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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 174 - Khand 5, Adhyaya 174

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चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन

नारदजीने पूछा- महेश्वर पृथ्वीपर चातुर्मास्य व्रतके जो प्रसिद्ध नियम हैं, उन्हें में सुनना चाहता हूँ; आप उनका वर्णन कीजिये।

महादेवजी बोले- देवर्षे! सुनो, मैं तुम्हारे प्रश्नका उत्तर देता हूँ। आषाढ़ शुक्लपक्षमें एकादशीको उपवास करके भक्तिपूर्वक चातुर्मास्य व्रतके नियम ग्रहण करे। श्रीहरिके योगनिद्रामै प्रवृत्त हो जानेपर मनुष्य चार मास अर्थात् कार्तिक पूर्णिमातक भूमिपर शयन करे। इस बीचमें न तो घर या मन्दिर आदिकी प्रतिष्ठा होती हैं और न यज्ञादि कार्य ही सम्पन्न होते हैं विवाह, यज्ञोपवीत, अन्यान्य मांगलिक कर्म, राजाओंकी यात्रा तथा नाना प्रकारकी दूसरी दूसरी क्रियाएँ भी नहीं होतीं। मनुष्य एक हजार अश्वमेधयज्ञ करनेसे जिस फलको पाता है, वही चातुर्मास्य व्रतके अनुष्ठानसे प्राप्त कर लेता है। जब सूर्य मिथुनराशिपर हों, तब भगवान् मधुसूदनको शयन कराये और तुलाराशिके सूर्य होनेपर पुनः श्रीहरिको शयनसे उठाये। यदि मलमास आ जाय तो निम्नलिखित विधिका अनुष्ठान करे। भगवान् विष्णुकी प्रतिमा स्थापित करे, जो शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाली हो, जिसे पीताम्बर पहनाया गया हो तथा जो सौम्य आकारवाली हो। नारद! उसे शुद्ध एवं सुन्दर पलंगपर, जिसके ऊपर सफेद चादर बिछी हो और तकिया रखी हो, स्थापित करे। फिर दही, दूध, मधु, लावा और घीसे नहलाकर उत्तम चन्दनका लेप करे। तत्पश्चात् धूप दिखाकर मनोहर पुष्पोंसे श्रृंगार करे। इस प्रकार उसकी पूजा करके निम्नांकित मन्त्रसे प्रार्थना करे

सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्।

विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत्सर्वं चराचरम् ॥

(6615)

'जगन्नाथ आपके सो जानेपर यह सारा जगत् सो जाता है तथा आपके जाग्रत् होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत् जाग उठता है। '

नारद इस प्रकार भगवान् विष्णुकी प्रतिमाको स्थापित करके उसीके आगे स्वयं वाणीसे कहकर चातुर्मास्य व्रतके नियम ग्रहण करे स्त्री हो या पुरुष, जो भगवान्का भक्त हो, उसे हरिबोधिनी एकादशीतक चार महीनोंके लिये नियम अवश्य ग्रहण करने चाहिये। जितात्मा पुरुष निर्मल प्रभातकालमें दन्तधावनपूर्वक उपवास करके नित्यकर्मका अनुष्ठान करनेके पश्चात् भगवान् विष्णुके समक्ष जिन नियमोंको ग्रहण करता है, उनका तथा उनके पालन करनेवालोंका फल पृथक्-पृथक् बतलाता हूँ।

विद्वन्! चातुर्मास्यमें गुड़का त्याग करनेसे मनुष्यको मधुरताकी प्राप्ति होती है इसी प्रकार तेलको त्याग देनेसे दीर्घायु संतान और सुगन्धित तेलके त्यागसे अनुपम सौभाग्यकी प्राप्ति होती है। योगाभ्यासी मनुष्य ब्रह्मपदको प्राप्त होता है। ताम्बूलका त्याग करनेसे मनुष्य भोग-सामग्रीसे सम्पन्न होता और उसका कष्ठ सुरीला होता है। घीके त्यागसे लावण्यकी प्राप्ति होती और शरीर चिकना होता है। विप्रवर त्याग करनेवालेको बहुत-से पुत्रोंकी प्राप्ति होती है जो चौमासेभर पलाशके पत्तेमें भोजन करता है, वह रूपवान् और भोग-सामग्रीसे सम्पन्न होता है। दही-दूध छोड़नेवाले मनुष्यको गोलोक मिलता है। जो मौनव्रत धारण करता है, उसकी आज्ञा भंग नहीं फलका होती। जो स्थालीपाक (बटलोईमें भोजन बनाकर खाने) का त्याग करता है, वह इन्द्रका सिंहासन प्राप्त करता है। नारद । इस प्रकारके त्यागसे धर्मकी सिद्धि होती है। इसके साथ 'नमो नारायणाय' का जपकरनेसे सौगुने फलकी प्राप्ति होती है। चौमासेका व्रत करनेवाला पुरुष पोखरेमें स्नान करनेमाजसे गंगा स्नानका फल पाता है। जो सदा पृथ्वीपर भोजन करता है, वह पृथ्वीका स्वामी होता है। श्रीविष्णुकी चरण चन्दना करनेसे गोदानका फल मिलता है। उनके चरणकमलोंका स्पर्श करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। प्रतिदिन एक समय भोजन करनेवाला पुरुष अग्निष्टोमयज्ञका फलभागी होता है जो श्रीविष्णुकी एक सौ आठ बार परिक्रमा करता है, वह दिव्य विमानपर बैठकर यात्रा करता है। विद्वन्! पंचगव्य खानेवाले मनुष्यको चान्द्रायणका फल मिलता है। जो प्रतिदिन भगवान् विष्णुके आगे शास्त्रविनोदके द्वारा लोगोंको ज्ञान देता है, वह व्यासस्वरूप विद्वान् श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। तुलसीदलसे भगवान्‌को पूजा करके मानव वैकुण्ठधाममें जाता है। गर्म जलका त्याग कर देनेसे पुष्कर तीर्थमें स्नान करनेका फल होता है। जो पत्तोंमें भोजन करता है, उसे कुरुक्षेत्रका फल मिलता है। जो प्रतिदिन पत्थरकी शिलापर भोजन करता है, उसे प्रयाग-तीर्थका पुण्य प्राप्त होता है।

चौमासेमें काँसीके बरतनोंका त्याग करके अन्यान्य धातुओंके पात्रोंका उपयोग करे। अन्य किसी प्रकारका पात्र न मिलनेपर मिट्टीका ही पात्र उत्तम है अथवा स्वयं ही पलाशके पत्ते लाकर उनकी पत्तल बनावे और उनसे भोजन - पात्रका काम ले। जो पूरे एक वर्षतक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है और जो वनमें रहकर केवल पत्तोंमें भोजन करता है, उन दोनोंको समान फल मिलता है। पलाशके पत्तोंमें किया हुआ भोजन चान्द्रायणके समान माना गया है। पलाशके पत्तों में एक-एक बारका भोजन त्रिरात्र व्रतके समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाला बताया गया है। एकादशीके व्रतका जो पुण्य है, वही पलाशके पत्तेमें भोजन करनेका भी बतलाया गया है। उससे मनुष्य सब प्रकारके दानों तथा समस्त तीर्थोंका फल पा लेता है। कमलके पत्तोंमें भोजन करनेसे कभी नरक नहीं देखना पड़ता। ब्राह्मण उसमें भोजन करनेसे वैकुण्ठमें जाता है। ब्रह्माजीका महान्वृक्ष—पलाश पापका नाशक और सम्पूर्ण कामनाओंका दाता है। नारद! इसका बिचला पत्ता शूद्रजातिके लिये निषिद्ध है। यदि शुद्र पलाशके बिचले पत्रमें भोजन करता है तो उसे चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त नरकमे रहना पड़ता है; अतः वह बिचले पत्रको त्याग दे और शेष पत्रोंमें भोजन किया करे। ब्रह्मन् ! जो शूद्र बिचले पत्रमें भोजन करता है, वह ब्राह्मणको कपिला गौ दान करनेसे ही शुद्ध होता है, अन्यथा नहीं।

यदि शूद्र अपने घरमें कपिला गौका दोहन करे तो वह दस हजार वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है। कीड़ेकी योनिसे छूटनेपर पशुयोनिमें जन्म लेता है। जो शुद्र कपिल जातिके बैलको गाड़ी जोतकर होता है, वह उस बैलके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक कुम्भीपाकर्मे पकाया जाता है; यदि शूद्र पानी लानेके लिये किसी ब्राह्मणको घरमें भेजे तो वह जल मदिराके तुल्य होता है और उसे पीनेवाला नरकमें जाता है। जो शूद्र बुलानेपर ब्राह्मणोंके घर भोजन करता है, उसके लिये वह अन्न अमृतके समान होता है और उसे खाकर वह मोक्ष प्राप्त करता है। जो शूद्र लोभवश दूसरेका विशेषतः ब्राह्मणोंका सोना या चाँदी ले लेता है, वह नरकमें जाता है। शूद्रको चाहिये कि वह सदा ब्राह्मणोंको दान दे और उनमें विशेषरूपसे भक्तिभाव करे। विशेषतः चौमासेमें जैसे भगवान् विष्णु आराधनीय हैं, वैसे ही ब्राह्मण भी नारद! ब्राह्मणोंकी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये। भाद्रपद मास आनेपर उनकी महापूजा होती है। चौमासेमें भूमिपर शयन करनेवाला मनुष्य विमान प्राप्त करता है। दस हजार वर्षोंतक उसे रोग नहीं सताते। वह मनुष्य बहुत-से पुत्र और धनसे युक्त होता है उसे कभी कोढ़की बीमारी नहीं होती। बिना माँगे स्वतः प्राप्त हुए अन्नका भोजन करनेसे बावली और कुआँ बनवानेका फल होता है जो प्राणियोंकी हिंसासे मुँह मोड़कर द्रोहका त्याग कर देता है, वह भी पूर्वोक्त पुण्यका भागी होता है। वेदोंमें बताया गया है कि 'अहिंसा श्रेष्ठ धर्म है।' दान, दया और दम ये भी उत्तम धर्म हैं, यह बात मैंने सर्वत्र ही सुनी है; अतः बड़े लोगोंको भीचाहिये कि वे पूरा प्रयत्न करके उक्त धर्मोका पालन करें। यह चातुर्मास्य व्रत मनुष्योंद्वारा सदा पालन करनेयोग्य है। ब्रह्मन् और अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता ? इस पृथ्वीपर जो लोग भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे धन्य हैं! उनका कुल अत्यन्त धन्य है। तथा उनकी जाति भी परम धन्य मानी गयी है।

