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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 156 - Khand 5, Adhyaya 156

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जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा

नारदजी बोले – देवदेव! जगदीश्वर! भक्तोंको अभयदान देनेवाले महादेव! मुझपर कृपा करके कोई दूसरा व्रत बताइये। महादेवजीने कहा- पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं। उनपर संतुष्ट होकर ब्रह्माजीने उन्हें एक सुन्दर पुरी प्रदान की, जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली थी। उसमें रहकर राजा हरिश्चन्द्र सात द्वीपोंसे युक्त वसुन्धराका धर्मपूर्वक पालन करते थे। प्रजाको वे औरस पुत्रकी भाँति मानते थे। राजाके पास धन-धान्यकी अधिकता थी। उन्हें नाती पोतोंकी भी कमी न थी। अपने उत्तम राज्यका पालन करते हुए राजाको एक दिन बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे- 'आजके पहले कभी किसीको ऐसा राज्य नहीं मिला था। मेरे सिवा दूसरे मनुष्योंने ऐसे विमानपर सवारी नहीं की होगी। यह मेरे किस कर्मका फल है,

जिससे मैं देवराज इन्द्रके समान सुखी हूँ?' राजाओंमें श्रेष्ठ हरिश्चन्द्र इस प्रकार सोच-विचारकरअपने उत्तम विमानपर आरूढ हुए। आकाशमार्गसे जाते समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ मेरुपर उनकी दृष्टि पड़ी। उस श्रेष्ठ शैलपर ज्ञानयोग-परायण ब्रह्मर्षि सनत्कुमार दिखायी पड़े, जो सुवर्णमयी शिलाके ऊपर विराजमान थे। उन्हें देखकर राजा अपना विस्मय पूछनेके लिये उतर पड़े। उन्होंने पास जा हर्षमें भरकर मुनिके चरणोंमें मस्तक झुकाया । ब्रह्मर्षिने भी राजाका अभिनन्दन किया। फिर सुखपूर्वक बैठकर राजाने मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमारजीसे पूछा- 'भगवन्! मुझे जो यह सम्पत्ति प्राप्त हुई है, मानवलोकमें प्रायः दुर्लभ है। ऐसी सम्पत्ति किस कर्मसे प्राप्त होती है? मैं पूर्वजन्ममें कौन था ? ये सब बातें यथार्थरूपसे बतलाइये।'

सनत्कुमारजी बोले - राजन् ! सुनो- तुम पूर्वजन्ममें सत्यवादी, पवित्र एवं उत्तम वैश्य थे। तुमने अपना काम-धाम छोड़ दिया था, इसलिये बन्धु बान्धवोंने तुम्हारा परित्याग कर दिया। तुम्हारे पास जीविकाका कोई साधन नहीं रह गया था; इसलिये तुम स्वजनोंको छोड़कर चल दिये। स्त्रीने ही तुम्हारा साथ दिया। एक समय तुम दोनों किसी घने जंगलमें जा पहुँचे। वहाँ एक पोखरेमें कमल खिले हुए थे। उन्हें देखकर तुम दोनोंके मनमें यह विचार उठा कि हम यहाँसे कमल ले लें। कमल लेकर तुम दोनों एक-एक पग भूमि लाँघते हुए शुभ एवं पुण्यमयी वाराणसी पुरीमें पहुँचे। वहाँ तुमलोग कमल बेचने लगे, किन्तु कोई भी उन्हें खरीदता नहीं था। वहीं खड़े-खड़े तुम्हारे कानोंमें बाजेकी आवाज सुनायी पड़ी। फिर तुम उसी ओर चल दिये। वहाँ काशीके विख्यात राजा इन्द्रद्युम्नकी सती-साध्वी कन्या चन्द्रावतीने, जो बड़ी सौभाग्यशालिनी थी, जयन्ती नामक जन्माष्टमीका शुभकारक व्रत किया था। उस स्थानपर तुम बड़े हर्षके साथ गये। वहाँ पहुँचने पर तुम्हारा चित्त संतुष्ट हो गया। तुमने वहाँ भगवान्‌ के पूजनका विधान देखा। कलशके ऊपर श्रीहरिकी स्थापना करके उनकी पूजा हो रही थी। विशेष समारोहके साथ भगवान्का पूजन किया गया था, भिन्न भिन्न पुष्पोंसे उनका शृंगार हुआ था। भगवान्‌की भक्तिके वशीभूत हो तुमने भी अपनी पत्नीके साथ कमलके फूलोंसे वहाँ श्रीहरिका पूजन किया तथा पूजासे बचे हुए फूलोंको उनके समीप ही बिखेर दिया। तुमने भगवान्‌को पुष्पमय कर दिया। इससे उस कन्याको बड़ा संतोष हुआ। वह स्वयं तुम्हें धन देने लगी, किन्तु तुमने नहीं लिया। तब राजकुमारीने तुम्हें भोजनके लिये निमन्त्रित किया किन्तु उस समय तुमने न तो भोजन स्वीकार किया और न धन ही लिया। यही पुण्य तुमने पिछले जन्म में उपार्जित किया था। फिर अपने कर्मके अनुसार तुम्हारी मृत्यु हो गयी। उसी महान् पुण्यके प्रभावसे तुम्हें विमान मिला है। राजन् ! पूर्वजन्ममें जो तुम्हारे द्वारा वह पुग्य हुआ था, उसीका फल इस समय तुम भोग रहे हो। हरिश्चन्द्र बोले- मुनिवर किस महीने में वहतिथि आती है और किस विधिसे उसका व्रत करना चाहिये? यह मुझे बताइये। सनत्कुमारजीने कहा- राजन् मैं तुम्हें इस व्रतको बताता है; सावधान होकर सुनो। श्रावणमासके कृष्णपक्षको अष्टमी तिथिको यदि रोहिणी नक्षत्रका योग मिल जाय तो उस जन्माष्टमीका नाम 'जयन्ती' होता है। अब मैं इसकी विधिका वर्णन करता है. जैसा कि ब्रह्माजीने मुझे बताया था। उस दिन उपवासका व्रत लेकर काले तिलोंसे मिश्रित जलसे स्नान करे। फिर नवीन कलशकी, जो फूटा टूटा न हो, स्थापना करे। उसमें पंचरत्न डाल दे हीरा, मोती वैदूर्य, पुष्पराग (पुखराज ) और इन्द्रनील - ये उत्तम पंचरत्न हैं—ऐसा कात्यायनका कथन है। कलशके ऊपर सोनेका पात्र रखे और सोनेकी बनी हुई नन्दरानी यशोदाकी प्रतिमा स्थापित करे। प्रतिमाका भाव यह होना चाहिये –' यशोदा अपने पुत्र श्रीकृष्णको स्तन पिलाती हुई मन्द मन्द मुसकरा रही हैं, श्रीकृष्ण यशोदा मैयाका एक स्तन तो पी रहे हैं और दूसरा स्तन दूसरे हाथसे पकड़े हुए हैं। वे माताकी ओर प्रेमसे देखकर उन्हें सुख पहुँचा रहे हैं।' इस प्रकार जैसी अपनी शक्ति हो, उसीके अनुसार सुवर्णमय भगवत्प्रतिमाका निर्माण कराये। इसके सिवा सोनेकी रोहिणी और चौदीके चन्द्रमाकी प्रतिमा बनवाये अँगूठेके बराबर चन्द्रमा हो और चार अंगुलकी रोहिणी भगवान्‌के कानोंमें कुण्डल और गलेमें कण्ठा पहनाये। इस प्रकार माताके साथ जगत्पति गोविन्दकी प्रतिमा बनवाकर दूध आदिसे स्नान कराये तथा चन्दनसे अनुलेप करे। दो श्वेत वस्त्रोंसे भगवान्‌को आच्छादित करके फूलोंकी मालासे उनका श्रृंगार करे। भाँति-भाँतिके भक्ष्य पदार्थोंका नैवेद्य लगाये, नाना प्रकारके फल अर्पण करे। दीप जलाकर रखे और फूलोंके मण्डपसे पूजास्थानको सुशोभित करे। विज्ञपुरुषोंके द्वारा भक्तिपूर्वक नृत्य, गीत और वाद्य कराये।

इस प्रकार अपने वैभवके अनुसार सब विधान पूर्ण करके गुरुका पूजन करे, तत्पश्चात् पूजाकी समाप्ति करे।

महादेवजी कहते हैं-जब इन्द्रके सौ यज्ञ पूर्ण हो गये और उत्तम दक्षिणा देकर यज्ञका कार्य समाप्त कर दिया गया, उस समय देवराजके मनमें कुछ पूछनेका संकल्प हुआ; अतएव उन्होंने अपने गुरु बृहस्पतिजीसे इस प्रकार प्रश्न किया।

इन्द्र बोले- भगवन्! किस दानसे सब ओर सुखकी वृद्धि होती है? जो अक्षय तथा महान् अर्थका साधक हो, उसका वर्णन कीजिये।

बृहस्पतिजीने कहा-इन्द्र सोना, वस्त्र, गौ तथा भूमि- इनका दान करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाता है जो भूमिका दान करता है, उसके द्वारा सोने, चाँदी, वस्त्र, मणि एवं रत्नका भी दान हो जाता है जो फालसे जोती हो, जिसमें बीज बो दिया गया हो तथा जहाँ खेती लहरा रही हो, ऐसी भूमिका दान करके मनुष्य तबतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है, जबतक सूर्यका प्रकाश बना रहता है। जीविकाके कष्टसे मनुष्य जो कुछ भी पाप करता है, वह गोचर्ममात्र भूमिके दानसे छूट जाता है दस हाथका एक दण्ड होता है, तीस दण्डका एक वर्तन होता है। और दस वर्तनका एक गोचर्म होता है; यही ब्रह्म गोचर्मकी भी परिभाषा है। छोटे बछड़ोंको जन्म देनेवाली एक हजार गौएँ जहाँ साँड़ोंके साथ खड़ी हो सकें, उतनी भूमिको एक गोचर्म माना गया है। गुणवान्, तपस्वी तथा जितेन्द्रिय ब्राह्मणको दान देना चाहिये। उस दानका अक्षय फल तबतक मिलता रहता है, जबतक यह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी कायम रहती है। इन्द्र जैसे तेलकी बूँद कहीं गिरनेपर शीघ्र ही फैल जाती है, उसी प्रकार खेती के साथ किया हुआ भूमिदान विशेष विस्तारको प्राप्त होता है। गौ, भूमि और विद्या- इन तीन वस्तुओंके दानको अतिदान बतायागया है; ये क्रमशः दुहने, बोने तथा अभ्यास करनेसे नरकसे उद्धार कर देती हैं।

वस्त्रदान करनेवाले पुरुष परलोकके मार्गपर वस्त्रोंसे आच्छादित होकर यात्रा करते हैं और जिन्होंने वस्त्रदान नहीं किया है, उन्हें नंगे ही जाना पड़ता है। अन्नदान करनेवाले लोग तृप्त होकर जाते हैं; जो अन्नदान नहीं करते, उन्हें भूखे ही यात्रा करनी पड़ती है। नरकके भयसे डरे हुए सभी पितर इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि हमारे पुत्रोंमेंसे जो कोई गया जायगा, वह हमें तारनेवाला होगा। बहुत से पुत्रोंकी इच्छा करनी चाहिये क्योंकि उनमेंसे एक भी तो गया जायगा अथवा नील वृषका उत्सर्ग करेगा। जो रंगसे लाल हो, जिसकी पूँछके अग्रभागमें कुछ पीलापन लिये सफेदी हो और खुर तथा सींगोंका विशुद्ध श्वेत वर्ण हो, वह 'नील वृष' कहलाता है। 2 पाण्डु रंगकी पूँछवाला नील वृष जो जल उछालता है, उससे साठ हजार वर्षोंतक पितर तृप्त रहते हैं। जिसके सॉंगमें नदीके किनारेकी उखाड़ी हुई मिट्टी लगी होती है, उसके दानसे पितरगण परम प्रकाशमय चन्द्रलोकका सुख भोगते हैं।

यह पृथ्वी पूर्वकालमें राजा दिलीप, नृग, नहुष तथा अन्यान्य नरेशोंके अधीन थी और पुनः अन्यान्य राजाओंके अधिकारमें जाती रहेगी। सगर आदि बहुत से राजा इस पृथ्वीका दान कर चुके हैं। यह जब जिसके अधिकारमें रहती है, तब उसीको इसके दानका फल मिलता है। जो अपनी या दूसरेकी दी हुई पृथ्वीको हर लेता है; यह विष्ठाका कीड़ा होकर पितरोंसहित नरकमें पकाया जाता है। भूमिदान करनेवालेसे बढ़कर पुण्यवान् तथा भूमि हर लेनेवालेसे बढ़कर पापी दूसरा कोई नहीं है। जबतक महाप्रलय नहीं हो जाता, तबतक भूमिदाता ऊर्ध्वलोकमें और भूमिहर्ता नरकमें रहता है। सुवर्ण अग्निकी प्रथम संतान है, पृथ्वी विष्णुके अंशसे प्रकट हुई है। तथा गौएँ सूर्यकी कन्याएँ हैं इसलिये जो सुवर्ण, गौतथा पृथ्वीका दान करता है, वह उनके दानका अक्षय फल भोगता है जो भूमिको न्यायपूर्वक देता और जो न्यायपूर्वक ग्रहण करता है, वे दोनों ही पुण्यकर्मा हैं; उन्हें निश्चय ही स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जिन लोगोंने अन्यायपूर्वक पृथ्वीका अपहरण किया अथवा कराया है, वे दोनों ही प्रकारके मनुष्य अपनी सात पीढ़ियोंका विनाश करते हैं उन्हें सद्गति से वंचित कर देते हैं। ब्राह्मणका खेत हर लेनेपर कुलकी तीन पीढ़ियोंका नाश हो जाता है। एक हजार कूप और बावली बनवानेसे, सौ अश्वमेध करनेसे तथा करोड़ों गौएँ देनेसे भी भूमिहर्ताकी शुद्धि नहीं होती।

किया हुआ शुभ कर्म, दान, तप, स्वाध्याय तथा जो कुछ भी धर्मसम्बन्धी कार्य है, वह सब खेतकी आधी अंगुल सीमा हर लेनेसे भी नष्ट हो जाता है। गोतीर्थ (गौओंके चरने और पानी पीने आदिका स्थान), गाँवकी सड़क, मरघट तथा गाँवको दबाकर मनुष्य प्रलयकालतक नरकमें पड़ा रहता है।" यदि जीविकाके बिना प्राण कण्ठतक आ जायँ तो भी ब्राह्मणके धनका लोभ नहीं करना चाहिये। अग्निकी आँच और सूर्यके तापसे जले हुए वृक्ष आदि पुनः पनपते हैं, राजदण्डसे दण्डित मनुष्योंकी अवस्था भी पुन: सुधर जाती है; किन्तु जिनपर ब्राह्मणोंके शापका प्रहार होता है, वे तो नष्ट ही हो जाते हैं। ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाला मनुष्य रौरव नरकमें पड़ता है। केवल विषको ही विष नहीं कहते, ब्राह्मणका धन सबसे बड़ा विष कहा जाता है। साधारण विष तो एकको ही मारता है, किन्तु ब्राह्मणका धनरूपी विष बेटों और पोतों का भी नाश कर डालता है। मनुष्य लोहे और पत्थरके चूरेको तथा विषको भी पचा सकता है; परन्तु तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो ब्राह्मणके धनको पचा सके। ब्राह्मणके धनसे जो सुख उठाया जाता है, देवताके धनके प्रति जो राग पैदा होता है, वह धन समूचे कुलके नाशका कारण होता है तथा अपनाविनाश तो वह करता ही है। ब्राह्मणका धन, ब्रह्महत्या, दखिका धन, गुरु और मित्रका सुवर्णये सब स्वर्गमें जानेपर भी मनुष्यको पीड़ा पहुँचाते हैं।

देवश्रेष्ठ इन्द्र जो ब्राह्मण श्रोत्रिय, कुलीन, दरिद्र, संतुष्ट, विनयी, वेदाभ्यासी, तपस्वी, ज्ञानी और इन्द्रियसंयमी हो, उसे ही दिया हुआ दान अक्षय होता है। जैसे कच्चे बर्तनमें रखा हुआ दूध, दही, घी अथवा मधु दुर्बलताके कारण पात्रको ही छेद देता है, उसी प्रकार यदि अज्ञानी पुरुष गौ, सुवर्ण, वस्त्र, अन्न, पृथ्वी और तिल आदिका दान ग्रहण करता है तो वह काष्ठकी भाँति भस्म हो जाता है।

जो नया पोखरा बनवाता है अथवा पुरानेको ही खुदवाता है, वह वह समस्त कुलका उद्धार करके स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। बावली, कुआँ, तडाग और बगीचे पुनः संस्कार (जीर्णोद्धार) करनेपर मोक्षरूप फल प्रदान करते हैं। इन्द्र ! जिसके जलाशयमें गर्मी के मौसमतक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकटका सामना नहीं करता। देवश्रेष्ठ ! यदि एक दिन भी पानी ठहर जाय तो वह सात पहलेकी और सात पीछेकी पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। दीपका प्रकाश दान करनेसे मनुष्य रूपवान् होता है और दक्षिणा देनेसे स्मरणशक्ति तथा मेधा ( धारणा - शक्ति) को प्राप्त करता है। यदि बलपूर्वक अपहरण की हुई भूमि, गौ तथा स्त्रीको मनुष्य पुनः लौटा न दे तो उसे ब्रह्महत्यारा कहा जाता है।

इन्द्र ! जो विवाह यज्ञ तथा दानका अवसर उपस्थित होनेपर उसमें मोहवश विघ्न डालता है, वह मरनेपर कीड़ा होता है। दान करनेसे धन और जीव -रक्षा करनेसे जीवन सफल होता है। रूप, ऐश्वर्य तथा आरोग्य – ये अहिंसाके फल हैं, जो अनुभवमें आते हैं। फल-मूलके भोजनसे सम्मान तथा सत्यसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है। मरणान्त उपवाससे राज्य और सर्वत्र सुखउपलब्ध होता है। तीनों काल स्नान करनेवाला मनुष्य रूपवान् होता है। वायु पीकर रहनेवाला यज्ञका फल पाता है। जो उपवास करता है, वह चिरकालतक स्वर्गमें निवास करता है। जो सदा भूमिपर शयन करता है, उसेअभीष्ट गतिकी प्राप्ति होती है, जो पवित्र धर्मका आचरण करता है, वह स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। जो द्विजश्रेष्ठ बृहस्पतिजीके इस पवित्र मतका स्वाध्याय करते हैं, उनकी आयु, विद्या, यश और बल-ये चार बातें बढ़ती हैं।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार