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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 32 - Khand 1, Adhyaya 32

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तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना

भीष्मजीने पूछा— ब्रह्मन् ! अत्यन्त बलवान् तारक नामके दैत्यको उत्पत्ति कैसे हुई? कार्तिकेयजीने उस महान् असुरका संहार किस प्रकार किया ? भगवान् रुद्रको उमाको प्राप्ति किस प्रकार हुई ? महामुने! ये सारी बातें जिस प्रकार हुई हों, सब मुझे सुनाइये। पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! जैसे अरणीसे अग्निप्रकट होती है, उसी प्रकार दितिके गर्भसे दैत्योंकी उत्पत्ति हुई है। पूर्वकालमें उसी शुभलक्षणा दितिको महर्षि कश्यपने यह वरदान दिया था कि 'देवि! तुम्हें वज्रांग नामका एक पुत्र होगा, जिसके सभी अंग वज्रके समान सुदृढ़ होंगे।' वरदान पाकर देवी दितिने समयानुसार उस पुत्रको जन्म दिया, जो वज्रके द्वारा भी अच्छेद्य था।वह जन्मते ही समस्त शास्त्रोंमें पारंगत हो गया। उसने बड़ी भक्तिके साथ मातासे कहा माँ मैं तुम्हारी किस आज्ञाका पालन करूँ?' यह सुनकर दितिको बड़ा हर्ष हुआ वह दैत्यराजसे बोली-'बेटा! इन्द्रने मेरे बहुत से पुत्रोंको मौत के घाट उतार दिया है। अतः उनका बदला लेनेके उद्देश्यसे तुम भी इन्द्रका वध करनेके लिये जाओ।' महाबली वज्रांग 'बहुत अच्छा!' कहकर स्वर्गमें गया और अमोष तेजवाले पाशसे इन्द्रको बाँधकर अपनी माँके पास ले आया- ठीक उसी तरह, जैसे कोई व्याध छोटे-से मृगको बाँध लाये। इसी समय ब्रह्माजी तथा महातपस्वी कश्यप मुनि उस स्थानपर आये, जहाँ वे दोनों माँ-बेटे निर्भय होकर खड़े थे उन्हें देखकर ब्रह्मा और कश्यपजीने कहा- 'बेटा! इन्हें छोड़ दो, ये देवताओंके राजा है; इन्हें लेकर तुम क्या करोगे। सम्मानित पुरुषका अपमान ही उसका वध कहा गया है। यदि शत्रु अपने शत्रुके हाथमें आ जाय और वह दूसरेके गौरवसे छुटकारा पाये तो वह जीता हुआ भी प्रतिदिन चिन्तामग्न रहनेके कारण मृतकके ही समान हो जाता है।' यह सुनकर वज्रांगने ब्रह्माजी और कश्यपजीके चरणोंमें प्रणाम करते हुए कहा 'मुझे इन्द्रको बाँधनेसे कोई मतलब नहीं है। मैंने तो माताकी आज्ञाका पालन किया है। देव! आप देवता और असुरोंके भी स्वामी तथा मेरे माननीय प्रपितामह हैं; अतएव आपकी आज्ञाका पालन अवश्य करूँगा। यह लीजिये, मैंने इन्द्रको मुक्त कर दिया। मेरा मन तपस्या में लगता है, अतः मेरी तपस्या ही निर्विघ्न पूरी हो - यह आशीर्वाद प्रदान कीजिये।'

ब्रह्माजी बोले- वत्स ! तुम मेरी आज्ञाके अधीन रहकर तपस्या करो। तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति नहीं आ सकती। तुमने अपने इस शुद्ध भावसे जन्मका फल प्राप्त कर लिया।

यह कहकर ब्रह्माजीने बड़े-बड़े नेत्रोंवाली एक कन्या उत्पन्न की और उसे वज्रांगको पत्नीरूपमें अंगीकार करनेके लिये दे दिया। उस कन्याका नाम वरांगी बताकर ब्रह्माजी वहाँसे चले गये और वज्रांग उसेसाथ ले तपस्याके लिये वनमें चला गया। उस दैत्यराजके नेत्र कमलपत्रके समान विशाल एवं सुन्दर थे। उसकी बुद्धि शुद्ध थी तथा वह महान् तपस्वी था । उसने एक हजार वर्षोंतक बाँहें ऊपर उठाये खड़े होकर तपस्या की। तदनन्तर उसने एक हजार वर्षोंतक पानीके भीतर निवास किया। जलके भीतर प्रवेश कर जानेपर उसकी पत्नी वरांगी, जो बड़ी पतिव्रता थी, उसी सरोवर के तटपर चुपचाप बैठी रही और बिना कुछ खाये पिये घोर तपस्यामें प्रवृत्त हो गयी। उसके शरीर में महान् तेज था। इसी बीचमें एक हजार वर्षोंका समय पूरा हो गया। तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर उस जलाशयके तटपर आये और बज्रांगसे इस प्रकार बोले- दितिनन्दन! उठो, मैं तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी करूँगा।'

उनके ऐसा कहनेपर वज्रांग बोला- 'भगवन्! मेरे हृदयमें आसुर भाव न हो, मुझे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति हो तथा जबतक यह शरीर रहे, तबतक तपस्यामें ही मेरा अनुराग बना रहे।' 'एवमस्तु' कहकर ब्रह्माजी अपने लोकको चले गये और संयमको स्थिर रखनेवाला वज्रांग तपस्या समाप्त होनेपर जब घर लौटनेकी इच्छा करने लगा, तब उसे आश्रमपर अपनी स्त्री नहीं दिखायी दी। भूखसे आकुल होकर उसने पर्वतके घने जंगलमें फल मूल लेनेके लिये प्रवेश किया। वहाँ जाकर देखा - उसकी पत्नी वृक्षकी ओटमें मुँह छिपाये दीनभावसे रो रही है। उसे इस अवस्थामें देख दितिकुमारने सान्त्वना देते हुए पूछा- 'कल्याणी किसने तुम्हारा अपकार करके यमलोकमें जानेकी इच्छा की है ?'

वरांगी बोली- प्राणनाथ! तुम्हारे जीते जी मेरी दशा अनाथकी-सी हो रही है। देवराज इन्द्रने भयंकर रूप धारण करके मुझे डराया है, आश्रमसे बाहर निकाल दिया है, मारा है और भूरि-भूरि कष्ट दिया है। मुझे अपने दुःखका अन्त नहीं दिखायी देता था; इसलिये मैं प्राणत्याग देनेका निश्चय कर चुकी थी। आप एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो मुझे इस दुःखके समुद्रसे तार दे।

वरांगीके ऐसा कहनेपर दैत्यराज वज्रांगके नेत्रक्रोधसे चंचल हो उठे। यद्यपि वह महान् असुर देवराजसे बदला लेनेकी पूरी शक्ति रखता था, तथापि उस महाबलीने पुनः तप करनेका ही निश्चय किया। उसका संकल्प जानकर ब्रह्माजी वहाँ आये और उससे पूछने लगे-'बेटा! तुम फिर किसलिये तपस्या करनेको उद्यत हुए हो?' वज्रांगने कहा- 'पितामह! आपकी आज्ञा मानकर समाधिसे उठनेपर मैंने देखा इन्द्रने वरांगीको बहुत त्रास पहुंचाया है; अतः यह मुझसे ऐसा पुत्र चाहती है, जो इसे इस विपत्तिसे उबार दे। दादाजी! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो मुझे ऐसा पुत्र दीजिये।'

ब्रह्माजी बोले- वीर! ऐसा ही होगा। अब तुम्हें तपस्या करनेकी आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे तारक नामका एक महाबली पुत्र होगा।

ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर दैत्यराजने उन्हें प्रणाम किया और वनमें जाकर अपनी रानीको, जिसका हृदय दुःखी था, प्रसन्न किया। वे दोनों पति-पत्नी सफल मनोरथ होकर अपने आश्रममे गये सुन्दरी अपने पतिके द्वारा स्थापित किये हुए गर्भको पूरे एक हजार वर्षोंतक उदरमें ही धारण किये रही। इसके बाद उसने पुत्रको जन्म दिया। उस दैत्यके पैदा होते ही सारी पृथ्वी डोलने लगी- सर्वत्र भूकम्प होने लगा । महासागर विक्षुब्ध हो उठे। वरांगी पुत्रको देखकर हर्षसे भर गयी। दैत्यराज तारक जन्मते ही भयंकर पराक्रमी हो गया। कुजम्भ और महिष आदि मुख्य मुख्य असुरोंने मिलकर उसे राजाके पदपर अभिषिक्त कर दिया। दैत्योंका महान् साम्राज्य प्राप्त करके दानवश्रेष्ठ तारकने कहा- 'महाबली असुरो और दानवो! तुम सब लोग मेरी बात सुनो देवगण हमलोगोंके वंशका नाश करनेवाले हैं। जन्मगत स्वभावसे ही उनके साथ हमारा अटूट वैर बढ़ा हुआ है। अतः हम सब लोग देवताओंका दमन करनेके लिये तपस्या करेंगे।'

पुलस्त्यजी कहते हैं राजन्! यह सन्देश सुनाकर सबकी सम्मति ले तारकासुर पारियात्र पर्वतपर चला गया और वहाँ सौ वर्षोंतक निराहार रहकर, सौवर्षोंतक पंचाग्नि सेवन कर, सौ वर्षोंतक केवल पते चबाकर तथा सौ वर्षोंतक सिर्फ जल पीकर तपस्या करता रहा। इस प्रकार जब उसका शरीर अत्यन्त दुर्बल और तपका पुंज हो गया, तब ब्रह्माजीने आकर कहा- 'दैत्यराज ! तुमने उत्तम व्रतका पालन किया है, कोई वर माँगो' उसने कहा-'किसी भी प्राणीसे मेरी मृत्यु न हो।' तब ब्रह्माजीने कहा- 'देहधारियोंके लिये मृत्यु निश्चित है इसलिये तुम जिस किसी निमित्तसे श्री. जिससे तुम्हें भय न हो, अपनी मृत्यु माँग लो।' तब दैत्यराज तारकने बहुत सोच-विचारकर सात दिनके बालकसे अपनी मृत्यु माँगी। उस समय वह महान् असुर घमंडसे मोहित हो रहा था। ब्रह्माजी 'तथास्तु' कहकर अपने धामको चले और दैत्य अपने घर लौट गया। वहाँ जाकर उसने अपने मन्त्रियोंसे कहा-'तुमलोग शीघ्र ही मेरी सेना तैयार करो।' ग्रसन नामका दानव दैत्यराज तारकका सेनापति था। उसने स्वामीकी बात सुनकर बहुत बड़ी सेना तैयार की। गम्भीर स्वरमें रणभेरी बजाकर उसने तुरंत ही बड़े-बड़े दैत्योंको एकत्रित किया, जिनमें एक-एक दैत्य प्रचण्ड पराक्रमी होनेके साथ ही दस-दस करोड़ दैत्योंका यूथपति था। जम्भ नामक दैत्य उन सबका अगुआ था और कुजम्भ उसके पीछे चलनेवाला था। इनके सिवा महिष, कुंजर, मेघ, कालनेमि, निमि, मन्थन, जम्भक और शुम्भ भी प्रधान थे। इस प्रकार ये दस दैत्यपति सेनानायक थे। उनके अतिरिक्त और भी सैकड़ों ऐसे दानव थे, जो अपनी भुजाओंपर पृथ्वीको तोलनेकी शक्ति रखते थे। दैत्योंमें सिंहके समान पराक्रमी तारकासुरकी वह सेना बड़ी भयंकर जान पड़ती थी। वह मतवाले गजराजों, घोड़ों और रथोंसे भरी हुई थी। पैदलोंकी संख्या भी बहुत
थी और सेनामें सब ओर पताकाएँ फहरा रही थीं। इसी बीचमें देवताओंके दूत वायु असुरलोकमें | आये और दानव सेनाका उद्योग देखकर इन्द्रको उसका समाचार देनेके लिये गये। देवसभायें पहुँचकर उन्होंने देवताओंके बीचमें इस नयी घटनाका हाल सुनाया। उसे सुनकर महाबाहु देवराजने आँखें बंद करके बृहस्पतिजीकहा - 'गुरुदेव इस समय देवताओंके सामने दानवोंके साथ घोर संग्रामका अवसर उपस्थित होना चाहता है; इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। कोई नीतियुक्त बात बताइये।'

बृहस्पतिजी बोले- सुरश्रेष्ठ! सामनीति और चतुरंगिणी सेनाये ही दो विजयाभिलाषी वीरोंकी अफलता के साधन सुने गये हैं। ये ही सनातन रक्षा कवच हैं। नीतिके चार अंग हैं-साम, भेद, दान और दण्ड। यदि आक्रमण करनेवाले शत्रु लोभी हों तो उनपर सामनीतिका प्रभाव नहीं पड़ता। यदि वे एकमतके और संगठित हों तो उनमें फूट भी नहीं डाली जा सकती तथा जो बलपूर्वक सर्वस्व छीन लेनेकी शक्ति रखते हैं, उनके प्रति दाननीतिके प्रयोगसे भी सफलता नहीं मिल सकती; अतः अब यहाँ एक ही उपाय शेष रह जाता है। वह है- दण्ड । यदि आपलोगोंको जैसे तो दण्डका ही प्रयोग करें।

बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर इन्द्रने अपने कर्तव्यका निश्चय करके देवताओंको सभामें इस प्रकार कहा 'स्वर्गवासियो ! सावधान होकर मेरी बात सुनो-इस समय युद्धके लिये उद्योग करना ही उचित है; अतः मेरी सेना तैयार की जाय। यमराजको सेनापति बनाकर सम्पूर्ण देवता शीघ्र ही संग्राम के लिये निकलें।' यह सुनकर प्रधान प्रधान देवता कवच बाँधकर तैयार हो। गये। मातलिने देवराजका दुर्जय रथ जोतकर खड़ा किया। यमराज भैंसेपर सवार हो सेनाके आगे खड़े हुए। वे अपने प्रचण्ड किंकरोंद्वारा सब ओरसे घिरे हुए थे। अग्नि, वायु, वरुण, कुबेर, चन्द्रमा तथा आदित्य सब लोग युद्धके लिये उपस्थित हुए। देवताओंकी वह सैना तीनों लोकोंके लिये दुर्जय थी। उसमें तैंतीस करोड़ देवता एकत्रित थे। तदनन्तर युद्ध आरम्भ हुआ। अश्विनीकुमार, मरुद्गण, साध्यगण, इन्द्र, यक्ष और गन्धर्वये सभी महाबली एक साथ मिलकर दैत्यराज तारकपर प्रहार करने लगे। उन सबके हाथोंमें नाना प्रकारके दिव्यास्त्र थे। परन्तु तारकासुरका शरीर वज्र एवं पर्वतके समान सुदृढ़ था। देवताओंके हथियार उसपरकाम नहीं करते थे। उन्हें प्रहार करते देख दानवराज तारक रथसे कूद पड़ा और करोड़ों देवताओंको उसने अपने हाथके पृष्ठभागसे ही मार गिराया। यह देख देवताओंकी बची-खुची सेना भयभीत हो उठी और युद्धकी सामग्री वहीं छोड़कर चारों दिशाओंमें भाग गयी। ऐसी परिस्थितिमें पड़ जानेपर देवताओंके हृदयमें बड़ा दुःख हुआ और वे जगद्गुरु ब्रह्माजीकी शरणमें जाकर सुन्दर अक्षरोंसे युक्त वाक्योंद्वारा उनकी स्तुति करने लगे।

देवता बोले- सत्त्वमूर्ते! आप प्रणवरूप हैं। अनन्त भेदोंसे युक्त जो यह विश्व है, उसके अंकुर आदिकी उत्पत्तिके लिये आप सबसे पहले ब्रह्मारूपमें प्रकट हुए हैं। तदनन्तर इस जगत्की रक्षाके लिये सत्त्वगुणके मूलभूत विष्णुरूपसे स्थित हुए हैं। इसके बाद इसके संहारकी इच्छासे आपने रुद्ररूप धारण किया। इस प्रकार एक होकर भी त्रिविध रूप धारण करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है। जगत्में जितने भी स्थूल पदार्थ हैं, उन सबके आदि कारण आप ही हैं; अतः आपने अपनी ही महिमासे सोच-विचारकर हम देवताओंका नाम-निर्देश किया है; साथ ही इस ब्रह्माण्डके दो भाग करके ऊर्ध्वलोकोंको आकाशमें तथा अधोलोकोंको पृथ्वीपर और उसके भीतर स्थापित किया है। इससे हमें यह जान पड़ता है कि विश्वका सारा अवकाश आपने ही बनाया है। आप देहके भीतर रहनेवाले अन्तर्यामी पुरुष हैं। आपके शरीरसे ही देवताओंका प्राकट्य हुआ है। आकाश आपका मस्तक, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र, सर्पोका समुदाय केश और दिशाएँ कानोंके छिद्र हैं। यज्ञ आपका शरीर, नदियाँ सन्धिस्थान, पृथ्वी चरण और समुद्र उदर हैं। भगवन्! आप भक्तोंको शरण देनेवाले, आपत्तिसे बचानेवाले तथा उनकी रक्षा करनेवाले हैं। आप सबके ध्यानके विषय हैं। आपके स्वरूपका अन्त नहीं है।

देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बायें हाथसे वरद मुद्राका प्रदर्शन करते हुए देवताओंसे कहा- 'देवगण! तुम्हारा तेजकिसने छीन लिया है? तुम आज ऐसे हो रहे हो मानो तुममें अब कुछ भी करनेकी शक्ति ही नहीं रह गयी है; तुम्हारी कान्ति किसने हर ली ?' ब्रह्माजीके इस प्रकार पूछनेपर देवताओंने वायुको उत्तर देनेके लिये कहा। उनसे प्रेरित होकर वायुने कहा- 'भगवन्! आप चराचर जगत्की सारी बातें जानते हैं- आपसे क्या छिपा है। सैकड़ों दैत्योंने मिलकर इन्द्र आदि बलिष्ठ देवताओंको भी बलपूर्वक परास्त कर दिया है। आपके आदेशसे स्वर्गलोक सदा ही यज्ञभोगी देवताओंके अधिकारमें रहता आया है। परन्तु इस समय तारकासुरने देवताओंका सारा विमानसमूह छीनकर उसे दुर्लभ कर दिया है। देवताओंके निवासस्थान जिस मेरु पर्वतको आपने सम्पूर्ण पर्वतोंका राजा मानकर उसे सब प्रकारके गुणोंमें बढ़ा-चढ़ा, यज्ञोंसे विभूषित तथा आकाशमें भी ग्रहों और नक्षत्रोंकी गतिका सीमा- प्रदेश बना रखा था, उसीको उस दानवने अपने निवास और विहारके लिये उपयोगी बनानेके उद्देश्यसे परिष्कृत किया है, उसके शिखरों में आवश्यक परिवर्तन और सुधार किया है। इसप्रकार उसकी सारी उद्दण्डता मैंने बतायी है। अब आप ही हमारी गति हैं। '

यों कहकर वायुदेवता चुप हो गये। तब ब्रह्माजीने कहा- 'देवताओ! तारक नामका दैत्य देवता और असुर-सबके लिये अवध्य है। जिसके द्वारा उसका वध हो सकता है, वह पुरुष अभीतक त्रिलोकीमें पैदा ही नहीं हुआ। तारकासुर तपस्या कर रहा था। उस समय मैंने वरदान दे उसे अनुकूल बनाया और तपस्यासे रोका। उस दैत्यने सात दिनके बालकसे अपनी मृत्यु होनेका वरदान माँगा था। सात दिनका वही बालक उसे मार सकता है, जो भगवान् शंकरके वीर्यसे उत्पन्न हो । हिमालयकी कन्या जो उमादेवी होगी, उसके गर्भसे उत्पन्न पुत्र अरणिसे प्रकट होनेवाले अग्निदेवकी भाँति तेजस्वी होगा; अतः भगवान् शंकरके अंशसे उमादेवी जिस पुत्रको जन्म देगी, उसका सामना करनेपर तारकासुर नष्ट हो जायगा।' ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर देवता उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने स्थानको चले गये।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार