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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 165 - Khand 5, Adhyaya 165

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चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- भगवन्! फाल्गुन शुक्लपक्षकी आमलकी एकादशीका माहात्म्य मैंने सुना। अब चैत्र कृorrent] एकादशीका क्या नाम है, यह बताने की कृपा कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजेन्द्र ! सुनो-मैं = इस विषय एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे चक्रवर्ती नरेश मान्धाताके पूछनेपर महर्षि लोमशने कहा था।

मान्धाता बोले- भगवन्। में लोगोंके हितकी इच्छासे यह सुनना चाहता हूँ कि चैत्र मासके कृष्णपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? उसकी क्या विधि है तथा उससे किस फलकी प्राप्ति होती है? कृपया ये सब बातें बताइये।

लोमशजीने कहा- नृपश्रेष्ठ! पूर्वकालकी बात है, अप्पाराओंसे सेवित चैत्ररथ नामक वनमें, जहाँ गन्धयोंकी कन्याएँ अपने किंकरोंके साथ बाजे बजाती हुई विहार करती हैं, मंजुघोषा नामक अप्सरा मुनिवर मेधावीको मोहित करनेके लिये गयी। वे महर्षि उसी वनमें रहकर ग्रहाचर्य का पालन करते थे। मंजुघोषा मुनिके भयसे आश्रमसे एक कोस दूर ही ठहर गयी और सुन्दर ढंगसे वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी। मुनिश्रेष्ठ मेधावी घूमते हुए उधर जा निकले और उस सुन्दरी अप्सराको इस प्रकार गान करते देख सेनासहित कामदेवसे परास्त होकर बरबस मोहके वशीभूत हो गये। मुनिकी ऐसी अवस्था देख मंजुघोषा उनके समीप आयी और वीणा नीचे रखकर उनका आलिंगन करने लगी। मेधावी भी उसके साथ रमण करने लगे। कामवश रमण करते हुए उन्हें रात और दिनका भी भान न रहा। इस प्रकार मुनिजनोचित सदाचारका लोप करके अप्सराके साथ रमण करते उन्हें बहुत दिन व्यतीत हो गये। मंजुघोषा देवलोक जाने को तैयार हुई। जाते समय उसने मुनिले मेधावीसे कहा- 'ब्रहान्। अब मुझे अपने देश जानेकी आज्ञा दीजिये।'मेधावी बोले- देवी! जबतक सबेरेकी सन्ध्या न हो जाय तबतक मेरे ही पास ठहरो ।

अप्सराने कहा - विप्रवर! अबतक न जाने कितनी सन्ध्या चली गयी मुझपर कृपा करके बीते हुए समयका विचार तो कीजिये।

लोमशजी कहते हैं- राजन्! अप्सराकी बात सुनकर मेधावीके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उस समय उन्होंने बीते हुए समयका हिसाब लगाया तो मालूम हुआ कि उसके साथ रहते सत्तावन वर्ष हो गये। उसे अपनी तपस्याका विनाश करनेवाली जानकर | मुनिको उसपर बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने शाप देते हुए कहा- 'पापिनी ! तू पिशाची हो जा।' मुनिके शापसे दग्ध होकर वह विनयसे नतमस्तक हो बोली 'विप्रवर! मेरे शापका उद्धार कीजिये। सात वाक्य बोलने या सात पद साथ-साथ चलनेमात्र से ही सत्पुरुषोंके साथ मैत्री हो जाती है। ब्रह्मन्! मैंने तो आपके साथ अनेक वर्ष व्यतीत किये हैं; अतः स्वामिन्! मुझपर कृपा कीजिये।'

मुनि बोले- भद्रे मेरी बात सुनो- यह शापसे उद्धार करनेवाली है। क्या करूं? तुमने मेरी बहुत बड़ी तपस्या नष्ट कर डाली है। चैत्र कृष्णपक्षमें जो शुभ एकादशी आती है उसका नाम है 'पापमोचनी'। वह सब पापका क्षय करनेवाली है। सुन्दरी ! उसीका व्रत करनेपर तुम्हारी पिशाचता दूर होगी।

ऐसा कहकर मेधावी अपने पिता मुनिवर च्यवनके आश्रमपर गये। उन्हें आया देख च्यवनने पूछा—'बेटा! यह क्या किया ? तुमने तो अपने पुण्यका नाश कर डाला !"

मेधावी बोले- पिताजी मैंने अप्सराके साथ रमण करनेका पातक किया है। कोई ऐसा प्रायश्चित्त बताइये, जिससे पापका नाश हो जाय।

व्यवनने कहा- बेटा! चैत्र कृष्णपक्ष जो पापमोचनी एकादशी होती है, उसका व्रत करनेपर पापराशिका विनाश हो जायगा।पिताका यह कथन सुनकर मेधावीने उस व्रतका अनुष्ठान किया। इससे उनका पाप नष्ट हो गया और वे पुनः तपस्यासे परिपूर्ण हो गये। इसी प्रकार मंजुघोषाने भी इस उत्तम व्रतका पालन किया। 'पापमोचनी' का व्रत करनेके कारण वह पिशाच योनिसे मुक्त हुई और दिव्य रूपधारिणी श्रेष्ठ अप्सरा होकर स्वर्गलोकमें चली गयी। राजन्! जो श्रेष्ठ मनुष्य पापमोचनी एकादशीका व्रत करते हैं, उनका सारा पाप नष्ट हो जाता है। इसको पढ़ने और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, सुरापान और गुरुपत्नीगमन करनेवाले महापातकी भी इस व्रतके करनेसे पापमुक्त हो जाते हैं। यह व्रत बहुत पुण्यमय है।

युधिष्ठिरने पूछा- वासुदेव! आपको नमस्कार है। अब मेरे सामने यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वसिष्ठजीने दिलीपके पूछने पर कहा था l

दिलीपने पूछा- भगवन्! मैं एक बात सुनना चाहता हूँ। चैत्रमासके शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है?

वसिष्ठजी बोले – राजन् चैत्र शुक्लपक्षमें 'कामदा' नामकी एकादशी होती है। वह परम पुण्यमयी है। पापरूपी ईंधनके लिये तो वह दावानल ही है। प्राचीन कालकी बात है, नागपुर नामका एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोनेके महल बने हुए थे। उस नगरमें पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास करते थे। पुण्डरीक नामका नाग उन दिनों वहाँ राज्य करता था। गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरीका सेवन करती थीं। वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था। उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था। वे दोनों पति-पत्नीके रूपमें रहते थे। दोनों ही परस्पर कामसे पीड़ित रहा करते थे। ललिताके हृदय में सदा पतिकी ही मूर्ति बसी रहती थी और ललितके हृदयमें सुन्दरी ललिताका नित्य निवास था। एकदिनकी बात है, नागराज पुण्डरीक राजसभामें बैठकर मनोरंजन कर रहा था। उस समय ललितका गान हो रहा था किन्तु उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी। गाते-गाते उसे ललिताका स्मरण हो आया। अतः उसके पैरोंकी गति रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लगी। नागों में श्रेष्ठ कर्कोटकको ललितके मनका सन्ताप ज्ञात हो गया; अतः उसने राजा पुण्डरीकको उसके पैरोंकी गति रुकने एवं गानमें त्रुटि होनेकी बात बता दी। कर्कोटककी बात सुनकर नागराज पुण्डरीककी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। उसने गाते हुए कामातुर ललितको शाप दिया- 'दुर्बुद्धे! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नीके वशीभूत हो गया, इसलिये राक्षस हो जा।'

महाराज पुण्डरीकके इतना कहते ही वह गन्धर्व राक्षस हो गया। भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्र से भय उपजानेवाला रूप ऐसा राक्षस होकर वह कर्मका फल भोगने लगा। ललिता अपने पतिकी विकराल आकृति देख मन ही मन बहुत चिन्तित हुई भारी दुःखसे कष्ट पाने लगी सोचने लगी, 'क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पति पापसे कष्ट पा रहे हैं।' वह रोती हुई घने जंगलोंगें पतिके पीछे-पीछे घूमने लगी। वनमें उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक शान्त मुनि बैठे हुए थे। उनका किसी भी प्राणीके साथ वैर-विरोध नहीं था ललिता शीघ्रताके साथ वहाँ गयी और मुनिको प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई। मुनि बड़े दयालु थे। उस दुःखिनीको देखकर वे इस प्रकार बोले- 'शुभे तुम कौन हो? कहाँसे यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच सच बताओ।'

ललिताने कहा- महामुने! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं। मैं उन्हीं महात्माकी पुत्री हूँ मेरा नाम ललिता है। मेरे स्वामी अपने पाप-दोषके कारण राक्षस हो गये हैं। उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है। ब्रह्मन् इस समय मेरा जो कर्तव्य हो, वह बताइये। विप्रवर जिस पुण्यके द्वारा मेरे पति राक्षसभावसे छुटकारा पा जायँ, उसका उपदेश कीजिये।' ऋषि बोले- भद्रे इस समय चैत्रमासकेशुक्लपक्षकी 'कामदा' नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापको हरनेवाली और उत्तम है। तुम उसीका विधि पूर्वक व्रत करो और इस व्रतका जो पुण्य हो, उसे अपने स्वामीको दे डालो। पुण्य देनेपर क्षणभरमें ही उसकेशापका दोष दूर हो जायगा ।

राजन्! मुनिका यह वचन सुनकर ललिताको बड़ा हर्ष हुआ। उसने एकादशीको उपवास करके द्वादशीके दिन उन ब्रह्मर्षिके समीप ही भगवान् वासुदेवके [ श्रीविग्रहके] समक्ष अपने पतिके उद्धारके लिये यह वचन कहा- 'मैंने जो यह कामदा एकादशीका उपवासव्रत किया है, उसके पुण्यके प्रभावसे मेरे पतिका राक्षस भाव दूर हो जाय।'

वसिष्ठजी कहते हैं- ललिताके इतना कहते ही उसी क्षण ललितका पाप दूर हो गया। उसने दिव्य देह धारण कर लिया। राक्षस भाव चला गया और पुनः गन्धर्वत्वकी प्राप्ति हुई। नृपश्रेष्ठ! वे दोनों पति पत्नी 'कामदा' के प्रभावसे पहलेकी अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रूप धारण करके विमानपर आरूढ़ हो अत्यन्त शोभा पाने लगे। यह जानकर इस एकादशीके व्रतका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। मैंने लोगोंके हितके लिये तुम्हारे सामने इस व्रतका वर्णन किया है। कामदा एकादशी ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषोंका भी नाश करनेवाली है। राजन्! इसके पढ़ने और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार