नारदजी बोले – देवदेव! जगदीश्वर! भक्तोंको अभयदान देनेवाले महादेव! मुझपर कृपा करके कोई दूसरा व्रत बताइये। महादेवजीने कहा- पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं। उनपर संतुष्ट होकर ब्रह्माजीने उन्हें एक सुन्दर पुरी प्रदान की, जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली थी। उसमें रहकर राजा हरिश्चन्द्र सात द्वीपोंसे युक्त वसुन्धराका धर्मपूर्वक पालन करते थे। प्रजाको वे औरस पुत्रकी भाँति मानते थे। राजाके पास धन-धान्यकी अधिकता थी। उन्हें नाती पोतोंकी भी कमी न थी। अपने उत्तम राज्यका पालन करते हुए राजाको एक दिन बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे- 'आजके पहले कभी किसीको ऐसा राज्य नहीं मिला था। मेरे सिवा दूसरे मनुष्योंने ऐसे विमानपर सवारी नहीं की होगी। यह मेरे किस कर्मका फल है,
जिससे मैं देवराज इन्द्रके समान सुखी हूँ?' राजाओंमें श्रेष्ठ हरिश्चन्द्र इस प्रकार सोच-विचारकरअपने उत्तम विमानपर आरूढ हुए। आकाशमार्गसे जाते समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ मेरुपर उनकी दृष्टि पड़ी। उस श्रेष्ठ शैलपर ज्ञानयोग-परायण ब्रह्मर्षि सनत्कुमार दिखायी पड़े, जो सुवर्णमयी शिलाके ऊपर विराजमान थे। उन्हें देखकर राजा अपना विस्मय पूछनेके लिये उतर पड़े। उन्होंने पास जा हर्षमें भरकर मुनिके चरणोंमें मस्तक झुकाया । ब्रह्मर्षिने भी राजाका अभिनन्दन किया। फिर सुखपूर्वक बैठकर राजाने मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमारजीसे पूछा- 'भगवन्! मुझे जो यह सम्पत्ति प्राप्त हुई है, मानवलोकमें प्रायः दुर्लभ है। ऐसी सम्पत्ति किस कर्मसे प्राप्त होती है? मैं पूर्वजन्ममें कौन था ? ये सब बातें यथार्थरूपसे बतलाइये।'
सनत्कुमारजी बोले - राजन् ! सुनो- तुम पूर्वजन्ममें सत्यवादी, पवित्र एवं उत्तम वैश्य थे। तुमने अपना काम-धाम छोड़ दिया था, इसलिये बन्धु बान्धवोंने तुम्हारा परित्याग कर दिया। तुम्हारे पास जीविकाका कोई साधन नहीं रह गया था; इसलिये तुम स्वजनोंको छोड़कर चल दिये। स्त्रीने ही तुम्हारा साथ दिया। एक समय तुम दोनों किसी घने जंगलमें जा पहुँचे। वहाँ एक पोखरेमें कमल खिले हुए थे। उन्हें देखकर तुम दोनोंके मनमें यह विचार उठा कि हम यहाँसे कमल ले लें। कमल लेकर तुम दोनों एक-एक पग भूमि लाँघते हुए शुभ एवं पुण्यमयी वाराणसी पुरीमें पहुँचे। वहाँ तुमलोग कमल बेचने लगे, किन्तु कोई भी उन्हें खरीदता नहीं था। वहीं खड़े-खड़े तुम्हारे कानोंमें बाजेकी आवाज सुनायी पड़ी। फिर तुम उसी ओर चल दिये। वहाँ काशीके विख्यात राजा इन्द्रद्युम्नकी सती-साध्वी कन्या चन्द्रावतीने, जो बड़ी सौभाग्यशालिनी थी, जयन्ती नामक जन्माष्टमीका शुभकारक व्रत किया था। उस स्थानपर तुम बड़े हर्षके साथ गये। वहाँ पहुँचने पर तुम्हारा चित्त संतुष्ट हो गया। तुमने वहाँ भगवान् के पूजनका विधान देखा। कलशके ऊपर श्रीहरिकी स्थापना करके उनकी पूजा हो रही थी। विशेष समारोहके साथ भगवान्का पूजन किया गया था, भिन्न भिन्न पुष्पोंसे उनका शृंगार हुआ था। भगवान्की भक्तिके वशीभूत हो तुमने भी अपनी पत्नीके साथ कमलके फूलोंसे वहाँ श्रीहरिका पूजन किया तथा पूजासे बचे हुए फूलोंको उनके समीप ही बिखेर दिया। तुमने भगवान्को पुष्पमय कर दिया। इससे उस कन्याको बड़ा संतोष हुआ। वह स्वयं तुम्हें धन देने लगी, किन्तु तुमने नहीं लिया। तब राजकुमारीने तुम्हें भोजनके लिये निमन्त्रित किया किन्तु उस समय तुमने न तो भोजन स्वीकार किया और न धन ही लिया। यही पुण्य तुमने पिछले जन्म में उपार्जित किया था। फिर अपने कर्मके अनुसार तुम्हारी मृत्यु हो गयी। उसी महान् पुण्यके प्रभावसे तुम्हें विमान मिला है। राजन् ! पूर्वजन्ममें जो तुम्हारे द्वारा वह पुग्य हुआ था, उसीका फल इस समय तुम भोग रहे हो। हरिश्चन्द्र बोले- मुनिवर किस महीने में वहतिथि आती है और किस विधिसे उसका व्रत करना चाहिये? यह मुझे बताइये। सनत्कुमारजीने कहा- राजन् मैं तुम्हें इस व्रतको बताता है; सावधान होकर सुनो। श्रावणमासके कृष्णपक्षको अष्टमी तिथिको यदि रोहिणी नक्षत्रका योग मिल जाय तो उस जन्माष्टमीका नाम 'जयन्ती' होता है। अब मैं इसकी विधिका वर्णन करता है. जैसा कि ब्रह्माजीने मुझे बताया था। उस दिन उपवासका व्रत लेकर काले तिलोंसे मिश्रित जलसे स्नान करे। फिर नवीन कलशकी, जो फूटा टूटा न हो, स्थापना करे। उसमें पंचरत्न डाल दे हीरा, मोती वैदूर्य, पुष्पराग (पुखराज ) और इन्द्रनील - ये उत्तम पंचरत्न हैं—ऐसा कात्यायनका कथन है। कलशके ऊपर सोनेका पात्र रखे और सोनेकी बनी हुई नन्दरानी यशोदाकी प्रतिमा स्थापित करे। प्रतिमाका भाव यह होना चाहिये –' यशोदा अपने पुत्र श्रीकृष्णको स्तन पिलाती हुई मन्द मन्द मुसकरा रही हैं, श्रीकृष्ण यशोदा मैयाका एक स्तन तो पी रहे हैं और दूसरा स्तन दूसरे हाथसे पकड़े हुए हैं। वे माताकी ओर प्रेमसे देखकर उन्हें सुख पहुँचा रहे हैं।' इस प्रकार जैसी अपनी शक्ति हो, उसीके अनुसार सुवर्णमय भगवत्प्रतिमाका निर्माण कराये। इसके सिवा सोनेकी रोहिणी और चौदीके चन्द्रमाकी प्रतिमा बनवाये अँगूठेके बराबर चन्द्रमा हो और चार अंगुलकी रोहिणी भगवान्के कानोंमें कुण्डल और गलेमें कण्ठा पहनाये। इस प्रकार माताके साथ जगत्पति गोविन्दकी प्रतिमा बनवाकर दूध आदिसे स्नान कराये तथा चन्दनसे अनुलेप करे। दो श्वेत वस्त्रोंसे भगवान्को आच्छादित करके फूलोंकी मालासे उनका श्रृंगार करे। भाँति-भाँतिके भक्ष्य पदार्थोंका नैवेद्य लगाये, नाना प्रकारके फल अर्पण करे। दीप जलाकर रखे और फूलोंके मण्डपसे पूजास्थानको सुशोभित करे। विज्ञपुरुषोंके द्वारा भक्तिपूर्वक नृत्य, गीत और वाद्य कराये।
इस प्रकार अपने वैभवके अनुसार सब विधान पूर्ण करके गुरुका पूजन करे, तत्पश्चात् पूजाकी समाप्ति करे।
महादेवजी कहते हैं-जब इन्द्रके सौ यज्ञ पूर्ण हो गये और उत्तम दक्षिणा देकर यज्ञका कार्य समाप्त कर दिया गया, उस समय देवराजके मनमें कुछ पूछनेका संकल्प हुआ; अतएव उन्होंने अपने गुरु बृहस्पतिजीसे इस प्रकार प्रश्न किया।
इन्द्र बोले- भगवन्! किस दानसे सब ओर सुखकी वृद्धि होती है? जो अक्षय तथा महान् अर्थका साधक हो, उसका वर्णन कीजिये।
बृहस्पतिजीने कहा-इन्द्र सोना, वस्त्र, गौ तथा भूमि- इनका दान करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाता है जो भूमिका दान करता है, उसके द्वारा सोने, चाँदी, वस्त्र, मणि एवं रत्नका भी दान हो जाता है जो फालसे जोती हो, जिसमें बीज बो दिया गया हो तथा जहाँ खेती लहरा रही हो, ऐसी भूमिका दान करके मनुष्य तबतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है, जबतक सूर्यका प्रकाश बना रहता है। जीविकाके कष्टसे मनुष्य जो कुछ भी पाप करता है, वह गोचर्ममात्र भूमिके दानसे छूट जाता है दस हाथका एक दण्ड होता है, तीस दण्डका एक वर्तन होता है। और दस वर्तनका एक गोचर्म होता है; यही ब्रह्म गोचर्मकी भी परिभाषा है। छोटे बछड़ोंको जन्म देनेवाली एक हजार गौएँ जहाँ साँड़ोंके साथ खड़ी हो सकें, उतनी भूमिको एक गोचर्म माना गया है। गुणवान्, तपस्वी तथा जितेन्द्रिय ब्राह्मणको दान देना चाहिये। उस दानका अक्षय फल तबतक मिलता रहता है, जबतक यह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी कायम रहती है। इन्द्र जैसे तेलकी बूँद कहीं गिरनेपर शीघ्र ही फैल जाती है, उसी प्रकार खेती के साथ किया हुआ भूमिदान विशेष विस्तारको प्राप्त होता है। गौ, भूमि और विद्या- इन तीन वस्तुओंके दानको अतिदान बतायागया है; ये क्रमशः दुहने, बोने तथा अभ्यास करनेसे नरकसे उद्धार कर देती हैं।
वस्त्रदान करनेवाले पुरुष परलोकके मार्गपर वस्त्रोंसे आच्छादित होकर यात्रा करते हैं और जिन्होंने वस्त्रदान नहीं किया है, उन्हें नंगे ही जाना पड़ता है। अन्नदान करनेवाले लोग तृप्त होकर जाते हैं; जो अन्नदान नहीं करते, उन्हें भूखे ही यात्रा करनी पड़ती है। नरकके भयसे डरे हुए सभी पितर इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि हमारे पुत्रोंमेंसे जो कोई गया जायगा, वह हमें तारनेवाला होगा। बहुत से पुत्रोंकी इच्छा करनी चाहिये क्योंकि उनमेंसे एक भी तो गया जायगा अथवा नील वृषका उत्सर्ग करेगा। जो रंगसे लाल हो, जिसकी पूँछके अग्रभागमें कुछ पीलापन लिये सफेदी हो और खुर तथा सींगोंका विशुद्ध श्वेत वर्ण हो, वह 'नील वृष' कहलाता है। 2 पाण्डु रंगकी पूँछवाला नील वृष जो जल उछालता है, उससे साठ हजार वर्षोंतक पितर तृप्त रहते हैं। जिसके सॉंगमें नदीके किनारेकी उखाड़ी हुई मिट्टी लगी होती है, उसके दानसे पितरगण परम प्रकाशमय चन्द्रलोकका सुख भोगते हैं।
यह पृथ्वी पूर्वकालमें राजा दिलीप, नृग, नहुष तथा अन्यान्य नरेशोंके अधीन थी और पुनः अन्यान्य राजाओंके अधिकारमें जाती रहेगी। सगर आदि बहुत से राजा इस पृथ्वीका दान कर चुके हैं। यह जब जिसके अधिकारमें रहती है, तब उसीको इसके दानका फल मिलता है। जो अपनी या दूसरेकी दी हुई पृथ्वीको हर लेता है; यह विष्ठाका कीड़ा होकर पितरोंसहित नरकमें पकाया जाता है। भूमिदान करनेवालेसे बढ़कर पुण्यवान् तथा भूमि हर लेनेवालेसे बढ़कर पापी दूसरा कोई नहीं है। जबतक महाप्रलय नहीं हो जाता, तबतक भूमिदाता ऊर्ध्वलोकमें और भूमिहर्ता नरकमें रहता है। सुवर्ण अग्निकी प्रथम संतान है, पृथ्वी विष्णुके अंशसे प्रकट हुई है। तथा गौएँ सूर्यकी कन्याएँ हैं इसलिये जो सुवर्ण, गौतथा पृथ्वीका दान करता है, वह उनके दानका अक्षय फल भोगता है जो भूमिको न्यायपूर्वक देता और जो न्यायपूर्वक ग्रहण करता है, वे दोनों ही पुण्यकर्मा हैं; उन्हें निश्चय ही स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जिन लोगोंने अन्यायपूर्वक पृथ्वीका अपहरण किया अथवा कराया है, वे दोनों ही प्रकारके मनुष्य अपनी सात पीढ़ियोंका विनाश करते हैं उन्हें सद्गति से वंचित कर देते हैं। ब्राह्मणका खेत हर लेनेपर कुलकी तीन पीढ़ियोंका नाश हो जाता है। एक हजार कूप और बावली बनवानेसे, सौ अश्वमेध करनेसे तथा करोड़ों गौएँ देनेसे भी भूमिहर्ताकी शुद्धि नहीं होती।
किया हुआ शुभ कर्म, दान, तप, स्वाध्याय तथा जो कुछ भी धर्मसम्बन्धी कार्य है, वह सब खेतकी आधी अंगुल सीमा हर लेनेसे भी नष्ट हो जाता है। गोतीर्थ (गौओंके चरने और पानी पीने आदिका स्थान), गाँवकी सड़क, मरघट तथा गाँवको दबाकर मनुष्य प्रलयकालतक नरकमें पड़ा रहता है।" यदि जीविकाके बिना प्राण कण्ठतक आ जायँ तो भी ब्राह्मणके धनका लोभ नहीं करना चाहिये। अग्निकी आँच और सूर्यके तापसे जले हुए वृक्ष आदि पुनः पनपते हैं, राजदण्डसे दण्डित मनुष्योंकी अवस्था भी पुन: सुधर जाती है; किन्तु जिनपर ब्राह्मणोंके शापका प्रहार होता है, वे तो नष्ट ही हो जाते हैं। ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाला मनुष्य रौरव नरकमें पड़ता है। केवल विषको ही विष नहीं कहते, ब्राह्मणका धन सबसे बड़ा विष कहा जाता है। साधारण विष तो एकको ही मारता है, किन्तु ब्राह्मणका धनरूपी विष बेटों और पोतों का भी नाश कर डालता है। मनुष्य लोहे और पत्थरके चूरेको तथा विषको भी पचा सकता है; परन्तु तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो ब्राह्मणके धनको पचा सके। ब्राह्मणके धनसे जो सुख उठाया जाता है, देवताके धनके प्रति जो राग पैदा होता है, वह धन समूचे कुलके नाशका कारण होता है तथा अपनाविनाश तो वह करता ही है। ब्राह्मणका धन, ब्रह्महत्या, दखिका धन, गुरु और मित्रका सुवर्णये सब स्वर्गमें जानेपर भी मनुष्यको पीड़ा पहुँचाते हैं।
देवश्रेष्ठ इन्द्र जो ब्राह्मण श्रोत्रिय, कुलीन, दरिद्र, संतुष्ट, विनयी, वेदाभ्यासी, तपस्वी, ज्ञानी और इन्द्रियसंयमी हो, उसे ही दिया हुआ दान अक्षय होता है। जैसे कच्चे बर्तनमें रखा हुआ दूध, दही, घी अथवा मधु दुर्बलताके कारण पात्रको ही छेद देता है, उसी प्रकार यदि अज्ञानी पुरुष गौ, सुवर्ण, वस्त्र, अन्न, पृथ्वी और तिल आदिका दान ग्रहण करता है तो वह काष्ठकी भाँति भस्म हो जाता है।
जो नया पोखरा बनवाता है अथवा पुरानेको ही खुदवाता है, वह वह समस्त कुलका उद्धार करके स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। बावली, कुआँ, तडाग और बगीचे पुनः संस्कार (जीर्णोद्धार) करनेपर मोक्षरूप फल प्रदान करते हैं। इन्द्र ! जिसके जलाशयमें गर्मी के मौसमतक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकटका सामना नहीं करता। देवश्रेष्ठ ! यदि एक दिन भी पानी ठहर जाय तो वह सात पहलेकी और सात पीछेकी पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। दीपका प्रकाश दान करनेसे मनुष्य रूपवान् होता है और दक्षिणा देनेसे स्मरणशक्ति तथा मेधा ( धारणा - शक्ति) को प्राप्त करता है। यदि बलपूर्वक अपहरण की हुई भूमि, गौ तथा स्त्रीको मनुष्य पुनः लौटा न दे तो उसे ब्रह्महत्यारा कहा जाता है।
इन्द्र ! जो विवाह यज्ञ तथा दानका अवसर उपस्थित होनेपर उसमें मोहवश विघ्न डालता है, वह मरनेपर कीड़ा होता है। दान करनेसे धन और जीव -रक्षा करनेसे जीवन सफल होता है। रूप, ऐश्वर्य तथा आरोग्य – ये अहिंसाके फल हैं, जो अनुभवमें आते हैं। फल-मूलके भोजनसे सम्मान तथा सत्यसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है। मरणान्त उपवाससे राज्य और सर्वत्र सुखउपलब्ध होता है। तीनों काल स्नान करनेवाला मनुष्य रूपवान् होता है। वायु पीकर रहनेवाला यज्ञका फल पाता है। जो उपवास करता है, वह चिरकालतक स्वर्गमें निवास करता है। जो सदा भूमिपर शयन करता है, उसेअभीष्ट गतिकी प्राप्ति होती है, जो पवित्र धर्मका आचरण करता है, वह स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। जो द्विजश्रेष्ठ बृहस्पतिजीके इस पवित्र मतका स्वाध्याय करते हैं, उनकी आयु, विद्या, यश और बल-ये चार बातें बढ़ती हैं।