ब्राह्मण कहते हैं— राजन् ! भीलोंके ये अद्भुत वचन सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, साथ ही मैं बहुत प्रसन्न भी हुआ। पहले गंगा सागर संगममें स्नान करके मैंने अपने शरीरको पवित्र किया। फिर मणियों और माणिक्योंसे चित्रित नीलाचलके शिखरपर चढ़ गया। महाराज! वहाँ जाकर मैंने देवता आदिसे वन्दित भगवान्का दर्शन किया और उन्हें प्रणाम करके कृतार्थ हो गया। भगवान्का प्रसाद ग्रहण करनेसे मुझे शंख, चक्र आदि चिह्नोंसे सुशोभित चतुर्भुज स्वरूपकी प्राप्ति हुई। पुरुषोत्तमके दर्शनसे पुनः मुझको गर्भमें नहीं प्रवेश करना पड़ेगा। राजन् ! तुम भी शीघ्र ही नीलाचलको जाओ और गर्भवासके दुःखसे छूटकर अपने आत्माको कृतार्थ करो।
उन परम बुद्धिमान् श्रेष्ठ ब्राह्मणके वचन सुनकर राजा रत्नग्रीवका सारा शरीर पुलकित हो गया और उन्होंने मुनिसे तीर्थयात्राकी विधि पूछी।
ब्राह्मणने कहा- राजन् ! तीर्थयात्राकी उत्तम विधिका वर्णन आरम्भ करता हूँ, सुनो इससे देव दानववन्दित भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। मनुष्यकेशरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हों, सिरके बाल पक गये हों अथवा वह अभी नौजवान हो, आयी हुई मौतको कोई नहीं टाल सकता; ऐसा समझकर भगवान्की शरणमें जाना चाहिये। भगवान्के कीर्तन, श्रवण-वन्दन तथा पूजनमें ही अपना मन लगाना चाहिये। स्त्री, पुत्रादि, अन्य संसारी वस्तुओंमें नहीं, यह सारा प्रपंच नाशवान्, क्षणभर रहनेवाला तथा अत्यन्त दुःख देनेवाला है, परन्तु भगवान् जन्म, मृत्यु और जरा- तीनों ही अवस्थाओंसे परे हैं, वे भक्ति-देवीके प्राणवल्लभ और अच्युत (अविनाशी) हैं- ऐसा विचारकर भगवान्का भजन करना उचित है। मनुष्य काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ और दम्भसे अथवा जिस किसी प्रकारसे भी यदि भगवान्का भजन करे तो उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता। भगवान्का ज्ञान होता है पापरहित साधुसंग करनेसे; साधु वे ही हैं जिनकी कृपासे मनुष्य संसारके दुःखसे छुटकारा पा जाते हैं। महाराज! काम और लोभसे रहित तथा वीतराग साधु पुरुष जिस विषयका उपदेश देते हैं, वह संसार-बन्धनकी निवृत्ति करनेवाला होता है। तीर्थोंमें श्रीरामचन्द्रजीके भजनमेंलगे हुए साधु पुरुष मिलते हैं, जिनका दर्शन मनुष्योंकी पापराशिको भस्म करनेके लिये अग्निका काम देता है; इसलिये संसारबन्धनसे डरे हुए मनुष्योंको पवित्र जलवाले तीर्थोंमें, जो सदा साधु-महात्माओंके सहवाससे सुशोभित रहते हैं, अवश्य जाना चाहिये।
