व्यासजी कहते हैं-द्विजवरो। ब्राह्मणको शुद्रका अन्न नहीं खाना चाहिये; जो ब्राह्मण आपत्तिकालके बिना ही मोहवश या स्वेच्छासे शूद्रान्न भक्षण करता है, वह मरकर शूद्र- योनिमें जन्म लेता है। जो द्विज छः मासतक शूद्रके कुत्सित अन्नका भोजन करता है. वह जीते-जी ही शूद्रके समान हो जाता है और मरनेपर कुत्ता होता है। मुनीश्वरो मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र-जिसके अन्नको पेटमें रखकर प्राण त्याग करता है, उसीकी योनिमें जन्म लेता है। नट, नाचनेवाला, चाण्डाल, चमार, समुदाय तथा वेश्या- इन छ: के अन्नका परित्याग करना चाहिये। तेली, धोबी, चोर, शराब बेचनेवाले, नाचने-गानेवाले, लुहार तथा मरणाशौचसे युक्त मनुष्यका अन्न भी त्याग देना चाहिये। कुम्हार, चित्रकार, सूदखोर, पतित, द्वितीय पति स्वीकार करनेवाली स्त्रीके पुत्र,अभिशापग्रस्त, सुनार, रंगमंचपर खेल दिखाकर जीवन निर्वाह करनेवाले, व्याध, वन्ध्या, रोगी, चिकित्सक (वैद्य या डॉक्टर), व्यभिचारिणी स्त्री, हाकिम, नास्तिक, देवनिन्दक, सोमरसका विक्रय करनेवाले, स्त्रीके वशीभूत रहनेवाले, स्त्रीके उपपतिको घरमें रखनेवाले, पुरुष परित्यक्त, कृपण, जूठा खानेवाले, महापापी, शस्त्रोंसे जीविका चलानेवाले, भयभीत तथा रोनेवाले मनुष्यका अन्न भी त्याज्य है। ब्रह्मद्वेषी और पापमें रुचि रखनेवालेका अन्न, मृतक के श्राद्धका अन्न, बलिवैश्वदेवरहित रसोईका अन्न तथा रोगीका अन्न भी नहीं खाना चाहिये। संतानहीन स्त्री, कृतघ्न, कारीगर और नाजिर तथा परिवेत्ता ( बड़े भाईको अविवाहित छोड़कर अपना विवाह करनेवाले) - का अन्न भी खानेयोग्य नहीं है। पुनर्विवाहिता स्त्री तथा दिधिषू-पतिका अन्न भी त्याज्य है। अवहेलना,अनादर तथा रोषपूर्वक मिला हुआ अन्न भी नहीं खाना चाहिये। गुरुका अन्न भी यदि संस्काररहित हो तो वह भोजन करनेयोग्य नहीं है क्योंकि मनुष्यका सारा पाप अन्नमें स्थित होता है जो जिसका अन्न खाता है, यह उसका पाप भोजन करता है।
आर्धिक (किसान), कुलमित्र (कुर्मी), गोपाल (ग्वाला), दास, नाई तथा आत्मसमर्पण करनेवाला पुरुष – इनका अन्न भोजन करनेके योग्य है। कुशीलव चारण और क्षेत्रकर्मक- (खेतमें काम करनेवाले) इनका भी अन्न खानेयोग्य है। विद्वान् पुरुष इन्हें थोड़ी कीमत देकर इनका अन्न ग्रहण कर सकते हैं। तेलमें पकायी हुई वस्तु, गोरस, सत्तू, तिलकी खली और तेल - ये वस्तुएँ द्विजातियोंद्वारा शूद्रसे ग्रहण करनेयोग्य हैं। भाँटा, कमलनाल, कुसुम्भ, प्याज, लहसुन, शुक्त और गोंदका त्याग करना चाहिये। छत्राक तथा यन्त्रसे निकाले हुए आसव आदिका भी परित्याग करना उचित है। गाजर, मूली, कुम्हड़ा, गूलर और लौकी खानेसे द्विज गिर जाता है। रातमें तेल और दहीका यत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये। दूधके साथ मट्ठा और नमकीन अन्न नहीं मिलाना चाहिये।
जिस अन्नके प्रति दूषित भावना हो गयी हो, जो दुष्ट पुरुषोंके सम्पर्क में आ गया हो, जिसे कुत्तेने सूँघ लिया हो, जिसपर चाण्डाल, रजस्वला स्त्री अथवा पतितोंकी दृष्टि पड़ गयी हो, जिसे गायने सूँघ लिया हो, जिसे कौए अथवा मुर्गेने छू लिया हो, जिसमें कीड़े पड़ गये हों, जो मनुष्योंद्वारा सूँघा अथवा कोढ़ीसे छू गया हो, जिसे रजस्वला, व्यभिचारिणी अथवा रोगिणी स्त्रीने दिया हो, ऐसे अन्नको त्याग देना चाहिये। दूसरेका वस्त्र भी त्याज्य है। बिना बछड़ेकी गायका, ऊँटनीका, एक खुरवाले पशु-घोड़ी आदिका, भेड़का तथा हथिनीकादूध पीनेयोग्य नहीं है- यह मनुका कथन है मांस भक्षण न करे। द्विजातियोंके लिये मदिरा किसीको देना, स्वयं उसे पीना, उसका स्पर्श करना तथा उसकी और देखना भी मना है- पाप है; उससे सदा दूर ही रहना चाहिये यही सनातन मर्यादा है। इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके सर्वदा मद्यका त्याग करे। जो द्विज मद्य पान करता है, वह द्विजोचित कर्मोंसे भ्रष्ट हो जाता है; उससे बात भी नहीं करनी चाहिये। अतः ब्राह्मणको सदा यत्नपूर्वक अभक्ष्य एवं अपेय वस्तुओंका परित्याग करना उचित है। यदि त्याग न करके उक्त निषिद्ध वस्तुओंका सेवन करता है तो वह रौरव नरकमें जाता है। ll 2 ll
अब मैं परम उत्तम दानधर्मका वर्णन करूंगा। इसे पूर्वकालमें ब्रह्माजीने ब्रह्मवादी ऋषियोंको उपदेश किया था। योग्य पात्रको श्रद्धापूर्वक धन अर्पण करना दान कहलाता है। ओंकारके उच्चारणपूर्वक किया हुआ दान भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला होता हैं। दान तीन प्रकारका बतलाया जाता है-नित्य, नैमित्तिक और काम्य एक चौथा प्रकार भी है, जिसे 'विमल' नाम दिया गया है। विमल दान सब प्रकारके दानोंमें परमोत्तम है। जिसका अपने ऊपर कोई उपकार न हो, ऐसे ब्राह्मणको फलकी इच्छा न रखकर प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है, वह 'नित्यदान' है जो पापकी शान्तिके लिये विद्वानोंके हाथमें अर्पण किया जाता है, उसे श्रेष्ठ पुरुषोंने 'नैमित्तिक' दान बताया है; वह भी उत्तम दान है जो सन्तान, विजय, ऐश्वर्य और सुखकी प्राप्तिके उद्देश्यसे दिया जाता है, उसे धर्मका विचार करनेवाले ऋषियोंने 'काम्य' दान कहा है तथा जो भगवान्को प्रसन्नताके लिये धर्मयुक्त चित्तसे ब्रह्मवेा पुरुषोंको कुछ अर्पण किया जाता है, वह कल्याणमय दान 'विमल' (सात्त्विक) माना गया है।सुयोग्य पात्रके मिलनेपर अपनी शक्तिके अनुसार दान अवश्य करना चाहिये। कुटुम्बको भोजन और वस्त्र देनेके बाद जो बच रहे, उसीका दान करना चाहिये; अन्यथा कुटुम्बका भरण-पोषण किये बिना जो कुछ दिया जाता है, वह दान दानका फल देनेवाला नहीं होता। वेदपाठी, कुलीन, विनीत, तपस्वी, व्रतपरायण एवं दरिद्रको भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये। जो अग्निहोत्री ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक पृथ्वीका दान करता है; वह उस परमधामको प्राप्त होता है जहाँ जाकर जीव कभी शोक नहीं करता। जो मनुष्य वेदवेत्ता ब्राह्मणको गन्नोंसे भरी हुई तथा जौ और गेहूँ की खेती लहलहाती हुई भूमि दान करता है, वह फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेता। जो दरिद्र ब्राह्मणको गौके चमड़े बराबर भूमि भी प्रदान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। भूमिदानसे बढ़कर इस संसारमें दूसरा कोई दान नहीं है केवल अन्नदान उसकी समानता करता है और विद्यादान उससे अधिक है जो शान्त पवित्र और धर्मात्मा ब्राह्मणको विधिपूर्वक विद्यादान करता है, वह ब्रह्म लोकमें प्रतिष्ठित होता है। गृहस्थ ब्राह्मणको आन्नदान करके मनुष्य उत्तम फलको प्राप्त होता है। गृहस्थको अन्न ही देना चाहिये, उसे देकर मानव परमगतिको प्राप्त होता है। वैशाखकी पूर्णिमाको विधिपूर्वक उपवास करके शान्त, पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर काले तिलों और विशेषतः मधुसे सात या पाँच ब्राह्मणोंकी पूजा करे तथा इससे धर्मराज प्रसन्न हो ऐसी भावना करे। जब मनमें यह भाव स्थिर हो जाता है, उसी क्षण मनुष्य के जीवनभरके किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। काले मृगचर्मपर तिल, सोना, मधु और घी रखकर जो ब्राह्मणको दान देता है, वह सब पापोंसे तर जाता है। जो विशेषतः वैशाखकी पूर्णिमाको धर्मराजके उद्देश्यसेब्राह्मणोंको घी और अन्नसहित जलका घड़ा दान करता है, वह भयसे छुटकारा पा जाता है। जो सुवर्ण और तिलसहित जलके पात्रोंसे सात या पाँच ब्राह्मणोंको तृप्त करता है, वह ब्रह्महत्यासे छूट जाता है। माघ मासके कृष्णपक्ष में द्वादशी तिथिको उपवास करें और श्वेत वस्त्र धारण करके काले तिलोंसे अग्निमें हवन करे तत्पश्चात् एकाग्रचित्त हो ब्राह्मणोंको तिलोंका ही दान करे। इससे द्विज जन्मभरके किये हुए सब पापको पार कर जाता है। अमावास्या आनेपर देवदेवेश्वर भगवान् श्रीविष्णु के उद्देश्यसे जो कुछ भी बन पड़े, तपस्वी ब्राह्मणको दान दे और सबका शासन करनेवाले इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न हो, यह भाव रखे। ऐसा करनेसे सात जन्मोंका किया हुआ पाप तत्काल नष्ट हो जाता है।
जो कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको स्नान करके ब्राह्मणके मुखमें अन्न डालकर इस प्रकार भगवान् शंकरकी आराधना करता है, उसका पुनः इस संसार में जन्म नहीं होता। विशेषतः कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथिको स्नान करके चरण धोने आदिके द्वारा विधिपूर्वक पूजा करनेके पश्चात् धार्मिक ब्राह्मणको 'मुझपर महादेवजी प्रसन्न हों' इस उद्देश्यसे अपना द्रव्य दान करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होता है। भक्त द्विजोंको उचित है कि वे कृष्णपक्षकी चतुर्दशी, अष्टमी तथा विशेषतः अमावास्याके दिन भगवान् महादेवजीको पूजा करें। जो एकादशीको निराहार रहकर द्वादशीको ब्राह्मणके मुखमें अन्न दे इस प्रकार पुरुषोत्तमकी अर्चना करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है यह शुक्लपक्षको द्वादशी भगवान् विष्णुकी तिथि है। इस दिन भगवान् जनार्दनको प्रयत्नपूर्वक आराधना करनी चाहिये। भगवान् शंकर अथवा श्रीविष्णुके उद्देश्यसे जो कुछ भी पवित्र ब्राह्मणको दानदिया जाता है, उसका अक्षय फल माना गया है। जो मनुष्य जिस देवताकी आराधना करना चाहे, उसके उद्देश्यसे ब्राह्मणोंका ही यत्नपूर्वक पूजन करे, इससे वह उस देवताको संतुष्ट कर लेता है। देवता सदा ब्राह्मणोंके शरीरका आश्रय लेकर ही रहते हैं। ब्राह्मणोंके न मिलनेपर वे कहीं-कहीं प्रतिमा आदिमें भी पूजित होते हैं। प्रतिमा आदिमें बहुत यत्न करनेपर अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। अतः सदा विशेषतः द्विजोंमें ही देवताओंका पूजन करना उचित है।
ऐश्वर्य चाहनेवाला मनुष्य इन्द्रकी पूजा करे। ब्रह्मतेज और ज्ञान चाहनेवाला पुरुष ब्रह्माजीकी आराधना करे। आरोग्यकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष सूर्यकी, धनकी कामनावाला मनुष्य अग्निकी तथा कर्मोकी सिद्धि चाहनेवाला पुरुष गणेशजीका पूजन करे। जो भग चाहता हो, वह चन्द्रमाकी, बल चाहनेवाला वायुकी तथा सम्पूर्ण संसार-बन्धनसे छूटनेकी अभिलाषा रखनेवाला मनुष्य यत्नपूर्वक श्रीहरिकी आराधना करे। जो योग, मोक्ष तथा ईश्वरीय ज्ञान- तीनोंकी इच्छा रखता हो, यत्न करके देवताओंके स्वामी महादेवजीकी अर्चना करे। जो महान् भोग तथा विविध प्रकारके ज्ञान चाहते हैं, वे भोगी पुरुष श्रीभूतनाथ महेश्वर तथा भगवान् श्रीविष्णुकी भी पूजा करते हैं। जल देनेवाले मनुष्यकी तृप्ति होती है; अतः जलदानका महत्त्व अधिक है। तेल दान करनेवालेको अनुकूल संतान और दीप देनेवालेको उत्तम नेत्रकी प्राप्ति होती है। भूमि-दान करनेवालोंको सब कुछ सुलभ होता है। सुवर्ण दाताको दीर्घ आयु प्राप्त होती है। गृह-दान करनेवालेको श्रेष्ठ भवन और चाँदी दान करनेवालेको उत्तम रूप मिलता है। वस्त्र दान करनेवाला चन्द्रमाके लोकमें जाता है। अश्व- दान करनेवालेको उत्तम सवारी मिलती है। अन्न-दाताको अभीष्ट सम्पत्ति और गोदान करनेवालेको सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। सवारी और शय्या-दानकरनेवाले पुरुषको पत्नी मिलती है। अभय-दान करनेवालेको ऐश्वर्य प्राप्त होता है धान्य दाताको सनातन सुख और ब्रह्म (वेद) दान करनेवालेको शास्वत ब्रह्मलोकको प्राप्ति होती है।
जो वेदविद्याविशिष्ट ब्राह्मणोंको अपनी शक्तिके अनुसार अनाज देता है, वह मृत्युके पश्चात् स्वर्गका सुख भोगता है। गौओंको अन्न देनेसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है; ईंधन दान करनेसे मनुष्यकी जठराग्नि दीप्त होती है। जो ब्राह्मणोंको फल, मूल, पीनेयोग्य पदार्थ और तरह-तरहके शाक-दान करता है, वह सदा आनन्दित होता है। जो रोगीके रोगको शान्त करनेके लिये उसे औषध, तेल और आहार प्रदान करता है, वह रोगहीन, सुखी और दीर्घायु होता है। जो छत्र और जूते दान करता है, वह नरकोंके अन्तर्गत असिपत्रवन, छूरेकी धारसे युक्त मार्ग तथा तीखे तापसे बच जाता है। संसारमें जो-जो वस्तु अत्यन्त प्रिय मानी गयी है तथा जो मनुष्यके घरमें अपेक्षित है, उसीको यदि अक्षय बनानेकी इच्छा हो तो गुणवान् ब्राह्मणको उसका दान करना चाहिये। अयन-परिवर्तनके दिन, विषुव' नामक योग आनेपर, चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें तथा संक्रान्ति आदिके अवसरोंपर दिया हुआ दान अक्षय होता है। प्रयाग आदि तीर्थो, पुण्य-मन्दिरों, नदियों तथा वनोंमें भी दान करके मनुष्य अक्षय फलका भागी होता है। प्राणियोंके लिये इस संसारमें दानधर्मसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। इसलिये द्विजातियोंको चाहिये कि वे श्रोत्रिय ब्राह्मणको अवश्य दान दें। ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले पुरुष स्वर्गको प्राप्ति के लिये तथा मुमुक्षु पुरुष पापकी शान्तिके लिये प्रतिदिन ब्राह्मणोंको दान देते रहे।
जो पापात्मा मानव गौ, ब्राह्मण, अग्नि और देवताके लिये दी जानेवाली वस्तुको मोहवश रोक देता है, उसे पशु-पक्षियोंकी योनिमें जाना पड़ता है। जो द्रव्यका उपार्जन करके ब्राह्मणों और देवताओंका पूजन नहींकरता, उसका सर्वस्व छीनकर राजा उसे राज्यसे बाहर निकाल दे। जो अकालके समय ब्राह्मणके मरते रहनेपर भी अन्न आदिका दान नहीं करता, वह ब्राह्मण निन्दित है। ऐसे ब्राह्मणसे दान नहीं लेना चाहिये तथा उसके साथ निवास भी नहीं करना चाहिये। राजाको उचित है वह उसके शरीरमें कोई चिह्न अंकित करके उसे अपने राज्यसे बाहर कर दे। द्विजोत्तमगण! जो ब्राह्मण स्वाध्यायशील, विद्वान्, जितेन्द्रिय तथा सत्य और संयमसे युक्त हों, उन्हें दान करना चाहिये। जो सम्मानपूर्वक देता और सम्मानपूर्वक ग्रहण करता है, वे दोनों स्वर्गमें जाते हैं; इसके विपरीत आचरण करनेपर उन्हें नरकमें गिरना पड़ता है, यदि अविद्वान् ब्राह्मण चाँदी, सोना, गौ, घोड़ा, पृथिवी और तिल आदिका दान ग्रहण करे तो सूखे ईंधनकी भाँति भस्म हो जाता है। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह उत्तम ब्राह्मणोंसे धन लेनेकी इच्छा रखे। क्षत्रिय और वैश्योंसे भी वह धन ले सकता है; किन्तु शूद्रसे तो वह किसी प्रकार धन न ले।
अपनी जीविका-वृत्तिको कम करनेकी ही इच्छा रखे, धन बढ़ानेकी चेष्टा न करे; धनके लोभमें फँसा हुआ ब्राह्मण ब्राह्मणत्वसे ही भ्रष्ट हो जाता है। सम्पूर्ण वेदोंको पढ़कर और सब प्रकारके यज्ञोंका पुण्य पाकर भी ब्राह्मण उस गतिको नहीं पा सकता, जिसे वहसंतोषसे पा लेता है। दान लेनेकी रुचि न रखे। जीवन-निर्वाहके लिये जितना आवश्यक है, उससे अधिक धन ग्रहण करनेवाला ब्राह्मण अधोगतिको प्राप्त होता है। जो संतोष नहीं धारण करता, वह स्वर्गलोकको पानेका अधिकारी नहीं है। वह लोभवश प्राणियोंको उद्विग्न करता है; चोरकी जैसी स्थिति है, वैसी ही उसकी भी है। गुरुजनों और भृत्यजनोंके उद्धारकी इच्छा रखनेवाला पुरुष देवताओं और अतिथियोंका तर्पण करनेके लिये सब ओरसे प्रतिग्रह ले; किन्तु उसे अपनी तृप्तिका साधन न बनाये-स्वयं उसका उपभोग न करे। इस प्रकार गृहस्थ पुरुष मनको वशमें करके देवताओं और अतिथियोंका पूजन करता हुआ जितेन्द्रियभावसे रहे तो वह परमपदको प्राप्त होता है।
तदनन्तर गृहस्थ पुरुषको उचित है कि पत्नीको पुत्रोंके हवाले कर दे और स्वयं वनमें जाकर तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करके सदा एकाग्रचित्त हो उदासीन भावसे अकेला विचरे। द्विजवरो! यह गृहस्थोंका धर्म है, जिसका मैंने आपलोगोंसे वर्णन किया है। इसे जानकर नियमपूर्वक आचरणमें लाये और दूसरे द्विजोंसे भी इसका अनुष्ठान कराये। जो इस प्रकार गृहस्थधर्मके द्वारा निरन्तर एक, अनादि देव ईश्वरका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण भूतयोनियोंका अतिक्रमण करके परमात्माको प्राप्त होता है, फिर संसारमें जन्म नहीं लेता।