पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर भगवान् शंकर पार्वती देवीके साथ नगरके रमणीय उद्यानों तथा एकान्त वनोंमें विहार करने लगे। देवीके प्रति उनके हृदयमें बड़ा अनुराग था। एक समयकी बात है— गिरिजाने सुगन्धित तेल और चूर्णसे अपने शरीरमें उबटन लगवाया और उससे जो मैल गिरा, उसे हाथमें उठाकर उन्होंने एक पुरुषकी आकृति बनायी, जिसका मुँह हाथीके समान था; फिर खेलकरते हुए भगवती शिवाने उसे गंगाजीके जलमें डाल दिया। गंगाजी पार्वतीको अपनी सखी मानती थीं। उनके जलमें पड़ते ही वह पुरुष बढ़कर विशालकाय हो गया। पार्वती देवीने उसे पुत्र कहकर पुकारा। फिर गंगाजीने भी पुत्र कहकर सम्बोधित किया। देवताओंने गांगेय कहकर सम्मानित किया। इस प्रकार गजानन देवताओंके द्वारा पूजित हुए । ब्रह्माजीने उन्हें गणोंका आधिपत्य प्रदान किया।तत्पश्चात् परम सुन्दरी शिवा देवीने खेलमें ही एक वृक्ष बनाया। उससे अशोकका मनोहर अंकुर फूट निकला। सुन्दर मुखवाली पार्वतीने उसका मंगल संस्कार किया तब इन्द्रके पुरोहित बृहस्पति आदि ब्राह्मणों, देवताओं तथा मुनियोंने कहा-'देवि बताइये, वृक्षोंके पौधे लगानेसे क्या फल होगा?' यह सुनकर ती देवीका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा, वे अत्यन्त कल्याणमय वचन बोलीं- 'जो विज्ञ पुरुष ऐसे गाँव जहाँ जलका अभाव हो, कुआँ बनवाता है, वह उसके जलकी जितनी बूँदें हों उतने वर्षतक स्वर्गमें निवास करता है। दस कुओंके समान एक बावली, दस बावलियोंके समान एक सरोवर, दस सरोवरोंके समान एक कन्या और दस कन्याओंके समान एक वृक्ष लगानेका फल होता है। यह शुभ मर्यादा नियत हैं। यह लोकको उन्नतिके पथपर ले जानेवाली है।' माता पार्वती देवीके यों कहनेपर बृहस्पति आदि ब्राह्मण उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने निवासस्थानको चले गये। उनके जानेके पश्चात् भगवान् शंकर पार्वतीके साथ अपने भवनमें गये। उस भवनमें चित्तको प्रसन्न करनेवाले ऊँचे-ऊँचे चौबारे, अटारियाँ और गोपुर बने थे वेदियोंपर मालाएँ शोभा पा रही थीं। सब ओर सोना जड़ा था। महलमें पुष्प बिखेरे हुए थे, जिनकी सुगन्धसे उन्मत्त होकर भ्रमरगण गुंजार कर रहे थे। उस भवनमें भगवान् श्रीशंकरको पार्वतीजी के साथ निवास करते एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये। तब देवताओंने उतावले होकर अग्निदेवको श्रीशंकरजीकी चेष्टा जाननेके लिये भेजा अग्निने तोतेका रूप धारण करके, जिससे पक्षी आते-जाते थे, उसी छिद्रके द्वारा शंकरजीके महलमें प्रवेश किया और उन्हें गिरिजाके साथ एक शय्यापर सोते देखा। तत्पश्चात् देवी पार्वती शय्यासे उठकर कौतूहलवश एक सरोवरके तटपर गयीं, जो सुवर्णमय कमलोंसे सुशोभित था। वहाँ जाकर उन्होंने जलविहार किया। तदनन्तर वे सखियोंके साथ सरोवरके किनारे बैठीं और उसके निर्मल पंकजसे सुशोभित स्वादिष्ट जलको पौनेकी इच्छा करने लगीं। इतनेमें ही उन्हेंसूर्यके समान तेजस्विनी छः कृतिकाएँ दिखायी दीं। वे कमलके पत्तेमें उस सरोवरका जल लेकर जब अपने घरको जाने लगीं, तब पार्वती देवीने हमें भरकर कहा – 'देवियो! कमलके पत्तेमें रखे हुए जलको मैं भी देखना चाहती हूँ।' ये बोलीं- 'सुमुखि । हम तुम्हें इसी शर्तपर जल दे सकती हैं कि तुम्हारे प्रिय गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हो, वह हमारा भी पुत्र माना जाय एवं हममें भी मातृभाव रखनेवाला तथा हमारा रक्षक हो। वह पुत्र तीनों लोकोंमें विख्यात होगा।' उनकी बात सुनकर गिरिजाने कहा- 'अच्छा, ऐसा ही हो।' यह उत्तर पाकर कृतिकाओंको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने कमल-पत्रमें स्थित जलमेंसे थोड़ा पार्वतीजीको भी दे दिया। उनके साथ पार्वतीने भी क्रमशः उस जलका पान किया।
जल पीनेके बाद तुरंत ही रोग-शोकका नाश करनेवाला एक सुन्दर और अद्भुत बालक भगवती पार्वतीकी दाहिनी कोख फाड़कर निकल आया। उसका शरीर सूर्यकी किरणोंके समान प्रकाश-पुंजसे व्याप्त था। उसने अपने हाथमें तीक्ष्ण शक्ति, शूल और अंकुश धारण कर रखे थे। वह अग्निके समान तेजस्वी और सुवर्णके समान गोरे रंगका बालक कुत्सित दैत्योंको मारनेके लिये प्रकट हुआ था; इसलिये उसका नाम 'कुमार' हुआ। वह कृत्तिकाके दिये हुए जलसे शाखाओंसहित प्रकट हुआ था। वे कल्याणमयी शाखाएँ छहाँ मुखोंके रूपमें विस्तृत थीं; इन्हीं सब कारणोंसे वह तीनों लोकोंमें विशाख, षण्मुख, स्कन्द षडानन और कार्तिकेय आदि नामोंसे विख्यात हुआ। ब्रह्मा, श्रीविष्णु, इन्द्र और सूर्य आदि समस्त देवताओंने चन्दन, माला, सुन्दर धूप, खिलौने, छत्र, चंवर, भूषण और अंगराग आदिके द्वारा कुमार षडाननको सावधानी के साथ विधिपूर्वक सेनापतिके पदपर अभिषिक्त किया। भगवान् श्रीविष्णुने सब तरहके आयुध प्रदान किये। धनाध्यक्ष कुबेरने दस लाख यक्षोंकी सेना दी। अग्निने तेज और वायुने वाहन अर्पित किये। इस प्रकार देवताओंने प्रसन्न चिससे सूर्यके समान तेजस्वी स्कन्दको अनन्त पदार्थदिये । तत्पश्चात् वे सब पृथ्वीपर घुटने टेककर बैठ गये और स्तोत्र पढ़कर वरदायक देवता पहाननकी स्तुति करने लगे। स्तुति पूर्ण होनेके पश्चात् कुमारने कहा-'देवताओ! आपलोग शान्त होकर बताइये, मैं आपकी कौन-सी इच्छा पूरी करूँ? यदि आपके मनमें चिरकालसे कोई असाध्य कार्य करनेकी भी इच्छा हो तो कहिये।'
देवता बोले- कुमार। तारक नामसे प्रसिद्ध एक दैत्योंका राजा है, जो सम्पूर्ण देवकुलका अन्त कर रहा है। वह बलवान्, अजेय, तीखे स्वभाववाला, दुराचारी और अत्यन्त क्रोधी है। सबका नाश करनेवाला और दुर्दमनीय है। अतः आप उस दैत्यका वध कीजिये। यही एक कार्य शेष रह गया है, जो हमलोगोंको बहुत ही भयभीत कर रहा है।
देवताओंके यों कहनेपर कुमारने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और जगत्के लिये कण्टकरूप तारकासुरका वध करनेके लिये वे देवताओंके पीछे पीछे चले। उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। तदनन्तर कुमारका आश्रय मिल जानेके कारण इन्द्रने दानवराज तारकके पास अपना दूत भेजा। वहाँ जाकर दूतने उस भयानक आकृतिवाले दैत्यसे निर्भयतापूर्वक कहा- 'तारकासुर! देवराज इन्द्रने तुम्हें यह कहलाया है कि देवता तुमसे युद्ध करने आ रहे हैं, तुम अपनी शक्तिभर प्राण बचानेकी चेष्टा करो।' यों कहकर जब दूत चला गया, तब दानवने सोचा, हो न हो, इन्द्रको कोई आश्रय अवश्य मिल गया है, अन्यथा वे ऐसी बात नहीं कह सकते थे। इन्द्र मुझपर आक्रमण करने आ रहे हैं। वह सोचने लगा, 'ऐसा कौन अपूर्व योद्धा होगा, जिसे मैंने अबतक परास्त नहीं किया है।' तारकासुर इसी चिन्तामें व्याकुल हो रहा था, इतनेमें ही उसे सिद्ध वन्दियोंके द्वारा गाया जाता हुआ किसीका यशोगान सुनायी पड़ा, जो हृदयको दुःखद प्रतीत होता था, जिसके अक्षर कड़वे जान पड़ते थे। बन्दीगण कह रहे थे महासेन! आपकी जय हो आपके मस्तककी चंचल शिखाएँ बड़ी सुन्दरदिखायी देती हैं विग्रहको कान्ति नूतन एवं निर्मल कमलदलके समान मनोरम जान पड़ती है। आप दैत्यवंशके लिये दुःसह दावानलके समान हैं। प्रभो! विशाख! आपकी जय हो। तीनों लोकोंके शोकको शमन करनेवाले सात दिनकी अवस्थाक बालक! आपकी जय हो। सम्पूर्ण विश्वकी रक्षाका भार वहन करनेवाले दैत्यविनाशक स्कन्द! आपकी जय हो।
देववन्दियद्वारा उच्चारित यह विजयघोष सुनकर तारकासुरको ब्रह्माजीके वचनका स्मरण हो आया। बालकके हाथसे वध होनेकी बात याद करके वह दैत्य शोकाकुल हृदयसे अपने महलके बाहर निकला। उस समय बहुत से वीर उसके पीछे पीछे चल रहे थे। कालनेमि आदि दैत्य भी थर्रा उठे। उनका हृदय भयभीत हो गया। वे अपनी-अपनी सेनामें खड़े होकर व्यग्रता के कारण चकित हो रहे थे तारकासुरने कुमारको सामने देखकर कहा - 'बालक! तू क्यों युद्ध करना चाहता है? जा, गेंद लेकर खेल। तेरे ऊपर जो यह महान् बुद्धकी विभीषिका लादी गयी है, यह तेरे साथ बड़ा अन्याय किया गया है। तू अभी निरा बच्चा है इसीलिये तेरी बुद्धि इतनी अल्प समझ रखनेवाली है।'
कुमार बोले- तारक सुनो, यहाँ [ अधिक बुद्धि लेकर] शास्त्रार्थ नहीं करना है। भयंकर संग्राममें शस्त्रोंके द्वारा ही अर्थकी सिद्धि होती है (बुद्धिके द्वारा नहीं ]। तुम मुझे शिशु समझकर मेरी अवहेलना न करो। साँपका नन्हा सा बच्चा भी मौतका कष्ट देनेवाला होता है। [प्रभातकालके] बाल-सूर्यकी ओर देखना भी कठिन होता है। इसी प्रकार मैं बालक होनेपर भी दुर्जव हूँ-मुझे परास्त करना कठिन है। दैत्य | क्या थोड़े अक्षरोंवाले मन्त्रमें अद्भुत शक्ति नहीं देखी जाती ?
कुमारकी यह बात समाप्त होते ही दैत्यने उनके ऊपर मुद्गरका प्रहार किया। परन्तु उन्होंने अमोघ तेजवाले चक्रके द्वारा उस भयंकर अस्त्रको नष्ट कर दिया। तब दैत्यराजने लोहेका भिन्दिपाल चलाया, किन्तु कार्तिकेयने उसको अपने हाथसे पकड़ लिया। इसकेबाद उन्होंने भी दैत्यको लक्ष्य करके भयानक आवाज करनेवाली गदा चलायी; उसकी चोट खाकर वह पर्वताकार दैत्य तिलमिला उठा। अब उसे विश्वास हो । गया कि यह बालक दुःसह एवं दुर्जय वीर है। उसने बुद्धिसे सोचा, अब निःसन्देह मेरा काल आ पहुँचा है। उसे कम्पित होते देख कालनेमि आदि सभी दैत्यपति संग्राममें कठोरता धारण करनेवाले कुमारको मारने लगे। परन्तु महातेजस्वी कार्तिकेयको उनके प्रहार और विभीषिकाएँ छू भी नहीं सकीं। उन्होंने दानव सेनाको अस्त्र-शस्त्रोंसे विदीर्ण करना आरम्भ किया। उनके अस्त्रोंका कोई निवारण नहीं हो पाता था। उनकी मार खाकर कालनेमि आदि देवशत्रु युद्धसे विमुख होकर भाग चले।
इस प्रकार जब दैत्यगण आहत होकर चारों ओर भाग गये और किन्नरगण विजय गीत गाने लगे. उस समय अपना उपहास जानकर तारकासुर क्रोधसे अचेत-सा हो गया। उसने तपाये हुए सोनेकी कान्तिसे सुशोभित गदा लेकर कुमारपर प्रहार किया और विचित्र बाणोंसे मारकर उनके वाहन मयूरको युद्धसे भगा दिया। अपने वाहनको रक्त बहाते हुए भागते देख कार्तिकेयने सुवर्णभूषित निर्मल शक्ति हाथमें ली और दानवराज तारकसे कहा- 'खोटी बुद्धिवाले दैत्य । खड़ा रह, खड़ा रह; जीते-जी इस संसारको भर आँख देख ले। अब मैं अपनी शक्तिके द्वारा तेरे प्राण ले रहा हूँ, तू अपने कुकर्मोंको याद कर।' यों कहकर कुमारने दैत्यके ऊपर शक्तिका प्रहार किया। कुमारकी भुजासे छूटी हुई वह शक्ति केयूरकी खनखनाहटके साथ चली और दैत्यकी छातीमें, जो वज्र तथा गिरिराजके समान कठोर थी, जा लगी। उसने तारकासुरके हृदयको चीर डाला और वहदैत्य निष्प्राण होकर प्रलयकालीन पर्वतके समान धरतीपर गिर पड़ा। दानवोंके धुरन्धर वीर दैत्यराज तारकके मारे जानेपर सबका दुःख दूर हो गया। देवतालोग कार्तिकेयजीकी स्तुति करते हुए क्रीडामें मग्न हो गये, उनके मुखपर मुसकान छा गयी। वे अपनी मानसिक चिन्ताका परित्याग करके हर्षपूर्वक अपने-अपने लोकमें गये। सबने कार्तिकेयजीको वरदान दिये।
देवता बोले- जो परम बुद्धिमान् मनुष्य कार्तिकेयजीसे सम्बन्ध रखनेवाली इस कथाको पढ़ेगा, सुनेगा अथवा सुनायेगा, वह यशस्वी होगा। उसकी आयु बढ़ेगी; वह सौभाग्यशाली, श्रीसम्पन्न, कान्तिमान्, सुन्दर, समस्त प्राणियोंसे निर्भय तथा सब दुःखोंसे मुक्त होगा।