वसिष्ठजी कहते हैं—पूर्वकालकी बात है स्वायम्भुव मनु परम उत्तम एवं दीर्घकालतक चालू रहनेवाले यज्ञका अनुष्ठान करनेके लिये मुनियोंके साथ मन्दराचल पर्वतपर गये। उस यज्ञमें कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले, अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता, बालसूर्य एवं अग्निके समान तेजस्वी, समस्त वेदोंके विद्वान् तथा सबधर्मोके अनुष्ठानमें तत्पर रहनेवाले मुनि पधारे थे। वह महायज्ञ जब आरम्भ हुआ तो पापरहित मुनि, देवता तत्त्वका अनुसन्धान करनेके लिये परस्पर बोले 'वेदवेत्ता ब्राह्मणोंके लिये कौन देवता सर्वश्रेष्ठ एवं पूज्य है ? ब्रह्मा, विष्णु और शिवमेंसे किसकी अधिक स्तुति हुई है ? किसका चरणोदक सेवन करनेयोग्य है ?किसको भोग लगाया हुआ प्रसाद परम पावन है? कौन अविनाशी परमधामस्वरूप एवं सनातन परमात्मा है ? किसके प्रसाद और चरणोदक पितरोंको तृप्ति प्रदान करनेवाले होते हैं?'
वहाँ बैठे हुए महर्षियोंमें इस विषयपर महान् वाद विवाद हुआ। किन्हीं महर्षियोंने केवल रुद्रको सर्वश्रेष्ठ बतलाया। कोई कहने लगे-ब्रह्माजी ही पूजनीय हैं। कुछ लोगोंने कहा- सूर्य ही सब जीवोंके पूजनीय हैं तथा कुछ दूसरे ब्राह्मणोंने अपनी सम्मति इस प्रकार प्रकट की-आदि-अन्तसे रहित भगवान् विष्णु ही परमेश्वर हैं। वे ही सब देवताओं में श्रेष्ठ एवं पूजन करनेके योग्य हैं। इस प्रकार विवाद करते हुए महर्षियोंसे स्वायम्भुव मनुने कहा- 'वे जो शुद्ध सत्त्वमय, कल्याणमय गुणोंसे युक्त, कमलके समान नेत्रोंवाले, श्रीदेवीके स्वामी भगवान् पुरुषोत्तम हैं एकमात्र वे ही वेदवेत्ता ब्राह्मणोंद्वारा पूजित हैं।'
मनुकी यह बात सुनकर सब महर्षियोंने हाथ जोड़कर तपोनिधि भृगुजीसे कहा- 'सुव्रत! आप ही हमलोगोंका सन्देह दूर करनेमें समर्थ हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेव - तीनों देवताओंके पास जाइये।' उनके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ भृगु तुरंत ही कैलास पर्वतपर गये। भगवान् शंकरके गृहद्वारपर पहुँचकर उन्होंने देखा - महाभयंकर रूपवाले नन्दी हाथमें त्रिशूल लिये खड़े हैं। भृगुजीने उनसे कहा- 'मेरा नाम भृगु है, मैं ब्राह्मण हूँ और देवश्रेष्ठ महादेवजीका दर्शन करनेके लिये यहाँ आया हूँ। आप भगवान् शंकरको शीघ्र ही मेरे आनेकी सूचना दें।' यह सुनकर समस्त शिवगणोंके स्वामी नन्दीने उन अमिततेजस्वी महर्षिसे कठोर वाणीमें कहा- 'अरे! इस समय भगवान्के पास तुम नहीं पहुँच सकते। अभी भगवान् शंकर देवीके साथ क्रीड़ाभवन हैं। यदि जीवित रहना चाहते हो तो सीट जाओ लौट जाओ।"
तब भृगुने कुपित होकर कहा-'ये रुद्र तमोगुणसे युक्त होकर अपने द्वारपर आये हुए मुझ ब्राह्मणको नहीं जानते हैं। इसलिये इन्हें दिया हुआ अन्न, जल, फूल, हविष्य तथा निर्माल्य - सब कुछ अभक्ष्य हो जायगा।' इस प्रकार भगवान् शिवको शाप देकर भृगु ब्रह्मलोकमेंगये। वहाँ ब्रह्माजी सब देवताओंके साथ बैठे हुए थे। उन्हें देख भृगुजीने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और चुपचाप वे उनके सामने खड़े रहे। किन्तु ब्रह्माजीने उन मुनिश्रेष्ठको आया हुआ देखकर भी उनका कुछ सत्कार नहीं किया। उनसे प्रिय वचनतक नहीं कहा। 1 उस समय ब्रह्माजी कमलके आसनपर महान् ऐश्वर्यके साथ बैठे हुए थे। तब महातेजस्वी महर्षिने लोक पितामह ब्रह्मसे कहा- आप महान् रजोगुणसे युक्त होकर मेरी अवहेलना कर रहे हैं, इसलिये आज समस्त संसारके लिये आप अपूज्य हो जायँगे।'
लोकपूजित महात्मा ब्रह्माजीको ऐसा शाप देकर महर्षि भृगु सहसा क्षीरसागरके उत्तर तटपर श्रीविष्णुके लोकमें गये। वहाँ जो महात्मा पुरुष रहते थे, उन्होंने भृगुजीका यथायोग्य सत्कार किया उस लोकमें कहाँ भी उनके लिये रोक-टोक नहीं हुई। वे भगवान् के अन्तः पुरमें बेधड़क चले गये। वहाँ उन्होंने सूर्यके समान तेजस्वी विमल विमानमें शेषनागकी शय्यापर सोये हुए भगवान् लक्ष्मीपतिको देखा। लक्ष्मी अपने करकमलोंसे भगवान्के दोनों चरणोंकी सेवा कर रही थीं उन्हें देखकर मुनिश्रेष्ठ भृगु अकारण कुपित हो उठे और उन्होंने भगवान्के शोभायमान वक्षःस्थलपर अपने बायें चरणसे प्रहार किया। भगवान् तुरंत उठ बैठे और प्रसन्नतापूर्वक बोले-'आज मैं धन्य हो गया।' ऐसा कहकर वे हर्षके साथ अपने दो हाथोंसे महर्षिके चरण दबाने लगे। धीरे-धीरे चरण दबाकर उन्होंने मधुर वाणीमें कहा-' ब्रह्मर्षे ! आज मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया मेरे शरीरमें आपके चरणोंका स्पर्श होनेसे मेरा बड़ा मंगल होगा। जो समस्त सम्पत्तिकी प्राप्तिके कारण तथा अपार संसारसागरसे पार होनेके लिये सेतुके समान हैं, वे ब्राह्मणोंकी चरणधूलियाँ मुझे सदा पवित्र करती रहें।'
ऐसा कहकर भगवान् जनार्दनने लक्ष्मीदेवीके साथ सहसा उठकर दिव्य माला और चन्दन आदिके द्वारा भक्तिपूर्वक भृगुजीका पूजन किया। उनको इस रूपये देखकर मुनिश्रेष्ठ भृगुजीके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये। उन्होंने आसनसे उठकर करुणासागर भगवान्को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा- 'अहो ! श्रीहरिकाकितना मनोहर रूप है, कैसी शान्ति है, कैसा ज्ञान है, कितनी दया है, कैसी निर्मल क्षमा और कितना पावन सत्त्वगुण है। भगवन्! आप गुणके समुद्र हैं। आपमें ही स्वाभाविक रूपसे कल्याणमय सत्त्वगुणका निवास है। आप ही ब्राह्मणोंके हितैषी, शरणागतोंके रक्षक और पुरुषोत्तम हैं। आपका चरणोदक पितरों, देवताओं तथा सम्पूर्ण ब्राह्मणोंके लिये सेव्य है। यह पापका नाशक और मुक्तिका दाता है। भगवन्! आपहीका भोग लगा हुआ प्रसाद देवता पितर और ब्राह्मण-सबके सेवन करनेयोग्य है। इसलिये ब्राह्मणको उचित है कि वह प्रतिदिन आप सनातन पुरुषका पूजन करके आपका चरणोदक ले और आपके भोग लगाये हुए प्रसादस्वरूप अन्नका भोजन करे। प्रभो! जो आपको निवेदित किये हुए अन्नका हवन या दान करता है, वह देवताओं और पितरोंको तृप्त करता तथा अक्षय फलका भागी होता है। अतः आप ही ब्राह्मणोंके पूजनीय हैं।
आप सम्पूर्ण देवताओंमें ब्राह्मणत्वको प्राप्त हों; क्योंकि आप ब्राह्मणोंके पूज्य और शुद्ध सत्त्वगुणसे सम्पन्न हैं। ब्राह्मणलोग सदा आप पुरुषोत्तमका ही भजन करते हैं। जो आपका पूजन करते हैं, वे ही विप्र वास्तवमें ब्राह्मण हैं, दूसरे नहीं। इस विषयमें सन्देहके लिये स्थान नहीं है। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणोंके हितैषी हैं। श्रीमधुसूदन ब्राह्मणोंके हितचिन्तक हैं। श्रीपुण्डरीकाक्ष ब्राह्मणोंके प्रेमी हैं। अविनाशी भगवान् विष्णु ब्राह्मणहितैषी हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान्वासुदेव एवं अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि ब्राह्मणोंके हितकारक हैं। भगवान् नृसिंह तथा अविनाशी नारायण भी ब्राह्मणोंपर कृपा करनेवाले हैं। श्रीधर, श्रीश, गोविन्द एवं वामन आदि नामोंसे प्रसिद्ध भगवान् श्रीहरि ब्राह्मणोंपर स्नेह रखते हैं। यज्ञवाराह रूपधारी पुरुषोत्तम भगवान् केशव ब्राह्मणोंका कल्याण करनेवाले हैं। रघुकुलभूषण राजीवलोचन श्रीरामचन्द्रजी भी ब्राह्मणोंके सुहृद् हैं। भगवान् पद्मनाभ तथा दामोदर (श्रीकृष्ण) भी ब्राह्मणोंका हित चाहनेवाले हैं। माधव, यज्ञपुरुष एवं भगवान् त्रिविक्रम भी ब्राह्मणहितैषी हैं। पीताम्बरधारी हृषीकेश श्रीजनार्दन ब्राह्मणोंके हितकारी हैं। शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले ब्राह्मणहितैषी देवता श्रीवासुदेवको नमस्कार है। कमलके समान नेत्रोंवाले लक्ष्मीपति श्रीनारायणको नमस्कार है। ब्राह्मणहितैषी देवता सर्वव्यापी वासुदेवको नमस्कार है कल्याणमय गुणोंसे परिपूर्ण, सृष्टि, पालन और संहारके कारणरूप आप परमात्माको नमस्कार है। ब्राह्मणोंके हितैषी देवता प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षणको नमस्कार है। शेषनागकी शय्या पर शयन करनेवाले ब्रह्मण्यदेव भगवान् विष्णुको नमस्कार है। कमलके समान नेत्रोंवाले श्रीरघुनाथजीको बारंबार नमस्कार है। प्रभो! सम्पूर्ण देवता और ऋषि आपकी मायासे मोहित होनेके कारण सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी आप परमात्माको नहीं जानते। भगवन्। सम्पूर्ण वेदोंके विद्वान् भी आपके तत्त्वको नहीं जानते। भगवन्! मैं महर्षियोंके भेजनेपर आपके पास आयाहै। आपके शील और गुणोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये ही मैंने आपकी छातीपर पैर रखा है। गोविन्द ! कृपानिधे मेरे इस अपराधको क्षमा करें।'
ऐसा कहकर महर्षि भृगुने वारंवार भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया। भगवान्के धाममें रहनेवाले दिव्य महर्षियोंने भृगुजीका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। वहाँसे प्रसन्नचित्त होकर वे यज्ञमें महर्षियोंके पास लौट आये। उन्हें आया देख महर्षियोंने उठकर नमस्कार किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा की। तत्पश्चात् मुनिश्रेष्ठ भृगुने उन महर्षियोंसे सब बातें बतायीं। उन्होंने कहा- 'ब्रह्माजीमें रजोगुणका आधिक्य है और रुद्रमें तमोगुणका केवल भगवान् विष्णु शुद्ध सत्त्वमय हैं। वे कल्याणमय गुणोंके सागर, नारायण, परब्रह्म तथा सम्पूर्ण ब्राह्मणोंके देवता है। वे ही वित्रोंके लिये पूजनीय हैं। उनके स्मरणमात्रसे पापियोंकी भी मुक्ति हो जाती है। उनका चरणोदक तथा भोग लगाया हुआ प्रसाद समस्त मनुष्यों और विशेषतः ब्राह्मणोंके सेवन करनेयोग्य, परमपावन तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है। भगवान् विष्णुको निवेदन किये हुए हविष्यका ही देवताओंके लिये हवन करे और वही पितरोंको भी दे। वह सब अक्षय होता है। अतः द्विजवरो! तुम आलस्य छोड़कर जीवनभर भगवान् विष्णुका पूजन करो। वे ही परम धाम हैं और वे ही सत्य ज्योति । अष्टाक्षर मन्त्रके द्वारा विधिपूर्वक पुरुषोत्तमका पूजन और उनके प्रसादका सेवन करना चाहिये। श्रीविष्णु ही सब यज्ञोंके भोक्ता परमेश्वर हैं- ऐसा जानकर उन्होंके उद्देश्यसे सदा हवन, दान और जप करे।वसिष्ठजी कहते हैं- भृगुजीके ऐसा कहनेपर समस्त निष्पाप महर्षियोंने उन्हें नमस्कार किया और उन्हींसे मन्त्रकी दीक्षा ले भगवान् विष्णुका पूजन किया। राजन्! ये सब बातें मैंने प्रसंगवश तुम्हें बतलायी है। भगवान् श्रीरामचन्द्रजी सब देवताओंमें पावन एवं पुरुषोत्तम हैं। अतः यदि तुम परम पदको प्राप्त करना चाहते हो तो उन श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें जाओ। राजन्! यह समस्त पुराण वेदके तुल्य है। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें साक्षात् ब्रह्माजीने इसका उपदेश किया था। जो प्रतिदिन एकाग्रचित्त हो इसका श्रवण अथवा पाठ करता है, उसकी भगवान् लक्ष्मीपतिमें अनन्य भक्ति होती है। वह विद्यार्थी हो तो विद्या, धर्मार्थी हो तो धर्म, मोक्षार्थी हो तो मोक्ष और कामार्थी हो तो सुख पाता है। द्वादशी तिथिको, श्रवण नक्षत्रमें सूर्य और चन्द्रमाके ग्रहणके अवसरपर, अमावास्या तथा पूर्णिमाको इसका भक्तिपूर्वक पाठ करना चाहिये। जो एकाग्रचित्त हो प्रतिदिन इसके आधे या चौथाई श्लोकका भी पाठ करता है वह निश्चय ही एक हजार अश्वमेधयज्ञका फल पाता है। इस प्रकार यह परम गुह्य पद्मपुराण कहा गया। यदि परम पदकी प्राप्ति चाहते हो तो सदा भगवान् हृषीकेशकी आराधना करो।
सूतजी कहते हैं- अपने गुरु वसिष्ठजीके ऐसा कहनेपर नृपश्रेष्ठ राजा दिलीपने उनको प्रणाम किया और यथायोग्य पूजा करके उनसे विधिपूर्वक विष्णुमन्त्रकी दीक्षा ली। फिर आलस्यरहित हो उन्होंने जीवनभर श्रीहृषीकेशकी आराधना करके समयानुसार योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य सनातन विष्णुधामको प्राप्त कर लिया।