सूतजी कहते हैं—पिताके विरक्त होकर वनमें चले जानेके बाद एक दिन धुन्धुकारीने अपनी माताको खूब पीटा और कहा- 'बता, धन कहाँ रखा है? नहीं तो लातोंसे तेरी खबर लूँगा।' उसकी इस बातसे डरकर और पुत्रके उपद्रवोंसे दुःखी होकर उसकी माँ रातको कुएँमें कूद पड़ी; इससे उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार माता-पिताके न रहनेपर गोकर्णजी तीर्थयात्राके लिये चल दिये। वे योगनिष्ठ थे। उनके मनमें इस घटना के कारण न कोई दुःख था, न कोई सुख क्योंकि उनका न कोई शत्रु था न मित्र अब धुन्धुकारी पाँच वेश्याओंके साथ घरमें रहने लगा। उनके पालन-पोषण के लिये बहुत सामग्री जुटानेकी चिन्तासे उसकी बुद्धि मोहित हो गयी थी अतः वह अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगा। एक दिन उन कुलटाओंने उससे गहनोंके लिये इच्छा प्रकट की। धुन्धुकारी तो कामसे अंधा हो रहा था। उसे अपनी मृत्युकी भी याद नहीं रहती थी। यह गहने जुटानेके लिये घरसे निकल पड़ा और जहाँ-तहाँसे बहुत-सा धन चुराकर पुनः अपने घर लौट आया। वहाँ आकर उसने उन वेश्याओंको बहुत से सुन्दर सुन्दर वस्त्र और कितने ही आभूषण दिये। अधिक धनका संग्रह देखकर रातमें उन स्त्रियोंने विचार किया-'यह प्रतिदिन चोरी करने जाता है, अतः राजा इसे अवश्य पकड़ेंगे; फिर सारा धन छीनकर निश्चय ही इसे प्राणदण्ड भी देंगे। ऐसी दशामें इस धनकी रक्षाके लिये हमलोग क्यों न इसे गुप्तरूपसे मार डालें। इसे मार, यह सारा धन लेकर हम कहीं और जगह चल दें।'
ऐसा निश्चय करके उन स्त्रियोंने धुन्धुकारीके सो जानेपर उसे रस्सियोंसे कसकर बाँध दिया और गलेमें फाँसी डालकर उसके प्राण लेनेकी चेष्टा करने लग; किन्तु वह तुरंत न मरा। इससे उनको बड़ी चिन्ता | हुई। तब उन्होंने जलते हुए अँगारे लाकर उसके मुँहपर दाल दिये। इससे यह आग की लपटोंसे पीड़ित होकरछटपटाता हुआ मर गया। फिर उन्होंने उसकी लाशको गमें डालकर गाड़ दिया। प्रायः ऐसी स्त्रियाँ बड़ी दुःसाहसवाली होती है। इस रहस्यका किसीको भी पता नहीं चला। लोगोंके पूछनेपर उन स्त्रियोंने कह दिया कि हमारे प्रियतम धनके लोभसे कहीं दूर चले गये हैं, इस वर्षके भीतर ही लौट आयेंगे। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह असन्मार्गपर चलनेवाली दुष्टा स्त्रियका विश्वास न करे जो मूर्ख इनका विश्वास करता है, उसे अवश्य ही संकटोंका सामना करना पड़ता है। इनकी वाणी तो अमृतके समान कामियोंके हृदयमें रसका संचार करती है, किन्तु हृदय रेकी धारके समान तीखा होता है; भला, इन स्त्रियोंका कौन प्रिय है? अनेक पतियोंसे सहवास करनेवाली वे कुलटाएँ धुन्धुकारीका सारा धन लेकर चम्पत हो गयीं और धुन्धुकारी अपने कुकर्मके कारण बहुत बड़ा प्रेत हुआ। वह बवंडरका रूप धारण करके सदा दसों दिशाओंमें दौड़ता फिरता था और शीत- घामका क्लेश सहता तथा भूख प्याससे पीड़ित होता हुआ 'हा दैव', 'हा! दैव' की बारंबार पुकार लगाता रहता था; किन्तु कहीं भी उसे शरण नहीं मिलती थी। कुछ कालके पश्चात् गोकर्णको भी लोगोंके मुँहसे धुन्धुकारीके मरनेका हाल मालूम हुआ तब उसे अनाथ समझकर उन्होंने उसके लिये गयाजीमें श्रद्ध किया और तबसे जिस तीर्थ में भी वे चले जाते, वहाँ उसका श्राद्ध अवश्य करते थे।
इस प्रकार तीर्थोंमें भ्रमण करते हुए गोकर्णजी एक दिन अपने गाँवमें आये और रात्रिके समय दूसरोंकी दृष्टिसे बचकर वे अपने घरके आँगनमें सोनेके लिये गये। अपने भाई गोकर्णको वहाँ सोया देख धुन्धुकारीने आधी रातके समय उन्हें अपना महाभयंकर रूप दिखाया वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी इन्द्र और कभी अग्निका रूप धारण करता था । अन्तमें पुनः मनुष्यके रूपमें प्रकट हुआ। गोकर्णजी बड़ेधैर्यवान् महात्मा थे। उन्होंने उसकी विपरीत अवस्थाएँ देखकर जान लिया कि यह कोई दुर्गतिमें पड़ा हुआ जीव है तब उन्होंने पूछा-'अरे भाई तू कौन है? रात्रिके समय अत्यन्त भयानक रूपमें क्यों प्रकट हुआ है ? तेरी ऐसी दशा क्यों हुई है? हमें बता तो सही, तू प्रेत है या पिशाच है अथवा कोई राक्षस है ?'