जो भगवान् जनार्दनके शयन करनेपर मधु भक्षण करता है, उसे महान् पाप लगता है; अब उसके त्यागनेका जो पुण्य है, उसका भी श्रवण करो, नाना प्रकारके जितने भी यज्ञ हैं, उन सबके अनुष्ठानका फल उसे प्राप्त होता है। चौमासेमें अनार, नीबू और नारियलका भी त्याग करे। ऐसा करनेवाला पुरुष विमानपर विचरनेवाला देवता होकर अन्तमें भगवान् विष्णुके वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। जो मनुष्य धान जी और गेहूँका त्याग करता है, वह विधिपूर्वक दक्षिणासहित अश्वमेधादि यज्ञोंके अनुष्ठानका फल पाता है। साथ ही वह धन-धान्यसे सम्पन्न और अनेक पुत्रोंसे युक्त होता है। तुलसीदल, तिल और कुशोंसे तर्पण करनेका फल कोटिगुना बताया गया है। विशेषतः चातुर्मास्यमें उसका फल बहुत अधिक होता है। जो भगवान् विष्णुके सामने वेदके एक या आधे पदका अथवा एक या आध ऋचाका भी गान करते हैं, वे निश्चय ही भगवान्के भक्त हैं; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। नारद! जो चौमासेमें दही, दूध, पत्र, गुड़ और साग छोड़ देता है, वह निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। मुने! जो मनुष्य प्रतिदिन आँवला मिले हुए जलसे ही स्नान करते हैं, उन्हें नित्य महान् पुण्य प्राप्त होता है। मनीषी पुरुष आँवलेके फलको पापहारी बतलाते हैं। ब्रह्माजीने तीनों लोकोंको तारनेके लिये पूर्वकालमें आँवलेकी सृष्टि की थी। जो मनुष्य चौमासेभर अपने हाथसे भोजन बनाकर खाता है, वह दस हजार वर्षोंतक इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है जो मौन होकर भोजन करता है, वह कभी दुःखमें नहीं पड़ता। मौन होकर भोजन करनेवाले राक्षस भी स्वर्गलोकमें चले गये हैं। यदि पके हुए अन्नमें कीड़े-मकोड़े पड़ जायँ तो वहअशुद्ध हो जाता है। यदि मानव उस अपवित्र अन्नको खा ले तो वह दोषका भागी होता है। मौन होकर भोजन करनेवाला पुरुष निस्सन्देह स्वर्गलोकमें जाता है जो बात करते हुए भोजन करता है, उसके वार्तालापसे अन्न अशुद्ध हो जाता है, वह केवल पापका भोजन करता है; अतः मौनधारण अवश्य करना चाहिये। नारद! मौनावलम्बनपूर्वक जो भोजन किया जाता है, उसे उपवासके समान जानना चाहिये। जो नरश्रेष्ठ प्रतिदिन प्राणवायुको पाँच आहुतियाँ देकर मौन भोजन करता है, उसके पाँच पातक निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मन् पितृकर्म (श्राद्ध) में सिला हुआ वस्त्र नहीं पहनना चाहिये। अपवित्र अंगपर पड़ा हुआ वस्त्र भी अशुद्ध हो जाता है। मल मूत्रका त्याग अथवा मैथुन करते समय कमर अथवा पीठपर जो वस्त्र रहता है, उस वस्त्रको अवश्य ही बदल दे। श्राद्धमें तो ऐसे वस्त्रको त्याग देना ही उचित है। मुने! विद्वान् पुरुषोंको सदा चक्रधारी भगवान् विष्णुको पूजा करनी चाहिये। विशेषतः पवित्र एवं जितेन्द्रिय पुरुषोंका यह आवश्यक कर्तव्य है। भगवान् हृषीकेशके शयन करनेपर तृणशाक (पत्तियोंका साग), कुम्भिका (लौकी) तथा सिले हुए कपड़े यलपूर्वक त्याग देने चाहिये। जो चौमासेमें भगवान्के शयन करनेपर इन वस्तुओंको त्याग देता है, वह कल्प कभी नरकमें नहीं पड़ता। विप्रवर! जिसने असत्य भाषण, क्रोध, शहद तथा पर्वके अवसरपर मैथुनका त्याग कर दिया है, वह अश्वमेधयज्ञका फल पाता है। विद्वन्! किसी पदार्थको उपभोगमें लानेके पहले उसमेंसे कुछ ब्राह्मणको दान करना चाहिये; जो ब्राह्मणको दिया जाता है, वह धन अक्षय होता है। ब्रह्मन् ! मनुष्य दानमें दिये हुए धनका कोटि-कोटि गुना फल पाता है। जो पुरुष सदा ब्राह्मणकी बतायी हुई उत्तम विधि तथा शास्त्रोक्त नियमोंका पालन करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है, अतः पूर्ण प्रयत्न करके यथाशक्ति नियम और दानके द्वारा देवाधिदेव जनार्दनको संतुष्ट करना चाहिये।

नारदजीने पूछा- विश्वेश्वर! जिसके आचरणसेभगवान् गोविन्द मनुष्योंपर संतुष्ट होते हैं, वह ब्रह्मचर्य कैसा होता है? प्रभो। यह बतलाने की कृपा करें।


महादेवजीने कहा- विद्वन् जो केवल अपनी ही स्त्रीसे अनुराग रखता है, उसे विद्वानोंने ब्रह्मचारी माना है। केवल ऋतुकालमें स्त्रीसमागम करनेसे ब्रहाचार्यको रक्षा होती है जो अपने में भक्ति रखनेवाली निर्दोष पत्नीका परित्याग करता है, वह पापी मनुष्य लोकमें भ्रूणहत्याको प्राप्त होता है।

चौमासेमें जो स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किया जाता है, वह सब अक्षय होता है। जो एक अथवा दोनों समय पुराण सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके धामको जाता है जो भगवान्के शयन करनेपर विशेषतः उनके नामका कीर्तन और जप करता है, उसे कोटिगुना फल मिलता है जो ब्राह्मण भगवान् विष्णुका भक्त है और प्रतिदिन उनका पूजन करता है, वही सबमें धर्मात्मा तथा वही सबसे पूज्य है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है मुने! इस पुण्यमय पवित्र एवं पापनाशक चातुर्मास्य व्रतको सुननेसे मनुष्यको गंगास्नानका फल मिलता है। नारदजीने कहा प्रभो। चातुर्मास्य व्रतका उद्यापन बतलाइये; क्योंकि उद्यापन करनेपर निश्चय ही सब कुछ परिपूर्ण होता है।

महादेवजी बोले- महाभाग ! यदि व्रत करनेवाला पुरुष व्रत करनेके पश्चात् उसका उद्यापन नहीं करता, तो वह कमौके यथावत् फलका भागी नहीं होता। मुनिश्रेष्ठ उस समय विशेषरूपसे सुवर्णके साथ अन्नका दान करना चाहिये; क्योंकि अन्नके दानसे वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है जो मनुष्य चौमासेभर पलाशकी पत्तल में भोजन करता है, वह उद्यापनके समयघीके साथ भोजनका पदार्थ ब्राह्मणको दान करे। यदि उसने अयाचित व्रत (बिना माँगे स्वतः प्राप्त अन्नका भोजन) किया हो तो सुवर्णयुक्त वृषभका दान करे। मुनिश्रेष्ठ उड़दका त्याग करनेवाला पुरुष बछडेसहित गौका दान करे। आँवलेके फलसे स्नानका नियम पालन करनेपर मनुष्य एक माशा सुवर्ण दान करे। फलोंके त्यागका नियम करनेपर फल दान करे। धान्यके त्यागका नियम होनेपर कोई सा धान्य (अन्न) अथवा अगहनीके चावलका दान करे। भूमिशयनका नियम पालन करनेपर रूईके गद्दे और तकियेसहित शय्यादान करे। द्विजवर जिसने सीमामै ब्रह्मचर्य का पालन किया है उसको चाहिये कि भक्तिपूर्वक ब्राह्मण-दम्पतिको भोजन दें, साथ ही उपभोगके अन्यान्य सामान, दक्षिणा, साग और नमक दान करे। प्रतिदिन बिना तेल लगाये स्नानका नियम पालन करनेवाला मनुष्य घी और सत्तू दान करे। नख और केश रखनेका नियम पालन करनेपर दर्पण दान करे। यदि जूते छोड़ दिये हो तो उद्यापन के समय जूतोंका दान करना चाहिये। जो प्रतिदिन दीपदान करता रहा हो, वह उस दिन सोनेका दीप प्रस्तुत करे और उसमें घी डालकर विष्णुभक्त ब्राह्मणको दे दे। देते समय यही उद्देश्य होना चाहिये कि मेरा व्रत पूर्ण हो जाय। पान न खानेका नियम लेनेपर सुवर्णसहित कपूरका दान करे। द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार नियमके द्वारा समय समयपर जो कुछ परित्याग किया हो, वह परलोकमें सुख प्राप्तिकी इच्छासे विशेषरूपसे दान करे। पहले स्नान आदि करके भगवान् विष्णुके समक्ष उद्यापन कराना चाहिये। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णु आदि-अन्तसे रहित हैं, उनके आगे उद्यापन करनेसे व्रत परिपूर्ण होता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार