वेनने कहा- भगवन्! देवदेवेश्वर! आपने मुझपर कृपा करके भार्यातीर्थ, परम उत्तम पितृतीर्थ एवं परम पुण्यदायक मातृतीर्थका वर्णन किया। हृषीकेश! अब प्रसन्न होकर मुझे गुरुतीर्थकी महिमा बतलाइये।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- राजन् ! गुरुतीर्थ बड़ा उत्तम तीर्थ है, मैं उसका वर्णन करता हूँ। गुरुके अनुग्रहसे शिष्यको लौकिक आचार-व्यवहारका ज्ञान होता है, विज्ञानकी प्राप्ति होती है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है जैसे सूर्य सम्पूर्ण लोकोंको प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार गुरु शिष्योंको उत्तम बुद्धि देकर उनके अन्तर्जगत्को प्रकाशपूर्ण बनाते हैं। सूर्य दिनमें प्रकाश करते हैं, चन्द्रमा रातमें प्रकाशित होते हैं और दीपक केवल घरके भीतर उजाला करता है; परन्तु गुरु अपने शिष्यके हृदयमें सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे शिष्यके अज्ञानमय अन्धकारका नाश करते हैं; अतः शिष्योंके लिये गुरु ही सबसे उत्तम तीर्थ हैं। यह समझकर शिष्यको उचित है कि वह सब तरहसे गुरुको प्रसन्न रखे गुरुको पुण्यमय जानकर मन, वाणी और शरीर-तीनोंकी क्रियासे उनकी आराधना करता रहे।
नृपश्रेष्ठ! भार्गव वंशमें उत्पन्न महर्षि च्यवन मुनियोंमें श्रेष्ठ थे। एक दिन उनके मनमें यह विचार हुआ कि 'मैं इस पृथ्वीपर कब ज्ञानसम्पन्न होऊँगा।' इस प्रकार सोचते-सोचते उनके मनमें यह बात आयी कि 'मैं तीर्थयात्राको चलूँ; क्योंकि तीर्थयात्रा अभीष्ट फलकोदेनेवाली है।' ऐसा निश्चय करके वे पिता आदिको तथा पत्नी, पुत्र और धनको भी घरपर ही छोड़कर तीर्थयात्राके प्रसंगसे भूतलपर विचरने लगे। मुनीश्वर च्यवनने नर्मदा, सरस्वती तथा गोदावरी आदि समस्त नदियों और समुद्रके तटोंकी यात्रा की। अन्यान्य क्षेत्रों, सम्पूर्ण तीर्थों तथा पुण्यमय देवताओंके स्थानोंमें भ्रमण किया। इस प्रकार यात्रा करते हुए वे ओंकारेश्वर तीर्थमें आये और एक बरगदकी शीतल छायामें बैठकर सुखपूर्वक विश्राम करने लगे। उस वृक्षकी छाया ठंडी और थकावटको दूर करनेवाली थी। मुनिश्रेष्ठ च्यवन वहाँ लेट गये। लेटे-लेटे ही उनके कानोंमें पक्षियोंका मनोहर शब्द सुनायी पड़ा, जो ज्ञान-विज्ञानसे युक्त था। उस वृक्षके ऊपर अपनी पत्नीके साथ एक दीर्घजीवी तोता रहता था, जो कुंजलके नामसे प्रसिद्ध था। वह तोता बड़ा ज्ञानी था। उसके उज्ज्वल, समुज्ज्वल, विज्ज्वल और कपिंजल - ये चार पुत्र थे। चारों ही माता-पिताके बड़े भक्त थे। वे भूखसे आकुल होनेपर चारा चुगनेके लिये पर्वतीय कुंजों और समस्त द्वीपोंमें भ्रमण किया करते थे। उनका चित्त बहुत एकाग्र रहता था। सन्ध्याके समय मुनिवर च्यवनके देखते-देखते वे चारों तोते अपने पिताके सुन्दर घोंसलेमें आये। वहाँ आकर उन सबने माता-पिताको प्रणाम किया और उन्हें चारा निवेदन करके उनके सामने खड़े हो गये। तत्पश्चात् अपने पंखोंकी शीतल हवासे माता-पिताकी सेवा करने लगे।कुंजल पक्षी अपनी पत्नीके साथ भोजन करके जब प्हुआ, तब पुत्रोंके साथ बैठकर परम पवित्र दिव्य कथाएँ कहने लगा।
उज्ज्वलने कहा- पिताजी! इस समय पहले मेरे लिये उत्तम ज्ञानका वर्णन कीजिये; इसके बाद ध्यान, व्रत, पुण्य तथा भगवान्के शतनामका भी उपदेश दीजिये।
कुंजल बोला- बेटा! मैं तुम्हें उस उत्तम ज्ञानका उपदेश देता हूँ, जिसे किसीने इन चर्मचक्षुओंसे नहीं देखा है; उसका नाम है— कैवल्य (मोक्ष)। वह केवल अद्वितीय और दुःखसे रहित है जैसे वायुशून्य प्रदेशमें रखा हुआ दीपक हवाका झोंका न लगनेके कारण स्थिर भावसे जलता है और घरके समूचे अन्धकारका नाश करता रहता है, उसी प्रकार कैवल्यस्वरूप ज्ञानमय आत्मा सब दोषोंसे रहित और स्थिर है। उसका कोई आधार नहीं हैं [ वहीं सबका आधार है ] ।' बेटा! वह आशा तृष्णासे रहित और निश्चल है। आत्मा न किसीका मित्र है न शत्रु। उसमें न शोक है, न हर्ष, न लोभ है न मात्सर्य । वह भ्रम, प्रलाप, मोह तथा सुख-दुःखसे रहित है। जिस समय इन्द्रियाँ सम्पूर्ण विषयोंमें भोग बुद्धिका त्याग कर देती हैं, उस समय [सब प्रकारकी आसक्तियोंसे रहित] केवल आत्मा रह जाता है; उसे कैवल्यरूपकी प्राप्ति हो जाती है। जैसे दीपक प्रज्वलित होकर जब प्रकाश फैलाता है, तब बत्तीके आधारसे वह तेलको सोखता रहता है। फिर उस तेलको भी काजलके रूपमें उगल देता है। महामते। दीपक स्वयं ही तेलको खींचता और अपने तेजसे निर्मल बना रहता है। इसी प्रकार देहरूपी बत्तीमें स्थित हुआ आत्मा कर्मरूपी तेलका शोषण करता रहता है। वह विषयोंका काजल बनाकर प्रत्यक्ष दिखा देता है और जपसे निर्मल होकर स्वयं ही प्रकाशित होता है। उसमेंक्रोध आदि दोषोंका अभाव है। क्लेश नामक वायु उसका स्पर्श नहीं करती। वह निःस्पृह और निश्चल होकर स्वयं अपने तेजसे प्रकाशमान रहता है। स्वकीय स्थानपर स्थित रहकर ही अपने तेजसे सम्पूर्ण त्रिलोकीको देखा करता है। यह आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप है [इसीको परमात्मा कहते हैं]। इस परमात्माका ही मैंने तुमसे वर्णन किया है।
अब मैं चक्रधारी भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानका वर्णन आरम्भ करता । वह ध्यान दो प्रकारका है निराकार और साकार निराकारका ध्यान केवल ज्ञानरूपसे होता है, ज्ञाननेत्रसे उनका दर्शन किया जाता है। योगयुक्त महात्मा तथा परमार्थपरायण संन्यासी उन सर्वज्ञ एवं सर्वद्रष्टा परमेश्वरका साक्षात्कार करते हैं। वत्स! वे हाथ-पैरसे हीन होकर भी सर्वत्र जाते और समस्त चराचर त्रिलोकीको ग्रहण करते हैं। उनके मुख और नाक नहीं हैं, फिर भी वे खाते और सूंघते हैं। बिना कानके ही सब कुछ श्रवण करते हैं। वे सबके साक्षी और जगत्के स्वामी हैं। रूपहीन होते हुए भी पाँच इन्द्रियोंसे युक्त रूप धारण करते हैं। समस्त लोकोंके प्राण हैं। चराचर जगत्के जीव उनकी पूजा करते हैं। बिना जिहाके ही वे बोलते हैं। उनकी सब बातें वेदशास्त्रोंके अनुकूल होती है। उनके त्वचा नहीं है, फिर भी वे सबके स्पर्शका अनुभव करते हैं। उनका स्वरूप सत् और आनन्दमय है; वे विरक्तात्मा हैं। उनका रूप एक है। वे आश्रयरहित और जरावस्थासे शून्य हैं। ममता तो उन्हें छू भी नहीं गयी है। वे सर्वव्यापक, सगुण, निर्गुण और निर्मल हैं। वे किसीके वशमें नहीं हैं तो भी उनका मन सब भक्तोंके अधीन रहता है। वे सब कुछ देनेवाले और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं। उनका पूर्णरूपसे ध्यान करनेवाला कोई नहीं है। वे सर्वमय और सर्वत्र व्यापक हैं।इस प्रकार जो परमात्माके सर्वमय स्वरूपका ध्यान
करता है, वह अमृतके समान सुखदायी और आकार
रहित परम पद (मोक्ष) को प्राप्त होता है। अब परमात्माके ध्यानका दूसरा रूप साकार ध्यान बतलाता हूँ। मूर्तिमान् आकारके चिन्तनको साकार ध्यान कहते हैं तथा जो निरामय तत्त्वका चिन्तन है, उसे निराकार ध्यान कहा गया है। यह समस्त ब्रह्माण्ड, जिसकी कहीं तुलना नहीं है, भगवान्की वासनासे ही वासित है- भगवान्में ही इसका निवास है; इसीलिये उन्हें 'वासुदेव' कहते हैं। वर्षाके लिये उन्मुख मेघका जैसा वर्ण होता है, वैसा ही उनका भी वर्ण है। वे सूर्यके समान तेजस्वी, चतुर्भुज और देवताओंके स्वामी हैं। उनके दाहिने हाथोंमेंसे एकमें सुवर्ण और रत्नोंसे विभूषित शंख शोभा पा रहा है। बायें हाथोंमेंसे एकमें चक्र प्रतिष्ठित है, जिसकी तेजोमयी आकृति सूर्यमण्डलके समान है। कौमोदकी गदा, जो बड़े-बड़े असुरोंका विनाश करनेवाली है, उन परमात्माके दूसरे बायें हाथमें सुशोभित है तथा उनके दूसरे दाहिने हाथमें सुगन्धपूर्ण महान् पद्म शोभा पा रहा है। इस प्रकार आयुधसहित भगवान् कमलापतिका ध्यान करना चाहिये । शंखके समान ग्रीवा, गोल-गोल मुख और पद्मपत्र समान बड़ी-बड़ी आँखें अत्यन्त मनोहर जानपड़ती हैं। रत्नोंके समान चमकीले दाँतोंसे भगवान् हृषीकेशकी बड़ी शोभा हो रही है। उनके घुँघराले हैं, बिम्बाफलके समान लाल-लाल ओठ हैं तथा मस्तकपर धारण किये हुए किरीटसे कमलनयन श्रीहरि अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं। विशाल रूप, सुन्दर नेत्र तथा कौस्तुभमणिसे उनकी कान्ति बहुत बढ़ गयी है। सूर्यके समान तेजसे प्रकाशित होनेवाले कुण्डल और पुण्यमय श्रीवत्स-चिह्नसे श्रीहरि सदा देदीप्यमान दिखायी देते हैं। उनके श्यामविग्रहपर बाजूबन्द, कंगन और मोतियोंके हार नक्षत्रोंके समान छबि पा रहे हैं। इनसे सुशोभित भगवान् विजय विजयी पुरुषोंमें सर्वश्रेष्ठ जान पड़ते हैं। सोनेके समान रंगवाले पीताम्बरसे गोविन्दकी सुषमा और भी बढ़ गयी है। रत्नजटित मुँदरियोंसे सुशोभित अँगुलियोंके कारण भगवान् बड़े सुन्दर प्रतीत होते हैं। सब प्रकारके आयुधोंसे पूर्ण और दिव्य आभूषणोंसे विभूषित श्रीहरि गरुड़की पीठपर विराजमान हैं। वे इस विश्वके स्रष्टा और जगत्के स्वामी हैं। जो मनुष्य इस प्रकार भगवान्की मनोहर झाँकीका प्रतिदिन अनन्य चित्तसे ध्यान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो अन्तमें भगवान् श्रीविष्णुके लोकको जाता है। बेटा! इस जगदीश्वरके ध्यानका यह सारा प्रकार मैंने तुम्हें बता दिया। 2अब व्रतोंके भेद बताता हूँ, जिनके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना होती है। जया, विजया, पापनाशिनी, जयन्ती, त्रिः स्पृशा, वंजुली, तिलगन्धा, अखण्डा तथा मनोरक्षा- ये सब एकादशी या द्वादशियोंके भेद हैं। इनके सिवा और भी बहुत सी ऐसी तिथियाँ हैं, जिनका प्रभाव दिव्य है। अशून्यशयन और जन्माष्टमी ये दोनों महान् व्रत हैं। इन व्रतोंका आचरण करनेसे प्राणियोंके सब पाप दूर हो जाते हैं।
पुत्र ! अब भगवान्के शतनामस्तोत्रका वर्णन करता हूँ। यह मनुष्योंकी पापराशिका नाशक और उत्तम गति प्रदान करनेवाला है। विष्णुके इस शतनाम स्तोत्रके ब्रह्मा ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, प्रणव (ओंकार) देवता है। सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि तथा मोक्षके निमित्त इसका विनियोग किया जाता है।" *
हृषीकेश (इन्द्रियोंके स्वामी), केशव, मधुसूदन (मधु दैत्यको मारनेवाले), सर्वदैत्यसूदन (सम्पूर्ण दैत्योंके संहारक), नारायण, अनामय (रोग-शोकसे रहित), जयन्त, विजय, कृष्ण, अनन्त, वामन, विष्णु, विश्वेश्वर, पुण्य, विश्वात्मा, सुरार्चित (देवताओंद्वारा पूजित), अनघ (पापरहित), अघहर्ता, नारसिंह, श्रीप्रिय (लक्ष्मीके प्रियतम), श्रीपति, श्रीधर, श्रीद (लक्ष्मी प्रदान करनेवाले), श्रीनिवास, महोदय (महान् अभ्युदयशाली), श्रीराम, माधव, मोक्ष, क्षमारूप, जनार्दन, सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, सर्वेश्वर, सर्वदायक, हरि, मुरारि, गोविन्द, पद्मनाभ, प्रजापति, आनन्द, ज्ञानसम्पन्न,ज्ञानद, ज्ञानदायक, अच्युत, सबल, चन्द्रवक्त्र (चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाले), व्याप्तपरावर (कार्य कारणरूप सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त), योगेश्वर, जगद्योनि (जगत्की उत्पत्तिके स्थान), ब्रह्मरूप, महेश्वर, मुकुन्द, वैकुण्ठ, एकरूप, कवि, ध्रुव, वासुदेव, महादेव, गोप्रिय, ब्राह्मणप्रिय, गोहित, यज्ञ, ब्रह्मण्य यज्ञांग, यज्ञवर्धन (यज्ञोंका विस्तार करनेवाले), यज्ञ भोक्ता, वेद-वेदांगपारग, वेदज्ञ, वेदरूप, विद्यावास, सुरेश्वर, प्रत्यक्ष, महाहंस, शंखपाणि, पुरातन, पुष्कर, पुष्कराक्ष, वाराह, धरणीधर, प्रद्युम्न, कामपाल, व्यासध्यात (व्यासजीके द्वारा चिन्तित ), महेश्वर (महान् ईश्वर ), सर्वसौख्य, महासौख्य, सांख्य, पुरुषोत्तम, योगरूप, महाज्ञान, योगीश्वर, अजित, प्रिय, असुरारि, लोकनाथ, पद्महस्त, गदाधर, गुहावास, सर्ववास, पुण्यवास, महाजन, वृन्दानाथ, बृहत्काय, पावन, पापनाशन, गोपीनाथ, गोपसख, गोपाल, गोगणाश्रय, परात्मा, पराधीश, कपिल तथा कार्यमानुष (संसारका उद्धार करनेके लिये मानव-शरीर धारण करनेवाले) आदि नामोंसे प्रसिद्ध सर्वस्वरूप परमेश्वरको मैं प्रतिदिन मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा नमस्कार करता हूँ। जो पुण्यात्मा पुरुष शतनामस्तोत्र पढ़कर स्थिरचित्तसे भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करता है, वह सम्पूर्ण दोषोंका त्याग करके इस लोकमें पुण्यस्वरूप हो जाता है तथा अन्तमें वह भगवान् मधुसूदनके लोकको प्राप्त होता है। यह शतनामस्तोत्र महान् पुण्यका जनक और समस्तपातकोंकी शुद्धि करनेवाला है। मनुष्यको ध्यानयुक्त होकर अनन्यचित्तसे इसका जप और चिन्तन करना चाहिये। प्रतिदिन इसका जप करनेवाले पुरुषको नित्यप्रति गंगास्नानका फल मिलता है। इसलिये सुस्थिर और एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना उचित है। *
सुखकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको चाहिये कि जहाँ शालग्रामकी शिला तथा द्वारकाकी शिला (गोमतीचक्र) हों, उन दोनों शिलाओंके समीप पूर्वोक्त स्तोत्रका जप करे। ऐसा करनेसे वह संसारमें नाना प्रकारके सुख भोगकर अन्तमें अपने सहित एक सौ एक पीढ़ीका उद्धार कर देता है। जो कार्तिकमें प्रतिदिन प्रातः स्नान करके मधुसूदनकी पूजा करता और भगवान्के सामनेशतनामस्तोत्रको पढ़ता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। बेटा! माघ-स्नान करनेवाला पुरुष यदि भगवान्की पूजा करके उनका ध्यान करता और इस स्तोत्रका जप अथवा श्रवण करता है तो वह मदिरापान आदिसे होनेवाले पापोंका भी त्याग करके परमपदको प्राप्त होता है। बिना किसी विघ्नके उसे विष्णुपदकी प्राप्ति हो जाती है। जो मनुष्य श्राद्ध कालमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंके सामने इस पापनाशक शतनामस्तोत्रका पाठ करता है, उसके पितर संतुष्ट होकर परमगतिको प्राप्त होते हैं। यह स्तोत्र सुख तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। निश्चय ही इसका जप करना चाहिये। जपकर्ता मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे पूर्ण सिद्ध हो जाता है-उसे सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।