उनके ऐसा पूछनेपर वह बारंबार उच्चस्वरसे रोदन करने लगा। उसमें बोलनेकी शक्ति नहीं थी; इसलिये केवल संकेतमात्र किया। तब गोकर्णजीने अंजलिमें जल ले उसे अभिमन्त्रित करके धुकारीके ऊपर छिड़क दिया। उस जलसे सींचनेपर उसका पाप-ताप कुछ कम हुआ। तब वह इस प्रकार कहने लगा- 'भैया! मैं तुम्हारा भाई धुन्धुकारी हूँ। मैंने अपने ही दोषसे अपने ब्राह्मणत्वका नाश किया है। मैं महान् अज्ञानमें चक्कर लगा रहा था; अतः मेरे पापकर्मोकी कोई गिनती नहीं है। मैंने बहुत लोगोंकी हिंसा की थी। अतः मैं भी स्त्रियोंद्वारा तड़पा-तड़पाकर मारा गया। इसीसे मैं प्रेतयोनिमें पड़कर दुर्दशा भोग रहा हूँ। अब दैवाधीन कर्मफलका उदय हुआ है, इसलिये मैं वायु पीकर जीवन धारण करता हूँ। मेरे भाई! तुम दयाके समुद्र हो। अब किसी प्रकार जल्दी ही मेरा उद्धार करो।'
धुन्धुकारीकी बात सुनकर गोकर्ण बोले भाई! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। मैंने तो तुम्हारे लिये गयाजी में विधिपूर्वक पिण्डदान किया है, फिर तुम्हारी मुक्ति कैसे नहीं हुई? यदि गया श्राद्धसे भी मुक्ति न हो, तो यहाँ दूसरा तो कोई उपाय ही नहीं है। प्रेत! इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? यह तुम्हीं विस्तारपूर्वक बताओ ।
प्रेतने कहा- भाई! सैकड़ों गया श्राद्ध करनेसे भी मेरी मुक्ति नहीं होगी। इसके लिये अब तुम और ही कोई उपाय सोचो।
प्रेतकी यह बात सुनकर गोकर्णको बड़ा विस्मय हुआ। वे कहने लगे-'यदि सैकड़ों गया श्राद्धसे तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी, तब तो तुम्हें इस प्रेतयोनिसे छुड़ाना असम्भव ही है। अच्छा, इस समय तो तुम अपनेस्थानपर ही निर्भय होकर रहो तुम्हारी मुक्तिके लिये कोई दूसरा उपाय सोचकर उसीको काममें लाऊंगा।' गोकर्णजीकी आज्ञा पाकर धुन्धुकारी अपने स्थानपर चला गया। इधर गोकर्णजी रातभर सोचते-विचारते रहे, किन्तु उसके उद्धारका कोई भी उपाय उन्हें नहीं सूझा। सबेरा होनेपर उन्हें आया देख गाँवके लोग बड़े प्रेमके साथ उनसे मिलनेके लिये आये। तब गोकर्णने रातमें जो घटना घटित हुई थी, वह सब उन्हें कह सुनायी। उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और ब्रह्मवादी थे, उन्होंने शास्त्र-ग्रन्थोंको उलट-पलटकर देखा; किन्तु उन्हें धुन्धुकारीके उद्धारका कोई उपाय नहीं दिखायी दिया। तब सब लोगोंने मिलकर यही निश्चय किया कि भगवान् सूर्यनारायण उसकी मुक्तिके लिये जो उपाय बतायें, वही करना चाहिये। यह सुनकर गोकर्णने भगवान् सूर्यकी ओर देखकर कहा- 'भगवन्! आप सारे जगत्के साक्षी हैं। आपको नमस्कार है। आप मुझे धुन्धुकारीकी मुक्तिका साधन बताइये।' यह सुनकर सूर्यदेवने दूरसे ही स्पष्ट वाणीमें कहा- श्रीमद्भागवतसे मुक्ति हो सकती है। तुम उसका सप्ताहपारायण करो।' भगवान् सूर्यका यह ध्वनिरूप वचन वहाँ सब लोगोंने सुना और सबने यही कहा-'यह तो बहुत सरल साधन है। इसको यत्नपूर्वक करना चाहिये।' गोकर्णजी भी ऐसा ही निश्चय करके कथा बाँचनेको तैयार हो गये। उस समय वहाँ कथा सुननेके लिये आस-पासके स्थानों और गाँवोंसे लोग एकत्रित होने लगे। अपंग, अंधे, बूढ़े और मन्दभाग्य पुरुष भी अपने पापोंका नाश करनेके लिये वहाँ आ पहुँचे। इस प्रकार यहाँ बहुत बड़ा समाज जुट गया, जो देवताओंको भी आश्चर्यमें डालनेवाला था। जिस समय गोकर्णजी व्यासगटीपर बैठकर कथा बाँचने लगे, उस समय वह प्रेत भी वहाँ आया और इधर-उधर बैठनेके लिये स्थान ढूँढ़ने लगा। इतनेमें ही उसकी दृष्टि एक सात गाँठवाले ऊँचे बाँसपर पड़ी। उसीके नीचेवाले छेदमें घुसकर वह कथा सुननेके लिये बैठा। वायुरूप होनेके कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था। इसलिये बाँसमें ही घुस गया था।गोकर्णजीने एक वैष्णव ब्राह्मणको प्रधान श्रोता बनाकर पहले स्कन्धसे ही स्पष्ट वाणीमें कथा सुनानी आरम्भ की। सायंकालमें जब कथा बंद होने लगी, तब एक विचित्र घटना घटित हुई। सब श्रोताओंके देखते-देखते तड़-तड़ शब्द करती हुई बाँकी एक गाँठ फट गयी। दूसरे दिन शामको दूसरी गाँठ फटी और तीसरे दिन भी उसी समय तीसरी गाँठ फट गयी। इस प्रकार सात दिनोंमें उस बाँसकी सातों गाठोको फोड़कर धुन्धुकारीने वारहों स्कन्धौके श्रवणसे निष्पाप हो प्रेतयोनिका त्याग कर दिया और दिव्य रूप धारण करके वह सबके सामने प्रकट हो गया। उसका मेघके समान श्यामवर्ण था। शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। गलेमें तुलसीकी माला उसकी शोभा बढ़ा रही थी। मस्तकपर मुकुट और कानोंमें दिव्य कुण्डल झलमला रहे थे। उसने तुरंत अपने भाई गोकर्णको प्रणाम किया और कहा- "भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनिके क्लेशोंसे मुक्त कर दिया। प्रेतयोनिकी पीड़ा नष्ट करनेवाली यह श्रीमद्भागवतकी कथा धन्य है तथा भगवान् श्रीकृष्णके परमधामकी प्राप्ति करानेवाला इसका सप्ताहपारायण भी धन्य है। सप्ताह कथा सुननेके लिये बैठ जानेपर सारे पाप काँपने लगते हैं। उन्हें इस बातकी चिन्ता होती है कि अब यह कथा शीघ्र ही हमलोगोंका अन्त कर देगी। जैसे आग गीली-सूखी, छोटी और बड़ी-सभी तरहकी लकड़ियोंको जला डालती है, उसी प्रकार यह सप्ताहश्रवण मन, वाणी और क्रियाद्वारा किये हुए, इच्छा या अनिच्छासे होनेवाले छोटे-बड़े सभी तरहके पापको भस्म कर देता है। विद्वानोंने देवताओंको सभामें कहा है कि 'इस भारतवर्षमें जो पुरुष श्रीमद्भागवतकी कथा नहीं सुनते, उनका जन्म व्यर्थ ही है।' यदि भागवत-शास्त्रकी कथा सुननेको न मिली तो मोहपूर्वक पालन करके परपुष्ट और बलवान् बनाये हुए इस अनित्य शरीरसे क्या लाभ हुआ। जिसमें हड्डियाँ ही खम्भे हैं, जो ना नाड़ीरूप रस्सियोंसे बँधा है, जिसके ऊपर मांग और रतका सेप करके उसे चमड़े मढ़ दिया गया है, जिसके भीतरसे दुर्गन्ध आती रहती है, जोमल-मूत्रका पात्र ही है, वृद्धावस्था और शोकके कारण जो परिणाममें दुःखमय जान पड़ता है, जिसमें रोगोंका निवास है, जो सदा किसी कामनासे आतुर रहता है, जिसका पेट कभी नहीं भरता, जिसको सदा धारण किये रहना कठिन है तथा जो अनेक दोषोंसे भरा हुआ और क्षणभंगुर है, वही यह शरीर कहलाता है। अन्तमें इसकी तीन ही गतियाँ होती हैं-यदि मृत्युके पश्चात् इसे गाड़ दिया जाय तो इसमें कीड़े पड़ जाते हैं, कोई पशु खा जाय तो यह विष्ठा बन जाता है और यदि अग्निमें जला दिया जाय तो यह राखका ढेर हो जाता है। ऐसी दशामें भी मनुष्य इस अस्थिर शरीरसे स्थायी फल देनेवाला कर्म क्यों नहीं कर लेता ? प्रातः काल जो अन्न पकाया जाता है, वह शाम होनेतक बिगड़ जाता है। फिर उसीके रससे पुष्ट हुए इस शरीर में नित्यता क्या है?"
"इस लोकमें श्रीमद्भागवतका सप्ताह सुननेसे अपने निकट ही भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। अतः सब प्रकारके दोषोंकी निवृत्तिके लिये एकमात्र यही साधन है जहाँ कथा श्रवण करनेसे जड़ एवं सूखे बाँकी गाँठें फट सकती हैं, वहीं यदि की खुल जायँ तो क्या आश्चर्य है? जो भागवतकी कथा सुननेसे वंचित हैं, वे लोग जलमें बुदबुदों और जीवोंमें मच्छरोंके समान केवल मरनेके लिये पैदा हुए हैं। सप्ताह श्रवण करनेपर हृदयकी अज्ञानमयी गाँठ खुल जाती है, सारे सन्देह नष्ट हो जाते हैं और बन्धनके हेतुभूत समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं। यह भागवत कथा एक महान् पुण्यतीर्थ है। यह संसाररूपी कीचड़के लेपको धो डालनेमें अत्यन्त पटु है। विद्वान् पुरुषोंका मत है कि जब यह कथा - तीर्थ चित्तमें स्थिर हो जाय तो मनुष्यकी मुक्ति निश्चत ही है।"
धुन्धुकारी इस प्रकारकी बातें कह ही रहा था कि उसे लेनेके लिये आकाशसे एक विमान उतरा। उससे चारों ओर मण्डलाकार प्रकाश पुंज फैल रहा था उसमें भगवान्के वैकुण्ठवासी पार्षद विराजमान थे। धुन्धुकारी सब लोगोंके देखते-देखते उस विमानपर जा बैठा। उसमें आये हुए श्रीविष्णु पार्षदोंको देखकर गोकर्णनउनसे इस प्रकार पूछा-'भगवान् के परिकरो। यहाँ तो बहुत-से शुद्ध अन्तःकरणवाले मेरी कथाके श्रोता बैठे
हुए हैं। आपलोग एक ही साथ इनके लिये भी विमान क्यों नहीं लाये ? देखनेमें आता है-सबने समानरूपसे यहाँ कथा श्रवण किया है; फिर फलमें क्यों इस प्रकार भेद हुआ? यह बतानेकी कृपा कीजिये।'
भगवान् के पार्षद बोले- गोकर्णजी इनके कथा-श्रवणमें भेद होनेसे ही फलमें भी भेद हुआ है। यद्यपि श्रवण सब लोगोंने ही किया है; किन्तु इसके जैसा मनन किसीने नहीं किया है. इसीलिये फलमें भेद हुआ है। पुनः कथा श्रवण करनेपर यह फल-भेद भी दूर हो जायगा। प्रेतने सात रात उपवास करके कथा श्रवण किया है। अतः उसने स्थिरचित्तसे भलीभाँति मनन आदि किया है। जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान न देनेसे श्रवण, सन्देहसे मन्त्र और चंचलचित्त होनेसे जप निष्फल हो जाता है। वैष्णव पुरुषोंसे रहित देश, कुपात्र ब्राह्मणसे कराया हुआ श्राद्ध, अश्रोत्रियको दिया हुआ दान और सदाचारहीन कुल भी नष्ट ही समझना चाहिये। गुरुके वचनोंमें विश्वास हो, अपनेमें दीनताकी भावना बनी रहे, मनके दोषों को काबू में रखा जाय और कथायें दृढ निष्ठा बनी रहे इन सब बातोंका यदि पालन किया जाय तो अवश्य ही कथा श्रवणका पूरा-पूरा फल मिलता है।पुनः कथा श्रवण करनेके पश्चात् इन सब लोगोंका वैकुण्ठमें निवास निश्चित है। गोकर्णजी तुम्हें तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही गोलोक प्रदान करेंगे।
ऐसा कहकर वे सब पार्षद भगवान् के नामोंका कीर्तन करते हुए वैकुण्ठधाममें चले गये। उसके बाद गोकर्णने पुनः श्रावण मासमें कथा बाँची। उस समय सब लोगोंने सात दिनोंतक उपवास करके कथा-श्रवण किया। नारदजी! कथाकी समाप्ति होनेपर वहाँ जो कुछ हुआ, उसे सुनिये। उस समय बहुत से विमानोंको साथ | लिये भक्तोंसहित साक्षात् भगवान् उस स्थानपर प्रकट हो गये। चारों ओरसे जय-जयकार और नमस्कारके शब्द बारंबार सुनायी देने लगे। भगवान्ने प्रसन्न होकर वहाँ स्वयं भी अपने पांचजन्य नामक शंखको बजाया तथा गोकर्णको छातीसे लगाकर उन्हें अपने समान ही बना लिया। उनके सिवा और भी जितने श्रोता थे, उन सबको श्रीहरिने एक ही क्षणमें अपना सारूप्य दे दिया। वे सभी मेघके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी तथा किरीट और कुण्डलोंसे सुशोभित हो गये उस गाँवमें कुत्ते और चाण्डाल आदि जितने भी जीव थे, उन सबको गोकर्णकी दयासे भगवान्ने विमानपर बिठा लिया और वैकुण्ठधाममें भेज दिया, जहाँ योगी पुरुष जाया करते हैं। तत्पश्चात् भक्तवत्सल भगवान् गोपाल कथा-श्रवणसे प्रसन्न हो, गोकर्णको साथ ले गोपवल्लभ गोलोक धामको पधारे जैसे पूर्वकालमें समस्त अयोध्यावासी भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके साथ साकेतधाममें गये थे, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने उस गाँवके सब मनुष्योंको योगियोंके लिये भी दुर्लभ गोलोकधाममें पहुँचा दिया। जहाँ सूर्य, चन्द्रमा और सिद्ध पुरुषोंकी भी कभी पहुँच नहीं होती, उसी लोकमें वहाँके सब प्राणी केवल श्रीमद्भागवतकी कथा सुननेसे चले गये।
नारदजी ! श्रीमद्भागवतकी कथामें सप्ताह-यज्ञसे जिस उज्ज्वल फलसमुदायका संचय होता है, उसका इस समय हम आपसे क्या वर्णन करें। जिन्होंने गोकर्णजीकी कथाका एक अक्षर भी अपने कर्ण-पुटोंके द्वारा पान किया, वे फिर माताके गर्भ में नहीं आये हवापीकर, पत्ते चबाकर और शरीरको सुखाकर दीर्घकालतक कठोर तपस्या करनेसे तथा योगाभ्यास करनेसे भी मनुष्य उस गतिको नहीं प्राप्त होते, जिसे वे सप्ताह-कथाके श्रवणसे पा लेते हैं। मुनीश्वर शाण्डिल्य चित्रकूटमें रहकर ब्रह्मानन्दमें निमग्न हो इस पवित्र इतिहासका सदा पाठकिया करते हैं। यह उपाख्यान परम पवित्र है। एक बार श्रवण करनेपर भी सारी पाप-राशिको भस्म कर देता है। यदि श्राद्धमें इसका पाठ किया जाय तो इससे पितरोंको पूर्ण तृप्ति होती है और प्रतिदिन इसका पाठ करनेसे मनुष्यको मोक्ष प्राप्त हो जाता है।