View All Puran & Books

पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 111 - Khand 4, Adhyaya 111

Previous Page 111 of 266 Next

चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना

शेषजी कहते हैं- मुने! तदनन्तर वह घोड़ा नीलाचलपर थोड़ी देर ठहरकर घास चरता हुआ आगे बढ़ गया। उसका वेग मनके समान तीव्र था। श्रेष्ठ वीर शत्रुघ्न, राजा लक्ष्मीनिधि भयंकर वाहन वाले राजकुमार पुष्कल तथा राजा प्रतापाग्रय- ये सभी उसकी रक्षा कर रहे थे। कई करोड़ वीरोंसे सुरक्षित वह यज्ञसम्बन्धी अश्व क्रमशः आगे बढ़ता हुआ राजा सुबाहुद्वारा परिपालित चक्रांका नगरीके पास जा पहुँचा। उस समय राजाका पुत्र दमन शिकार खेल रहा था। उसकी दृष्टि उस घोड़ेपर पड़ी, जो चन्दन आदिसे चर्चित तथा मस्तकमें सुवर्णमय पत्रसे शोभायमान था। राजकुमार दमनने उस पत्रको बाँचा, सुन्दर अक्षरोंमें लिखा होनेके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। पत्रका अभिप्राय समझकर वह बोला-'अहो! भूमण्डलपर मेरे पिताजीके जोते-जी यह इतना बड़ा अहंकार कैसा ? जिसने यह घमण्ड दिखाया है उसे मेरे धनुषसे छूटे हुए बाण इस उद्दण्डताका फल चखायेंगे। आज मेरे तीखे बाण शत्रुघ्नके समस्त शरीरको घायल करके उन्हें लहूलुहान कर देंगे, जिससे वे फूले हुए पलाशको भाँति दिखायी देंगे। आज सभी श्रेष्ठ योद्धा मेरी भुजाओंका महान् बल देखें! मैं अपने धनुर्दण्डसे करोड़ों बार्णोंकी वर्षा करूँगा।'

राजकुमार दमनने ऐसा कहकर घोड़ेको तो अपनेनगरमें भेज दिया और स्वयं हर्ष तथा उत्साहमें भरकर सेनापतिसे कहा- 'महामते! शत्रुओंका सामना करनेके लिये मेरी सेना तैयार कर दो।' इस प्रकार सेनाको सुसज्जित करके वह शीघ्र ही युद्ध क्षेत्रमें सामने जाकर डट गया। उस समय उसका स्वरूप बड़ा उग्र दिखायी देता था। इसी बीचमें घोड़ेके पीछे चलनेवाले योद्धा भी वहाँ आ पहुँचे और अत्यन्त व्याकुल होकर बारम्बार एक-दूसरेसे पूछने लगे- 'महाराजका वह यज्ञसम्बन्धी अश्व, जो भालपत्रसे चिह्नित था, कहाँ चला गया ?' इतनेहीमें शत्रुओंको ताप देनेवाले राजा प्रतापाग्रयने देखा, सामने ही कोई सेना तैयार होकर खड़ी है, जो वीरोचित शब्दोंका उच्चारण करती हुई गर्जना कर रही है। प्रतापाग्रयके सिपाहियोंने उनसे कहा-'महाराज जान पड़ता है, यही राजा घोड़ा ले गया है; अन्यथा यह वीर अपने सैनिकोंके साथ हमारे सामने क्यों खड़ा होता ?' यह सुनकर प्रतापाग्रयने अपना एक सेवक भेजा। उसने जाकर पूछा- 'महाराज श्रीरामचन्द्रजीका अश्व कहाँ है ? कौन ले गया है ? क्यों ले गया है? क्या वह भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको नहीं जानता ?'

राजकुमार दमन बड़ा बलवान् था, वह सेवकका ऐसा वचन सुनकर बोला- 'अरे! भालपत्र आदि चिह्नोंसे अलंकृत उस यज्ञसम्बन्धी अश्वको मैं ले गया हूँ। उसकी सेवामें जो शूरवीर हों, वे आवें और मुझेजीतकर बलपूर्वक हाँसे घोड़ेको छुड़ा ले जायें।" राजकुमारका वचन सुनकर सेवकको बड़ा रोष हुआ, र तथापि वह हँसता हुआ वहाँसे लौट गया और राजाके पास जाकर उसने दमनकी कही हुई सारी बातें ज्यों की त्यों सुना दीं। उसे सुनते ही महाबली प्रतापाग्रयकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं और वे चार घोड़ोंसे सुशोभित सुवर्णमय रथ पर सवार हो बड़े- बड़े वीरोंको साथ ले राजकुमारसे युद्ध करनेके लिये चले। उनकी सहायतामें बहुत बड़ी सेना थी। आगे बढ़कर वे धनुषपर टंकार देने लगे। उस समय रोषपूर्ण नेत्रोंवाले राजा प्रतापाग्रयके पीछे-पीछे बहुत-से घुड़सवार और हाथीसवार भी गये। निकट जाकर प्रतापाग्रयने युद्धके लिये उद्यत राजकुमारको सम्बोधित करके कहा 'कुमार! तू तो अभी बालक है। क्या तूने ही हमारे श्रेष्ठ घोड़ेको बाँध रखा है? अरे! समस्त वीरशिरोमणि जिनके चरणोंकी सेवा करते हैं, उन महाराज श्रीरामचन्द्रजीको तू नहीं जानता? दैत्यराज रावण भी जिनके अद्भुत प्रतापको नहीं सह सका, उन्हींके घोड़ेको ले जाकर तूने अपने नगर में पहुँचा दिया है जान ले, मैं तेरे सामने आया हुआ काल हूँ, तेरा घोर शत्रु हूँ। छोकरे ! तू अब तुरंत चला जा और घोड़ेको छोड़ दे, फिर जाकर बालकोंकी भाँति खेल-कूदमें जो बहला ।'

दमनका हृदय बड़ा विशाल था, वह प्रतापाग्रयकी ऐसी बातें सुनकर मुसकराया और उनकी सेनाको तिनकेके समान समझता हुआ बोला- 'महाराज ! मैंने बलपूर्वक आपके घोड़ेको बाँधा और अपने नगरमें पहुँचा दिया है, अब जीते जी उसे लौटा नहीं सकता। आप बड़े बलवान् हैं तो युद्ध कीजिये। आपने जो यह कहा- 'तू अभी बालक है, इसलिये जाकर खेल कूदमें जी बहला' उसके लिये इतना ही कहना है कि अब आप बुद्धके मुहानेपर ही मेरा खेल देखिये।'

इतना कहकर सुबाहुकुमारने अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ायी और राजा प्रतापाग्रयकी छातीको लक्ष्य करके सौ बाणोंका संधान किया। परन्तु राजा प्रतापाग्रथने अपने हाथकी फुर्ती दिखाते हुए उन सभीबाणोंके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। यह देखकर राजकुमार दमनको बड़ा क्रोध हुआ और वह बाणकी वर्षा करने लगा। तदनन्तर दमनने अपने धनुषपर तीन सौ बाणोंका संधान किया और उन्हें शत्रुपर चलाया। उन्होंने प्रतापाग्रयकी छाती छेद डाली और रक्तमें नहाकर वे उसी भाँति नीचे गिरे, जैसे श्रीरामचन्द्रजीकी भक्तिसे विमुख हुए पुरुषोंका पतन हो जाता है। इसके बाद राजकुमारने शंखध्वनिके साथ गर्जना की। उसका पराक्रम देखकर प्रतापाग्रय क्रोधसे जल उठे और बोले- 'वीर! अब तू मेरा अद्भुत पराक्रम देख।' यों कहकर उन्होंने तुरंत तीखे बाणोंकी बौछार आरम्भ कर दी। वे बाण घोड़े और पैदल-सबके ऊपर पड़ते दिखायी देने लगे। उस समय राजकुमार दमनने प्रतापाग्रयकी बाण वर्षाको रोककर कहा-'आर्य! यदि आप शूरवीर हैं तो मेरी एक ही मार सह लीजिये। मैं अभिमानपूर्वक प्रतिज्ञा करके एक बात कहता हूँ, इसे सुनिये - वीरवर! यदि मैं इस बाणके द्वारा आपको रथसे नीचे न गिरा दूँ तो जो लोग युक्तिवाद कुशल होनेके कारण मतवाले होकर वेदोंकी निन्दा करते हैं, उनका वह नरकमें डुबोनेवाला पाप मुझे ही लगे।' यह कहकर उसने कालके समान भयंकर, आगकी ज्वालाओंसे व्याप्त एवं अत्यन्त तीक्ष्ण बाण तरकशसे निकालकर अपने धनुषपर चढ़ाया। वह कालाग्निके समान देदीप्यमान हो रहा था। राजकुमारने अपने शत्रुके हृदयको निशाना बनाया और बाग छोड़ दिया। वह बड़े वेगसे शत्रुकी ओर चला। प्रतापाग्रयने जब देखा कि शत्रुका बाण मुझे गिरानेके लिये आ रहा है, तो उन्होंने उसे काट | डालने के लिये कई तीखे बाण अपने धनुषपर चढ़ाये । किन्तु राजकुमारका बाण प्रतापाप्रधके सब बाणको बीचसे काटता हुआ उनके धैर्ययुक्त हृदयतक पहुँच ही गया। हृदयपर चोट करके वह उसके भीतर घुस गया। राजा प्रतापाग्रय उसकी चोट खाकर पृथ्वीपर गिर पड़े। उन्हें मूच्छित चेतनाहीन एवं रथकी बैठकसे धरतीपर गिरा देख सारथिने उठाकर रथपर बिठाया और युद्धभूमिसे बाहर ले गया। उस समय राजाकी सेनामेंबड़ा हाहाकार मचा। समस्त योद्धा भागकर वहाँ पहुँचे जहाँ करोड़ों वीरोंसे घिरे हुए शत्रुघ्नजी मौजूद थे। प्रतापाग्रयको परास्त करके राजकुमार दमनने विजय पायी और अब वह शत्रुघ्नकी प्रतीक्षा - करने लगा।

उधर शत्रुघ्नको जब यह हाल मालूम हुआ तो 2 वे क्रोधमें भरकर दाँतोंसे दाँत पीसते हुए बारंबार सैनिकोंसे पूछने लगे- 'कौन मेरा घोड़ा ले गया है? किसने शूर - शिरोमणि राजा प्रतापाग्रयको परास्त किया है?' तब सेवकोंने कहा- 'राजा बटुके पुत्र दमनने 1 प्रतापायको पराजित किया है और वे ही यज्ञका घोड़ा ले गये हैं।' यह सुनकर शत्रुघ्न बड़े वेगसे चलकर युद्धभूमिमें आये वहीं उन्होंने देखा, कितने ही हाथियोंके गण्डस्थल विदीर्ण हो गये हैं, घोड़े अपने सवारॉसहित 6 घायल होकर मरे पड़े हैं। यह सब देखकर शत्रुघ्नके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये; वे अपने योद्धाओंसे बोले 'यहाँ मेरी सेनामें सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान रखनेवाला कौन ऐसा वीर है, जो राजकुमार दमनको परास्त कर सकेगा ?" शत्रुघ्नका यह वचन सुनकर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले पुष्कलके हृदयमें दमनको जीवनेका उत्साह हुआ और उन्होंने इस प्रकार कहा - 'स्वामिन्! कहाँ यह छोटा सा राजकुमार दमन और कहाँ आपका असीम बल! महामते! मैं अभी जा रहा हूँ, आपके प्रतापसे दमनको परास्त करूँगा। युद्धके लिये मुझ सेवकके उद्यत रहते हुए कौन घोड़ा ले जायगा ? श्रीरघुनाथजीका प्रताप ही सारा कार्य सिद्ध करेगा। स्वामिन्! मेरी प्रतिज्ञा सुनिये; इससे आपको प्रसन्नता होगी। यदि मैं दमनको परास्त न करूँ तो श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंके रसास्वादनसे विलग (श्रीरामचरणचिन्तनसे दूर) रहनेवाले पुरुषोंको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। यदि मैं दमनपर विजय न पाऊँ तो जो पुत्र माताके चरणोंसे पृथक् दूसरा कोई तीर्थ मानकर उसके साथ विरोध करता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे।'

पुष्कलकी यह प्रतिज्ञा सुनकर शत्रुघ्नजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उन्हें युद्धमें जानेकी आज्ञादे दी। आज्ञा पाकर पुष्कल बहुत बड़ी सेनाके साथ उस स्थानपर गये, जहाँ वीरवंशमें उत्पन्न राजकुमार दमन मौजूद था युद्धक्षेत्र पुष्कलको आया जान वीराग्रगण्य दमन भी अपनी सेनासे घिरा हुआ आगे बढ़ा। दोनोंका एक-दूसरेसे सामना हुआ। अपने-अपने रथपर बैठे हुए दोनों वीर बड़ी शोभा पा रहे थे, उस समय पुष्कलने महाबली राजकुमारसे कहा-'दमन! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि मैं तुम्हारे साथ युद्ध करनेके लिये प्रतिज्ञा करके आया हूँ, मेरा नाम पुष्कल है. मैं भरतजीका पुत्र है तुम्हें अपने शस्त्रोंसे परास्त करूँगा। महामते! तुम भी हर तरहसे तैयार हो जाओ।' पुष्कलकी उपर्युक्त बात सुनकर उसने हँसते-हँसते उत्तर दिया- 'भरतनन्दन! मुझे राजा सुबाहुका पुत्र समझो, मेरा नाम दमन है पिताके प्रति भक्ति रखनेके कारण मेरे सारे पाप दूर हो गये हैं, महाराज शत्रुघ्नका घोड़ा ले जानेवाला मैं ही हूँ। विजय तो दैवके अधीन है, दैव जिसे देगा-जिसे अपनी कृपासे अलंकृत करेगा, उसे ही विजय मिलेगी। परन्तु तुम बुद्धके मुहानेपर डटे रहकर मेरा पराक्रम देखो।'

यों कहकर दमनने धनुष चढ़ाया और उसे कानतक खींचकर शत्रुओंके प्राण लेनेवाले तीखे बाणको छोड़ना आरम्भ किया। उन बाणोंने आकाशमण्डलको ढक लिया और उनकी छायासे सूर्यदेवकी किरणोंका प्रकाश भी रुक गया। राजकुमारके चलाये हुए उन बाणकी चोट खाकर कितने ही मनुष्य, रथ, हाथी और घोड़े धरतीपर लोटते दिखायी देने लगे। शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले पुष्कलने उसका वह पराक्रम देखा तथा आचमन करके एक बाण हाथमें लिया और उसे अग्निदेव मन्यसे विधिपूर्वक अभिमन्त्रित करके अपने धनुषपर रखा। तदनन्तर भलीभाँति खींचकर उसे शत्रुओंके ऊपर छोड़ दिया। धनुषसे छूटते ही उस बाणसे युद्धके मुरनेपर भयंकर आग प्रकट हुई। वह अपनी ज्वालाओंसे आकाशको चाटती हुई प्रलयाग्निके समान प्रज्वलित हो उठी। फिर तो दमनकी सेना रणभूमिमें दग्ध होने लगी, उसके ऊपर त्रास छा गया और वह आगकी लपटोंसे पीड़ित होकर भाग चली।राजकुमार दमनके छोड़े हुए सभी बाण अग्निकी ज्वालाओंमें झुलसकर सब ओरसे नष्ट हो गये। अपनी सेना दग्ध होती देख दमन क्रोधसे भर गया। वह सभी अस्त्र-शस्त्रोंका विद्वान् था; इसलिये उसने वह आग बुझानेके लिये वरुणास्त्र हाथमें लिया और शत्रुपर छोड़ दिया। उसके छोड़े हुए वरुणास्त्रने रथ और घोड़े आदिसे भरी हुई पुष्कलकी सेनाको जलसे आप्लावित कर दिया। शत्रुओंके रथ और हाथी पानीमें डूबते दिखायी देने लगे तथा अपने पक्षके योद्धाओंको शान्ति मिली। पुष्कलने देखा, मेरी सेना जलराशिसे पीड़ित होकर काँपती, क्षुब्ध होती और नष्ट होती जा रही है तथा मेरा आग्नेयास्त्र शत्रुके वरुणास्त्रसे शान्त हो गया है। तब अत्यन्त क्रोधके कारण उसकी आँखें लाल हो गयीं और उसने वायव्यास्त्रसे अभिमन्त्रित करके एक बहुत बड़ा बाण अपने धनुषपर रखा । तदनन्तर वायव्यास्त्रकी प्रेरणासे बड़े जोरकी हवा उठी और उसने अपने वेगसे वहाँ घिरी हुई मेघोंकी घटाको छिन्न-भिन्न कर दिया। राजकुमार दमनने अपने सैनिकोंको वायुसे पराजित होते देख अपने धनुषपर पर्वतास्त्रका संधान किया। फिर तो शत्रुयोद्धाओंके मस्तकपर पर्वतोंकी वर्षा होने लगी। उन पर्वतोंने वायुकी गतिको रोक दिया।अब हवा कहीं भी नहीं जा पाती थी। यह देख पुष्कलने अपने धनुषपर वज्रास्त्रका प्रयोग किया। तब वज्रके आघातसे वे सभी पर्वत क्षणभरमें तिलके समान टुकड़े टुकड़े हो गये। साथ ही वह वज्र उच्चस्वरसे गर्जना करता हुआ राजकुमार दमनकी छातीपर बड़े वेगसे गिरा। छातीके बिंध जानेके कारण राजकुमारको गहरी चोट पहुँची, इससे उस बलवान् वीरको बड़ी व्यथा हुई। उसका हृदय व्याकुल हो उठा और वह मूर्च्छित हो गया। दमनका सारथि युद्धनीतिमें निपुण था । वह राजकुमारको मूच्छित देखकर उसे रणभूमिसे एक कोस दूर हटा ले गया। फिर तो उसके योद्धा अदृश्य हो गये - इधर-उधर भाग खड़े हुए और राजधानीमें जाकर उन्होंने राजकुमारके मूच्छित होनेका समाचार कह सुनाया। पुष्कल धर्मके ज्ञाता थे; उन्होंने संग्राम भूमिमें इस प्रकार विजय पाकर श्रीरघुनाथजीके वचनोंका स्मरण करते हुए फिर किसीपर प्रहार नहीं किया। तदनन्तर दुन्दुभि बज उठी, जोर-जोरसे जय-जयकार होने लगा। सब ओरसे साधुवादके मनोहर वचन सुनायी देने लगे। पुष्कलको विजयी देखकर शत्रुघ्न बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सुमति आदि मन्त्रियोंसे घिरकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।

Previous Page 111 of 266 Next

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान