ब्राह्मणोंने कहा- गुरुदेव हमने आपके मुखसे तुलसीके पत्र और पुष्पका शुभ माहात्म्य सुना, जो भगवान् श्रीविष्णुको बहुत ही प्रिय है। अब हमलोग तुलसीके पुण्यमय स्तोत्रका श्रवण करना चाहते हैं। व्यासजी बोले- ब्राह्मणो पहले स्कन्दपुराण मैं जो कुछ बतला आया हूँ, वही यहाँ कहता हूँ। शतानन्द मुनिके शिष्य कठोर व्रतका पालन करनेवाले थे। उन सबने एक दिन अपने गुरुको प्रणाम करके परम पुण्य और हितकी बात पूछी।
शिष्योंने कहा - नाथ! ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! आपने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मुखसे तुलसीजीके जिस स्तोत्रका श्रवण किया था, उसको हम आपसे सुनना चाहते हैं। शतानन्दजी बोले – शिष्यगण ! तुलसीका नामोच्चारण करनेपर असुरोंका दर्प दलन करनेवाले भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। मनुष्यके पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। जिसके दर्शनमात्रसे करोड़ों गोदानका फल होता है, उस तुलसीका पूजन और वन्दन लोग क्यों न करें। कलियुगके संसारमें वे मनुष्य धन्य हैं, जिनके घरमें शालग्राम-शिलाका पूजन सम्पन्न करनेके लिये प्रतिदिन तुलसीका वृक्ष भूतलपर लहलहाता रहता है। जो कलियुगमें भगवान् श्रीकेशनकी पूजाके लिये पृथ्वीपर तुलसीका वृक्ष लगाते हैं, उनपर यदि यमराज अपने किंकरोंसहित रुष्ट हो जायें तो भी वे उनका क्या कर सकते हैं। 'तुलसी तुम अमृत उत्पन्न हो और केशवको सदा ही प्रिय हो। कल्याणी। मैं भगवान्कीपूजाके लिये तुम्हारे पत्तोंको चुनता हूँ। तुम मेरे लिये वरदायिनी बनो। तुम्हारे श्रीअंगोंसे उत्पन्न होनेवाले पत्रों और मंजरियोंद्वारा मैं सदा ही जिस प्रकार श्रीहरिका पूजन कर सकूँ, वैसा उपाय करो। पवित्रांगी तुलसी! तुम कलि-मलका नाश करनेवाली हो।" इस भावके मन्त्रोंसे जो तुलसीदलोंको चुनकर उनसे भगवान् वासुदेवका पूजन करता है, उसकी पूजाका करोड़ोंगुना फल होता है।
देवेश्वरी ! बड़े-बड़े देवता भी तुम्हारे प्रभावका गायन करते हैं। मुनि, सिद्ध, गन्धर्व, पाताल निवासी साक्षात् नागराज शेष तथा सम्पूर्ण देवता भी तुम्हारे प्रभावको नहीं जानते; केवल भगवान् श्रीविष्णु ही तुम्हारी महिमाको पूर्णरूपसे जानते हैं। जिस समय क्षीरसमुद्रके मन्थनका उद्योग प्रारम्भ हुआ था, उस समय श्रीविष्णुके आनन्दांशसे तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ था। पूर्वकालमें श्रीहरिने तुम्हें अपने मस्तकपर धारण किया था। देवि ! उस समय श्रीविष्णुके शरीरका सम्पर्क पाकर तुम परम पवित्र हो गयी थीं। तुलसी मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। तुम्हारे श्रीअंगसे उत्पन्न पत्रोंद्वारा जिस प्रकार श्रीहरिकी पूजा कर सकूँ, ऐसी कृपा करो, जिससे मैं निर्विघ्नतापूर्वक परम गतिको प्राप्त होऊँ । साक्षात् श्रीकृष्णने तुम्हें गोमतीतटपर लगाया और बढ़ाया था। वृन्दावनमें विचरते समय सम्पूर्ण जगत् और गोपियोंके हितके लिये तुलसीका सेवन किया। जगत्-प्रिया तुलसी ! पूर्वकालमें वसिष्ठजीके कथनानुसार श्रीरामचन्द्रजीने भी राक्षसोंका वध करनेके उद्देश्यसे सरयूके तटपर तुम्हें लगाया था। तुलसीदेवी!मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीसे वियोग हो जानेपर अशोकवाटिकामें रहते हुए जनककिशोरी सीताने तुम्हारा ही ध्यान किया था, जिससे उन्हें पुनः अपने प्रियतमका समागम प्राप्त हुआ। पूर्वकालमें हिमालय पर्वतपर भगवान् शंकरकी प्राप्तिके लिये पार्वतीदेवीने तुम्हें लगाया और अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये तुम्हारा सेवन किया था। तुलसीदेवी! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। सम्पूर्ण देवांगनाओं और किन्नरोंने भी दुःस्वप्नका नाश करनेके लिये नन्दनवनमें तुम्हारा सेवन किया था। देवि! तुम्हें मेरा नमस्कार है। धर्मारण्य गयामें साक्षात् पितरोंने तुलसीका सेवन किया था। दण्डकारण्यमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने अपने हित साधनकी इच्छासे परम पवित्र तुलसीका वृक्ष लगाया तथा लक्ष्मण और सीताने भी बड़ी भक्तिके साथ उसे पोसा था। जिस प्रकार शास्त्रोंमें गंगाजीको त्रिभुवनव्यापिनी कहा गया है, उसी प्रकार तुलसीदेवी भी सम्पूर्ण चराचर जगत्में दृष्टिगोचर होती हैं। तुलसीका ग्रहण करके मनुष्य पातकोंसे मुक्त हो जाता है। और तो और, मुनीश्वरो ! तुलसीके सेवनसे ब्रह्महत्या भी दूर हो जाती है। तुलसीके पत्तेसे टपकता हुआ जल जो अपने सिरपर धारण करता है, उसे गंगा- स्नान और दस गोदानका फल प्राप्त होताहै। देवि! मुझपर प्रसन्न होओ। देवेश्वरि ! हरिप्रिये ! मुझपर प्रसन्न हो जाओ। क्षीरसागरके मन्थनसे प्रकट हुई तुलसीदेवि ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ।
द्वादशीकी रात्रिमें जागरण करके जो इस तुलसी स्तोत्रका पाठ करता है, भगवान् श्रीविष्णु उसके बत्तीस अपराध क्षमा करते हैं। बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी और बुढ़ापेमें जितने पाप किये होते हैं, वे सब तुलसी स्तोत्रके पाठसे नष्ट हो जाते हैं। तुलसीके स्तोत्रसे सन्तुष्ट होकर भगवान् सुख और अभ्युदय प्रदान करते हैं। जिस घरमें तुलसीका स्तोत्र लिखा हुआ विद्यमान रहता है, उसका कभी अशुभ नहीं होता, उसका सब कुछ मंगलमय होता है, किंचित् भी अमंगल नहीं होता। उसके लिये सदा सुकाल रहता है । वह घर प्रचुर धन-धान्यसे भरा रहता है तुलसी स्तोत्रका पाठ करनेवाले मनुष्यके हृदयमें भगवान् श्रीविष्णुके प्रति अविचल भक्ति होती है तथा उसका वैष्णवोंसे कभी वियोग नहीं होता। इतना ही नहीं, उसकी बुद्धि कभी अधर्ममें नहीं प्रवृत्त होती। जो द्वादशीकी रात्रिमें जागरण करके तुलसी स्तोत्रका पाठ करता है, उसे करोड़ों तीर्थोंके सेवनका फल प्राप्त होता है।