नृपश्रेष्ठ! यदि तीर्थोंका विधिपूर्वक दर्शन किया जाय तो वे पापका नाश कर देते हैं, अब तीर्थसेवनकी विधिका श्रवण करो। पहले स्त्री, पुत्रादि कुटुम्बको मिथ्या समझकर उसकी ओरसे अपने मनमें वैराग्य उत्पन्न करे और मन-ही-मन भगवान्का स्मरण करता रहे। तदनन्तर 'राम-राम' की रट लगाते हुए तीर्थयात्रा आरम्भ करे, एक कोस जानेके पश्चात् वहाँ तीर्थ (पवित्र जलाशय) आदिमें स्नान करके क्षौर करा डाले। यात्राकी विधि जाननेवाले पुरुषके लिये ऐसा करना नितान्त आवश्यक है। तीर्थोकी ओर जाते हुए मनुष्यों के पाप उसके बालोंपर ही स्थित रहते हैं, अतः उनका मुण्डन अवश्य करावे। उसके बाद बिना गाँठका डंडा, कमण्डलु और मृगचर्म धारण करे तथा लोभका त्याग करके तीर्थोपयोगी वेष बना ले। विधिपूर्वक यात्रा करनेवाले मनुष्योंको विशेषरूपसे फलकी प्राप्ति होती है, इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके तीर्थयात्राकी विधिका पालन करे। जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर तथा मन अपने वशमें होते हैं तथा जिसके भीतर विद्या, तपस्या और कीर्ति रहती है, वही तीर्थके वास्तविक फलका भागी होता है।' 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण भक्तवत्सल गोपते । शरण्य भगवन् विष्णो मां पाहि बहुसंसृतेः (1925) जिसे इस मन्त्रका पाठ तथा मनसे भगवान्का स्मरण करते हुए पैदल ही तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये; तभी वह महान् अभ्युदयका साधक होता है। जो मनुष्य सवारीसे यात्रा करता है उसका फल सवारी ढोनेवाले प्राणीके साथ बराबर-बराबर बँट जाता है। जूता पहनकर जानेवालेको चौथाई फल मिलता है और बैलगाड़ी परजानेवाले पुरुषको गोहत्या आदिका पाप लगता है। जो अनिच्छासे भी तीर्थयात्रा करता है, उसे उसका आधा फल मिल जाता है तथा पापक्षय भी होता ही है; किन्तु विधिके साथ तीर्थदर्शन करनेसे विशेष फलकी प्राप्ति होती है [ यह ऊपर बताया जा चुका है]। इस प्रकार मैंने थोड़ेहीमें यह तीर्थकी विधि बतायी है, इसका विस्तार नहीं किया है। इस विधिका आश्रय लेकर तुम पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये जाओ। महाराज! भगवान् प्रसन्न होकर तुम्हें अपनी भक्ति प्रदान करेंगे, जिससे एक ही क्षणमें तुम्हारे संसार बन्धनका नाश हो जायगा। नरश्रेष्ठ! तीर्थयात्राकी यह विधि सम्पूर्ण पातकोंका नाश करनेवाली है, जो इसे सुनता है वह अपने सारे भयंकर पापोंसे छुटकारा पा जाता है।
सुमति कहते हैं- सुमित्रानन्दन ! ब्राह्मणकी यह बात सुनकर राजा रत्नग्रीवने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। उस समय पुरुषोत्तमतीर्थके दर्शनकी उत्कण्ठासे उनका चित्त विह्वल हो रहा था। राजाके मन्त्री मन्त्रज्ञोंमें श्रेष्ठ और अच्छे स्वभावके थे। राजाने समस्त पुरवासियोंको तीर्थयात्राकी इच्छासे साथ ले जानेका विचार करते हुए अपने मन्त्रीको आज्ञा दी - 'अमात्य ! तुम नगरके सब लोगोंको मेरा यह आदेश सुना दो कि सबको भगवान् पुरुषोत्तमके चरणारविन्दोंका दर्शन करनेके लिये चलना है। मेरे नगरमें जो श्रेष्ठ मनुष्य निवास करते हैं तथा जो लोग मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले हैं वे सब मेरे साथ ही यहाँसे निकलें। उन पुत्रोंसे तथा सदा अनीतिमें लगे रहनेवाले बन्धु बान्धवोंसे क्या लेना है, जिन्होंने आजतक अपने नेत्रोंसे पुण्यदायक पुरुषोत्तमका दर्शन नहीं किया? जिनके पुत्र और पौत्र भगवान्की शरणमें नहीं गये, उनकी ये सन्ताने सूकरोंके झुंडके समान हैं। मेरी प्रजाओ जो भगवान् अपना नाम लेनेमात्र से सबको पवित्र कर देनेकी शक्ति रखते हैं, उनके चरणोंमें शीघ्र मस्तक झुकाओ।'राजाका यह मनोहर वचन भगवान्के गुणोंसे गुँथा हुआ था। इसे सुनकर सत्यनामवाले प्रधान मन्त्रीको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने हाथीपर बैठकर विंढोरा पीटते हुए सारे नगरमें घोषणा करा दी तीर्थयात्राकी इच्छासे महाराजने जो आज्ञा दी थी उसके अनुसार सब प्रजाको यह आदेश दिया- 'पुरवासियो आप सब लोग महाराजके साथ तुरंत नीलगिरिको चलें और सब पापके हरनेवाले पुरुषोत्तम भगवान्का दर्शन करें। ऐसा करके आपलोग समस्त संसार समुद्रको अपने लिये गायकी खुरके समान बना लें। साथ ही सब लोग अपने-अपने शरीरको शंख, चक्र आदि चिह्नोंसे विभूषित करें।' इस प्रकार प्रधान सचिवने, जो श्रीरघुनाथजीके चरणोंका ध्यान करनेके कारण अपने शोक सन्तापको दूर कर चुके थे, राजा रत्नग्रीवके अद्भुत आदेशकी सर्वत्र घोषणा करा दी। उसे सुनकर सारी प्रजा आनन्द-रसमें निमग्न हो गयी। सबने पुरुषोत्तमका दर्शन करके अपना उद्धार करनेका निश्चय किया। पुरवासी ब्राह्मण सुन्दर वेष धारण करके राजाको आशीर्वाद और वरदान देते हुए शिष्योंके साथ नगरसे बाहर निकले, क्षत्रियवीर धनुष धारण करके चले और वैश्य नाना प्रकारकी उपयोगी वस्तुएँ लिये आगे बढ़े। शूद्र भी संसार सागरसे उद्धार पानेकी बात सोचकर पुलकित हो रहे थे धोबी, चमार, शहद बेचनेवाले, किरात, मकान बनानेवाले कारीगर, दर्जी, पान बेचनेवाले, तबला बजानेवाले, नाटकसे जीविका निभानेवाले नट आदि, तेली, बजाज, पुराणकी कथा सुनानेवाले सूत मागध तथा वन्दी - ये सभी हर्षमें भरकर राजधानीसे बाहर निकले। वैद्य वृत्तिसे जीविका चलानेवाले चिकित्सक तथा भोजन बनाने और स्वादिष्ट रसोंका ज्ञान रखनेवाले रसोइये भी महाराजकी प्रशंसा करते हुए पुरीसे बाहर निकले। राजा रत्नग्रीवने भी प्रातःकाल सन्ध्योपासन आदि करके शुद्ध अन्तःकरणवाले ब्राह्मण देवताको, जो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ थे, अपने पास बुलाया और उनकी आज्ञा लेकर वे नगरसे बाहर निकले आगे-आगे राजा थे और पीछे-पीछे पुरवासी मनुष्य। उस समय वे ताराओंसे घिरे हुएचन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे। एक कोस जानेके बाद उन्होंने विधिके अनुसार मुण्डन कराया और दण्ड, कमण्डलु तथा सुन्दर मृग चर्म धारण किये। इस प्रकार वे महायशस्वी राजा उत्तम वेषसे युक्त होकर भगवान्के ध्यानमें तत्पर हो गये और उन्होंने अपने मनको काम क्रोधादि दोषोंसे रहित बना लिया। उस समय भिन्न भिन्न बाजोंको बजानेवाले लोग बारंबार दुन्दुभि, भेरी, आनक, पणव, शंख और वीणा आदिकी ध्वनि फैला रहे थे। सभी यात्री यही कहते हुए आगे बढ़ रहे थे कि 'समस्त दुःखोंको दूर करनेवाले देवेश्वर! आपकी जय हो, पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध परमेश्वर ! मुझे अपने स्वरूपका दर्शन कराइये।'
तदनन्तर जब महाराज रत्नग्रीव सब लोगोंके साथ यात्राके लिये चल दिये तो मार्गमें उन्हें अनेकों स्थानोंपर महान् सौभाग्यशाली वैष्णवोंके द्वारा किया जानेवाला श्रीकृष्णका कीर्तन सुनायी पड़ा। जगह-जगह गोविन्दका गुणगान हो रहा था - 'भक्तोंको शरण देनेवाले पुरुषोत्तम ! लक्ष्मीपते! आपकी जय हो।' कांचीनरेश यात्राके पथमें अनेकों अभ्युदयकारी तीर्थोंका सेवन और दर्शन करते तथा तपस्वी ब्राह्मणके मुखसे उनकी महिमा भी सुनते जाते थे। भगवान् विष्णुसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेकों प्रकारकी विचित्र बातें सुननेसे राजाका भलीभाँति मनोरंजन होता था और वे मार्गके बीच-बीचमें अपने गायकोंद्वारा महाविष्णुकी महिमाका गान कराया करते थे। महाराज रत्नग्रीव बड़े बुद्धिमान् और जितेन्द्रिय थे, वे स्थान-स्थानपर दीनों, अंधों, दुःखियों तथा पंगुओंको उनकी इच्छाके अनुकूल दान देते रहते थे। साथ आये हुए सब लोगोंके सहित अनेकों तीर्थोंमें स्नान करके वे अपनेको निर्मल एवं भव्य बना रहे थे और भगवान्का ध्यान करते हुए आगे बढ़ रहे थे। जाते-जाते महाराजने अपने सामने एक ऐसी नदी देखी जो सब पापको दूर करनेवाली थी। उसके भीतरके पत्थर (शालग्राम) चक्रके चिह्नसे अंकित थे। वह मुनियोंके हृदयकी भाँति स्वच्छ दिखायी देती थी। उस नदीके किनारे अनेकों महर्षियोंके समुदाय कई पंक्तियोंमें बैठकर उसेसुशोभित कर रहे थे। उस सरिताका दर्शन करके महाराजने धर्मके ज्ञाता तपस्वी ब्राह्मणसे उसका परिचय पूछा क्योंकि वे अनेकों तीथोक विशेष महिमाके ज्ञानमें बड़े-बड़े थे राजने प्रश्न किया- 'स्वामिन् । महर्षि समुदायके द्वारा सेवित यह पवित्र नदी कौन है? जो अपने दर्शनसे मेरे चित्तमें अत्यन्त आह्लाद उत्पन्न कर रही है।' बुद्धिमान् महाराजका यह वचन सुनकर विद्वान् ब्राह्मणने उस तीर्थका अद्भुत माहात्म्य बतलाना आरम्भ किया।
ब्राह्मणने कहा- राजन्! यह गण्डकी नदी है [ इसे शालग्रामी और नारायणी भी कहते हैं], देवता और असुर सभी इसका सेवन करते हैं। इसके पावन जलकी उत्ताल तरंगें राशि राशि पातकोंको भी भस्म कर डालती हैं। यह अपने दर्शनसे मानसिक, स्पर्शसे कर्मजनित तथा जलका पान करनेसे वाणीद्वारा होनेवाले पापके समुदायको दग्ध करती है। पूर्वकालमें प्रजापति ब्रह्माजीने सब प्रजाको विशेष पापमें लिप्त देखकर अपने गण्डस्थल (गाल) के जलकी बूँदोंसे इस पापनाशिनी नदीको उत्पन्न किया। जो उत्तम लहरोंसे सुशोभित इस पुण्यसलिला नदीके जलका स्पर्श करते हैं, वे मनुष्य पापी हों तो भी पुनः माताके गर्भ में प्रवेश नहीं करते। इसके भीतरसे जो चक्रके चिह्नोंद्वारा अलंकृत पत्थर प्रकट होते हैं, वे साक्षात् भगवान्के ही विग्रह हैं- भगवान् ही उनके रूपमें प्रादुर्भूत होते हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन चक्रके चिह्नसे युक्त शालग्रामशिलाका पूजन करता है वह फिर कभी माताके उदरमें प्रवेश नहीं करता। जो बुद्धिमान् श्रेष्ठ शालग्रामशिलाका पूजन करता है, उसको दम्भ और लोभसे रहित एवं सदाचारी होना चाहिये। परायी स्त्री और पराये धनसे मुँह मोड़कर यत्नपूर्वक चक्रांकित शालग्रामका पूजन करना चाहिये। द्वारकामें लिया हुआ चक्रका चिह्न और गण्डकी नदीसे उत्पन्न हुई शालग्रामकी शिला ये दोनों मनुष्योंके सौ जन्मोंके पाप भी एक ही क्षणमें हर लेते हैं हजारों पापका आचरण करनेवाला मनुष्य क्यों न हो, शालग्रामशिलाका चरणामृत पीकर तत्काल पवित्र होसकता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा वेदोक्त मार्गपर स्थित रहनेवाला शुद्र गृहस्थ भी शालग्रामकी पूजा करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। परन्तु स्त्रीको कभी शालग्रामशिलाका पूजन नहीं करना चाहिये। विधवा हो या सुहागिन, यदि वह स्वर्गलोक एवं आत्मकल्याणकी इच्छा रखती है तो शालग्रामशिलाका स्पर्श न करे। यदि मोह उसका स्पर्श करती है तो अपने किये हुए पुण्य समूहका त्याग करके तुरंत नरकमें पड़ती है। कोई कितना ही पापाचारी और ब्रह्महत्यारा क्यों न हो, शालग्रामशिलाको स्नान कराया हुआ जल (भगवान्का चरणामृत) पी लेनेपर परमगतिको प्राप्त होता है भगवान्को निवेदित तुलसी, चन्दन, जल, शंख, घण्टा, चक्र, शालग्रामशिला, ताम्रपात्र, श्रीविष्णुका नाम तथा उनका चरणामृत - ये सभी वस्तुएँ पावन हैं। उपर्युक्त नौ वस्तुओंके साथ भगवान्का चरणामृत पापराशिको दग्ध करनेवाला है। ऐसा सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले शान्तचित्त महर्षियोंका कथन है। राजन्! समस्त तीर्थोंमें स्नान करनेसे तथा सब प्रकारके यहाँद्वारा भगवान्का पूजन करनेसे जो अद्भुत पुण्य होता है, वह भगवान्के चरणामृतकी एक-एक बूँदमें प्राप्त होता है।
[चार, छः, आठ आदि] समसंख्यामें शालग्राम मूर्तियोंकी पूजा करनी चाहिये परन्तु समसंख्यामें दो लग्रामोंकी पूजा उचित नहीं है। इसी प्रकार विषमसंख्या भी शालग्राममूर्तियोंकी पूजा होती है, किन्तु विषममें तीन शालग्रामोंकी नहीं। द्वारकाका चक्र तथा गण्डकी नदीके शालग्राम-इन दोनोंका जहाँ समागम हो, वहाँ समुद्रगामिनी गंगाकी उपस्थिति मानी जाती है। यदि शालग्रामशिलाएँ रुखी हों तो वे पुरुषोंको आयु, लक्ष्मी और उत्तम कोर्तिसे वंचित कर देती है; अतः जो चिकनी हों, जिनका रूप मनोहर हो, उन्हींका पूजन करना चाहिये। वे लक्ष्मी प्रदान करती हैं। पुरुषको आयुकी इच्छा हो या धनको, यदि वह शालग्राम शिलाका पूजन करता है तो उसकी ऐहलौकिक और | पारलौकिक सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। राजन्। मनुष्य बड़ा भाग्यवान् होता है, उसीके प्राणान्तकेसमय जिह्वापर भगवान्का पवित्र नाम आता है और उसीकी छातीपर तथा आसपास शालग्रामशिला मौजूद रहती है। प्राणोंके निकलते समय अपने विश्वास या भावनामें ही यदि शालग्रामशिलाकी स्फुरणा हो जाय तो उस जीवकी निस्सन्देह मुक्ति हो जाती है। पूर्वकालमें भगवान्ने बुद्धिमान् राजा अम्बरीषसे कहा था कि 'ब्राह्मण, संन्यासी तथा चिकनी शालग्रामशिला ये तीन इस भूमण्डलपर मेरे स्वरूप हैं। पापियोंका पाप नाश करनेके लिये मैंने ही ये स्वरूप धारण किये हैं।' जो अपने किसी प्रिय व्यक्तिको शालग्रामकी पूजा करनेका आदेश देता है वह स्वयं तो कृतार्थ होता ही है, अपने पूर्वजोंको भी शीघ्र ही वैकुण्ठमें पहुँचा देता है।
इस विषयमें काम-क्रोधसे रहित वीतराग महर्षिगण एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। पूर्व कालकी बात है, धर्मशून्य मगधदेशमें एक पुल्कस जातिका मनुष्य रहता था, जो लोगों में शबरके नामसे प्रसिद्ध था। सदा अनेकों जीव-जन्तुओंकी हत्या करना और दूसरोंका धन लूटना, यही उसका काम था। राग द्वेष और काम-क्रोधादि दोष सर्वदा उसमें भरे रहते थे। एक दिन वह व्याध समस्त प्राणियोंको भय पहुँचाता हुआ घूम रहा था, उसके मनपर मोह छाया हुआ था; इसलिये वह इस बातको नहीं जानता था कि उसका काल समीप आ पहुँचा है। यमराजके भयंकर दूत हाथोंमें मुद्गर और पाश लिये वहाँ पहुँचे। उनके ताँबे जैसे लाल-लाल केश, बड़े-बड़े नख तथा लंबी लंबी दाढ़े थीं। वे सभी काले कलूटे दिखायी देते थे तथा हाथोंमें लोहेकी साँकल लिये हुए थे। उन्हें देखते ही प्राणियोंको मूर्च्छा आ जाती थी। वहाँ पहुँचकर ये कहने लगे-'सम्पूर्ण जीवको भय पहुँचानेवाले इस पापीको बाँध लो।' तदनन्तर सब यमदूत उसे लोहेके पाशसे बाँधकर बोले-'दुष्ट। दुरात्मा! तूने कभी मनसे शुभकर्म नहीं किये; इसलिये हम तुझे रौरव नरकमें डालेंगे। जन्मसे लेकर अबतक तूने कभी भगवान्की सेवा नहीं की। समस्त पापको को दूर करनेवाले श्रीनारायणदेवका कभी स्मरण नहीं किया; अतः धर्मराजकी आज्ञासे हम तुझेबारंबार पीटते हुए लोहशंकु कुम्भीपाक अथवा अतिरौरव नरकमें ले जायँगे।' ऐसा कहकर यमदूत ज्यों ही उसे ले जानेको उद्यत हुए त्यों ही महाविष्णुके चरणकमलोंकी सेवा करनेवाले एक भक्त महात्मा वहाँ आ पहुँचे। उन वैष्णव महात्माने देखा कि यमदूत पाश, मुद्गर और दण्ड आदि कठोर आयुध धारण किये हुए हैं तथा पुल्कसको लोहेकी साँकलोंसे बाँधकर ले जानेको उद्यत हैं। भगवद्भक्त महात्मा बड़े दयालु थे। उस समय पुल्कसकी अवस्था देखकर उनके हृदयमें अत्यन्त करुणा भर आयी और उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया यह पुल्कस मेरे समीप रहकर अत्यन्त कठोर यातनाको प्राप्त न हो, इसलिये मैं अभी यमदूतोंसे इसको छुटकारा दिलाता हूँ।' ऐसा सोचकर वे कृपालु मुनीश्वर हाथमें शालग्रामशिला लेकर पुल्कसके निकट गये और भगवान् शालग्रामका पवित्र चरणामृत, जिसमें तुलसीदल भी मिला हुआ था, उसके मुखमें डाल दिया। फिर उसके कानमें उन्होंने रामनामका जप किया, मस्तकपर तुलसी रखी और छातीपर महाविष्णुकी शालग्रामशिला रखकर कहा-' यातना देनेवाले यमदूत यहाँसे चलेजायँ । शालग्रामशिलाका स्पर्श इस पुल्कसके महान् पातकको भस्म कर डाले।' वैष्णव महात्माके इतना कहते ही भगवान् विष्णुके पार्षद, जिनका स्वरूप बड़ा अद्भुत था, उस पुल्कसके निकट आ पहुँचे शालग्रामकी शिलाके स्पर्शसे उसके सारे पाप नष्ट हो गये थे। वे पार्षद पीताम्बर धारण किये शंख, चक्र, गदा और पद्मसे सुशोभित हो रहे थे। उन्होंने आते ही उस दुःसह लोहपाशसे पुल्कसको मुक्त कर दिया। उस महापापीको छुटकारा दिलानेके बाद वे यमदूतोंसे बोले- 'तुमलोग किसकी आज्ञाका पालन करनेवाले हो, जो इस प्रकार अधर्म कर रहे हो? यह पुल्कस तो वैष्णव है, इसने पूजनीय देह धारण कर रखा है, फिर किसलिये तुमने इसे बन्धनमें डाला था ?' उनकी बात सुनकर यमदूत बोले- 'यह पापी है, हमलोग धर्मराजकी आज्ञासे इसे ले जानेको उद्यत हुए हैं, इसने कभी मनसे भी किसी प्राणीका उपकार नहीं किया है। इसने जीवहिंसा जैसे बड़े-बड़े पाप किये हैं। तीर्थ यात्रियोंको तो इसने अनेकों बार लूटा है। यह सदा परायी स्त्रियोंका सतीत्व) नष्ट करनेमें ही लगा रहता था। सभी तरहके पाप इसने किये हैं अतः हमलोग इस पापीको ले जानेके उद्देश्यसे ही यहाँ उपस्थित हुए हैं आपलोगोंने सहसा आकर क्यों इसे बन्धनसे मुक्त कर दिया ?'
विष्णुदूत बोले- यमदूतो! ब्रह्महत्या आदिका पाप हो या करोड़ों प्राणियोंके वध करनेका, शालग्राम शिलाका स्पर्श सबको क्षणभरमें जला डालता है। जिसके कानोंमें अकस्मात् भी रामनाम पड़ जाता है, उसके सारे पापको वह उसी प्रकार भस्म कर डालता है,जैसे आगकी चिनगारी रूईको। जिसके मस्तकपर तुलसी, छातीपर शालग्रामकी मनोहर शिला तथा मुख या कानमें रामनाम हो वह तत्काल मुक्त हो जाता है। इस पुल्कसके मस्तकपर भी पहलेसे ही तुलसी रखी हुई है, इसकी छातीपर शालग्रामकी शिला है तथा अभी तुरंत ही इसको श्रीरामका नाम भी सुनाया गया है; अतः इसके पापोंका समूह दग्ध हो गया और अब इसका शरीर पवित्र हो चुका है। तुमलोगोंको शालग्रामशिलाकी महिमाका ठीक ठीक ज्ञान नहीं है; यह दर्शन, स्पर्श अथवा पूजन करनेपर तत्काल ही सारे पापको हर लेती है।
इतना कहकर भगवान् विष्णुके पार्षद चुप हो गये। यमदूतोंने लौटकर यह अद्भुत घटना धर्मराजसे कह सुनायी तथा श्रीरघुनाथजी के भजनमें लगे रहनेवाले वे वैष्णव महात्मा भी यह सोचकर कि 'यह यमराजके पाशसे मुक्त हो गया और अब परमपदको प्राप्त होगा' बहुत प्रसन्न हुए। इसी समय देवलोकसे बड़ा ही मनोहर, अत्यन्त अद्भुत और उज्ज्वल विमान आया तथा वह पुल्कस उसपर आरूढ हो बड़े-बड़े पुण्यवानोंद्वारा सेवित स्वर्गलोकको चला गया। वहाँ प्रचुर भोगोंका उपभोग करके वह फिर इस पृथ्वीपर आया और काशीपुरीके भीतर एक शुद्ध ब्राह्मणवंशमें जन्म लेकर उसने विश्वनाथजीकी आराधना की एवं अन्तमें परमपदको प्राप्त कर लिया। वह पुल्कस पापी था तो भी साधु-संगके प्रभावसे शालग्रामशिलाका स्पर्श पाकर यमदूतोंकी भयंकर पीड़ासे मुक्त हो परमपदको पा गया। राजन् ! यह मैंने तुम्हें शालग्रामशिलाके पूजनकी महिमा बतलायी है, इसका श्रवण करके मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता और भोग तथा मोक्षको प्राप्त होता है।