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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 179 - Khand 5, Adhyaya 179

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गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन

श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! अब मैं गण्डकी नदीके माहात्म्यका विधिपूर्वक वर्णन करूँगा। पार्वती ! गंगाका जैसा माहात्म्य है, वैसा ही गण्डकी नदीका भी बताया गया है। जहाँसे नाना प्रकारकी शालग्राम शिला प्रकट होती है, उस गण्डकी नदीकी महिमाका बड़े बड़े मुनियोंने वर्णन किया है। अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज और जरायुज- सभी प्राणी उसके दर्शनमात्रसे पवित्र हो जाते हैं। महानदी गण्डकी उत्तरमें प्रकट हुई है। गिरिजे! वह स्मरण करनेपर निश्चय ही सब पापोंका नाश कर देती है। वहाँ कल्याण प्रदान करनेवाले भगवान् नारायण सदा विद्यमान रहते हैं, ऋषियोंका भी वहाँ निवास है तथा सम्पूर्ण देवता, रुद्र, नाग और यक्ष विशेषरूपसे वहाँ रहा करते हैं। उस स्थलपर भगवान्को अनेक रूपवाली और सुखदायिनी चौबीस अवतारोंकी मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। एक मत्स्यरूप है, दूसरी कच्छपरूप; इसी प्रकार वाराह, मुसिंह और वामनकी भी कल्याणदायिनी मूर्तियाँ हैं। श्रीराम, परशुराम तथा श्रीकृष्णकी भी मोक्षदायिनी मूर्ति देखी जाती है। श्रीविष्णुनामसे प्रसिद्ध उस स्थलपर उपर्युक्त मूर्तियोंके सिवा बुद्धकी मूर्ति भी बतायी गयी है। कल्कि और महर्षि कपिलकी भी पुण्यमयी मूर्ति उपलब्ध होती है, इनके सिवा और भी भाँति-भाँतिके अकारवाली बहुत-सी मूर्तियाँ देखी जाती हैं। उन सबके अनेक रूप हैं और उनकी संख्या भी बहुत वह गण्डकी नामको गंगा परम पुण्यमयी तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली है। उस भूमिपर आज भी मेरे साथ भगवान् हृषीकेश नियमपूर्वक निवास करते हैं, उसके जलका स्पर्श करनेमात्रसे मनुष्य भ्रूणहत्या, बालहत्या और गोहत्या आदि समस्त पापसे मुक्त हो जाता है।

गण्डकी नदीके जलका दर्शन करनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य जातिके मनुष्य-सभी निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं; विशेषतः पापियोंके लिये तो यह शिके समान पुण्यमयी है। जहाँ ब्रह्महत्या की भी मुक्ति हो जाती है, वहाँ औरोंके लिये क्या कहना है?पार्वती! मैं सदा हर समय वहाँ जाता रहता हूँ; वह तीर्थोंमें तीर्थराज है- यह बात ब्रह्माजीने कही थी। मुनियोंने वहाँ स्नान और दानका विधान किया है। भगवान् विष्णुद्वारा पूर्वकालमें निर्मित हुआ वह क्षेत्र महान् से महान् है। वह वैष्णव पुरुषोंको उत्तम गति प्रदान करनेवाला और परम पावन माना गया है। देवि! इस संसार में मनुष्यका जन्म सदा दुर्लभ है; उसमें भी गण्डकी नदीका तीर्थ और वहाँ भी श्रीविष्णुक्षेत्र अत्यन्त दुर्लभ है। अतः श्रेष्ठ द्विजोंको आषाढ़ मासमें वहाँकी यात्रा करनी चाहिये। वरानने। मैं बारंबार कहता हूँ कि गण्डकीके समान कोई तीर्थ, द्वादशीके तुल्य कोई व्रत और श्रीविष्णुसे भिन्न कोई देवता नहीं है। जो नरश्रेष्ठ गण्डकी नदीका माहात्म्य श्रवण करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुधामको जाते हैं।

महादेव उवाच

शृणु सुन्दरि वक्ष्यामि स्तोत्रं चाभ्युदयं ततः ।

यच्छ्रुत्वा मुच्यते पापी ब्रह्महा नात्र संशयः ॥ 1 ॥

धाता वै नारदं प्राह तदहं तु ब्रवीमि ते ।

तमुवाच ततो स्वयम्भूरमितद्युतिः ॥ 2 ॥

प्रगृह्य रुचिरं बाहुं स्मारये चौर्ध्वदेहिकम्। देवः

महादेवजी कहते हैं— सुन्दरी! सुनो, अब मैं अभ्युदयकारी स्तोत्रका वर्णन करूँगा, जिसे सुनकर ब्रह्महत्यारा भी निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। ब्रह्माजीने देवर्षि नारदसे इस स्तोत्रका वर्णन किया था, वही मैं तुम्हें बताता हूँ। [पूर्वकालमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजी जब रावणका वध कर चुके, उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति करनेके लिये आये। उसी अवसरपर ] अमिततेजस्वी भगवान् ब्रह्माने श्रीरघुनाथजीकी सुन्दर बाँह हाथमें लेकर जो उनकी स्तुति की थी, वह 'और्ध्वदैहिक स्तोत्र' के नामसे प्रसिद्ध है। आज मैं उसीको स्मरण करके तुमसे कहता हूँ।

भवान्नारायणः श्रीमान् देवश्चक्रायुधो हरिः ॥ 3 ॥

शार्ङ्गधारी हृषीकेशः पुराणपुरुषोत्तमः ।

अजितः खङ्गभिज्जिष्णुः कृष्णश्चैव सनातनः ॥ 4 ॥

एकशृङ्गो वराहस्त्वं भूतभव्यभवात्मकः ।

अक्षरं ब्रह्म सत्यं तु आदौ चान्ते च राघव ॥ 5 ॥

लोकानां त्वं परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः

सेनानी रक्षणस्त्वं च वैकुण्ठस्त्वं जगत्प्रभो ॥ 6 ॥

श्रीब्रह्माजी बोले- श्रीरघुनन्दन! आप समस्त जीवके आश्रयभूत नारायण, लक्ष्मीसे युक्त, स्वयंप्रकाश एवं सुदर्शन नामक चक्र धारण करनेवाले श्रीहरि हैं। शार्ङ्ग नामक धनुषको धारण करनेवाले भी आप ही उ हैं। आप ही इन्द्रियोंके स्वामी एवं पुराणप्रतिपादित पुरुषोत्तम हैं। आप कभी किसीसे भी परास्त नहीं होते। शत्रुओंकी तलवारोंको ट्रक-टूक करनेवाले, 3 विजयी और सदा एकरस रहनेवाले-सनातन देवता सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण भी आप ही हैं। आप एक दाँतवाले भगवान् वराह हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल आपके ही रूप हैं। श्रीरघुनन्दन! इस विश्वके आदि, मध्य और अन्तमें जो सत्यस्वरूप अविनाशी परब्रह्म स्थित है, वह आप ही हैं। आप ही लोकोंके परम धर्म हैं। आपको युद्धके लिये तैयार होते देख दैत्योंकी सेना चारों ओर भाग खड़ी होती है, इसीलिये आप विष्वक्सेन कहलाते हैं। आप ही

चार भुजा धारण करनेवाले श्रीविष्णु हैं।

प्रभवश्चाव्ययस्त्वं च उपेन्द्रो मधुसूदनः ।

पृश्निगर्भो धृतार्चिस्त्वं पद्मनाभो रणान्तकृत् ॥ 7 ॥

शरण्यं शरणं च त्वामाहुः सेन्द्रा महर्षयः ।

ऋक्साम श्रेष्ठो वेदात्मा शतजिहो महर्षभः ॥ 8 ॥

त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमकारः परन्तपः ।

शतधन्वा वसुः पूर्वं वसूनां त्वं प्रजापतिः ॥ 9 ॥



आप सबकी उत्पत्तिके स्थान और अविकारी हैं। इन्द्रके छोटे भाई वामन एवं मधु दैत्यके प्राणहन्ता श्रीविष्णु भी आप ही हैं। आप अदिति या देवकीके गर्भमें अवतीर्ण होनेके कारण पृश्निगर्भ कहलाते हैं। आपने महान् तेज धारण कर रखा है। आपकी ही नाभिसे विराट् विश्वकी उत्पत्तिका कारणभूत कमल प्रकट हुआ था। आप शान्तस्वरूप होनेके कारण युद्धका अन्त करनेवाले है। इन्द्र आदि देवता तथा सम्पूर्ण महर्षिगण आपको ही सबका आश्रय शरणदाता कहते हैं।ऋग्वेद और सामवेदमें आप ही सबसे श्रेष्ठ बताये गये हैं। आप सैकड़ों विधिवाक्यरूप जिाओंसे युक्त वेदस्वरूप महान् वृषभ हैं। आप ही यज्ञ आप ही वषट्कार और आप ही ॐकार हैं। आप शत्रुओंको ताप देनेवाले तथा सैकड़ों धनुष धारण करनेवाले हैं। आप ही वसु, वसुओंके भी पूर्ववर्ती एवं प्रजापति हैं।

त्रयाणामपि लोकानामादिकर्ता स्वयंप्रभुः ।

रुद्राणामष्टमो रुद्रः साध्यानामपि पञ्चमः ll 10 ll

अश्विनौ चापि कर्णी ते सूर्यचन्द्रौ च चक्षुषी।

अन्ते चादौ च मध्ये च दृश्यसे त्वं परन्तप ॥ 11 ॥

प्रभवो निधनं चासि न विदुः को भवानिति

दृश्यसे सर्वलोकेषु गोषु च ब्राह्मणेषु च ॥ 12 ॥

दिक्षु सर्वासु गगने पर्वतेषु गुहासु च।

सहस्त्रनयनः श्रीमायतशीर्षः सहस्त्रपात् ॥ 13 ll

आप तीनों लोकोंके आदिकर्ता और स्वयं ही अपने प्रभु (परम स्वतन्त्र) हैं। आप रुद्रोंमें आठवें रुद्र और साध्योंमें पाँचवें साध्य हैं। दोनों अश्विनीकुमार आपके कान तथा सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। परंतप ! आप ही आदि, मध्य और अन्तमें दृष्टिगोचर होते हैं। सबकी उत्पत्ति और लयके स्थान भी आप ही हैं। आप कौन हैं—इस बातको ठीक ठीक कोई भी नहीं जानते। सम्पूर्ण लोकोंमें, गौओंमें और ब्राह्मणोंमें आप ही दिखायी देते हैं तथा समस्त दिशाओंमें, आकाशमै पर्वतों और गुफाओंमें भी आपकी ही सत्ता है आप शोभासे सम्पन्न हैं। आपके सहस्रों नेत्र, सैकड़ों मस्तक और सहस्रों चरण हैं।

त्वं धारयसि भूतानि वसुधां च सपर्वताम् ।

अन्तःपृथिव्यां सलिले दृश्यसे त्वं महोरगः ॥14 ll

त्रीँल्लोकान्धारयन् राम देवगन्धर्वदानवान्।

आप सम्पूर्ण प्राणियोंको तथा पर्वतोंसहित पृथ्वीको भी धारण करते हैं। पृथ्वीके भीतर पाताललोकमें और क्षीरसागरके जलमें आप ही महान् सर्प शेषनागके रूपमें दृष्टिगोचर होते हैं राम आप उस स्वरूपसे देवता गन्धर्व और दानवोंके सहित तीनों लोकोंको धारण करते हैं।

अहं ते हृदयं राम जिल्हा देवी सरस्वती ।। 15 ।।

देवा रोमाणि गात्रेषु निर्मितास्ते स्वमायया ।

निमेषस्ते स्मृता रात्रिरुन्मेषो दिवसस्तथा ।। 16 ।।

श्रीराम ! मैं (ब्रह्मा) आपका हृदय हूँ, सरस्वती देवी जिह्वा हैं तथा आपके द्वारा अपनी मायासे उत्पन्न किये हुए देवता आपके अंगोंमें रोम हैं। आपका आँख दना रात्रि और आँख खोलना दिन है।

संस्कारस्तेऽभवद्देहो नैतदस्ति विना त्वया ।

जगत्सर्व शरीरं ते स्थैर्य च वसुधातलम् ॥ 17 ॥

अग्निः कोपः प्रसादस्ते शेषः श्रीमांश्च लक्ष्मणः ।

शरीर और संस्कारकी उत्पत्ति आपसे ही हुई। है। आपके बिना इस जगत्को स्थिति नहीं है सम्पूर्ण विश्व आपका शरीर है, पृथ्वी आपकी स्थिरता है, अग्नि आपका कोप है और शेषावतार श्रीमान् लक्ष्मण आपके प्रसाद हैं।

त्वया लोकास्वयः क्रान्ताः पुरा स्वैर्विक्रमैस्त्रिभिः ।। 18 ।।

त्वयेन्द्रश्च कृतो राजा बलिर्बद्धो महासुरः ।

लोकान् संहृत्य कालस्त्वं निवेश्यात्मनि केवलम् ॥ 19 ॥

करोष्येकार्णवं घोरं दृश्यादृश्ये च नान्यथा ।

पूर्वकालमें वामनरूप धारण कर आपने अपने तीन पगोंसे तीनों लोक नाप लिये थे तथा महान् असुर बलिको बाँधकर इन्द्रको स्वर्गका राजा बनाया था। आप ही कालरूपसे समस्त लोकोंका संहार करके अपने भीतर लीनकर सब ओर केवल भयंकर एकार्णवका दृश्य उपस्थित करते हैं। उस समय दृश्य और अदृश्यमें कुछ भेद नहीं रह जाता।

त्वया सिंहवपुः कृत्वा परमं दिव्यमद्भुतम् ॥ 20 ॥

भवदः सर्वभूतानां हिरण्यकशिपुर्हतः।

आपने नृसिंहावतारके समय परम अद्भुत एवं दिव्य सिंहका शरीर धारण करके समस्त प्राणियोंको भय देनेवाले हिरण्यकशिपु नामक दैत्यका वध किया था।

त्वमश्ववदनो भूत्वा पातालतलमाश्रितः ॥ 21 ॥

संहतं परमं दिव्यं रहस्यं वै पुनः पुनः ।

आपने ही हयग्रीव अवतार धारण करके पातालके भीतर प्रवेशकर दैत्योंद्वारा अपहरण किये हुए वेदोंके परम रहस्य और यज्ञ-यागादिके प्रकरणोंको पुनः प्राप्त किया।यत्परं श्रूयते ज्योतिर्यत्परं श्रूयते परम् ॥ 22 ॥ यत्परं परतश्चैव परमात्मेति कथ्यते परो मन्त्रः परं तेजस्त्वमेव हि निगद्यसे ।। 23 ।। जो परम ज्योतिःस्वरूप तत्त्व सुना जाता है, जो परम उत्कृष्ट परब्रह्मके नामसे श्रवणगोचर होता है, जिसे परात्पर परमात्मा कहा जाता है तथा जो परम मन्त्र और परम तेज है, उसके रूपमें आपके ही स्वरूपका प्रतिपादन किया जाता है।

हव्यं कव्यं पवित्रं च प्राप्तिः स्वर्गापवर्गयोः ।I

स्थित्युत्पत्तिविनाशांस्ते त्वामाहुः प्रकृतेः परम् ॥ 24 ॥

यज्ञश्च यजमानश्च होता चाध्वर्युरेव च ।

भोक्ता यज्ञफलानां च त्वं वै वेदैश्च गीयसे ॥ 25 ॥

हव्य (यज्ञ), कव्य (श्राद्ध), पवित्र, स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति, संसारकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार- ये सब आपके ही कार्य हैं। ज्ञानी पुरुष आपको प्रकृतिसे पर बतलाते हैं। वेदोंके द्वारा आप ही यज्ञ, यजमान, होता, अध्वर्यु तथा यज्ञफलोंके भोक्ता कहे जाते हैं।

सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः ।

वधार्थं रावणस्य त्वं प्रविष्टो मानुषीं तनुम् ॥ 26 ॥

सीता साक्षात् लक्ष्मी हैं और आप स्वयंप्रकाश विष्णु, कृष्ण एवं प्रजापति हैं। आपने रावणका वध करनेके लिये ही मानव शरीरमें प्रवेश किया है।

तदिदं च त्वया कार्य कृतं कर्मभृतां वर ।

निहतो रावणो राम प्रहृष्टा देवताः कृताः ॥ 27 ॥

कर्म करनेवालोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी आपने हमारा यह कार्य पूरा कर दिया। रावण मारा गया, इससे सम्पूर्ण देवताओंको आपने बहुत प्रसन्न कर दिया है।

अमोघं देव वीर्यं ते नमोऽमोघपराक्रम ।

अमोघं दर्शनं राम अमोघस्तव संस्तवः ॥ 28 ॥

देव! आपका बल अमोघ है। अचूक पराक्रम कर दिखानेवाले श्रीराम! आपको नमस्कार है। राम! आपके दर्शन और स्तवन भी अमोध हैं।

अमोघास्ते भविष्यन्ति भक्तिमन्तो नरा भुवि ।

ये च त्वां देव भक्ताः पुराणं पुरुषोत्तमम् ॥ 29 ll

देव जो मनुष्य इस पृथ्वीपर आप पुराणपुरुषोत्तमका भलीभाँति भजन करते हुए निरन्तर आपके चरणोंमें भक्ति रखेंगे, वे जीवनमें कभी

असफल न होंगे। इममार्ष स्तवं पुण्यमितिहासं पुरातनम् ।

ये नराः कीर्तयिष्यन्ति नास्ति तेषां पराभवः ॥ 30 ॥

जो लोग परम ऋषि ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए इस पुरातन इतिहासरूप पुण्यमय स्तोत्रका पाठ करेंगे, उनका कभी पराभव नहीं होगा।

यह महात्मा श्रीरघुनाथजीका स्तोत्र है, जो सब स्तोत्रोंमें श्रेष्ठ है जो प्रतिदिन तीनों समय इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह महापातकी होनेपर भी मुक्त हो जाता है। श्रेष्ठ द्विजोंको चाहिये कि वे संध्याके समय विशेषतः श्राद्धके अवसरपर भक्तिभावसे मन लगाकर प्रयत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करें। यह परम गोपनीय स्तोत्र है। इसे कहीं और कभी भी अनधिकारी व्यक्तिसे नहीं कहना चाहिये। इसके पाठसे मनुष्य मोक्ष प्राप्त करलेता है। निश्चय ही उसे सनातन गति प्राप्त होती है। नरश्रेष्ठ ब्राह्मणोंको श्राद्धमें पहले तथा पिण्ड- पूजाके बाद भी इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये; इससे अक्षय हो जाता है। यह परम पवित्र स्तोत्र मनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेवाला है। जो एकाग्र चित्तसे इस स्तोत्रको लिखकर अपने घरमें रखता है, उसकी आयु, सम्पत्ति तथा बलकी प्रतिदिन वृद्धि होती है। जो बुद्धिमान् पुरुष कभी इस स्तोत्रको लिखकर ब्राह्मणको देता है, उसके पूर्वज मुक्त होकर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं। चारों वेदोंका पाठ करनेसे जो फल होता है, वहीं फल मनुष्य इस स्तोत्रका पाठ और जप करके पा लेता है। अतः भक्तिमान् पुरुषको यत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये। इसके पढ़नेसे मनुष्य सब कुछ पाता है और सुखपूर्वक रहकर उत्तरोत्तर उन्नतिको प्राप्त होता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार