भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! अब मैं तीर्थोंका अद्भुत माहात्म्य सुनना चाहता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। आप विस्तारके साथ उसका वर्णन करो।
पुलस्त्यजी बोले- राजन्! ऐसे अनेकों पावन तीर्थ हैं, जिनका नाम लेनेसे भी बड़े-बड़े पातकों का नाश हो जाता है। तीर्थोंका दर्शन करना, उनमें स्नान करना, वहाँ जाकर बार-बार डुबकी लगाना तथा समस्ततीर्थोंका स्मरण करना -ये मनोवांछित फलको देनेवाले हैं। भीष्म ! पर्वत, नदियाँ, क्षेत्र, आश्रम और मानस आदि सरोवर- सभी तीर्थ कहे गये हैं, जिनमें तीर्थयात्राके उद्देश्यसे जानेवाले पुरुषको पग-पगपर अश्वमेध आदि यज्ञोंका फल होता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
भीष्मजीने पूछा-द्विजश्रेष्ठ ! मैं आपसे भगवान् श्रीविष्णुका चरित्र सुनना चाहता हूँ। सर्वसमर्थ एवंसर्वव्यापक श्रीविष्णुने यज्ञ-पर्वतपर जा वहाँ अपने चरण रखकर किस दानवका दमन किया था? महामुने। ये सारी बातें मुझे बताइये।
पुलस्त्यजी बोले- वत्स! तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है, एकाग्रचित्त होकर सुनो। प्राचीन सत्ययुगकी बात है-बलिष्ठ दानवोंने समूचे स्वर्गपर अधिकार जमा लिया था। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर उनसे त्रिभुवनका राज्य छीन लिया था। उनमें बाष्कलि नामका दानव सबसे बलवान् था। उसने समस्त दानवको यज्ञका भोक्ता बना दिया। इससे इन्द्रको बड़ा दुःख हुआ। वे अपने जीवनसे निराश हो चले। उन्होंने सोचा- 'ब्रह्माजीके वरदानसे दानवराज बाष्कलि मेरे तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये युद्धमें अवध्य हो गया है। अतः मैं ब्रह्मलोक में चलकर भगवान् ब्रह्माजीकी ही शरण लूँगा। उनके सिवा और कोई मुझे सहारा देनेवाला नहीं है।' ऐसा विचार कर देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंको साथ ले तुरंत उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् ब्रह्माजी विराजमान थे।
इन्द्र बोले- देव! क्या आप हमारी दशा नहीं जानते, अब हमारा जीवन कैसे रहेगा? प्रभो! आपके वरदानसे दैत्योंने हमारा सर्वस्व छीन लिया। मैं दुरात्मा वाकलिकी सारी करतूतें पहले ही आपको बता चुका हूँ। पितामह आप ही हमारे पिता हैं। हमारी रक्षाके लिये शीघ्र ही कोई उपाय कीजिये। संसारसे वेदपाठ और यज्ञ-यागादि उठ गये। उत्सव और मंगलकी बातें जाती रहीं। सबने अध्ययन करना छोड़ दिया है। दण्डनीति भी उठा दी गयी है। इन सब कारणों से संसारके प्राणी किसी तरह साँसमात्र ले रहे हैं। जगत् पीडाग्रस्त तो था ही, अब और भी कष्टतर दशाको पहुँच गया है। इतने समयमें हमलोगोंको बड़ी ग्लानि उठानी पड़ी है।
ब्रह्माजीने कहा- देवराज! मैं जानता हूँ बाष्कलि बड़ा नीच है और वरदान पाकर घमंडसे भर गया है। यद्यपि तुमलोगोंके लिये वह अजेय है, तथापि मैं समझता हूँ भगवान् श्रीविष्णु उसे अवश्यठीक कर देंगे। पुलस्त्यजी कहते हैं— उस समय ब्रह्माजी समाधिमें स्थित हो गये। उनके चिन्तन करनेपर ध्यानमानसे चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु थोड़े ही समयमें सबके देखते-देखते वहाँ आ पहुँचे।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- ब्रह्मन् ! इस ध्यानको छोड़ो। जिसके लिये तुम ध्यान करते हो, वही मैं साक्षात् तुम्हारे पास आ गया हूँ।
ब्रह्माजीने कहा- स्वामीने यहाँ आकर मुझे दर्शन दिया, यह बहुत बड़ी कृपा हुई जगत्के लिये जगदीश्वरको जितनी चिन्ता है, उतनी और किसको हो सकती है। मेरी उत्पत्ति भी आपने जगत्के लिये ही की थी और जगत्को यह दशा है अतः उसके लिये भगवान्का यह शुभागमन वास्तवमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। प्रभो! विश्वके पालनका कार्य आपके ही अधीन है। इस इन्द्रका राज्य बाष्कलिने छीन लिया है। चराचर प्राणियोंके सहित त्रिलोकीको अपने अधिकारमें कर लिया है। केशव ! अब आप ही सलाह देकर अपने इस सेवककी सहायता कीजिये।
भगवान् श्रीवासुदेवने कह्य — ब्रह्मन् ! तुम्हारे वरदानसे - वह दानव इस समय अवध्य है, तथापि उसे बुद्धिके द्वारा बन्धनमें डालकर परास्त किया जा सकता है। मैं दानवोंका विनाश करनेके लिये वामनरूप धारण करूंगा। ये इन्द्र मेरे साथ बाष्कलिके पर चलें और वहाँ पहुँचकर मेरे लिये इस प्रकार वरकी याचना करें-'राजन्! इस बौने ब्राह्मणके लिये तीन पग भूमिका दान दीजिये महाभाग इनके लिये मैं आपसे याचना करता हूँ।' ऐसा कहनेपर वह दानवराज अपना प्राणतक दे सकता है। पितामह! उस दानवका दान स्वीकार करके पहले उसे राज्यसे वंचित करूँगा, फिर उसे बाँधकर पातालका निवासी बनाऊँगा।
यों कहकर भगवान् श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर कार्य साधनके अनुकूल समय आनेपर सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले देवाधिदेव भगवान्ने देवताओंका हित करनेके लिये अदितिका पुत्र होनेका विचार किया। भगवान्ने जिस दिन गर्भमें प्रवेश किया,उस दिन स्वच्छ वायु बहने लगी। सम्पूर्ण प्राणी बिना किसी उपद्रवके अपने-अपने इच्छित पदार्थ प्राप्त करने लगे। वृक्षोंसे फूलोंकी वर्षा होने लगी, समस्त दिशाएँ निर्मल हो गयीं तथा सभी मनुष्य सत्य-परायण हो गये देवी अदितिने एक हजार दिव्य वर्षांत भगवान्को गर्भ धारण किया। इसके बाद वे भूतभावन प्रभु वामनरूप प्रकट हुए। उनके अवतार लेते ही नदियोंका जल स्वच्छ हो गया। वायु सुगन्ध बिखेरने लगी। उस तेजस्वी पुत्रके प्रकट होनेसे महर्षि कश्यपको भी बड़ा आनन्द हुआ। तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले समस्त प्राणियोंके मनमें अपूर्व उत्साह भर गया। भगवान् जनार्दनका प्रादुर्भाव होते ही स्वर्गलोक में नगारे बज उठे। अत्यन्त हर्षोल्लासके कारण त्रिलोकीके मोह और दु:ख नष्ट हो गये। गन्धर्वोने अत्यन्त उच्च स्वरसे संगीत आरम्भ किया। कोई ऊँचे स्वरसे भगवान्की जय जयकार करने लगे, कोई अत्यन्त हर्षमें भरकर जोर-जोर गर्जना करते हुए बारम्बार भगवान्को साधुवाद देने लगे तथा कुछ लोग जन्म, भय, बुढ़ापा और मृत्युसे छुटकारा पानेके लिये उनका ध्यान करने लगे। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् सब ओरसे अत्यन्त प्रसन्न हो उठा।
देवतालोग मन-ही-मन विचार करने लगे- 'ये साक्षात् परमात्मा श्रीविष्णु हैं। ब्रह्माजीके अनुरोधसे जगत्की रक्षाके लिये इन जगदीश्वरने यह छोटा-सा शरीर धारण किया है। ये ही ब्रह्मा, ये ही विष्णु और ये ही महेश्वर हैं। देवता, यज्ञ और स्वर्ग-सब कुछ ये ही हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् भगवान् श्रीविष्णुसे व्याप्त है। ये एक होते हुए भी पृथक् शरीर धारण करके ब्रह्मके नामसे विख्यात है। जिस प्रकार बहुत-से रंगवाली वस्तुओंका सान्निध्य होनेपर स्फटिकमणि विचित्र सी प्रतीत होने लगती है, वैसे ही मायामय गुणके संसर्गसे स्वयम्भू परमात्माकी नाना रूपों में प्रतीति होती है। जैसे एक ही गार्हपत्य अग्नि दक्षिणाग्नि तथा आहवनीयानि आदि भिन्न-भिन्न संज्ञाओंको प्राप्त होती है, उसी प्रकार ये एक ही श्रीविष्णु ब्रह्मा आदि अनेक नाम एवं रूपों में उपलब्ध होते हैं। येभगवान् सब तरहसे देवताओंका कार्य सिद्ध करेंगे।'
शुद्ध चित्तवाले देवगण जब इस प्रकार सोच रहे थे, उसी समय भगवान् वामन इन्द्रके साथ बाष्कलिके घर गये। उन्होंने दूरसे ही बाष्कलिकी नगरीको देखा, जो परकोटेसे घिरी थी। सब प्रकारके रत्नोंसे सजे हुए ऊँचे-ऊँचे सफेद महल, जो आकाशचारी प्राणियोंके लिये भी अगम्य थे, उस पुरीकी शोभा बढ़ा रहे थे। नगरकी सड़कें बड़ी ही सुन्दर एवं क्रमबद्ध बनायी गयी थीं। कोई ऐसा पुष्प नहीं, ऐसी विद्या नहीं, ऐसा शिल्प नहीं तथा ऐसी कला नहीं, जो बाष्कलिकी नगरीमें मौजूद न रही हो। वहीं रहकर दानवराज बाष्कलि चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीका पालन करता था। वह धर्मका ज्ञाता, कृतज्ञ, सत्यवादी और जितेन्द्रिय था। सभी प्राणी उससे सुगमतापूर्वक मिल सकते थे। न्याय अन्यायका निर्णय करनेमें उसकी बुद्धि बड़ी ही कुशल थी। वह ब्राह्मणोंका भक्त, शरणागतोंका रक्षक तथा दीन और अनाथोंपर दया करनेवाला था। मन्त्र शक्ति, प्रभु शक्ति और उत्साह शक्ति- इन तीनों शक्तियोंसे वह सम्पन्न था सन्धि विग्रह यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय राजनीतिके इन छः गुणोंका अवसरके अनुकूल उपयोग करनेमें उसका सदा उत्साह रहता था। वह सबसे मुसकराकर बात करता था वेद और वेदांगोंके तत्त्वका उसे पूर्ण ज्ञान था। वह यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला, तपस्या परायण, उदार, सुशील, संयमी, प्राणियोंकी हिंसासे विरत, माननीय पुरुषको आदर देनेवाला, शुद्धहृदय, प्रसन्नमुख, पूजनीय पुरुषोंका पूजन करनेवाला, सम्पूर्ण विषयका ज्ञाता, दुर्दमनीय, सौभाग्यशाली, देखनेमें सुन्दर, अन्नका बहुत बड़ा संग्रह रखनेवाला, बड़ा धनी और बहुत बड़ा दानी था वह धर्म, अर्थ और काम- तीनोंके साधनमें संलग्न रहता था। बाष्कलि त्रिलोकीका एक श्रेष्ठ पुरुष था वह सदा अपनी नगरीमें ही रहता था उसमें देवता और दानवोंके भी घमंडको चूर्ण करनेकी शक्ति थी। ऐसे गुणोंसे विभूषित होकर वह त्रिभुवनकी समस्त प्रजाका पालन करता था। उस दानवराजके राज्यमें कोई भी अधर्म नहींहोने पाता था। उसकी प्रजामें कोई भी ऐसा नहीं था जो दीन, रोगी, अल्पायु, दुःखी, मूर्ख, कुरूप, दुर्भाग्यशाली और अपमानित हो ।
इन्द्रको आते देख दानवोंने जाकर राजा बाष्कलिसे कहा - 'प्रभो! बड़े आश्चर्यकी बात है कि आज इन्द्र एक बौने ब्राह्मणके साथ अकेले ही आपकी पुरीमें आ रहे हैं। इस समय हमारे लिये जो कर्तव्य हो, उसे शीघ्र बताइये।' उनकी बात सुनकर बाष्कलिने कहा 'दानवो! इस नगरमें देवराजको आदरके साथ ले आना चाहिये। वे आज हमारे पूजनीय अतिथि हैं।'
पुलस्त्यजी कहते हैं- दानवराज बाष्कलि दानवोंसे ऐसा कहकर फिर स्वयं इन्द्रसे मिलनेके लिये अकेला ही राजमहलसे बाहर निकल पड़ा और अपने शोभा सम्पन्न नगरकी सातवीं ड्योढ़ीपर जा पहुँचा। इतनेमें ही उधरसे भगवान् वामन और इन्द्र भी आ पहुँचे। दानवराजने बड़े प्रेमसे उनकी ओर देखा और प्रणाम करके अपनेको कृतार्थ माना। वह हर्षमें भरकर सोचने लगा- 'मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है, क्योंकि आज मैं त्रिभुवनकी राजलक्ष्मीसे सम्पन्न होकर इन्द्रको याचकके रूपमें अपने घरपर आया देखता हूँ। ये मुझसे कुछ याचना करेंगे। घरपर आये हुए इन्द्रको मैंअपनी स्त्री पुत्र, महल तथा अपने प्राण भी दे डालूंगा; फिर त्रिलोकी के राज्यकी तो बात ही क्या है। यह सोचकर उसने सामने आ इन्द्रको अंकमें भरकर बड़े आदरके साथ गले लगाया और अपने राजभवनके भीतर ले जाकर अर्घ्य तथा आचमनीय आदिसे उन दोनोंका यत्नपूर्वक पूजन किया। इसके बाद बाष्कलि बोला-' इन्द्र ! आज मैं आपको अपने घरपर स्वयं आया देखता हूँ; इससे मेरा जन्म सफल हो गया, मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। प्रभो ! मेरे पास आपका किस प्रयोजनसे आगमन हुआ? मुझे सारी बात बताइये। आपने यहाँतक आनेका कष्ट उठाया, इसे मैं बड़े आश्चर्यकी बात समझता हूँ।'
इन्द्रने कहा- बाष्कले ! मैं जानता हूँ, दानव वंशके श्रेष्ठ पुरुषोंमें तुम सबसे प्रधान हो। तुम्हारे पास मेरा आना कोई आश्वर्यकी बात नहीं है तुम्हारे घरपर आये हुए याचक कभी विमुख नहीं लौटते तुम याचकोंके लिये कल्पवृक्ष हो। तुम्हारे समान दाता कोई नहीं है। तुम प्रभामें सूर्यके समान हो। गम्भीरतामें सागरकी समानता करते हो। क्षमाशीलताके कारण तुम्हारी पृथ्वी के साथ तुलना की जाती है। ये ब्राह्मणदेवता वामन कश्यपजीके उत्तम कुलमें उत्पन्न हैं। इन्होंने मुझसे तीन पग भूमिके लिये याचना की है; किन्तु बाष्कले मेरा त्रिभुवनका राज्य तो तुमने पराक्रम करके छीन लिया है। अब मैं निराधार और निर्धन हैं। इन्हें देनेके लिये मेरे पास कोई भूमि नहीं है। इसलिये तुमसे याचना करता हूँ। याचक मैं नहीं, ये हैं। दानवेन्द्र! यदि तुम्हें अभीष्ट हो तो इन वामनजीको तीन पग भूमि दे दो।
बाष्कलिने कहा -देवेन्द्र! आप भले पधारे, आपका कल्याण हो। जरा अपनी ओर तो देखिये; आप ही सबके परम आश्रय हैं। पितामह ब्रह्माजी त्रिभुवनकी रक्षाका भार आपके ऊपर डालकर सुखसे बैठे हैं और ध्यान-धारणासे युक्त हो परमपदका चिन्तन करते हैं। भगवान् श्रीविष्णु भी अनेकों संग्रामोंसे थककर जगत्की चिन्ता छोड़ आपके ही भरोसे क्षीर सागरका आश्रय से सुखकी नींद सो रहे हैं। उमानाथ भगवान् शंकर भी आपको ही सारा भार सौंपकर कैलास पर्वतपरविहार करते हैं। मुझसे भिन्न बहुत-से दानवोंको, जो बलवानोंसे भी बलवान् थे, आपने अकेले हो मार गिराया। बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, दोनों अश्विनीकुमार, आठ वसु तथा सनातन देवता धर्म- ये सब लोग आपके ही बाहुबलका आश्रय ले स्वर्गलोकमें यज्ञका भाग ग्रहण करते हैं। आपने उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न सौ यज्ञोंद्वारा भगवान्का यजन किया है। वृत्र और नमुचि- आपके ही हाथसे मारे गये हैं। आपने ही पाक नामक दैत्यका दमन किया है। सर्वसमर्थ भगवान् विष्णुने आपकी ही आज्ञासे दैत्यराज हिरण्यकशिपुको अपनी जाँघपर बिठाकर मार डाला था। आप ऐरावतके मस्तकपर बैठकर वज्र हाथमें लिये जब संग्रामभूमिमें आते हैं. उस समय आपको देखते ही सब दानव भाग जाते हैं। पूर्वकालमें आपने बड़े-बड़े बलिष्ठ दानवोंपर विजय पायी है। देवराज! आप ऐसे प्रभावशाली हैं। आपके सामने मेरी क्या गिनती हो सकती है। आपने मेरा उद्धार करनेकी इच्छा ही यहाँ पदार्पण किया है। निस्सन्देह मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा। मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ, आपके लिये अपने प्राण भी दे दूंगा। देवेश्वर आपने मुझसे इतनी सी भूमिकी बात क्यों कही ? यह स्त्री, पुत्र, गौएँ तथा और जो कुछ भी धन मेरे पास है, वह सब एवं त्रिलोकीका सारा राज्य इन ब्राह्मणदेवताको दे दीजिये। आप ऐसा करके मुझपर तथा मेरे पूर्वजोंपर कृपा करेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। क्योंकि भावी प्रजा कहेगी- 'पूर्वकालमें राजा बाष्कलिने अपने घरपर आये हुए इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य दे दिया था।' [आप ही क्यों,] दूसरा भी कोई याचक यदि मेरे पास आये तो वह सदा ही मुझे अत्यन्त प्रिय होगा। आप तो उन सबमें मेरे लिये विशेष आदरणीय हैं; अतः आपको कुछ भी देनेमें मुझे कोई विचार नहीं करना है । परन्तु देवराज! मुझे इस बातसे बड़ी लज्जा हो रही है कि इन ब्राह्मणदेवताके विशेष प्रार्थना करनेपर आप मुझसे तीन ही पग भूमि माँग रहे हैं। मैं इन्हें अच्छे-अच्छे गाँव दूंगा और आपको स्वर्गका राज्य अर्पण कर दूँगा । वामनजीको स्त्री और भूमिदोनों दान करूँगा। आप मुझपर कृपा करके यह सब स्वीकार करें।
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजन्! दानवराज बाष्कलिके - ऐसा कहनेपर उसके पुरोहित शुक्राचार्यने उससे कहा 'महाराज तुम्हें उचित-अनुचितका बिलकुल ज्ञान नहीं है; किसको कब क्या देना चाहिये- इस बातसे तुम अनभिज्ञ हो अतः मन्त्रियोंके साथ भलीभाँति विचार करके युक्तायुक्तका निर्णय करनेके पश्चात् तुम्हें कोई कार्य करना चाहिये। तुमने इन्द्रसहित देवताओंको जीतकर त्रिलोकीका राज्य प्राप्त किया है। अपने वचनको पूरा करते ही तुम बन्धनमें पड़ जाओगे । राजन्! ये जो वामन हैं, इन्हें साक्षात् सनातन विष्णु ही समझो इनके लिये तुम्हें कुछ नहीं देना चाहिये; क्योंकि इन्होंने ही तो पहले तुम्हारे वंशका उच्छेद कराया है और आगे भी करायेंगे इन्होंने मायासे दानवोंको परास्त किया है और मायासे ही इस समय बौने ब्राह्मणका रूप बनाकर तुम्हें दर्शन दिया है; अतः अब बहुत कहनेकी आवश्यकता नहीं है। इन्हें कुछ न दो। [तीन पग तो बहुत है,] मक्खीके पैरके बराबर भी भूमि देना न स्वीकार करो। यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो शीघ्र ही तुम्हारा नाश हो जायगा; यह मैं तुम्हें सच्ची बात कह रहा हूँ।'
बाष्कलिने कहा- गुरुदेव मैंने धर्मकी इच्छासे इन्हें सब कुछ देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है। प्रतिज्ञाका पालन अवश्य करना चाहिये, यह सत्पुरुषोंका सनातन धर्म है। यदि ये भगवान् विष्णु हैं और मुझसे दान लेकर देवताओंको समृद्धिशाली बनाना चाहते हैं, तब तो मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं होगा। ध्यान-परायण योगी निरन्तर ध्यान करते रहनेपर भी जिनका दर्शन जल्दी नहीं पाते, उन्होंने ही यदि मुझे दर्शन दिया है, तब तो इन देवेश्वरने मुझे और भी धन्य बना दिया। जो लोग हाथमें कुश और जल लेकर दान देते हैं, वे भी 'मेरे दानसे सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न हों' इस वचनके कहनेपर मोक्षके भागी होते हैं। इस कार्यको निश्चित रूपसे करनेके लिये मेरा जो दृढ़ संकल्प हुआ है, उसमेंआपका उपदेश ही कारण है। बचपनमें आपने एक बार उपदेश दिया था, जिसे मैंने अच्छी तरह अपने हृदयमें धारण कर लिया था। वह उपदेश इस प्रकार था- 'शत्रु भी यदि घरपर आ जाय तो उसके लिये कोई वस्तु अदेय नहीं है-उसे कुछ भी देनेसे इनकार नहीं करना चाहिये।" गुरुदेव! यही सोचकर मैंने इन्द्रके लिये स्वर्गका राज्य और वामनजीके लिये अपने प्राणतक दे डालनेका निश्चय कर लिया है। जिस दानके देनेमें कुछ भी कष्ट नहीं होता, ऐसा दान तो संसारमें सभी लोग देते हैं।
यह सुनकर गुरुजीने लज्जासे अपना मुँह नीचा कर लिया। तब बाष्कलिने इन्द्रसे कहा-'देव! आपके माँगनेपर में सारी पृथ्वी दे सकता हूँ: यदि इन्हें तीन ही पग भूमि देनी पड़ी तो यह मेरे लिये लज्जाकी बात होगी।'
इन्द्रने कहा- दानवराज! तुम्हारा कहना सत्य है, किन्तु इन ब्राह्मणदेवताने मुझसे तीन ही पग भूमिकी याचना की है। इनको इतनी ही भूमिकी आवश्यकता है। मैंने भी इन्होंके लिये तुमसे याचना की है। अतः इन्हें यही वर प्रदान करो।
बाष्कलिने कहा- देवराज! आप वामनको मेरी ओरसे तीन पग भूमि दे दीजिये और आप भी चिरकालतक वहाँ सुखसे निवास कीजिये।
पुलस्त्यजी कहते हैं- यह कहकर बाष्कलिने हाथमें जल ले 'साक्षात् श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों' ऐसा कहते हुए वामनजीको तीन पग भूमि दे दी। दानवराजके दान करते ही श्रीहरिने वामनरूप त्याग दिया और देवताओंका हित करनेकी इच्छासे सम्पूर्ण लोकोंको नाप लिया। वे यज्ञ-पर्वतपर पहुँचकर उत्तरकी ओर मुँह करके खड़े हो गये। उस समय दानवलोक भगवान्के बायें चरणके नीचे आ गया। तब जगदीश्वरने पहला पग सूर्यलोकमें रखा और दूसरा ध्रुवलोकमें। फिर अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान्ने तीसरे पगसे ब्रह्माण्डपर आघात किया। उनके अँगूठेके अग्रभागसे लगकर ब्रह्माण्ड-कटाह फूट गया, जिससे बहुत-सा जल बाहरनिकला। उसे ही भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकटहोनेवाली वैष्णवी नदी गंगा कहते हैं। गंगाजी अनेक कारणवश भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई हैं। उनके द्वारा चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकी व्याप्त है। तत्पश्चात् भगवान् श्रीवामनने बाष्कलिसे कहा- 'मेरे तीन पग पूर्ण करो।' बाष्कलिने कहा 'भगवन्! आपने पूर्वकालमें जितनी बड़ी पृथ्वी बनायी थी, उसमेंसे मैंने कुछ भी छिपाया नहीं है। पृथ्वी छोटी है और आप महान् हैं। मुझमें सृष्टि उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं है। [जिससे कि दूसरी पृथ्वी बनाकर आपके तीन पग पूर्ण करूँ।] देव! आप जैसे प्रभुओंकी इच्छा-शक्ति ही मनोवांछित कार्य करनेमें समर्थ होती है।'
सत्यवादी बाष्कलिको निरूत्तर जानकर भगवान् श्रीविष्णु बोले- 'दानवराज बोलो, मैं तुम्हारी कौन सी इच्छा पूर्ण करूँ? तुम्हारा दिया हुआ संकल्पका जल मेरे हाथमें आया है, इसलिये तुम वर पानेके योग्य हो। वरदानके उत्तम पात्र हो। तुम्हें जिस वस्तुकी इच्छा हो, माँगो, मैं उसे दूँगा।'बाष्कलिने कहा- देवेश्वर ! मैं आपकी भक्ति चाहता हूँ। मेरी मृत्यु भी आपके ही हाथसे हो, जिससे मुझे आपके परमधाम श्वेतद्वीपकी प्राप्ति हो, जो तपस्वियोंके लिये भी दुर्लभ है।
पुलस्त्यजी कहते हैं— बाष्कलिके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीविष्णुने कहा—'तुम एक कल्पतक ठहरे रहो। जिस समय वराहरूप धारण करके मैं रसातलमें प्रवेश करूँगा, उसी समय तुम्हारा वध करूँगा; इससे तुम मेरे रूपमें लीन हो जाओगे।' भगवान्के ऐसे वचन सुनकर वह दानव उनके सामनेसे चला गया। भगवान् भी उससे त्रिलोकीका राज्य छीनकर अन्तर्धान हो गये। बाष्कलि पाताललोकका निवासी होकर सुखपूर्वक रहने लगा। बुद्धिमान् इन्द्र तीनों लोकोंका पालन करने लगे। यह जगद्गुरु भगवान् श्रीविष्णुके वामन अवतारका वर्णन है, इसमें श्रीगंगाजीके प्रादुर्भावकी कथा भी आ गयी है। यह प्रसंग सब पापका नाश करनेवाला है। यह मैंने श्रीविष्णुके तीनों पगोंका इतिहास बतलाया है, जिसे सुनकर मनुष्य इस संसारमें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। श्रीविष्णुके पगका दर्शन कर लेनेपर उसके दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता और घोर पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। पापी मनुष्य प्रत्येक युगमें यज्ञ-पर्वतपर स्थित श्रीविष्णुके चरणोंकादर्शन करके पापसे छुटकारा पा जाते हैं। भीष्म ! जो मनुष्य मौन होकर यज्ञ-पर्वतपर चढ़ता है अथवा तीनों पुष्करोंकी यात्रा करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल | मिलता है। वह सब पापोंसे मुक्त हो मृत्युके पश्चात् श्रीविष्णुधाममें जाता है।
भीष्मजी बोले- भगवन्! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है कि वामनजीके द्वारा दानवराज बाष्कलि बन्धनमें डाला गया। मैंने तो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके मुखसे ऐसी कथा सुन रखी है कि भगवान्ने वामनरूप धारण करके राजा बलिको बाँधा था और विरोचनकुमार बलि आजतक पाताल-लोकमें मौजूद हैं। अतः आप मुझसे बलिके बाँधे जानेकी कथाका वर्णन कीजिये ।
पुलस्त्यजी बोले- नृपश्रेष्ठ! मैं तुम्हें सब बातें बताता हूँ, सुनो। पहली बारकी कथा तो तुम सुन ही चुके हो। दूसरी बार वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तरमें भी भगवान् श्रीविष्णुने त्रिलोकीको अपने चरणोंसे नापा था। उस समय उन देवाधिदेवने अकेले ही यज्ञमें जाकर राजा बलिको बाँधा और भूमिको नापा था। उस अवसरपर भगवान्का पुनः वामन अवतार हुआ तथा पुनः उन्होंने त्रिविक्रमरूप धारण किया था। वे पहले वामन होकर फिर अवामन (विराट्) गये।