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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 109 - Khand 4, Adhyaya 109

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तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा

ब्राह्मण कहते हैं— राजन् ! भीलोंके ये अद्भुत वचन सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, साथ ही मैं बहुत प्रसन्न भी हुआ। पहले गंगा सागर संगममें स्नान करके मैंने अपने शरीरको पवित्र किया। फिर मणियों और माणिक्योंसे चित्रित नीलाचलके शिखरपर चढ़ गया। महाराज! वहाँ जाकर मैंने देवता आदिसे वन्दित भगवान्‌का दर्शन किया और उन्हें प्रणाम करके कृतार्थ हो गया। भगवान्का प्रसाद ग्रहण करनेसे मुझे शंख, चक्र आदि चिह्नोंसे सुशोभित चतुर्भुज स्वरूपकी प्राप्ति हुई। पुरुषोत्तमके दर्शनसे पुनः मुझको गर्भमें नहीं प्रवेश करना पड़ेगा। राजन् ! तुम भी शीघ्र ही नीलाचलको जाओ और गर्भवासके दुःखसे छूटकर अपने आत्माको कृतार्थ करो।

उन परम बुद्धिमान् श्रेष्ठ ब्राह्मणके वचन सुनकर राजा रत्नग्रीवका सारा शरीर पुलकित हो गया और उन्होंने मुनिसे तीर्थयात्राकी विधि पूछी।

ब्राह्मणने कहा- राजन् ! तीर्थयात्राकी उत्तम विधिका वर्णन आरम्भ करता हूँ, सुनो इससे देव दानववन्दित भगवान्‌की प्राप्ति हो जाती है। मनुष्यकेशरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हों, सिरके बाल पक गये हों अथवा वह अभी नौजवान हो, आयी हुई मौतको कोई नहीं टाल सकता; ऐसा समझकर भगवान्की शरणमें जाना चाहिये। भगवान्के कीर्तन, श्रवण-वन्दन तथा पूजनमें ही अपना मन लगाना चाहिये। स्त्री, पुत्रादि, अन्य संसारी वस्तुओंमें नहीं, यह सारा प्रपंच नाशवान्, क्षणभर रहनेवाला तथा अत्यन्त दुःख देनेवाला है, परन्तु भगवान् जन्म, मृत्यु और जरा- तीनों ही अवस्थाओंसे परे हैं, वे भक्ति-देवीके प्राणवल्लभ और अच्युत (अविनाशी) हैं- ऐसा विचारकर भगवान्का भजन करना उचित है। मनुष्य काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ और दम्भसे अथवा जिस किसी प्रकारसे भी यदि भगवान्का भजन करे तो उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता। भगवान्का ज्ञान होता है पापरहित साधुसंग करनेसे; साधु वे ही हैं जिनकी कृपासे मनुष्य संसारके दुःखसे छुटकारा पा जाते हैं। महाराज! काम और लोभसे रहित तथा वीतराग साधु पुरुष जिस विषयका उपदेश देते हैं, वह संसार-बन्धनकी निवृत्ति करनेवाला होता है। तीर्थोंमें श्रीरामचन्द्रजीके भजनमेंलगे हुए साधु पुरुष मिलते हैं, जिनका दर्शन मनुष्योंकी पापराशिको भस्म करनेके लिये अग्निका काम देता है; इसलिये संसारबन्धनसे डरे हुए मनुष्योंको पवित्र जलवाले तीर्थोंमें, जो सदा साधु-महात्माओंके सहवाससे सुशोभित रहते हैं, अवश्य जाना चाहिये।

नृपश्रेष्ठ! यदि तीर्थोंका विधिपूर्वक दर्शन किया जाय तो वे पापका नाश कर देते हैं, अब तीर्थसेवनकी विधिका श्रवण करो। पहले स्त्री, पुत्रादि कुटुम्बको मिथ्या समझकर उसकी ओरसे अपने मनमें वैराग्य उत्पन्न करे और मन-ही-मन भगवान्‌का स्मरण करता रहे। तदनन्तर 'राम-राम' की रट लगाते हुए तीर्थयात्रा आरम्भ करे, एक कोस जानेके पश्चात् वहाँ तीर्थ (पवित्र जलाशय) आदिमें स्नान करके क्षौर करा डाले। यात्राकी विधि जाननेवाले पुरुषके लिये ऐसा करना नितान्त आवश्यक है। तीर्थोकी ओर जाते हुए मनुष्यों के पाप उसके बालोंपर ही स्थित रहते हैं, अतः उनका मुण्डन अवश्य करावे। उसके बाद बिना गाँठका डंडा, कमण्डलु और मृगचर्म धारण करे तथा लोभका त्याग करके तीर्थोपयोगी वेष बना ले। विधिपूर्वक यात्रा करनेवाले मनुष्योंको विशेषरूपसे फलकी प्राप्ति होती है, इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके तीर्थयात्राकी विधिका पालन करे। जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर तथा मन अपने वशमें होते हैं तथा जिसके भीतर विद्या, तपस्या और कीर्ति रहती है, वही तीर्थके वास्तविक फलका भागी होता है।' 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण भक्तवत्सल गोपते । शरण्य भगवन् विष्णो मां पाहि बहुसंसृतेः (1925) जिसे इस मन्त्रका पाठ तथा मनसे भगवान्का स्मरण करते हुए पैदल ही तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये; तभी वह महान् अभ्युदयका साधक होता है। जो मनुष्य सवारीसे यात्रा करता है उसका फल सवारी ढोनेवाले प्राणीके साथ बराबर-बराबर बँट जाता है। जूता पहनकर जानेवालेको चौथाई फल मिलता है और बैलगाड़ी परजानेवाले पुरुषको गोहत्या आदिका पाप लगता है। जो अनिच्छासे भी तीर्थयात्रा करता है, उसे उसका आधा फल मिल जाता है तथा पापक्षय भी होता ही है; किन्तु विधिके साथ तीर्थदर्शन करनेसे विशेष फलकी प्राप्ति होती है [ यह ऊपर बताया जा चुका है]। इस प्रकार मैंने थोड़ेहीमें यह तीर्थकी विधि बतायी है, इसका विस्तार नहीं किया है। इस विधिका आश्रय लेकर तुम पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये जाओ। महाराज! भगवान् प्रसन्न होकर तुम्हें अपनी भक्ति प्रदान करेंगे, जिससे एक ही क्षणमें तुम्हारे संसार बन्धनका नाश हो जायगा। नरश्रेष्ठ! तीर्थयात्राकी यह विधि सम्पूर्ण पातकोंका नाश करनेवाली है, जो इसे सुनता है वह अपने सारे भयंकर पापोंसे छुटकारा पा जाता है।

सुमति कहते हैं- सुमित्रानन्दन ! ब्राह्मणकी यह बात सुनकर राजा रत्नग्रीवने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। उस समय पुरुषोत्तमतीर्थके दर्शनकी उत्कण्ठासे उनका चित्त विह्वल हो रहा था। राजाके मन्त्री मन्त्रज्ञोंमें श्रेष्ठ और अच्छे स्वभावके थे। राजाने समस्त पुरवासियोंको तीर्थयात्राकी इच्छासे साथ ले जानेका विचार करते हुए अपने मन्त्रीको आज्ञा दी - 'अमात्य ! तुम नगरके सब लोगोंको मेरा यह आदेश सुना दो कि सबको भगवान् पुरुषोत्तमके चरणारविन्दोंका दर्शन करनेके लिये चलना है। मेरे नगरमें जो श्रेष्ठ मनुष्य निवास करते हैं तथा जो लोग मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले हैं वे सब मेरे साथ ही यहाँसे निकलें। उन पुत्रोंसे तथा सदा अनीतिमें लगे रहनेवाले बन्धु बान्धवोंसे क्या लेना है, जिन्होंने आजतक अपने नेत्रोंसे पुण्यदायक पुरुषोत्तमका दर्शन नहीं किया? जिनके पुत्र और पौत्र भगवान्‌की शरणमें नहीं गये, उनकी ये सन्ताने सूकरोंके झुंडके समान हैं। मेरी प्रजाओ जो भगवान् अपना नाम लेनेमात्र से सबको पवित्र कर देनेकी शक्ति रखते हैं, उनके चरणोंमें शीघ्र मस्तक झुकाओ।'राजाका यह मनोहर वचन भगवान्के गुणोंसे गुँथा हुआ था। इसे सुनकर सत्यनामवाले प्रधान मन्त्रीको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने हाथीपर बैठकर विंढोरा पीटते हुए सारे नगरमें घोषणा करा दी तीर्थयात्राकी इच्छासे महाराजने जो आज्ञा दी थी उसके अनुसार सब प्रजाको यह आदेश दिया- 'पुरवासियो आप सब लोग महाराजके साथ तुरंत नीलगिरिको चलें और सब पापके हरनेवाले पुरुषोत्तम भगवान्का दर्शन करें। ऐसा करके आपलोग समस्त संसार समुद्रको अपने लिये गायकी खुरके समान बना लें। साथ ही सब लोग अपने-अपने शरीरको शंख, चक्र आदि चिह्नोंसे विभूषित करें।' इस प्रकार प्रधान सचिवने, जो श्रीरघुनाथजीके चरणोंका ध्यान करनेके कारण अपने शोक सन्तापको दूर कर चुके थे, राजा रत्नग्रीवके अद्भुत आदेशकी सर्वत्र घोषणा करा दी। उसे सुनकर सारी प्रजा आनन्द-रसमें निमग्न हो गयी। सबने पुरुषोत्तमका दर्शन करके अपना उद्धार करनेका निश्चय किया। पुरवासी ब्राह्मण सुन्दर वेष धारण करके राजाको आशीर्वाद और वरदान देते हुए शिष्योंके साथ नगरसे बाहर निकले, क्षत्रियवीर धनुष धारण करके चले और वैश्य नाना प्रकारकी उपयोगी वस्तुएँ लिये आगे बढ़े। शूद्र भी संसार सागरसे उद्धार पानेकी बात सोचकर पुलकित हो रहे थे धोबी, चमार, शहद बेचनेवाले, किरात, मकान बनानेवाले कारीगर, दर्जी, पान बेचनेवाले, तबला बजानेवाले, नाटकसे जीविका निभानेवाले नट आदि, तेली, बजाज, पुराणकी कथा सुनानेवाले सूत मागध तथा वन्दी - ये सभी हर्षमें भरकर राजधानीसे बाहर निकले। वैद्य वृत्तिसे जीविका चलानेवाले चिकित्सक तथा भोजन बनाने और स्वादिष्ट रसोंका ज्ञान रखनेवाले रसोइये भी महाराजकी प्रशंसा करते हुए पुरीसे बाहर निकले। राजा रत्नग्रीवने भी प्रातःकाल सन्ध्योपासन आदि करके शुद्ध अन्तःकरणवाले ब्राह्मण देवताको, जो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ थे, अपने पास बुलाया और उनकी आज्ञा लेकर वे नगरसे बाहर निकले आगे-आगे राजा थे और पीछे-पीछे पुरवासी मनुष्य। उस समय वे ताराओंसे घिरे हुएचन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे। एक कोस जानेके बाद उन्होंने विधिके अनुसार मुण्डन कराया और दण्ड, कमण्डलु तथा सुन्दर मृग चर्म धारण किये। इस प्रकार वे महायशस्वी राजा उत्तम वेषसे युक्त होकर भगवान्‌के ध्यानमें तत्पर हो गये और उन्होंने अपने मनको काम क्रोधादि दोषोंसे रहित बना लिया। उस समय भिन्न भिन्न बाजोंको बजानेवाले लोग बारंबार दुन्दुभि, भेरी, आनक, पणव, शंख और वीणा आदिकी ध्वनि फैला रहे थे। सभी यात्री यही कहते हुए आगे बढ़ रहे थे कि 'समस्त दुःखोंको दूर करनेवाले देवेश्वर! आपकी जय हो, पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध परमेश्वर ! मुझे अपने स्वरूपका दर्शन कराइये।'

तदनन्तर जब महाराज रत्नग्रीव सब लोगोंके साथ यात्राके लिये चल दिये तो मार्गमें उन्हें अनेकों स्थानोंपर महान् सौभाग्यशाली वैष्णवोंके द्वारा किया जानेवाला श्रीकृष्णका कीर्तन सुनायी पड़ा। जगह-जगह गोविन्दका गुणगान हो रहा था - 'भक्तोंको शरण देनेवाले पुरुषोत्तम ! लक्ष्मीपते! आपकी जय हो।' कांचीनरेश यात्राके पथमें अनेकों अभ्युदयकारी तीर्थोंका सेवन और दर्शन करते तथा तपस्वी ब्राह्मणके मुखसे उनकी महिमा भी सुनते जाते थे। भगवान् विष्णुसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेकों प्रकारकी विचित्र बातें सुननेसे राजाका भलीभाँति मनोरंजन होता था और वे मार्गके बीच-बीचमें अपने गायकोंद्वारा महाविष्णुकी महिमाका गान कराया करते थे। महाराज रत्नग्रीव बड़े बुद्धिमान् और जितेन्द्रिय थे, वे स्थान-स्थानपर दीनों, अंधों, दुःखियों तथा पंगुओंको उनकी इच्छाके अनुकूल दान देते रहते थे। साथ आये हुए सब लोगोंके सहित अनेकों तीर्थोंमें स्नान करके वे अपनेको निर्मल एवं भव्य बना रहे थे और भगवान्‌का ध्यान करते हुए आगे बढ़ रहे थे। जाते-जाते महाराजने अपने सामने एक ऐसी नदी देखी जो सब पापको दूर करनेवाली थी। उसके भीतरके पत्थर (शालग्राम) चक्रके चिह्नसे अंकित थे। वह मुनियोंके हृदयकी भाँति स्वच्छ दिखायी देती थी। उस नदीके किनारे अनेकों महर्षियोंके समुदाय कई पंक्तियोंमें बैठकर उसेसुशोभित कर रहे थे। उस सरिताका दर्शन करके महाराजने धर्मके ज्ञाता तपस्वी ब्राह्मणसे उसका परिचय पूछा क्योंकि वे अनेकों तीथोक विशेष महिमाके ज्ञानमें बड़े-बड़े थे राजने प्रश्न किया- 'स्वामिन् । महर्षि समुदायके द्वारा सेवित यह पवित्र नदी कौन है? जो अपने दर्शनसे मेरे चित्तमें अत्यन्त आह्लाद उत्पन्न कर रही है।' बुद्धिमान् महाराजका यह वचन सुनकर विद्वान् ब्राह्मणने उस तीर्थका अद्भुत माहात्म्य बतलाना आरम्भ किया।

ब्राह्मणने कहा- राजन्! यह गण्डकी नदी है [ इसे शालग्रामी और नारायणी भी कहते हैं], देवता और असुर सभी इसका सेवन करते हैं। इसके पावन जलकी उत्ताल तरंगें राशि राशि पातकोंको भी भस्म कर डालती हैं। यह अपने दर्शनसे मानसिक, स्पर्शसे कर्मजनित तथा जलका पान करनेसे वाणीद्वारा होनेवाले पापके समुदायको दग्ध करती है। पूर्वकालमें प्रजापति ब्रह्माजीने सब प्रजाको विशेष पापमें लिप्त देखकर अपने गण्डस्थल (गाल) के जलकी बूँदोंसे इस पापनाशिनी नदीको उत्पन्न किया। जो उत्तम लहरोंसे सुशोभित इस पुण्यसलिला नदीके जलका स्पर्श करते हैं, वे मनुष्य पापी हों तो भी पुनः माताके गर्भ में प्रवेश नहीं करते। इसके भीतरसे जो चक्रके चिह्नोंद्वारा अलंकृत पत्थर प्रकट होते हैं, वे साक्षात् भगवान्के ही विग्रह हैं- भगवान् ही उनके रूपमें प्रादुर्भूत होते हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन चक्रके चिह्नसे युक्त शालग्रामशिलाका पूजन करता है वह फिर कभी माताके उदरमें प्रवेश नहीं करता। जो बुद्धिमान् श्रेष्ठ शालग्रामशिलाका पूजन करता है, उसको दम्भ और लोभसे रहित एवं सदाचारी होना चाहिये। परायी स्त्री और पराये धनसे मुँह मोड़कर यत्नपूर्वक चक्रांकित शालग्रामका पूजन करना चाहिये। द्वारकामें लिया हुआ चक्रका चिह्न और गण्डकी नदीसे उत्पन्न हुई शालग्रामकी शिला ये दोनों मनुष्योंके सौ जन्मोंके पाप भी एक ही क्षणमें हर लेते हैं हजारों पापका आचरण करनेवाला मनुष्य क्यों न हो, शालग्रामशिलाका चरणामृत पीकर तत्काल पवित्र होसकता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा वेदोक्त मार्गपर स्थित रहनेवाला शुद्र गृहस्थ भी शालग्रामकी पूजा करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। परन्तु स्त्रीको कभी शालग्रामशिलाका पूजन नहीं करना चाहिये। विधवा हो या सुहागिन, यदि वह स्वर्गलोक एवं आत्मकल्याणकी इच्छा रखती है तो शालग्रामशिलाका स्पर्श न करे। यदि मोह उसका स्पर्श करती है तो अपने किये हुए पुण्य समूहका त्याग करके तुरंत नरकमें पड़ती है। कोई कितना ही पापाचारी और ब्रह्महत्यारा क्यों न हो, शालग्रामशिलाको स्नान कराया हुआ जल (भगवान्का चरणामृत) पी लेनेपर परमगतिको प्राप्त होता है भगवान्‌को निवेदित तुलसी, चन्दन, जल, शंख, घण्टा, चक्र, शालग्रामशिला, ताम्रपात्र, श्रीविष्णुका नाम तथा उनका चरणामृत - ये सभी वस्तुएँ पावन हैं। उपर्युक्त नौ वस्तुओंके साथ भगवान्का चरणामृत पापराशिको दग्ध करनेवाला है। ऐसा सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले शान्तचित्त महर्षियोंका कथन है। राजन्! समस्त तीर्थोंमें स्नान करनेसे तथा सब प्रकारके यहाँद्वारा भगवान्‌का पूजन करनेसे जो अद्भुत पुण्य होता है, वह भगवान्‌के चरणामृतकी एक-एक बूँदमें प्राप्त होता है।

[चार, छः, आठ आदि] समसंख्यामें शालग्राम मूर्तियोंकी पूजा करनी चाहिये परन्तु समसंख्यामें दो लग्रामोंकी पूजा उचित नहीं है। इसी प्रकार विषमसंख्या भी शालग्राममूर्तियोंकी पूजा होती है, किन्तु विषममें तीन शालग्रामोंकी नहीं। द्वारकाका चक्र तथा गण्डकी नदीके शालग्राम-इन दोनोंका जहाँ समागम हो, वहाँ समुद्रगामिनी गंगाकी उपस्थिति मानी जाती है। यदि शालग्रामशिलाएँ रुखी हों तो वे पुरुषोंको आयु, लक्ष्मी और उत्तम कोर्तिसे वंचित कर देती है; अतः जो चिकनी हों, जिनका रूप मनोहर हो, उन्हींका पूजन करना चाहिये। वे लक्ष्मी प्रदान करती हैं। पुरुषको आयुकी इच्छा हो या धनको, यदि वह शालग्राम शिलाका पूजन करता है तो उसकी ऐहलौकिक और | पारलौकिक सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। राजन्। मनुष्य बड़ा भाग्यवान् होता है, उसीके प्राणान्तकेसमय जिह्वापर भगवान्‌का पवित्र नाम आता है और उसीकी छातीपर तथा आसपास शालग्रामशिला मौजूद रहती है। प्राणोंके निकलते समय अपने विश्वास या भावनामें ही यदि शालग्रामशिलाकी स्फुरणा हो जाय तो उस जीवकी निस्सन्देह मुक्ति हो जाती है। पूर्वकालमें भगवान्ने बुद्धिमान् राजा अम्बरीषसे कहा था कि 'ब्राह्मण, संन्यासी तथा चिकनी शालग्रामशिला ये तीन इस भूमण्डलपर मेरे स्वरूप हैं। पापियोंका पाप नाश करनेके लिये मैंने ही ये स्वरूप धारण किये हैं।' जो अपने किसी प्रिय व्यक्तिको शालग्रामकी पूजा करनेका आदेश देता है वह स्वयं तो कृतार्थ होता ही है, अपने पूर्वजोंको भी शीघ्र ही वैकुण्ठमें पहुँचा देता है।

इस विषयमें काम-क्रोधसे रहित वीतराग महर्षिगण एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। पूर्व कालकी बात है, धर्मशून्य मगधदेशमें एक पुल्कस जातिका मनुष्य रहता था, जो लोगों में शबरके नामसे प्रसिद्ध था। सदा अनेकों जीव-जन्तुओंकी हत्या करना और दूसरोंका धन लूटना, यही उसका काम था। राग द्वेष और काम-क्रोधादि दोष सर्वदा उसमें भरे रहते थे। एक दिन वह व्याध समस्त प्राणियोंको भय पहुँचाता हुआ घूम रहा था, उसके मनपर मोह छाया हुआ था; इसलिये वह इस बातको नहीं जानता था कि उसका काल समीप आ पहुँचा है। यमराजके भयंकर दूत हाथोंमें मुद्गर और पाश लिये वहाँ पहुँचे। उनके ताँबे जैसे लाल-लाल केश, बड़े-बड़े नख तथा लंबी लंबी दाढ़े थीं। वे सभी काले कलूटे दिखायी देते थे तथा हाथोंमें लोहेकी साँकल लिये हुए थे। उन्हें देखते ही प्राणियोंको मूर्च्छा आ जाती थी। वहाँ पहुँचकर ये कहने लगे-'सम्पूर्ण जीवको भय पहुँचानेवाले इस पापीको बाँध लो।' तदनन्तर सब यमदूत उसे लोहेके पाशसे बाँधकर बोले-'दुष्ट। दुरात्मा! तूने कभी मनसे शुभकर्म नहीं किये; इसलिये हम तुझे रौरव नरकमें डालेंगे। जन्मसे लेकर अबतक तूने कभी भगवान्की सेवा नहीं की। समस्त पापको को दूर करनेवाले श्रीनारायणदेवका कभी स्मरण नहीं किया; अतः धर्मराजकी आज्ञासे हम तुझेबारंबार पीटते हुए लोहशंकु कुम्भीपाक अथवा अतिरौरव नरकमें ले जायँगे।' ऐसा कहकर यमदूत ज्यों ही उसे ले जानेको उद्यत हुए त्यों ही महाविष्णुके चरणकमलोंकी सेवा करनेवाले एक भक्त महात्मा वहाँ आ पहुँचे। उन वैष्णव महात्माने देखा कि यमदूत पाश, मुद्गर और दण्ड आदि कठोर आयुध धारण किये हुए हैं तथा पुल्कसको लोहेकी साँकलोंसे बाँधकर ले जानेको उद्यत हैं। भगवद्भक्त महात्मा बड़े दयालु थे। उस समय पुल्कसकी अवस्था देखकर उनके हृदयमें अत्यन्त करुणा भर आयी और उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया यह पुल्कस मेरे समीप रहकर अत्यन्त कठोर यातनाको प्राप्त न हो, इसलिये मैं अभी यमदूतोंसे इसको छुटकारा दिलाता हूँ।' ऐसा सोचकर वे कृपालु मुनीश्वर हाथमें शालग्रामशिला लेकर पुल्कसके निकट गये और भगवान् शालग्रामका पवित्र चरणामृत, जिसमें तुलसीदल भी मिला हुआ था, उसके मुखमें डाल दिया। फिर उसके कानमें उन्होंने रामनामका जप किया, मस्तकपर तुलसी रखी और छातीपर महाविष्णुकी शालग्रामशिला रखकर कहा-' यातना देनेवाले यमदूत यहाँसे चलेजायँ । शालग्रामशिलाका स्पर्श इस पुल्कसके महान् पातकको भस्म कर डाले।' वैष्णव महात्माके इतना कहते ही भगवान् विष्णुके पार्षद, जिनका स्वरूप बड़ा अद्भुत था, उस पुल्कसके निकट आ पहुँचे शालग्रामकी शिलाके स्पर्शसे उसके सारे पाप नष्ट हो गये थे। वे पार्षद पीताम्बर धारण किये शंख, चक्र, गदा और पद्मसे सुशोभित हो रहे थे। उन्होंने आते ही उस दुःसह लोहपाशसे पुल्कसको मुक्त कर दिया। उस महापापीको छुटकारा दिलानेके बाद वे यमदूतोंसे बोले- 'तुमलोग किसकी आज्ञाका पालन करनेवाले हो, जो इस प्रकार अधर्म कर रहे हो? यह पुल्कस तो वैष्णव है, इसने पूजनीय देह धारण कर रखा है, फिर किसलिये तुमने इसे बन्धनमें डाला था ?' उनकी बात सुनकर यमदूत बोले- 'यह पापी है, हमलोग धर्मराजकी आज्ञासे इसे ले जानेको उद्यत हुए हैं, इसने कभी मनसे भी किसी प्राणीका उपकार नहीं किया है। इसने जीवहिंसा जैसे बड़े-बड़े पाप किये हैं। तीर्थ यात्रियोंको तो इसने अनेकों बार लूटा है। यह सदा परायी स्त्रियोंका सतीत्व) नष्ट करनेमें ही लगा रहता था। सभी तरहके पाप इसने किये हैं अतः हमलोग इस पापीको ले जानेके उद्देश्यसे ही यहाँ उपस्थित हुए हैं आपलोगोंने सहसा आकर क्यों इसे बन्धनसे मुक्त कर दिया ?'

विष्णुदूत बोले- यमदूतो! ब्रह्महत्या आदिका पाप हो या करोड़ों प्राणियोंके वध करनेका, शालग्राम शिलाका स्पर्श सबको क्षणभरमें जला डालता है। जिसके कानोंमें अकस्मात् भी रामनाम पड़ जाता है, उसके सारे पापको वह उसी प्रकार भस्म कर डालता है,जैसे आगकी चिनगारी रूईको। जिसके मस्तकपर तुलसी, छातीपर शालग्रामकी मनोहर शिला तथा मुख या कानमें रामनाम हो वह तत्काल मुक्त हो जाता है। इस पुल्कसके मस्तकपर भी पहलेसे ही तुलसी रखी हुई है, इसकी छातीपर शालग्रामकी शिला है तथा अभी तुरंत ही इसको श्रीरामका नाम भी सुनाया गया है; अतः इसके पापोंका समूह दग्ध हो गया और अब इसका शरीर पवित्र हो चुका है। तुमलोगोंको शालग्रामशिलाकी महिमाका ठीक ठीक ज्ञान नहीं है; यह दर्शन, स्पर्श अथवा पूजन करनेपर तत्काल ही सारे पापको हर लेती है।

इतना कहकर भगवान् विष्णुके पार्षद चुप हो गये। यमदूतोंने लौटकर यह अद्भुत घटना धर्मराजसे कह सुनायी तथा श्रीरघुनाथजी के भजनमें लगे रहनेवाले वे वैष्णव महात्मा भी यह सोचकर कि 'यह यमराजके पाशसे मुक्त हो गया और अब परमपदको प्राप्त होगा' बहुत प्रसन्न हुए। इसी समय देवलोकसे बड़ा ही मनोहर, अत्यन्त अद्भुत और उज्ज्वल विमान आया तथा वह पुल्कस उसपर आरूढ हो बड़े-बड़े पुण्यवानोंद्वारा सेवित स्वर्गलोकको चला गया। वहाँ प्रचुर भोगोंका उपभोग करके वह फिर इस पृथ्वीपर आया और काशीपुरीके भीतर एक शुद्ध ब्राह्मणवंशमें जन्म लेकर उसने विश्वनाथजीकी आराधना की एवं अन्तमें परमपदको प्राप्त कर लिया। वह पुल्कस पापी था तो भी साधु-संगके प्रभावसे शालग्रामशिलाका स्पर्श पाकर यमदूतोंकी भयंकर पीड़ासे मुक्त हो परमपदको पा गया। राजन् ! यह मैंने तुम्हें शालग्रामशिलाके पूजनकी महिमा बतलायी है, इसका श्रवण करके मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता और भोग तथा मोक्षको प्राप्त होता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार