरयजनमपि श्राद्धविप्राशनाद्यं

सर्वं सम्पूर्णमेतद् भवति भगवतः प्रीतिदं नात्र चित्रम् ॥

मनुष्य दर्शनके लिये उत्कण्ठित तथा प्रसन्नचित्त होकर जिसके पथका अनुसरण करता है, जिसके समस्त शास्त्रविहित कर्म उत्तमतापूर्वक सम्पन्न होते हैं, उन गंगाजीको आदि सृष्टिके रचयिता ब्रह्माजीने पहले स्वर्गगाके रूपमें उत्पन्न किया था। उनके तटपर किया हुआ स्नान, सन्ध्या, तर्पण, देवपूजा, श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन आदि सब कुछ परिपूर्ण एवं भगवान्‌को प्रसन्नताप्रदान करनेवाला होता है— इसमें कोई आश्चर्यकी
बात नहीं है।

द्रवीभूतं परं ब्रह्म परमानन्ददायिनि

अर्घ्यं गृहाण मे गङ्गे पापं हर नमोऽस्तु ते ॥

परमानन्द प्रदान करनेवाली गंगाजी ! आप जल रूपमें अवतीर्ण साक्षात् परब्रह्म हैं। आपको नमस्कार है। आप मेरा दिया हुआ अर्घ्य ग्रहण कीजिये और मेरे पाप हर लीजिये।

साक्षादधर्मद्रवौघं मुररिपुचरणाम्भोजपीयूषसारं

दुःखस्वाब्धेस्तरित्रं सुरदनुजनुतं स्वर्गसोपानमार्गम्।

सर्वांहोहारि वारि प्रवरगुणगणं भासि या संवहन्ती

तस्यै भागीरथ श्रीमति मुदितमना देवि कुर्वे नमस्ते ॥

श्रीमती भागीरथी देवी! जो जलरूपमें परिणत साक्षात् धर्मकी राशि है, भगवान् विष्णुके चरणारविन्दोंसे प्रकट हुई सुधाका सार है, दुःखरूपी समुद्रसे पार होनेके लिये जहाज है तथा स्वर्गलोकमें जानेके लिये सीढ़ी है, जिसे देवता और दानव भी प्रणाम करते हैं, जो समस्त पापका संहार करनेवाला, उत्तम गुणसमूहसे युक्त और शोभा सम्पन्न है, ऐसे जलको आप धारण करती हैं। मैं प्रसन्नचित्त होकर आपको नमस्कार करता हूँ।

स्वः सिन्धो दुरिताब्धिमग्नजनतासंतारणि प्रोल्लसत्

कल्लोलामलकान्तिनाशिततमस्तोमे जगत्पावनि ।

गङ्गे देवि पुनीहि दुष्कृतभयक्रान्तं कृपाभाजनं

मातम शरणागतं शरणदे रक्षाद्य भो भीषितम् ॥

स्वर्गलोककी नदी भगवती गंगे! आप पापके समुद्रमें डूबी हुई जनताको तारनेवाली हैं, अपनी उठती हुई शोभायुक्त लहरोंकी निर्मल कान्तिसे पापरूपी अन्धकार राशिका नाश करती हैं तथा जगत्को पवित्र करनेवाली हैं; मैं पापके भयसे ग्रस्त और आपका कृपा-भाजन हूँ। शरणदायिनी माता ! आपकी शरणमें आया हूँ; आज मुझ भयभीतकी रक्षा कीजिये।

हं हो मानस कम्पसे किमु सखे त्रस्तो भयान्नारकात्

किं ते भीतिरिति श्रुतिर्दुरितकृत् संजायते नारकी ।

मा भैषीः शृणु मे गतिं यदि मया पापाचलस्पर्धिनी

प्राप्ता ते निरयः कथं किमपरं किं मे न धर्मो धनम् ॥

ऐ मेरे चित्त! ओ मित्र! तुम नरकके भयसे त्रस्त होकर काँप क्यों रहे हो ? क्या तुम्हें यह सोचकर भय हो रहा है कि पापी मनुष्य नरकमें श्रुतिका कथन है। सखे! इसके लिये भय न करो; मेरी क्या गति होगी- यह बताता हूँ, सुनो; यदि मुझे पापके पहाड़से भी टक्कर लेनेवाली भगवती गंगा प्राप्त हो। नयी हैं तो तुम्हें नरककी प्राप्ति कैसे हो सकती है अथवा दूसरी कोई दुर्गति भी क्यों होगी। क्या मेरे पास धर्मरूपी धन नहीं है?

स्वर्वासाधिप्रशंसामुदमनुभवितुं मज्जनं यत्र चोक्तं

स्वर्नार्यो वीक्ष्य हृष्टा विबुधसुरपतिप्राप्तिसंभावनेन ।

नीरे श्रीजनुकन्ये यमनियमरताः स्नान्ति ये तावकीने

देवत्वं ते लभन्ते स्फुटमशुभकृतोऽप्यत्र वेदाः प्रमाणम् ॥

जिस गंगाजीके जलमें किया हुआ स्नान स्वर्ग लोकके निवास तथा प्रशंसाके आनन्दको अनुभूतिका कारण बताया गया है, वहाँ किसीको स्नान करते देख स्वर्गलोककी देवियाँ एक नूतन देवता अथवा इन्द्रके मिलने की संभावनासे बहुत प्रसन्न होती हैं जल्नुपुत्री गंगे जो लोग यम-नियमोंका पालन करते हुए आपके जलमें स्नान करते हैं, वे पहलेके पापी होनेपर भी निश्चय ही देवत्व प्राप्त कर लेते हैं-इस विषयमें वेद प्रमाण हैं।

बुद्धे सद्बुद्धिरेवं भवतु तव सखे मानस स्वस्ति तेऽस्तु

आस्तां पादौ पदस्थौ सततमिह युवां साधुदृष्टी च दृष्टी

वाणि प्राणप्रियेऽधिप्रकटगुणवपुः प्राप्नुहि प्राणपुष्टिं

यस्मात् सर्वर्भवद्भिः सुखमतुलमहं प्राप्नुयां तीर्थपुण्यम् ॥

बुद्धे! सदा इसी प्रकार तुम्हारी सदबुद्धि बनी रहे। सखे मन! तुम्हारा भी कल्याण हो । चरणो ! तुम भी इसी प्रकार योग्य पद (स्थान) पर स्थित रहो। नेत्रो ! तुम दोनों भी उत्तम दृष्टिसे सम्पन्न रहो। वाणी ! तुम प्राणोंकी प्रिया हो तथा प्रकट हुए उत्तम गुणोंसे युक्त शरीर तुम्हारी प्राणशक्तिका पोषण हो क्योंकि तुम सब लोगोंके साथ आज अतुलित सुख प्रदान करनेवाले तीर्थजनित पुण्यको प्राप्त करूँगा ।

श्रीजाह्नवीरविसुतापरमेष्ठिपुत्री

सिन्धुत्रयाभरण तीर्थवर प्रयाग

सर्वेश मामनुगृहाण नयस्व चोर्ध्व

मन्तस्तमोदशविधं दलय स्वधाम्ना ॥

गंगा, यमुना और सरस्वती- इन तीनों नदियोंको आभूषणरूपमें धारण करनेवाले तीर्थराज प्रयाग! सर्वेश्वर ! मुझपर अनुग्रह करो, मुझे ऊँचे उठाओ तथा मेरे अन्तःकरणके दस प्रकारके अविद्यान्धकारको अपने तेजसे नष्ट करो।

वागीशविष्ण्वीशपुरन्दराद्याः

पापप्रणाशाय विदां विदोऽपि

भजन्ति यत्तीरमनीलनीलं

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा इन्द्र आदि देवता और विद्वानोंमें श्रेष्ठ विद्वान् (ऋषि महर्षि) भी जिसके श्वेत-कृष्णजलसे शोभित तटका सेवन करते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो ।

कलिन्दजासङ्गमवाप्य यत्र

प्रत्यागता स्वर्गधुनी धुनोति

अध्यात्मतापत्रितयं जनस्य

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

जहाँ आयी हुई गंगा कलिन्दनन्दिनी यमुनाका संगम पाकर मनुष्योंके आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक इन तीनों तापका नाश करती हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो ।

श्यामो वटो श्यामगुणं वृणोति

स्वच्छायया श्यामलया जनानाम्

श्यामः श्रमं कृन्तति यत्र दृष्टः

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

जहाँ श्यामवट उज्ज्वल गुण धारण करता है तथा दर्शन करनेपर अपनी श्यामल छायासे मनुष्योंके जन्म-मरणरूप श्रमका नाश कर डालता है, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

ब्रह्मादयोऽप्यात्मकृतिं विहाय

भजन्ति पुण्यात्मकभागधेयम् ।

यत्रोज्झता दण्डधरः स्वदण्ड

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

ब्रह्मा आदि देवता भी अपना काम छोड़कर जिस पुण्यमय सौभाग्यसे युक्त तीर्थका सेवन करते हैं तथा जहाँ दण्डधारी यमराज भी अपना दण्ड त्याग देते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

यत्सेवया देवन्देवतादि

देवर्षयः प्रत्यहमामनन्ति

स्वर्ग च सर्वोत्तमभूमिराज्यं

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

देवता, मनुष्य, ब्राह्मण तथा देवर्षि भी प्रतिदिन जिसके सेवनसे स्वर्ग एवं सर्वोत्तम भूमण्डलका राज्य प्राप्त करते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

एनांसि हन्तीति प्रसिद्धवार्ता

नामप्रतापेन दिशो द्रवन्ती

यस्य त्रिलोकी प्रतता यशोभिः

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

प्रयाग अपने नामके प्रतापसे समस्त पापका नाश कर डालता है, यह प्रसिद्ध वार्ता सम्पूर्ण दिशाओंमें फैली हुई है। जिसके सुयशसे सारी त्रिलोकी आच्छादित है, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

धत्तोऽभितश्चामरचारुकान्ती

सितासिते यत्र सरिद्वरेण्ये

आद्यो वटश्छत्रमिवातिभाति

स तीर्थराजो जयति प्रयागः

जहाँ दोनों किनारे श्याम और श्वेत सलिलसेसुशोभित दो श्रेष्ठ सरिताएँ यमुना और गंगा चैवरकी मनोहर कान्ति धारण कर रही हैं और आदि वट (अक्षयवट) छत्रके समान सुशोभित होता है, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

ब्राह्मीनपुत्रीप्रियथास्त्रिवेणी

समागमेनाक्षतयागमात्रान्

यत्राप्लुतान् ब्रह्मपदं नयन्ति

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

सरस्वती, यमुना और गंगा-ये तीन नदियाँ जहाँ डुबकी लगानेवाले मनुष्योंको, जो त्रिवेणी संगमके सम्पर्क से अक्षत यागफलको प्राप्त हो चुके हैं, ब्रह्मलोकमें पहुंचा देती हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

केषाञ्चिज्जन्मकोटिर्व्रजति सुवचसा यामि यामीति

यस्मिन् केात्प्रोषितानां नियतमतिपतेद् वर्षवृन्दं वरिष्ठम्।

यः प्राप्तो भाग्यलक्षैर्भवति भवति नो वा स वाचामवाच्यो

दिष्ट्या वेणीविशिष्टो भवति दूगतिथिः किं प्रयागः प्रयागः ॥

'मैं प्रयागमें जाऊँगा, जाऊँगा' इन सुन्दर बातोंमें ही कितने ही लोगोंके करोड़ों जन्म बीत जाते हैं [ और प्रयागकी यात्रा सुलभ नहीं होती]। कुछ लोग घरसे चल तो देते हैं, पर मार्गमें ही फँस जानेके कारण उनके अनेकों वर्ष समाप्त हो जाते हैं। लाखों बार भाग्यकी सहायता होनेपर भी जो कभी प्राप्त होता है और कभी नहीं भी होता, वह त्रिवेणी संगम विशिष्ट उत्तम यज्ञभूमि प्रयाग वाणीसे परे है। क्या मेरा ऐसा भाग्य है कि वह मेरे नेत्रोंका अतिथि हो सके ?

लोकानामक्षमाणां मखकृतिषु कली स्वर्गकामैर्जपस्तु

त्यादिस्तोत्रैर्वचोभिः कथममरपदप्राप्तिचिन्तातुराणाम् ।

अग्निष्टोमाश्वमेधप्रमुखमखफलं सम्यगालोच्य साई

ब्रह्माद्यैस्तीर्थराजोऽभिमतद उपदिष्टोऽयमेव प्रयागः ॥

कलियुगमें मनुष्य स्वर्गको इच्छा होते हुए भी यज्ञ-यागादि करनेमें असमर्थ होनेके कारण जप, स्तुति, स्तोत्र एवं पाठ आदिके द्वारा किस प्रकार अमरपदकी प्राप्ति हो इस चिन्तासे आतुर होंगे उनको अंगसहित अग्निष्टोम और अश्वमेध आदि यज्ञका फल कैसे मिले इसकी भलीभाँति आलोचना करके ब्रह्मा आदि देवताओंने इस तीर्थराज प्रयागको ही सब प्रकारके अभीष्ट फलोंका दाता बताया है।

मया प्रमादातुरतादिदोषतः

संध्याविधिनों समुपासितोऽभूत् ।

चेदत्र संध्यां चरतोऽप्रमादतः

संध्यास्तु पूर्णाखिलजन्मनोऽपि मे ॥

यदि मैंने प्रमाद और आतुरता आदि दोषोंके कारण भलीभाँति संध्योपासना नहीं की है तो यहाँ सावधानतापूर्वक संध्या करनेसे मेरे सम्पूर्ण जन्मकी संध्योपासना पूर्ण हो जाय।

अन्यापि प्रगर्जन्यमिनि तपसि प्रेमिभिर्विप्रकृष्ट

र्थ्यातः संकीर्तितो योऽभिमतपदविधातानिशं निर्व्यपेक्षम् ।

श्रीमत्पांशुं त्रिवेणीपरिवृढमतुलं तीर्थराज प्रयागं

गोऽलंकारप्रकाशं स्वयममरवरैश्चार्चितं तं नमामि

जो माघमासमें अपनी महिमाके विषयमें अन्यत्र भी गर्जना करता है, प्रेमीजनोंके दूरसे भी अपना ध्यान और कीर्तन करनेपर जो बिना किसीकी सहायताके निरन्तर अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला है, जिसकी धूलिराशि शोभासे सम्पन्न है, जो त्रिवेणीका स्वामी है, जिसकी संसारमें कहीं भी तुलना नहीं है तथा जिसका दिव्य स्वरूप अंशुमाली सूर्यके समान प्रकाशमान है, उस श्रेष्ठ देवताओंद्वारा पूजित तीर्थराज प्रयागको मैं प्रणाम करता हूँ।

अस्माभिः सुतपोऽन्वतापि किमोऽबन्धन्त किं वाध्वराः

पात्रे दानमदायि किं बहुविधं किं वा सुराश्चार्चिताः

किं सत्तीर्थमसेवि किं द्विजकुलं पूजादिभिः सत्कृतं

येन प्राप सदाशिवस्य शिवदा सा राजधानी स्वयम् ॥

अहो! हमलोगोंने क्या कोई उत्तम तपस्या की थी? अथवा यज्ञोंका अनुष्ठान किया था? या किसी सुपात्रको नाना प्रकारकी वस्तुओंका दान दिया था ? अथवा देवताओंकी पूजा की थी? या किसी उत्तम तीर्थका सेवन किया था? अथवा ब्राह्मणवंशका पूजा आदिके द्वारा सत्कार किया था, जिससे भगवान् सदाशिवकी यह कल्याणदायिनी राजधानी काशी हमें स्वयं ही प्राप्त हो गयी !

भाग्यैर्मेऽधिगता ह्यनेकजनुषां सर्वाघविध्वंसिनी

सर्वाश्चर्यमयी मया शिवपुरी संसारसिन्धोस्तरी ।

लब्धं तज्जनुषः फलं कुलमलंचक्रे पवित्रीकृतः स्वात्मा

चाप्यखिलं कृतं किमपरं सर्वोपरिष्टात् स्थितम् ॥

मेरे बड़े भाग्य थे, जो अनेक जन्मोंकी पापराशिका विध्वंस करनेवाली संसार-समुद्रके लिये नौकारूपा यह सर्वाश्चर्यमयी शिवपुरी मुझे प्राप्त हुई। इससे जन्म लेनेका फल मिल गया। मेरे कुलकी शोभा बढ़ गयी। मेरी अन्तरात्मा पवित्र हो गयी तथा मेरे सम्पूर्ण कर्तव्य पूर्ण हो गये। अधिक क्या कहूँ, अब मैं सर्वोपरि पदपर प्रतिष्ठित हो गया।

जीवन्नरः पश्यति भट्टलक्षमेवं वदन्तीति मृषा न यस्मात् ।

तस्मान्मया वै वपुषेदृशेन प्राप्तापि काशी क्षणभङ्गुरेण ॥

मनुष्य जीवित रहे तो वह लाखों कल्याणकी बातें देखता है-ऐसी जो किंवदन्ती है, वह झूठी नहीं है; इसीलिये मैंने इस क्षणभंगुर शरीरसे भी काशी जैसी पुरीको प्राप्त कर लिया।

काश्यां विधातुममरैरपि दिव्यभूमौ

सत्तीर्थलिङ्गगणनार्चनतो न शक्या

यानीह गुप्तविवृतानि पुरातनानि

सिद्धानि योजितकरः प्रणमामि तेभ्यः ॥

काशीपुरीकी दिव्य भूमिमें कितने उत्तम तीर्थ और लिंग हैं, उनकी पूजनपूर्वक गणना करना देवताओंके लिये भी असंभव है। यहाँ गुप्त और प्रकटरूपसे जो-जो पुरातन सिद्धपीठ हैं, उन्हें मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

किं भीत्या दुरितात्कृतात् किमु मुदा पुण्यैरगण्यैः कृतः

किं विद्याभ्यसनान्यदेन जडवादोषाद विषादेन किम्।

किं गर्वेण धनोदयादधनतातापेन किं भो जनाः

स्नात्वा श्रीमणिकर्णिकापयसि चेद् विश्वेश्वरो दृश्यते ।।

मनुष्यो। यदि श्रीमणिकर्णिकाके जलमें स्नान करके भगवान् विश्वनाथजीका दर्शन किया जाता हो तो पूर्वकृत पापोंसे भयकी क्या आवश्यकता है। अथवा किये हुए अगणित पुण्योंद्वारा प्राप्त होनेवाले आनन्दसे भी क्या लेना है। विद्याभ्यासको लेकर घमंड या मूर्खताके लिये खेद करनेसे क्या लाभ है? धनकी प्राप्तिसे होनेवाले गर्व तथा निर्धनता के कारण होनेवाले संतापसे भी क्या प्रयोजन है।

अल्पस्फीतिनिरामयापि तनुताप्रव्यक्तशक्त्यात्मता

प्रोत्साहाढ्यबलेन केवलमनोरागद्वितीयेन यत् ।

अप्राप्यापि मनोरथैरविषया स्वप्नप्रवृत्तेरपि

प्राप्ता साथि गदाधरस्य नगरी सद्यो ऽपवर्गप्रदा ॥

जो स्वल्प समृद्धिसे युक्त होनेपर भी निरामय (नाशरहित) है, सूक्ष्मताके द्वारा ही जो अपनी शक्तिशालिता सूचित कर रही है, अप्राप्य होनेपर भी जो उत्साहयुक्त बल तथा विशुद्ध अनुरागसे प्राप्त होती है, मनोरथोंकी भी जहाँतक पहुँच नहीं है, जो स्वप्नमें भी सुलभ नहीं होती, वह तत्काल मोक्ष प्रदान करनेवाली भगवान् गदाधरकी नगरी गया आज मुझे प्राप्त हुई है।

मन्ये नात्मकृतिर्न पूर्वपुरुषप्राप्तेर्बलं चात्र

नापीदं स्वजनप्रमाणमचलं किं शापतापादिकम्

या दुष्प्रापगयाप्रयागयमुनाकाशीषु पर्वागमात्

प्राप्तिस्तत्र महाफलो विजयते श्रीशारदानुग्रहः ॥

कोई पुण्यपर्व आनेपर जो गया, प्रयाग, यमुना और काशी आदि दुर्लभ तीर्थोंमें आनेका सौभाग्य प्राप्त होता है, उसमें महान् फलदायक भगवती शारदाका अनुग्रह ही एकमात्र कारण है; उसीकी विजय है। मैं इसे अपना पुरुषार्थ नहीं मानता। पूर्वजोंने जो यहाँ आकर पुण्योपार्जन किया है, उसका बल भी इसमें सहायक नहीं है तथा स्वजनवर्गकी अविचल शक्ति भी इसमें कारण नहीं है। इन तीर्थोंमें आनेपर शाप-ताप आदि क्या कर सकते हैं l

यः श्राद्धसमये दूरात्स्मृतोऽपि पितृमुक्तिदः ।

तं गवायां स्थितं साक्षान्नमामि श्रीगदाधरम् ॥

जो श्राद्ध कालमें दूरसे स्मरण करनेपर भी पितरोंको मोक्ष प्रदान करते हैं, गयामें स्थित उन साक्षात् भगवान् श्रीगदाधरको मैं प्रणाम करता हूँ।

पन्थानं समतीत्य दुस्तरमिमं दूराद्दवीयस्तरं

क्षुद्रव्याघ्रतरक्षुकण्टकफणिप्रत्यर्थिभिः संकुलम

आगत्य प्रथमं ह्ययं कृपणवाग् याचेज्जनः कं परं

श्रीमद्वारि गदाधर प्रतिदिनं त्वां द्रष्टुमुत्कण्ठते ॥

भगवान् गदाधर! यह आपका दास मक्खी, मच्छर, बाघ, चीते, काँटे, सर्प तथा लुटेरोंसे भरे हुए इस दुस्तर मार्गको, जो दूरसे भी दूर पड़ता है, तै करके पहले-पहल यहाँ आया है और दीन वाणीमें आपसे याचना करता है। भला आपके सिवा और किसके सामने यह हाथ फैलाये। भगवन्! यह सेवक प्रतिदिन आपके शोभासम्पन्न द्वारपर आकर दर्शनके लिये उत्कण्ठित रहता है।

सर्वात्मनिदर्शनेन च गया श्राद्धेन वै देवतान्

प्रीणन् विश्वमनीहवत् कथमिहौदासीन्यमालम्बसे ।

किं ते सर्वद निर्दयत्वमधुना किं वा प्रभुत्वं कलेः

किं वा सत्त्वनिरीक्षणं नृषु चिरं किं वास्य सेवारुचिः ॥

सर्वात्मन्। आप अपने दर्शनसे तथा गयामें किये जानेवाले श्रद्धसे देवताओं सहित सम्पूर्ण विश्वको तृप्त करते हैं; फिर मेरे सामने क्यों निश्चेष्ट से होकर उदासीन भाव धारण कर रहे हैं? भक्तको सर्वस्व देनेवाले दयामय! क्या इस समय आपने निर्दयता धारण कर ली है ? या यह कलियुगका प्रभाव है? अथवा देर लगाकर आप मनुष्यों के सत्य (शुद्ध भाव एवं धैर्य) की परीक्षा ले रहे हैं या इस दासकी भगवत्सेवामें कितनी रुचि है, इसका निरीक्षण कर रहे हैं?

गदाधर मया श्राद्धं यच्चीर्णं त्वत्प्रसादतः ।

अनुजानीहि मां देव गमनाय गृहं प्रति ॥

गदाधर! आपकी कृपासे मैंने यहाँ श्राद्धका अनुष्ठान किया है; [इसे स्वीकार कीजिये और ] देव! अब मुझे घर जानेकी आज्ञा दीजिये ।

एवं हि देवतानां च स्तोत्रं स्वर्गार्थदायकम् ।

श्राद्धकाले पठेन्नित्यं स्नानकाले तु यः पठेत् ॥

सर्वतीर्थस स्नानं श्रवणात्पठनाज्जपात् ॥

प्रयागस्य च गङ्गाया यमुनायाः स्तुतेर्द्विज ।

श्रवणेन विनश्यन्ति दोषाश्चैव तु कर्मजाः ॥

(23 । 51, 53, 54)

इस प्रकार यह देवताओंका स्तोत्र स्वर्ग एवं अभीष्ट वस्तु प्रदान करनेवाला है जो मनुष्य श्राद्धकालमें तथा प्रतिदिन स्नान के समय इसका पाठ करता है, उसे सब तीर्थोंमें स्नानके समान पुण्य होता है। इसके श्रवण, पाठ तथा जपसे उक्त फलकी सिद्धि होती है। ब्रह्मन् प्रयाग, गंगा तथा यमुनाकी स्तुतिका श्रवण करनेसे कर्मजन्य दोष नष्ट हो जाते हैं।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार