वात्स्यायनजी बोले- भगवन्! पहले आप बता चुके हैं कि श्रीरामचन्द्रजीने एक धोबीके निन्दा करनेपर सीताको अकेली वनमें छोड़ दिया; फिर कहाँ उनके पुत्र हुए, कहाँ उन्हें धनुष-धारणकी क्षमता प्राप्त हुई तथा कहाँ उन्होंने अस्त्रविद्याकी शिक्षा पायी जिससे वे श्रीरामचन्द्रजीके अश्वका अपहरण कर सके ?
शेषजीने कहा- मुने! श्रीरामचन्द्रजी धर्मपूर्वक सारी पृथ्वीका पालन करते हुए अपनी धर्मपत्नी महारानी सीता और भाइयोंके साथ अयोध्याका राज्य करने लगे। इसी बीचमें सीताजीने गर्भ धारण किया। धीरे-धीरे पाँच महीने बीत गये। एक दिन श्रीरामने सीताजी से पूछा- देवि! इस समय तुम्हारे मनमें किस बातकी अभिलाषा है, बताओ मैं उसे पूर्ण करूँगा।"
सीताजीने कहा- प्राणनाथ! आपकी कृपासे मैंने सभी उत्तम भोग भोगे हैं और भविष्यमें भी भोगती रहूँगी। इस समय मेरे मनमें किसी विषयकी इच्छा शेषनहीं है। जिस स्त्रीको आप जैसे स्वामी मिलें, जिनके चरणोंकी देवता भी स्तुति करते हैं; उसको सभी कुछ प्राप्त है, कुछ भी बाकी नहीं है। फिर भी यदि आप आग्रहपूर्वक मुझसे मेरे मनकी अभिलाषा पूछ रहे हैं तो मैं आपके सामने सच्ची बात कहती हूँ नाथ बहुत दिन हुए, मैंने लोपामुद्रा आदि पतिव्रताओंके दर्शन नहीं किये। मेरा मन इस समय उन्हींको देखनेके लिये उत्कण्ठित है। वे सब तपस्याकी भंडार हैं, मैं वहाँ जाकर वस्त्र आदिसे उनकी पूजा करूँगी और उन्हें चमकीले रत्न तथा आभूषण भेंट दूंगी यही मेरा मनोरथ है। प्रियतम इसे पूर्ण कीजिये।
इस प्रकार सीताजीके मनोहर वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अपनी प्रियतमासे बोले-'जनककिशोरी! तुम धन्य हो ! कल प्रातः काल जाना और उन तपस्विनी स्त्रियोंका दर्शन करके कृतार्थ होना।' श्रीरामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर सीताजीको बड़ा हर्ष हुआ। वे सोचने लगीं, कल प्रातःकाल मुझे तपस्विनी देवियोंके दर्शन होंगे। तदनन्तर उस रातमें श्रीरामचन्द्रजीके भेजे हुए गुप्तचर नगरमें गये, उन्हें भेजनेका उद्देश्य यह था कि वे लोग घर घर जाकर महाराजकी कीर्ति सुनें और देखें [जिससे उनके प्रति लोगोंके मनमें क्या भाव हैं, इसका पता लग सके] वे दूत आधी रातके समय चुपकेसे गये। उन्हें प्रतिदिन श्रीरामचन्द्रजीकी मनोहर कथाएँ सुननेको मिलती थीं उस दिन वे एक धनाढ्यके विशाल भवनमें प्रविष्ट हुए और थोड़ी देरतक वहाँ रुककर श्रीरामचन्द्रजीके सुयशका श्रवण करने लगे। वहाँ सुन्दर नेत्रोंवाली कोई युवती बड़े हर्षमें भरकर अपने नन्हे से शिशुको दूध पिला रही थी। उसने बालकको लक्ष्य करके बड़ी मनोहर बात कही- 'बेटा! तू जी भरकर मेरा मीठा दूध पी ले, पीछे यह तेरे लिये दुर्लभ हो जायगा। नीलकमल दलके समान श्याम वर्णवालेश्रीरामचन्द्रजी इस अयोध्यापुरीके स्वामी हैं; उनके नगर में निवास करनेवाले लोगोंका फिर इस संसारमें जन्म नहीं होगा। जन्म न होनेपर यहाँ दूध पीनेका अवसर कैसे मिलेगा। इसलिये मेरे लाल! तू इस दुर्लभ दूधका बारम्बार पान कर ले। जो लोग श्रीरामका भजन, ध्यान और कीर्तन करेंगे, उन्हें भी कभी माताका दूध सुलभ न होगा।' इस तरह श्रीरामचन्द्रजीके यशरूपी अमृतसे भरे हुए वचन सुनकर वे गुप्तचर बहुत प्रसन्न हुए और दूसरे किसी भाग्यशाली पुरुषके घरमें गये । वे पृथक-पृथक विभिन्न परोंमें जाकर श्रीरामके यशका श्रवण करते थे। एक घरकी बात हैं, एक गुप्तचर श्रीरघुनाथजीका यश सुननेकी इच्छासे वहाँ आया और क्षणभर रुका रहा। उस घरकी एक सुन्दरी नारी, जिसके नेत्र बड़े मनोहर थे, पलंगपर बैठे हुए कामदेवके समान सुन्दर अपने पतिको ओर देखकर बोली- 'नाथ! आप मुझे ऐसे लगते हैं, मानो साक्षात् श्रीरघुनाथजी हो।' प्रियतमाके ये मनोहर वचन सुनकर उसके पतिने कहा- 'प्रिये। मेरी बात सुनो, तुम साध्वी हो; अत: तुमने जो कुछ कहा है, वह मनको बहुत ही प्रिय लगनेवाला है। पतिव्रताओंके योग्यही यह बात है। सती नारीके लिये उसका पति श्रीरघुनाथजीका ही स्वरूप है परन्तु कहाँ मेरे जैसा मन्दभाग्य और कहीं महाभाग्यशाली श्रीराम कहीं कीकी सी हस्ती रखनेवाला मेँ एक तुच्छ जीव और कहाँ ब्रह्मादि देवताओंसे भी पूजित परमात्मा श्रीराम कहाँ जुगनू । और कहाँ सूर्य ? कहाँ पामर पतिंगा और कहाँ गरुड़ कहाँ बुरे रास्तेसे बहनेवाला गलियोंका गँदला पानी और कहाँ भगवती भागीरथीका पावन जल। इसी प्रकार कहीं मैं और कहाँ भगवान् श्रीराम, जिनके चरणोंकी धूलि पड़ने से शिलामयी अहल्या क्षणभरमै भुवन मोहन सौन्दर्यसे युक्त युवती बन गयी!'
इसी समय दूसरा गुप्तचर दूसरेके घरमें कुछ और ही बातें सुन रहा था वहाँ कोई कामिनी पलंगपर बैठकर वीणा बजाती हुई अपने पतिके साथ श्रीरामचन्द्रजीको कोर्तिका गान कर रही थी- 'स्वामिन्! हमलोग धन्य हैं, जिनके नगरके स्वामी साक्षात् भगवान् श्रीराम हैं, जो अपनी प्रजाको पुत्रोंकी भाँति पालते और उसके योगक्षेमकी व्यवस्था करते हैं। उन्होंने बड़े-बड़े दुष्कर कर्म किये हैं, जो दूसरोंके लियेअसाध्य हैं। उदाहरणके लिये- 'उन्होंने समुद्रको वशमें 1 किया और उसपर पुल बाँधा फिर वानरोंसे लंकापुरीका विध्वंस कराया और अपने शत्रु रावणको मारकर वे जानकीजीको यहाँ ले आये। इस प्रकार श्रीरामने महापुरुषोंके आचारका पालन किया है।' पत्नीके ये मधुर वचन सुनकर पति मुसकराये और उससे इस प्रकार बोले- 'मुग्धे रावणको मारना और समुद्रका दमन आदि जितने कार्य हैं, वे श्रीरामचन्द्रजीके लिये कोई महान् कर्म नहीं हैं। महान् परमेश्वर ही ब्रह्मा आदिकी प्रार्थनासे लीलापूर्वक इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं और बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाले उत्तम चरित्रका विस्तार करते हैं। कौसल्याका आनन्द बढ़ानेवाले श्रीरामको तुम मनुष्य न समझो वे ही इस जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। केवल लीला करनेके लिये ही उन्होंने मनुष्य-विग्रह धारण किया है। हमलोग धन्य हैं, जो प्रतिदिन श्रीरामके मुख कमलका दर्शन करते हैं, जो ब्रह्मादि देवोंके लिये भी दुर्लभ है। हमें यह सौभाग्य प्राप्त है, इसलिये हम बड़े पुण्यात्मा हैं।' गुप्तचरने दरवाजेपर खड़े होकर इस प्रकारकी बहुत-सी बातें सुनीं।इसके सिवा, एक अन्य गुप्तचर अपने सामने धोबीका घर देखकर वहीं महाराज श्रीरामका यश सुननेकी इच्छासे गया। किन्तु उस घरका स्वामी धोबी क्रोधमें भरा था। उसकी पत्नी दूसरेके घरमें दिनका अधिक समय व्यतीत करके आयी थी उसने आँखें लाल-लाल करके पत्नीको धिक्कारा और उसे लात मारकर कहा-'निकल जा मेरे घरसे; जिसके यहाँ सारा दिन बिताया है, उसीके घर चली जा तू दुष्टा है, पतिकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाली है; इसलिये मैं तुझे नहीं रखूँगा।' उस समय उसकी माताने कहा 'बेटा! बहू घरमें आ गयी है, इस बेचारीका त्याग मत करो। यह सर्वथा निरपराध है इसने कोई कुकर्म नहीं किया है।' धोबी क्रोधमें तो था ही, उसने माताको जवाब दिया- 'मैं राम जैसा नहीं हूँ, जो दूसरेके घरमें रही हुई प्यारी पत्नीको फिरसे ग्रहण कर लूँ। वे राजा हैं; जो कुछ भी करेंगे, सब न्याययुक्त ही माना जायगा। मैं तो दूसरेके परमें निवास करनेवाली भार्याको कदापि नहीं ग्रहण कर सकता।' धोबीकी बात सुनकर गुप्तचरको बड़ा क्रोध हुआ और उसने तलवार हाथमें लेकर उसे मार डालनेका विचार किया। परन्तु सहसा उसे श्रीरामचन्द्रजीके आदेशका स्मरण हो आया। उन्होंने आज्ञा दी थी, 'मेरी किसी भी प्रजाको प्राणदण्ड न देना।' इस बातको समझकर उसने अपना क्रोध शान्त कर लिया। उस समय रजककी बातें सुनकर उसे बहुत दुःख हुआ था, वह कुपित हो बारम्बार उच्छ्वास खींचता हुआ उस स्थानपर गया, जहाँ उसके साथी अन्य गुप्तचर मौजूद थे। वे सब आपसमें मिले और सबने एक-दूसरेको अपना सुना हुआ श्रीरामचन्द्रजीका विश्ववन्दित चरित्र सुनाया। अन्तमें उस धोबीकी बात सुनकर उन्होंने आपसमें सलाह की और यह निश्चय किया कि दुष्टोंकी कही हुई बातें श्रीरघुनाथजीसे नहीं कहनी चाहिये। ऐसा विचार करके वे घरपर जाकर सो रहे उन्होंने अपनी बुद्धिसे यह स्थिर किया था कि कल प्रातःकाल महाराजसे यह समाचार कहा जायगा।
शेषजी कहते हैं— श्रीरघुनाथजीने प्रातः कालनित्यकर्म से निवृत्त होकर वेदवेता ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक सुवर्णदानसे संतुष्ट किया। उसके बाद वे राजसभामें गये। श्रीरामचन्द्रजी सारी प्रजाका पुत्रकी भाँति पालन करते थे। अतः सब लोग उनको प्रणाम करनेके लिये वहाँ गये। लक्ष्मणने राजाके मस्तकपर छत्र लगाया और भरत शत्रुघ्नने दो चँवर धारण किये। वसिष्ठ आदि महर्षि तथा सुमन्त्र आदि न्यायकर्ता मन्त्री भी वहाँ उपस्थित हो भगवान्की उपासना करने लगे।
इसी समय वे गुप्तचर अच्छी तरह सज-धजकर सभामें बैठे हुए महाराजको नमस्कार करनेके लिये आये। उत्तम बुद्धिवाले महाराज श्रीरामने [सभा विसर्जन के पश्चात्] उन सभी गुप्तचरों को एकान्तमें बुलाकर पूछा-'तुमलोग सच सच बताओ। नगरके लोग मेरे विषयमें क्या कहते हैं? मेरी धर्मपत्नीके विषयमें उनकी कैसी धारणा है ? तथा मेरे मन्त्रियोंका बर्ताव वे लोग कैसा बतलाते हैं?'
गुप्तचर बोले नाथ! आपको कीर्ति इस भूमण्डलके सब लोगोंको पवित्र कर रही है। हमलोगों ने घर-घरमें प्रत्येक पुरुष और स्त्रीके मुखसे आपके यशकाबखान सुना है। राजा सगर आदि आपके अनेकानेक पूर्वज अपने मनोरथको सिद्ध करके कृतार्थ हो चुके हैं; किन्तु उनकी भी ऐसी कीर्ति नहीं छायी थी, जैसी इस समय आपकी है। आप जैसे स्वामीको पाकर सारी प्रजा कृतार्थ हो रही है। उन्हें न तो अकाल मृत्युका कष्ट है और न रोग आदिका भय। आपकी विस्तृत कीर्ति सुनकर ब्रह्मादि देवताओंको बड़ी लज्जा होती है [ क्योंकि आपके सुयशसे उनका यश फीका पड़ गया है]। इस प्रकार आपकी कीर्ति सर्वत्र फैलकर इस समय जगत्के सब लोगोंको पावन बना रही हैं। महाराज ! हम सभी गुप्तचर धन्य हैं कि क्षण-क्षणमें आपके मनोहर मुखका अवलोकन करते हैं।
उन गुप्तचरोंके मुखसे इस तरहकी बातें सुनकर श्रीरघुनाथजीने अन्तमें एक दूसरे दूतपर दृष्टि डाली; उसके मुखकी आभा कुछ और ढंगकी हो रही थी। उन्होंने पूछा- 'महामते ! तुम सच सच बताओ। लोगोंके मुखसे जो कुछ जैसा भी सुना हो, वह ज्यों-का-त्यों सुना दो; अन्यथा तुम्हें पाप लगेगा।'
गुप्तचरने कहा - स्वामिन्! राक्षसोंके वध आदिसे सम्बन्ध रखनेवाली आपकी सभी कथाओंका सर्वत्र गान हो रहा है-केवल एक बातको छोड़कर। आपकी धर्मपत्नीने जो राक्षसके घरमें कुछ कालतक निवास किया था, उसके सम्बन्धमें लोगोंका अच्छा भाव नहीं है। गत आधी रातकी बात है-एक धोबीने अपनी पत्नीको, जो दिनमें कुछ देरतक दूसरेके घरमें रहकर आयी थी, धिक्कारा और मारा। यह देखकर उसकी माता बोली-'बेटा! यह बेचारी निरपराध है, इसे क्यों मारते हो ? तुम्हारी स्त्री है, रख लो; निन्दा न करो, मेरी बात मानो।' तब धोबी कहने लगा-'मैं राजा राम नहीं हूँ कि इसे रख लूँ। उन्होंने राक्षसके घरमें रही सीताको फिरसे ग्रहण कर लिया, मैं ऐसा नहीं कर सकता। राजा समर्थ होता है, उसका किया हुआ सारा काम न्याययुक्त ही माना जाता है। दूसरे लोग पुण्यात्मा हों, तो भी उनका कार्य अन्याययुक्त ही समझ लिया जाता है।' उसने बारंबार इस बातको दुहराया कि 'मैं राजा राम नहीं हूँ।'उस समय मुझे बड़ा क्रोध हुआ, किन्तु सहसा आपका आदेश स्मरण हो आया [ इसलिये मैं उसे दण्ड न दे सका]; अब यदि आप आज्ञा दें तो मैं उसे मार गिराऊँ। यह बात न कहनेयोग्य और न्यायके विपरीत थी, तो भी मैंने आपके आग्रहसे कह डाली है। अब इस विषयमें महाराज ही निर्णायक हैं; जो उचित कर्तव्य हो, उसका विचार करें।
गुप्तचरका यह वाक्य, जिसका एक-एक अक्षर महाभयानक वज्रके समान मर्मपर आघात करनेवाला था, सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बारम्बार उच्छ्वास खींचते हुए उन सब दूतोंसे बोले-'अब तुमलोग जाओ और भरतको मेरे पास भेज दो।' वे दूत दुःखी होकर तुरंत ही भरतजीके भवनमें गये और वहाँ उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीका संदेश कह सुनाया। श्रीरघुनाथजीका संदेश सुनकर बुद्धिमान् भरतजी बड़ी उतावलीके साथ राजसभामें गये और वहाँ द्वारपालसे बोले-'मेरे भ्राता कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी कहाँ हैं?' द्वारपालने एक रत्ननिर्मित मनोहर गृहकी ओर संकेत किया। भरतजी वहाँ जा पहुँचे। श्रीरामचन्द्रजीको विकल देखकर उनके मनमेंबड़ा भय हुआ। उन्होंने महाराजसे कहा- 'स्वामिन्! सुखसे आराधनाके योग्य आपका यह सुन्दर मुख इस समय नीचेकी ओर क्यों झुका हुआ है? यह आँसुओं से भींगा कैसे दिखायी दे रहा है? मुझे इसका पूरा-पूरा यथार्थ कारण बताइये और आज्ञा दीजिये, मैं क्या करूँ ?' भाई भरतने जब गद्गद वाणीसे इस प्रकार कहा, तब धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी बोले- 'प्रिय बन्धु ! इस पृथ्वीपर उन्हीं मनुष्योंका जीवन उत्तम है, जिनके सुयशका विस्तार हो रहा हो। अपकीर्तिके मारे हुए मनुष्योंका जीवन तो मरे हुएके ही समान है। आज सम्पूर्ण संसारमें विस्तृत मेरी कीर्तिमयी गंगा कलुषित हो गयी। इस नगरमें रहनेवाले एक धोबीने आज जानकीजीके सम्बन्धको लेकर कुछ निन्दाकी बात कह डाली है; इसलिये भाई ! बताओ, अब मैं क्या करूँ? क्या आज अपने शरीरको त्याग दूँ या अपनी धर्मपत्नी जानकीका ही परित्याग कर दूँ? दोनोंके लिये मुझे क्या करना चाहिये, इस बातको ठीक-ठीक बताओ ।'
भरतजीने पूछा- आर्य! कौन है यह धोबी तथा इसने कौन-सी निन्दाकी बात कही है? तब श्रीरामचन्द्रजीने धोबीके मुँहसे निकली हुई सारी बातें, जो दूतके द्वारा सुनी थीं, महात्मा भरतसे कह सुनायीं। उन्हें सुनकर भरतने दुःख और शोकमें पड़े हुए भाई श्रीरामसे कहा- 'वीरोंद्वारा सुपूजित जानकीदेवी लंकामें अग्नि परीक्षाद्वारा शुद्ध प्रमाणित हो चुकी हैं। ब्रह्माजीने भी इन्हें शुद्ध बतलाया है तथा पूज्य पिता स्वर्गीय महाराज दशरथजीने भी इस बातका समर्थन किया है। यह सब होते हुए भी केवल एक धोबीके कहनेसे विश्ववन्दित सीताका परित्याग कैसे किया जा सकता है? ब्रह्मादि देवताओंने भी आपकी कीर्तिका गान किया है, वह इस समय सारे जगत्को पवित्र कर रही है। ऐसी पावन कीर्ति आज केवल एक धोबीके कहने से कलुषित या कलंकित कैसे हो जायगी ? भला, आप अपने इस कल्याणमय विग्रहका परित्याग क्यों करना चाहते हैं। आप ही हमारे दुःखोंको दूर करनेवाले हैं। आपके बिना तो हम सब लोग आज ही मर जायँगे ।महान् अभ्युदयसे शोभा पानेवाली सीताजी तो आपके बिना क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकतीं। इसलिये मेरा अनुरोध तो यही है कि आप पतिव्रता श्रीसीताके साथ रहकर इस विशाल राज्य लक्ष्मीकी रक्षा कीजिये।'
भरतके ये वचन सुनकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ, परम धार्मिक श्रीरघुनाथजी इस प्रकार बोले-'भाई ! तुम जो कुछ कह रहे हो, वह धर्मसम्मत और युक्तियुक्त है।परन्तु इस समय मैं जो बात कह रहा हूँ, उसीको मेरी आज्ञा मानकर करो। मैं जानता हूँ मेरी सीता अग्निद्वारा शुद्ध, पवित्र और लोकपूजित है, तथापि मैं लोकापवादके कारण आज उसका त्याग करता हूँ। इसलिये तुम जनककिशोरीको वनमें ले जाकर छोड़ आओ।' श्रीरामका यह आदेश सुनते ही भरतजी मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े।