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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 184 - Khand 5, Adhyaya 184

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चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व

पार्वती बोलीं- महेश्वर! सब महीनोंकी विधिका वर्णन कीजिये। प्रत्येक मासमें कौन-कौनसे महोत्सव करने चाहिये और उनके लिये उत्तम विधि क्या है? सुरेश्वर! किस महीनेका कौन देवता है? किसकी पूजा करनी चाहिये, उस पूजनकी महिमा कैसी है और वह किस तिथिको करना उचित है?

महादेवजी बोले- देवि! मैं प्रत्येक मासके उत्सवको विधि बतलाता हूँ। पहले चैत्र मासके शुक्लपक्षमें विशेषतः एकादशी तिथिको भगवान्‌को झूलेपर बिठाकर पूजा करनी चाहिये। यह दोलारोहणका उत्सव बड़ी भक्तिके साथ और विधिपूर्वक मनाना चाहिये। पार्वती! जो लोग कलियुगके पाप-दोषका अपहरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको झूलेपर विराजमान देखते हैं-उस रूपमें उनकी झाँकी करते हैं, वे सहस्रों अपराधोंसे मुक्त हो जाते हैं करोड़ों जन्मोंमें किये हुए पाप तभीतक मौजूद रहते हैं, जबतक मनुष्य विश्वके स्वामी भगवान् जगन्नाथको झूलेपर बिठाकर उन्हें अपने हाथसे झुलाता नहीं। जो लोग कलियुग पर बैठे हुए जनार्दनका दर्शन करते हैं, वे गोहत्यारे हों तो भी मुक्त हो जाते हैं; फिर औरोंकी तो बात ही क्या है। दोलोत्सवसे प्रसन्न होकर समस्त देवता भगवान् शंकरको साथ लेकर पर बैठे हुए श्रीविष्णुको झाँकी करनेके लिये आते हैं और आँगनमें खड़े हो हर्षमें भरकर स्वयं भी नाचते, गाते एवं बाजे बजाते हैं। वासुकि आदि नाग और इन्द्र आदि देवता भी दर्शनके लिये पधारते हैं। भगवान् विष्णुको झूलेपर विराजमान देख तीनों लोकों में उत्सव होने लगता है; अतः सैकड़ों कार्य छोड़कर दोलोत्सवके दिन झूलनका उत्सव करो। जो लोगझूलेपर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णके सामने रात्रिमें जागरण करते हैं, उन्हें एक निमेषमें ही सब पुण्योंकी प्राप्ति हो जाती है। सुरेश्वरि ! झूलेपर विराजमान दक्षिणाभिमुख भगवान् गोविन्दका एक बार भी दर्शन करके मनुष्य ब्रह्महत्याके पापसे छूट जाता है।

ॐ दोलारूढाय विद्महे माधवाय च

धीमहि तन्नो देवः प्रचोदयात् ॥

'झूलेपर बैठे हुए भगवान्‌का तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। श्रीमाधवका ध्यान करते हैं। अतः वे देव-भगवान् विष्णु हमलोगोंकी बुद्धिको प्रेरित करें।'

इस गायत्री मन्त्रके द्वारा भगवान्‌का पूजन करना चाहिये। 'माधवाय नमः', 'गोविन्दाय नमः' और 'श्रीकण्ठाय नमः ' इन मन्त्रोंसे भी पूजन किया जा सकता है। मन्त्रोच्चारणके साथ विधिपूर्वक पूजन करना उचित है। एकाग्रचित्त होकर गुरुको यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये तथा निरन्तर भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी लीलाओंका गान करते रहना चाहिये। इससे उत्सव पूर्ण होता है। सुमुखि ! और अधिक कहनेसे क्या लाभ । झूलेपर विराजमान भगवान् विष्णु सब पापोंको हरनेवाले हैं। जहाँ दोलोत्सव होता है, वहाँ देवता, गन्धर्व, किन्नर और ऋषि बहुधा दर्शनके लिये आते हैं। उस समय 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस मन्त्रद्वारा षोडशोपचारसे विधिवत् पूजा करनी उचित है। इससे सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होती हैं। सुव्रते ! अंगन्यास, करन्यास तथा शरीरन्यास- सब कुछ द्वादशाक्षर मन्त्रसे करना चाहिये और इस आगमोक्त मन्त्रसे ही महान् उत्सवका कार्य सम्पन्न करना चाहिये। झूलेपर सबसेऊँचे लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुको बैठाना चाहिये। भगवान् के आगे [कुछ नीची सतहमें] वैष्णवोंको,

नारदादि देवर्षियोंको तथा विष्वक्सेन आदि भक्तोंको स्थापित करना चाहिये। फिर पाँच प्रकारके बाजकी आवाजके साथ विद्वान् पुरुष भगवान्की आरती करे और प्रत्येक पहरमें यत्नपूर्वक पूजा भी करता रहे। तत्पश्चात् नारियल तथा सुन्दर केलोंके साथ जलसे भगवान्‌को अर्घ्य दे अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है

देवदेव जगन्नाथ शङ्खचक्रगदाधर ।

अयं गृहाण मे देव कृपां कुरु ममोपरि ॥

(85/31)

'देवताओंके देवता जगत्के स्वामी तथा शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले दिव्यस्वरूप नारायण ! यह अर्ध्य ग्रहण करके मुझपर कृपा कीजिये।'

तदनन्तर भगवान्‌के प्रसादभूत चरणामृत आदि वैष्णवोंको बाँटे। वैष्णवजनोंको चाहिये कि वे बाजे बजाकर भगवान् के सामने नृत्य करें और सभी लोग बारी-बारीसे भगवान्‌को झुलायें। सुरेश्वरि! पृथ्वीपर जो-जो तीर्थ और क्षेत्र हैं, वे सभी उस दिन भगवान्‌कादर्शन करने आते हैं-ऐसा जानकर यह महान् उत्सव अवश्य करना चाहिये। पार्वती! वैशाख मासकी पूर्णिमाके दिन वैष्णव पुरुष भक्ति, उत्साह और प्रसन्नताके साथ जगदीश्वर भगवान्‌को जलमें पधराकर उनकी पूजा करे अथवा एकादशी तिथिको अत्यन्त हर्षमें भरकर गीत, वाद्य तथा नृत्यके साथ यह पुण्यमय महोत्सव करे। भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी लील कथाका गान करते हुए ही यह शुभ उत्सव रचाना उचित है। उस समय भगवान्से प्रार्थनापूर्वक कहें 'हे देवेश्वर ! इस जलमें शयन कीजिये।' जो लोग वर्षाकालके आरम्भ में भगवान् जनार्दनको जलमें शयन कराते हैं, उन्हें कभी नरककी ज्वालामें नहीं तपना पड़ता। देवेश्वरि सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीके बर्तन श्रीविष्णुको शयन कराना उचित है। पहले उस वर्तनमें शीतल एवं सुगन्धित जल रखकर विद्वान् पुरुष उस जलके भीतर श्रीविष्णुको स्थापित करे। गोपाल या श्रीराम नामक मूर्तिकी स्थापना करे अथवा शालग्रामशिलाको ही स्थापित करे या और ही कोई प्रतिमा जलमें रखे। उससे होनेवाले पुण्यका अन्त नहीं है। देवि! इस पृथ्वीपर जबतक पर्वत, लोक और सूर्यकी किरणें विद्यमान हैं, तबतक उसके कुलमें कोई नरकगामी नहीं होता। अतः ज्येष्ठ मासमें श्रीहरिको जलमें पधराकर उनकी पूजा करनी चाहिये। इससे मनुष्य प्रलयकालतक निष्पाप बना रहता है। ज्येष्ठ और आषाढ़ के समय तुलसीदलसे वासित शीतल जलमें भगवान् धरणीधरकी पूजा करे। जो लोग ज्येष्ठ और आषाढ़ मासमें नाना प्रकारके पुष्पोंसे जलमें स्थित श्रीकेशवकी पूजा करते हैं, वे यम-यातनासे छुटकारा पा जाते हैं। भगवान् विष्णु जलके प्रेमी हैं, उन्हें जल बहुत ही प्रिय है; इसीलिये वे जलमें शयन करते हैं। अतः गरमीके मौसममे विशेषरूपसे जलमें स्थापित करके ही हरिका पूजन करना चाहिये। जो शालग्रामशिलाको जलमें विराजमान करके परम भक्तिके साथ उसकी पूजा करता है, वह अपने कुलको पवित्र करनेवाला होता है। पार्वती! सूर्यके मिथुन और कर्कराशिपर स्थित होनेके,,समय जिसने भक्तिपूर्वक जलमें श्रीहरिकी पूजा की है, विशेषतः द्वादशी तिथिको जिसने जलशायी विष्णुका अर्चन किया है, उसने मानो कोटिशत यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया। जो वैशाख मासमें भगवान् माधवको जलपात्रमें स्थापित करके उनका पूजन करते हैं, वे इस पृथ्वीपर मनुष्य नहीं, देवता हैं।

जो द्वादशीकी रातको जलपात्रमें गन्ध आदि डालकर उसमें भगवान् गरुडध्वजकी स्थापना और पूजा करता है, वह मोक्षका भागी होता है। जो श्रद्धारहित, पापात्मा, नास्तिक, संशयात्मा और तर्कमें ही स्थित रहनेवाले हैं, ये पाँच व्यक्ति पूजाके फलके भागी नहीं होते। * इसी प्रकार जो जगत्के स्वामी महेश्वर श्रीविष्णुको सदा जलमें रखकर उनकी पूजा करता है, वह मनुष्य सदाके लिये महापापोंसे मुक्त हो जाता है। देवेश्वरि ! 'ॐ ह्रां ह्रीं रामाय नमः' इस मन्त्रसे वहाँ पूजन बताया गया है। 'ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय नम:' इस मन्त्रसे जलको अभिमन्त्रित करना चाहिये। तत्पश्चात् निम्नांकित मन्त्रसे अर्घ्य निवेदन करे

देवदेव महाभाग श्रीवत्सकृतलाञ्छन ।

महादेव नमस्तेऽस्तु नमस्ते विश्वभावन ॥

अर्घ्यं गृहाण भो देव मुक्तिं मे देहि सर्वदा ।

(87 । 23-24)

'देवदेव! महाभाग ! श्रीवत्सके चिह्नोंसे युक्त महान् देवता! विश्वको उत्पन्न करनेवाले भगवान् नारायण ! मेरा अर्घ्य ग्रहण करें और मुझे सदाके लिये मोक्ष प्रदान करें।'

जो नाना प्रकारके पुष्पोंसे गरुडासन श्रीविष्णुकी पूजा करता है, वह सब बाधाओंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। द्वादशीको एकाग्रचित्त हो रातमें जागरण करके अविकारी एवं अविनाशी भगवान् विष्णुका भक्तिपूर्वक भजन करे। इस तरह भक्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको भक्तिभावसे तत्पर हो भगवान् विष्णुका वैशाखसम्बन्धी उत्सव करना चाहिये तथा उसमें आगमोक्त मन्त्रद्वारा समस्त विधिका पालन करना चाहिये। महादेवी! ऐसा करनेसे कोटि यज्ञोंके समान फल मिलता है। इस उत्सवको करनेवाला पुरुष राग-द्वेषसे मुक्त हो महामोहकी निवृत्ति करके इस लोकमें सुख भोगता और अन्तमें श्रीविष्णुके सनातन धामको जाता है। वेदके अध्ययनसे रहित तथा शास्त्रके स्वाध्यायसे शून्य मनुष्य भी श्रीहरिकी भक्ति पाकर वैष्णवपदको प्राप्त होता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार