ऋषियोंने पूछा- सूतजी जब इस प्रकार राजा वेनकी उत्पत्ति ही महात्मा पुरुषसे हुई थी, तब उन्होंने धर्ममय आचरणका परित्याग करके पापमें कैसे मन लगाया ?
सूतजी बोले- वेनकी जिस प्रकार पापाचारमें प्रवृत्ति हुई, वह सब बात में बता रहा हूँ। धर्मके ज्ञाता प्रजापालक राजा वेन जब शासन कर रहे थे, उस समय कोई पुरुष छद्मवेष धारण किये उनके दरबार में आया उसका नंग-धड़ंग रूप विशाल शरीर और सफेद सिर था। वह बड़ा कान्तिमान् जान पड़ता था। काँखमें मोरपंखकी बनी हुई मार्जनी (ओघा) दवाये और एक हाथमें नारियलका जलपात्र (कमण्डलु) धारण किये वह वेद-शास्त्रोंको दूषित करनेवाले शास्त्रका पाठ कर रहा था। जहाँ महाराज वेन बैठे थे, उसी स्थानपर वह बड़ी उतावलीके साथ पहुँचा। उसे आया देख वेनने पूछा- आप कौन हैं, जो ऐसा अद्भुत रूप धारण किये यहाँ आये हैं? मेरे सामनेसब बातें सच-सच बताइये।' वेनका वचन सुनकर उस पुरुषने उत्तर दिया- 'तुम इस प्रकार धर्मके पचड़े में पड़कर जो राज्य चला रहे हो, वह सब व्यर्थ है। तुम बड़े मूढ़ जान पड़ते हो। [मेरा परिचय जानना चाहते हो तो सुनो) में देवताओंका परम पूज्य है। मैं हो ज्ञान, मैं ही सत्य और मैं ही सनातन ब्रह्म हूँ। मोक्ष भी मैं ही हूँ। मैं ब्रह्माजीके देहसे उत्पन्न सत्यप्रतिज्ञ पुरुष हूँ। मुझे जिनस्वरूप जानो सत्य और धर्म ही मेरा कलेवर है। ज्ञानपरायण योगी मेरे ही स्वरूपका ध्यान करते हैं।
वेनने पूछा- आपका धर्म कैसा है? आपका शास्त्र क्या है? तथा आप किस आचारका पालन करते हैं? ये सब बातें बताइये।
जिन बोला- जहाँ 'अर्हन्' देवता, निर्ग्रन्थ गुरु और दयाको ही परम धर्म बताया गया है, वहीं मोक्ष देखा जाता है। यही जैन दर्शन है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अब मैं अपने आचार बतला रहा हूँ। मेरे मतमें यजनयाजन और वेदाध्ययन नहीं है सन्ध्योपासन भी नहीं है। तपस्या, दान, स्वधा (श्राद्ध) और स्वाहा (अग्निहोत्र) का भी परित्याग किया गया है। हव्यकव्य आदिकी भी आवश्यकता नहीं है। यज्ञ-यागादि क्रियाओंका भी अभाव है। पितरोंका तर्पण, अतिथियोंका सत्कार तथा बलिवैश्वदेव आदि कर्मोंका भी विधान नहीं 'किया गया है। केवल 'अर्हन्' का ध्यान ही उत्तम माना गया है। जैन-मार्गमें प्रायः ऐसे धर्मका आचरण ही दृष्टिगोचर होता है।
प्राणियोंका यह शरीर पाँचों तत्त्वोंसे ही बनता और परिपुष्ट होता है। आत्मा वायुस्वरूप है; अतः श्राद्ध और यज्ञ आदि क्रियाओंकी कोई आवश्यकता नहीं है। जैसे पानीमें जल-जन्तुओंका समागम होता है तथा जिस प्रकार बुलबुले पैदा होते और विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार संसार में समस्त प्राणियोंका आवागमन होतारहता है। अन्तकाल आनेपर वायुरूप आत्मा शरीर छोड़कर चला जाता है और पंचतत्त्व पाँचों भूतोंमें मिल जाते हैं। फिर मोहसे मुग्ध मनुष्य परस्पर मिलकर मरे हुए जीवके लिये श्राद्ध आदि पारलौकिक कृत्य करते है। मोहवश क्षवाह तिथिको पितरोंका तर्पण करते हैं। भला, मरा हुआ मनुष्य कहाँ रहता है? किस रूपमें आकर श्राद्ध आदिका उपभोग करता है? मिष्टान्न खाकर तो ब्राह्मणलोग तृप्त होते हैं [मृतात्माको क्या मिलता है ?] इसी प्रकार दानकी भी आवश्यकता नहीं जान पड़ती। दान क्यों दिया जाता है? दान देना उत्कृष्ट कर्म नहीं समझना चाहिये। यदि अन्नका भोजन किया जाय तो इसीमें उसकी सार्थकता है। यदि दान ही देना हो तो दयाका दान देना चाहिये, दयापरायण होकर प्रतिदिन जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष चाण्डाल हो या शूद्र, उसे ब्राह्मण ही कहा गया है। दानका भी कोई फल नहीं है, इसलिये दान नहीं देना चाहिये जैसा श्राद्ध, वैसा दान दोनोंका एक ही उद्देश्य है केवल भगवान् जिनका बताया हुआ धर्म ही भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। मैं तुम्हारे सामने उसीका वर्णन करता हूँ। वह बहुत पुग्यदायक है। पहले शान्तचित्तसे सबपर दया करनी चाहिये। फिर हृदयसे – मनके शुद्ध भावसे चराचरस्वरूप - एकमात्र जिनकी आराधना करनी चाहिये। उन्होंको नमस्कार करना उचित है। नृपश्रेष्ठ वेन ! माता-पिताके चरणोंमें भी कभी मस्तक नहीं झुकाना चाहिये, फिर औरोंकी तो बात ही क्या है?
वेनने पूछा- ये ब्राह्मण तथा आचार्यगण गंगा आदि नदियोंको पुण्यतीर्थं बतलाते हैं; इनका कहना है, ये तीर्थ महान् पुण्य प्रदान करनेवाले हैं। इसमें कहाँतक सत्य है, यह बतानेकी कृपा कीजिये।
जिन बोला- महाराज। आकाशसे बादल एक ही समय जो पानी बरसाते हैं, वह पृथ्वी और पर्वत सभी स्थानोंमें गिरता है। वही बहकर नदियोंमें एकत्रित होता है और वहाँसे सर्वत्र जाता है। नदियाँ तो जल बहानेवाली हैं ही, उनमें तीर्थ कैसा सरोवर औरसमुद्र सभी जलके आश्रय हैं, पृथ्वीको धारण करनेवाले पर्वत भी केवल पत्थरकी राशि हैं, इनमें तीर्थं नामकी कोई वस्तु नहीं है। यदि समुद्र आदिमें स्नान करनेसे सिद्धि मिलती है तो मछलियोंको सबसे पहले सिद्ध होना चाहिये; पर ऐसा नहीं देखा जाता। राजेन्द्र एकमात्र भगवान् जिन ही सर्वमय हैं, उनसे बढ़कर न कोई धर्म है न तीर्थ संसारमें जिन ही सर्वश्रेष्ठ हैं; अतः उन्हींका ध्यान करो, इससे तुम्हें नित्य सुखकी प्राप्ति होगी।
इस प्रकार उस पुरुषने वेद, दान, पुण्य तथा यज्ञरूप समस्त धर्मोकी निन्दा करके अंगकुमार राजा वेनको पापके भावोद्वारा बहुत कुछ समझाया बुझाया। उसके इस प्रकार समझानेपर वेनके हृदयमें पापभावका उदय हो गया वेन उसकी बातोंसे मोहित हो गया। उसने उसके चरणोंमें प्रणाम करके वैदिक धर्म तथा सत्य-धर्म आदिकी क्रियाओंको त्याग दिया। पापात्मा बेनके शासनसे संसार पापमय हो गया उसमें सब तरहके पाप होने लगे। वेनने वेद, यज्ञ और उत्तम धर्मशास्त्रोंका अध्ययन बंद करा दिया। उसके शासनमें ब्राह्मणलोग न दान करने पाते थे न स्वाध्याय । इस प्रकार धर्मका सर्वथा लोप हो गया और सब ओर महान् पाप छा गया। वेन अपने पिता अंगके मना करनेपर भी उनकी आज्ञाके विपरीत ही आचरण करता था। वह दुरात्मा न पिताके चरणोंमें प्रणाम करता था न माताके वह पुण्य तीर्थ-स्नान और दान आदि भी नहीं करता था। उसके महायशस्वी पिताने अपने भाव और स्वरूपपर बहुत कालतक विचार किया, किन्तु किसी तरह उनकी समझमें यह बात नहीं आयी कि वेन पापी कैसे हो गया।
तदनन्तर एक दिन सप्तर्षि अंगकुमार वेनके पास आये और उसे आश्वासन देते हुए बोले- 'वेन ! दुःसाहस न करो, तुम यहाँ समस्त प्रजाके रक्षक बनाये गये हो; यह सारा जगत् तुमपर ही अवलम्बित है, धर्माधर्मरूप सम्पूर्ण विश्वका भार तुम्हारे ही ऊपर है। अतः पाप कर्म छोड़कर धर्मका आचरण करो।'सप्तर्षियोंके यों कहनेपर वेन हँसकर बोला- 'मैं ही परम धर्म हूँ और मैं ही सनातन देवता अर्हन् हूँ। धाता,रक्षक और सत्य भी मैं ही हूँ। मैं परम पुण्यमय सनातन जैनधर्म हूँ। ब्राह्मणो! मुझ धर्मरूपी देवताका ही तुमलोग अपने कर्मोंद्वारा भजन करो।' ऋषि बोले- राजेन्द्र ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। इन सभी वर्णोंके लिये
सनातन श्रुति ही परम प्रमाण है। समस्त प्राणी वैदिक आचारसे ही रहते हैं और उसीसे जीविका चलाते हैं। राजाके पुण्यसे प्रजा सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करती है और राजाके पापसे उसका नाश हो जाता है;इसलिये तुम सत्यका आचरण करो। यह जैनधर्म सत्ययुग, त्रेता और द्वापरका धर्म नहीं है; कलियुगका प्रवेश होनेपर ही कुछ मनुष्य इसका आश्रय लेंगे। जैनधर्म ग्रहण करके सब मनुष्य पापसे मोहित हो जायँगे; वे वैदिक आचारका त्याग करके पाप बटोरेंगे। भगवान् श्रीगोविन्द सब पापोंके हरनेवाले हैं। वे ही कलियुगमें पापका संहार करेंगे। पापियोंके एकत्रित होनेपर म्लेच्छोंका नाश करनेके लिये साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु ही कल्किरूपमें अवतीर्ण होंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः वेन ! तुम कलियुगके व्यवहारको त्याग दो और पुण्यका आश्रय लो। वेनने कहा- ब्राह्मणो ! मैं ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हूँ,
विश्वका ज्ञान मेरा ही ज्ञान है जो मेरी आज्ञाके विपरीत
बर्ताव करता है, वह निश्चय ही दण्डका पात्र है। पापबुद्धि राजा वेनको बहुत बढ़-बढ़कर बातें करते देख ब्रह्माजीके पुत्र महात्मा सप्तर्षि कुपित हो उठे। उनके शापके भयसे वेन एक बाँबीमें घुस गया किन्तु वे ब्रह्मर्षि उस क्रूर पापीको वहाँसे बलपूर्वक पकड़ लाये और क्रोधमें भरकर राजाके बायें हाथका मन्थन करने लगे। उससे एक नीच जातिका मनुष्य पैदा हुआ, जो बहुत ही नाटा, काला और भयंकर था। वह निषादों और विशेषतः म्लेच्छोंका धारण-पोषण करनेवाला राजा हुआ। तत्पश्चात् ऋषियोंने दुरात्मा वेनके दाहिने हाथका मन्थन किया। उससे महात्मा राजा पृथुका जन्म हुआ, जिन्होंने वसुन्धराका दोहन किया था। उन्होंके पुण्य प्रसादसे राजा येन धर्म और अर्थका ज्ञाता हुआ।