भीष्मजीने पूछा— ब्रह्मन् ! अत्यन्त बलवान् तारक नामके दैत्यको उत्पत्ति कैसे हुई? कार्तिकेयजीने उस महान् असुरका संहार किस प्रकार किया ? भगवान् रुद्रको उमाको प्राप्ति किस प्रकार हुई ? महामुने! ये सारी बातें जिस प्रकार हुई हों, सब मुझे सुनाइये। पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! जैसे अरणीसे अग्निप्रकट होती है, उसी प्रकार दितिके गर्भसे दैत्योंकी उत्पत्ति हुई है। पूर्वकालमें उसी शुभलक्षणा दितिको महर्षि कश्यपने यह वरदान दिया था कि 'देवि! तुम्हें वज्रांग नामका एक पुत्र होगा, जिसके सभी अंग वज्रके समान सुदृढ़ होंगे।' वरदान पाकर देवी दितिने समयानुसार उस पुत्रको जन्म दिया, जो वज्रके द्वारा भी अच्छेद्य था।वह जन्मते ही समस्त शास्त्रोंमें पारंगत हो गया। उसने बड़ी भक्तिके साथ मातासे कहा माँ मैं तुम्हारी किस आज्ञाका पालन करूँ?' यह सुनकर दितिको बड़ा हर्ष हुआ वह दैत्यराजसे बोली-'बेटा! इन्द्रने मेरे बहुत से पुत्रोंको मौत के घाट उतार दिया है। अतः उनका बदला लेनेके उद्देश्यसे तुम भी इन्द्रका वध करनेके लिये जाओ।' महाबली वज्रांग 'बहुत अच्छा!' कहकर स्वर्गमें गया और अमोष तेजवाले पाशसे इन्द्रको बाँधकर अपनी माँके पास ले आया- ठीक उसी तरह, जैसे कोई व्याध छोटे-से मृगको बाँध लाये। इसी समय ब्रह्माजी तथा महातपस्वी कश्यप मुनि उस स्थानपर आये, जहाँ वे दोनों माँ-बेटे निर्भय होकर खड़े थे उन्हें देखकर ब्रह्मा और कश्यपजीने कहा- 'बेटा! इन्हें छोड़ दो, ये देवताओंके राजा है; इन्हें लेकर तुम क्या करोगे। सम्मानित पुरुषका अपमान ही उसका वध कहा गया है। यदि शत्रु अपने शत्रुके हाथमें आ जाय और वह दूसरेके गौरवसे छुटकारा पाये तो वह जीता हुआ भी प्रतिदिन चिन्तामग्न रहनेके कारण मृतकके ही समान हो जाता है।' यह सुनकर वज्रांगने ब्रह्माजी और कश्यपजीके चरणोंमें प्रणाम करते हुए कहा 'मुझे इन्द्रको बाँधनेसे कोई मतलब नहीं है। मैंने तो माताकी आज्ञाका पालन किया है। देव! आप देवता और असुरोंके भी स्वामी तथा मेरे माननीय प्रपितामह हैं; अतएव आपकी आज्ञाका पालन अवश्य करूँगा। यह लीजिये, मैंने इन्द्रको मुक्त कर दिया। मेरा मन तपस्या में लगता है, अतः मेरी तपस्या ही निर्विघ्न पूरी हो - यह आशीर्वाद प्रदान कीजिये।'
ब्रह्माजी बोले- वत्स ! तुम मेरी आज्ञाके अधीन रहकर तपस्या करो। तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति नहीं आ सकती। तुमने अपने इस शुद्ध भावसे जन्मका फल प्राप्त कर लिया।
यह कहकर ब्रह्माजीने बड़े-बड़े नेत्रोंवाली एक कन्या उत्पन्न की और उसे वज्रांगको पत्नीरूपमें अंगीकार करनेके लिये दे दिया। उस कन्याका नाम वरांगी बताकर ब्रह्माजी वहाँसे चले गये और वज्रांग उसेसाथ ले तपस्याके लिये वनमें चला गया। उस दैत्यराजके नेत्र कमलपत्रके समान विशाल एवं सुन्दर थे। उसकी बुद्धि शुद्ध थी तथा वह महान् तपस्वी था । उसने एक हजार वर्षोंतक बाँहें ऊपर उठाये खड़े होकर तपस्या की। तदनन्तर उसने एक हजार वर्षोंतक पानीके भीतर निवास किया। जलके भीतर प्रवेश कर जानेपर उसकी पत्नी वरांगी, जो बड़ी पतिव्रता थी, उसी सरोवर के तटपर चुपचाप बैठी रही और बिना कुछ खाये पिये घोर तपस्यामें प्रवृत्त हो गयी। उसके शरीर में महान् तेज था। इसी बीचमें एक हजार वर्षोंका समय पूरा हो गया। तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर उस जलाशयके तटपर आये और बज्रांगसे इस प्रकार बोले- दितिनन्दन! उठो, मैं तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी करूँगा।'
उनके ऐसा कहनेपर वज्रांग बोला- 'भगवन्! मेरे हृदयमें आसुर भाव न हो, मुझे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति हो तथा जबतक यह शरीर रहे, तबतक तपस्यामें ही मेरा अनुराग बना रहे।' 'एवमस्तु' कहकर ब्रह्माजी अपने लोकको चले गये और संयमको स्थिर रखनेवाला वज्रांग तपस्या समाप्त होनेपर जब घर लौटनेकी इच्छा करने लगा, तब उसे आश्रमपर अपनी स्त्री नहीं दिखायी दी। भूखसे आकुल होकर उसने पर्वतके घने जंगलमें फल मूल लेनेके लिये प्रवेश किया। वहाँ जाकर देखा - उसकी पत्नी वृक्षकी ओटमें मुँह छिपाये दीनभावसे रो रही है। उसे इस अवस्थामें देख दितिकुमारने सान्त्वना देते हुए पूछा- 'कल्याणी किसने तुम्हारा अपकार करके यमलोकमें जानेकी इच्छा की है ?'
वरांगी बोली- प्राणनाथ! तुम्हारे जीते जी मेरी दशा अनाथकी-सी हो रही है। देवराज इन्द्रने भयंकर रूप धारण करके मुझे डराया है, आश्रमसे बाहर निकाल दिया है, मारा है और भूरि-भूरि कष्ट दिया है। मुझे अपने दुःखका अन्त नहीं दिखायी देता था; इसलिये मैं प्राणत्याग देनेका निश्चय कर चुकी थी। आप एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो मुझे इस दुःखके समुद्रसे तार दे।
वरांगीके ऐसा कहनेपर दैत्यराज वज्रांगके नेत्रक्रोधसे चंचल हो उठे। यद्यपि वह महान् असुर देवराजसे बदला लेनेकी पूरी शक्ति रखता था, तथापि उस महाबलीने पुनः तप करनेका ही निश्चय किया। उसका संकल्प जानकर ब्रह्माजी वहाँ आये और उससे पूछने लगे-'बेटा! तुम फिर किसलिये तपस्या करनेको उद्यत हुए हो?' वज्रांगने कहा- 'पितामह! आपकी आज्ञा मानकर समाधिसे उठनेपर मैंने देखा इन्द्रने वरांगीको बहुत त्रास पहुंचाया है; अतः यह मुझसे ऐसा पुत्र चाहती है, जो इसे इस विपत्तिसे उबार दे। दादाजी! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो मुझे ऐसा पुत्र दीजिये।'
ब्रह्माजी बोले- वीर! ऐसा ही होगा। अब तुम्हें तपस्या करनेकी आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे तारक नामका एक महाबली पुत्र होगा।
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर दैत्यराजने उन्हें प्रणाम किया और वनमें जाकर अपनी रानीको, जिसका हृदय दुःखी था, प्रसन्न किया। वे दोनों पति-पत्नी सफल मनोरथ होकर अपने आश्रममे गये सुन्दरी अपने पतिके द्वारा स्थापित किये हुए गर्भको पूरे एक हजार वर्षोंतक उदरमें ही धारण किये रही। इसके बाद उसने पुत्रको जन्म दिया। उस दैत्यके पैदा होते ही सारी पृथ्वी डोलने लगी- सर्वत्र भूकम्प होने लगा । महासागर विक्षुब्ध हो उठे। वरांगी पुत्रको देखकर हर्षसे भर गयी। दैत्यराज तारक जन्मते ही भयंकर पराक्रमी हो गया। कुजम्भ और महिष आदि मुख्य मुख्य असुरोंने मिलकर उसे राजाके पदपर अभिषिक्त कर दिया। दैत्योंका महान् साम्राज्य प्राप्त करके दानवश्रेष्ठ तारकने कहा- 'महाबली असुरो और दानवो! तुम सब लोग मेरी बात सुनो देवगण हमलोगोंके वंशका नाश करनेवाले हैं। जन्मगत स्वभावसे ही उनके साथ हमारा अटूट वैर बढ़ा हुआ है। अतः हम सब लोग देवताओंका दमन करनेके लिये तपस्या करेंगे।'
पुलस्त्यजी कहते हैं राजन्! यह सन्देश सुनाकर सबकी सम्मति ले तारकासुर पारियात्र पर्वतपर चला गया और वहाँ सौ वर्षोंतक निराहार रहकर, सौवर्षोंतक पंचाग्नि सेवन कर, सौ वर्षोंतक केवल पते चबाकर तथा सौ वर्षोंतक सिर्फ जल पीकर तपस्या करता रहा। इस प्रकार जब उसका शरीर अत्यन्त दुर्बल और तपका पुंज हो गया, तब ब्रह्माजीने आकर कहा- 'दैत्यराज ! तुमने उत्तम व्रतका पालन किया है, कोई वर माँगो' उसने कहा-'किसी भी प्राणीसे मेरी मृत्यु न हो।' तब ब्रह्माजीने कहा- 'देहधारियोंके लिये मृत्यु निश्चित है इसलिये तुम जिस किसी निमित्तसे श्री. जिससे तुम्हें भय न हो, अपनी मृत्यु माँग लो।' तब दैत्यराज तारकने बहुत सोच-विचारकर सात दिनके बालकसे अपनी मृत्यु माँगी। उस समय वह महान् असुर घमंडसे मोहित हो रहा था। ब्रह्माजी 'तथास्तु' कहकर अपने धामको चले और दैत्य अपने घर लौट गया। वहाँ जाकर उसने अपने मन्त्रियोंसे कहा-'तुमलोग शीघ्र ही मेरी सेना तैयार करो।' ग्रसन नामका दानव दैत्यराज तारकका सेनापति था। उसने स्वामीकी बात सुनकर बहुत बड़ी सेना तैयार की। गम्भीर स्वरमें रणभेरी बजाकर उसने तुरंत ही बड़े-बड़े दैत्योंको एकत्रित किया, जिनमें एक-एक दैत्य प्रचण्ड पराक्रमी होनेके साथ ही दस-दस करोड़ दैत्योंका यूथपति था। जम्भ नामक दैत्य उन सबका अगुआ था और कुजम्भ उसके पीछे चलनेवाला था। इनके सिवा महिष, कुंजर, मेघ, कालनेमि, निमि, मन्थन, जम्भक और शुम्भ भी प्रधान थे। इस प्रकार ये दस दैत्यपति सेनानायक थे। उनके अतिरिक्त और भी सैकड़ों ऐसे दानव थे, जो अपनी भुजाओंपर पृथ्वीको तोलनेकी शक्ति रखते थे। दैत्योंमें सिंहके समान पराक्रमी तारकासुरकी वह सेना बड़ी भयंकर जान पड़ती थी। वह मतवाले गजराजों, घोड़ों और रथोंसे भरी हुई थी। पैदलोंकी संख्या भी बहुत
थी और सेनामें सब ओर पताकाएँ फहरा रही थीं। इसी बीचमें देवताओंके दूत वायु असुरलोकमें | आये और दानव सेनाका उद्योग देखकर इन्द्रको उसका समाचार देनेके लिये गये। देवसभायें पहुँचकर उन्होंने देवताओंके बीचमें इस नयी घटनाका हाल सुनाया। उसे सुनकर महाबाहु देवराजने आँखें बंद करके बृहस्पतिजीकहा - 'गुरुदेव इस समय देवताओंके सामने दानवोंके साथ घोर संग्रामका अवसर उपस्थित होना चाहता है; इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। कोई नीतियुक्त बात बताइये।'
बृहस्पतिजी बोले- सुरश्रेष्ठ! सामनीति और चतुरंगिणी सेनाये ही दो विजयाभिलाषी वीरोंकी अफलता के साधन सुने गये हैं। ये ही सनातन रक्षा कवच हैं। नीतिके चार अंग हैं-साम, भेद, दान और दण्ड। यदि आक्रमण करनेवाले शत्रु लोभी हों तो उनपर सामनीतिका प्रभाव नहीं पड़ता। यदि वे एकमतके और संगठित हों तो उनमें फूट भी नहीं डाली जा सकती तथा जो बलपूर्वक सर्वस्व छीन लेनेकी शक्ति रखते हैं, उनके प्रति दाननीतिके प्रयोगसे भी सफलता नहीं मिल सकती; अतः अब यहाँ एक ही उपाय शेष रह जाता है। वह है- दण्ड । यदि आपलोगोंको जैसे तो दण्डका ही प्रयोग करें।
बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर इन्द्रने अपने कर्तव्यका निश्चय करके देवताओंको सभामें इस प्रकार कहा 'स्वर्गवासियो ! सावधान होकर मेरी बात सुनो-इस समय युद्धके लिये उद्योग करना ही उचित है; अतः मेरी सेना तैयार की जाय। यमराजको सेनापति बनाकर सम्पूर्ण देवता शीघ्र ही संग्राम के लिये निकलें।' यह सुनकर प्रधान प्रधान देवता कवच बाँधकर तैयार हो। गये। मातलिने देवराजका दुर्जय रथ जोतकर खड़ा किया। यमराज भैंसेपर सवार हो सेनाके आगे खड़े हुए। वे अपने प्रचण्ड किंकरोंद्वारा सब ओरसे घिरे हुए थे। अग्नि, वायु, वरुण, कुबेर, चन्द्रमा तथा आदित्य सब लोग युद्धके लिये उपस्थित हुए। देवताओंकी वह सैना तीनों लोकोंके लिये दुर्जय थी। उसमें तैंतीस करोड़ देवता एकत्रित थे। तदनन्तर युद्ध आरम्भ हुआ। अश्विनीकुमार, मरुद्गण, साध्यगण, इन्द्र, यक्ष और गन्धर्वये सभी महाबली एक साथ मिलकर दैत्यराज तारकपर प्रहार करने लगे। उन सबके हाथोंमें नाना प्रकारके दिव्यास्त्र थे। परन्तु तारकासुरका शरीर वज्र एवं पर्वतके समान सुदृढ़ था। देवताओंके हथियार उसपरकाम नहीं करते थे। उन्हें प्रहार करते देख दानवराज तारक रथसे कूद पड़ा और करोड़ों देवताओंको उसने अपने हाथके पृष्ठभागसे ही मार गिराया। यह देख देवताओंकी बची-खुची सेना भयभीत हो उठी और युद्धकी सामग्री वहीं छोड़कर चारों दिशाओंमें भाग गयी। ऐसी परिस्थितिमें पड़ जानेपर देवताओंके हृदयमें बड़ा दुःख हुआ और वे जगद्गुरु ब्रह्माजीकी शरणमें जाकर सुन्दर अक्षरोंसे युक्त वाक्योंद्वारा उनकी स्तुति करने लगे।
देवता बोले- सत्त्वमूर्ते! आप प्रणवरूप हैं। अनन्त भेदोंसे युक्त जो यह विश्व है, उसके अंकुर आदिकी उत्पत्तिके लिये आप सबसे पहले ब्रह्मारूपमें प्रकट हुए हैं। तदनन्तर इस जगत्की रक्षाके लिये सत्त्वगुणके मूलभूत विष्णुरूपसे स्थित हुए हैं। इसके बाद इसके संहारकी इच्छासे आपने रुद्ररूप धारण किया। इस प्रकार एक होकर भी त्रिविध रूप धारण करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है। जगत्में जितने भी स्थूल पदार्थ हैं, उन सबके आदि कारण आप ही हैं; अतः आपने अपनी ही महिमासे सोच-विचारकर हम देवताओंका नाम-निर्देश किया है; साथ ही इस ब्रह्माण्डके दो भाग करके ऊर्ध्वलोकोंको आकाशमें तथा अधोलोकोंको पृथ्वीपर और उसके भीतर स्थापित किया है। इससे हमें यह जान पड़ता है कि विश्वका सारा अवकाश आपने ही बनाया है। आप देहके भीतर रहनेवाले अन्तर्यामी पुरुष हैं। आपके शरीरसे ही देवताओंका प्राकट्य हुआ है। आकाश आपका मस्तक, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र, सर्पोका समुदाय केश और दिशाएँ कानोंके छिद्र हैं। यज्ञ आपका शरीर, नदियाँ सन्धिस्थान, पृथ्वी चरण और समुद्र उदर हैं। भगवन्! आप भक्तोंको शरण देनेवाले, आपत्तिसे बचानेवाले तथा उनकी रक्षा करनेवाले हैं। आप सबके ध्यानके विषय हैं। आपके स्वरूपका अन्त नहीं है।
देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बायें हाथसे वरद मुद्राका प्रदर्शन करते हुए देवताओंसे कहा- 'देवगण! तुम्हारा तेजकिसने छीन लिया है? तुम आज ऐसे हो रहे हो मानो तुममें अब कुछ भी करनेकी शक्ति ही नहीं रह गयी है; तुम्हारी कान्ति किसने हर ली ?' ब्रह्माजीके इस प्रकार पूछनेपर देवताओंने वायुको उत्तर देनेके लिये कहा। उनसे प्रेरित होकर वायुने कहा- 'भगवन्! आप चराचर जगत्की सारी बातें जानते हैं- आपसे क्या छिपा है। सैकड़ों दैत्योंने मिलकर इन्द्र आदि बलिष्ठ देवताओंको भी बलपूर्वक परास्त कर दिया है। आपके आदेशसे स्वर्गलोक सदा ही यज्ञभोगी देवताओंके अधिकारमें रहता आया है। परन्तु इस समय तारकासुरने देवताओंका सारा विमानसमूह छीनकर उसे दुर्लभ कर दिया है। देवताओंके निवासस्थान जिस मेरु पर्वतको आपने सम्पूर्ण पर्वतोंका राजा मानकर उसे सब प्रकारके गुणोंमें बढ़ा-चढ़ा, यज्ञोंसे विभूषित तथा आकाशमें भी ग्रहों और नक्षत्रोंकी गतिका सीमा- प्रदेश बना रखा था, उसीको उस दानवने अपने निवास और विहारके लिये उपयोगी बनानेके उद्देश्यसे परिष्कृत किया है, उसके शिखरों में आवश्यक परिवर्तन और सुधार किया है। इसप्रकार उसकी सारी उद्दण्डता मैंने बतायी है। अब आप ही हमारी गति हैं। '
यों कहकर वायुदेवता चुप हो गये। तब ब्रह्माजीने कहा- 'देवताओ! तारक नामका दैत्य देवता और असुर-सबके लिये अवध्य है। जिसके द्वारा उसका वध हो सकता है, वह पुरुष अभीतक त्रिलोकीमें पैदा ही नहीं हुआ। तारकासुर तपस्या कर रहा था। उस समय मैंने वरदान दे उसे अनुकूल बनाया और तपस्यासे रोका। उस दैत्यने सात दिनके बालकसे अपनी मृत्यु होनेका वरदान माँगा था। सात दिनका वही बालक उसे मार सकता है, जो भगवान् शंकरके वीर्यसे उत्पन्न हो । हिमालयकी कन्या जो उमादेवी होगी, उसके गर्भसे उत्पन्न पुत्र अरणिसे प्रकट होनेवाले अग्निदेवकी भाँति तेजस्वी होगा; अतः भगवान् शंकरके अंशसे उमादेवी जिस पुत्रको जन्म देगी, उसका सामना करनेपर तारकासुर नष्ट हो जायगा।' ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर देवता उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने स्थानको चले गये।