महादेवजी कहते हैं- पार्वती! तदनन्तर वसुदेवजीने अपने दोनों पुत्रोंका वेदोक्त विधिसे उपनयन संस्कार किया। उसमें गर्गजीने आचार्यका काम किया था। विष्णुक विद्वानोंने नहलाने आदिके द्वारा महाबली बलराम और श्रीकृष्णका संस्कारकार्य सम्पन्न किया। तत्पश्चात् उन दोनों भाइयोंने गुरुवर सान्दीपनिके घर जाकर उन महात्माको नमस्कार किया और उनसे वेद शास्त्रोंका अध्ययन करके गुरुदक्षिणाके रूपमें उनके मरे हुए पुत्रको लाकर दिया। इसके बाद उन महात्मा गुरुसे आशीर्वाद से उन्हें प्रणाम करके दोनों भाई मथुरापुरीमें चले आये। इधर श्रीकृष्णके द्वारा दुर्धर्ष वीर कंसके मारे जानेका समाचार सुनकर उसके श्वशुर महाबली जरासन्धने श्रीकृष्णको मारनेके लिये अनेक अक्षौहिणी सेनाओंके साथ आकर मथुरापुरीको घेर लिया। महापराक्रमी बलराम और श्रीकृष्णने नगरसे बाहर निकलकर हाथी घोड़ोंसे भरी हुई उस विशाल सेनाको देखा तब भगवान् वासुदेवने अपने पूर्वकालीन सनातन सारधिका स्मरण किया। उनके स्मरण करते हो सारथि दारुक सुग्रीवपुष्पक नामक महान् रथ लिये आ पहुँचा। उसमें दिव्य एवं सनातन अश्व जुते हुए थे। उस रथमें शंख, चक्र, गदा आदि दिव्य अस्त्र-शस्त्र मौजूद थे। ध्वजाके ऊपर गरुड़चिह्नसे चिह्नित एवं फहराती हुई पताका उस देवदुर्जय रथकी शोभा बढ़ा रही थी। श्रीहरिके सारथिने भूतलपर आकर भगवान् गोविन्दको प्रणाम किया और आयुधों तथा अश्वोंसहित वह सुन्दर रथ सेवामें समर्पित कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण बड़े हर्ष साथ उस महान् रथके समीप आये और अपने बड़े भाई बलरामजीके साथ उसपर सवार हुए। उस समय मरुद्गण उनकी स्तुति कर रहे थे। भगवान्ने चतुर्भुजरूप धारण करके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और तलवार ले ली और मस्तकपर किरीट धारण किया। दोनों कानोंमें कुण्डल तथा गलेमें वनमाला धारण करके वे संग्रामकी ओर प्रस्थित हुए। परम पराक्रमी बलदेवजीने भी मूमल और हल हाथमें से द्वितीय रुद्रकी भाँति जरासन्धको सेनाका संहार आरम्भ किया। दारुकने बड़ी शीघ्रताकेसाथ रथको रणभूमिकी ओर बढ़ाया। मानो तृण, गुल्म और लताओंसे आच्छादित वनमें वायु प्रज्वलित अग्निको बढ़ा रही हो।
उस समय जरासन्धके सैनिकोंने गदा, परिष शक्ति और मुद्गरोंके द्वारा उस रथको आच्छादित कर दिया, किन्तु बहुत-से तिनकों और सूखे काठको जैसे अत्यन्त प्रज्वलित अग्नि अपनी लपटोंसे शीघ्र ही भस्म कर डालती है, उसी प्रकार श्रीहरिने अपने चक्रसे उन सभी अस्त्र-शस्त्रोंको लीलापूर्वक काट डाला। तत्पश्चात् उन्होंने शार्ङ्गधनुष हाथमें लिया और उससे छूटे हुए अक्षय एवं तीखे बाणोंके द्वारा सारी सेनाका संहार कर डाला। इसमें उनको कुछ भी आयास नहीं जान पड़ा। इस प्रकार क्षणभरमें ही शत्रुकी सारी सेनाका विनाश करके यदुश्रेष्ठ भगवान् मधुसूदनने अपना पांचजन्य शंख बजाया, जिसकी आवाज प्रलयकालीन वज्रकी भीषण गर्जनाको भी मात करती थी। शंखनाद सुनते ही शत्रुपक्षके महाबली योद्धाओंके हृदय विदीर्ण हो गये। ये घोड़े- हाथियोंके साथ ही गिरकर प्राणोंसे हाथ धो बैठे। इस प्रकार रथ, हाथी और घोड़ेसहित सम्पूर्ण सेनाका केवल भगवान् श्रीकृष्णने ही सफाया कर डाला। अब उस सेनामें कोई वीर जीवित न बचा। तब सम्पूर्ण देवता प्रसन्नचित्त होकर भगवान् के ऊपर फूल बरसाने और उन्हें साधुवाद देने लगे। इस प्रकार पृथ्वीका सारा भार उतार कर देवताओंके मुँह स्तुति सुनते हुए भगवान् धरणीधरकी उस युद्धके मुहानेपर बड़ी शोभा हुई। अपनी सेनाको मारी गयी देख खोटी बुद्धिवाला पराक्रमी वीर जरासन्ध तुरंत ही बलरामजीके साथ लोहा लेनेके लिये आया। वे दोनों ही वीर युद्धसे पीछे हटनेवाले नहीं थे। उनमें बड़ा भयंकर संग्राम हुआ। बलरामजीने हल उठाकर उससे जरासन्धके सारथिसहित रथको चौपट कर डाला और महाबली जरासन्धको भी पकड़कर वे मूसल उठा उसे मार डालनेको तैयार हो गये। जैसे सिंह महान् गजराजको दबोच ले, उसी प्रकार बलरामजी ने नृपश्रेष्ठ जरासन्धको प्राणसंकटको अवस्थामें डाल दिया। यह देख भगवान् श्रीकृष्णने अपने बड़े भाईबलरामजीसे कहा- 'भैया! इसका वध न कीजिये।' इस प्रकार महामति धर्मात्मा श्रीकृष्ण जरासन्धको छुड़वा दिया। श्रीकृष्णके कहने से अविनाशी और संकर्षण शत्रुको छोड़ दिया। इसके बाद वे दोनों भाई रथपर बैठकर मथुरापुरीमें लौट आये।
उधर जरासन्ध महापराक्रमी कालयवनके यहाँ गया। कालयवनके पास बहुत बड़ी सेना थी। वहाँ पहुँचकर उसने वसुदेवके दोनों पुत्रोंके पराक्रमका वर्णन किया। दानवोंका वध, कंसका मारा जाना, अनेक अक्षौहिणी सेनाका संहार तथा अपनी पराजय आदि श्रीकृष्णके सारे चरित्रोंका हाल कह सुनाया। यह सब सुनकर कालयवनको बड़ा क्रोध हुआ और उसने महान् बली एवं पराक्रमी म्लेच्छोंकी बड़ी भारी सेनाके साथ मथुरापर आक्रमण किया। मगधराजके महाबली सैनिक भी उसकी सहायताके लिये आये थे। जरासन्धको साथ लेकर महान् अभिमानी कालयवन बड़ी तेजीके साथ चला। उसकी विशाल सेनासे अनेक जनपदोंकी भूमि आच्छादित हो गयी थी। उस बलवान् वीरने मथुराको चारों ओरसे घेरकर अपनी महासेनाका पड़ाव डाल दिया। उस समय भगवान् श्रीकृष्णने पुरवासियोंके कुशलक्षेमका विचार करके सबके रहनेके लिये समुद्रसे भूमि माँगी समुद्रने उन्हें तीस योजन विस्तृत भूमि दे दी। तब श्रीकृष्णने वहीं द्वारका नामकी सुन्दर पुरी बनवायी, जो अपनी शोभासे इन्द्रकी अमरावतीपुरीको मात करती थी। भगवान् जनार्दनने मथुरामें सोये हुए पुरवासियोंको उसी अवस्थामें उठाकर रातभरमें ही द्वारका पहुँचा दिया सबेरे जागनेपर उन्होंने स्त्री-पुत्रसहित अपनेको सोनेके महलोंमें बैठा पाया। इससे उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा। प्रचुर धन धान्य और दिव्य वस्त्र आभूषणोंसे भरे हुए सुन्दर गृह, जहाँ भयका नाम भी नहीं था, पाकर सम्पूर्ण यादव बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ रहने लगे। जैसे स्वर्गमें देवता सुखी रहते हैं, उसी प्रकार द्वारकापुरीमें वहाँके सभी निवासी अत्यन्त प्रसन्न थे। मथुरावासियोंको द्वारकामें पहुँचाने के बाद महाबली बलराम और श्रीकृष्ण कालयवनसे युद्ध करनेके लिये मथुरासे बाहर निकले। एक ओर महारथी बलरामजीने हल और मूसल लेकर बड़े रोषके साथ यवनोंकी विशाल सेनाका संहार आरम्भ किया तथादूसरी ओर देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने शार्ङ्गधनुष लेकर उससे छूटे हुए अग्निशिखाके सदृश तेजस्वी बाणोंद्वारा म्लेच्छौकी सम्पूर्ण विशाल वाहिनीको भस्म कर डाला। महाबली कालयवनने अपनी सेनाको मारी गयी देख भगवान् वासुदेवके साथ गदायुद्ध आरम्भ किया। भगवान् श्रीकृष्ण भी बहुत देरतक यवनोंका संहार करके युद्धसे विमुख होकर भागे। कालयवनने 'ठहरो ठहरो' की पुकार लगाते हुए बड़े वेगसे उनका पीछा किया। परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण शीघ्र ही एक पर्वतको कन्दरामै घुस गये। वहाँ महामुनि राजा मुचुकुन्द सोये थे। भगवान् श्रीकृष्ण, जहाँ कालयवनकी दृष्टि न पड़ सके, ऐसे स्थानमें खड़े हो गये। कालयवन भी महान् धीर-वीर था। वह हाथमें गदा लिये श्रीकृष्णको मारनेके लिये उस कन्दरामें घुसा उसमें सोये हुए महामुनि राजा मुचुकुन्दको श्रीकृष्ण समझकर उसने लात मारी। इससे उनकी नींद खुल गयी और उन्होंने क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके हुंकार किया। उनके हुंकार शब्दसे तथा उनकी रोषभरी दृष्टि पड़नेसे कालयवन प्राणहीन हो जलकर भस्म हो गया। तत्पश्चात् राजर्षि मुचुकुन्दने अपने सामने खड़े हुए भगवान् श्रीकृष्णको देखा अमित तेजस्वी भगवान्पर दृष्टि पड़ते ही वे सहसा उठकर खड़े हो गये और बोले-'मेरा अहोभाग्य, अहोभाग्य, जो प्रभुका दर्शन मिला।' इतना कहते-कहते उनके सारे शरीरमें रोमांच हो आया और नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। उन्होंने जय-जयकार करके भगवान्को बारंबार प्रणाम किया और स्तवन करते हुए कहा 'परमेश्वर आपके दर्शनसे मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया। आज मेरा जन्म और जीवन-दोनों सफल हो गये!' इस प्रकार स्तुति करके उन्होंने गोविन्दको पुनः बारंबार प्रणाम किया। इससे सन्तुष्ट होकर भगवान्ने महामुनि मुचुकुन्दसे कहा, 'राजर्षे! तुम मनोवांछित वर माँगो' तब मुचुकुन्दने भगवान्से पुनरावृत्तिरहित मोक्षके लिये प्रार्थना की। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें अपना सनातन दिव्यलोक प्रदान किया। परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दने मानवरूपका परित्याग करके परमात्मा श्रीहरिके समान रूप धारण कर लिया और गरुड़पर आरूढ़ हो वे सनातन धाममें चले गये।