नारदजी बोले - भगवन्! आपकी कृपासे मैंने तुलसीके माहात्म्यका श्रवण किया। अब त्रिरात्र तुलसी व्रतका वर्णन कीजिये।
महादेवजीने कहा- विद्वन्! तुम बड़े बुद्धिमान् हो, सुनो; यह व्रत बहुत पुराना है। इसका श्रवण करके मनुष्य निश्चय ही सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। नारद! व्रत करनेवाला पुरुष कार्तिक शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको नियम ग्रहण करे। पृथ्वीपर सोये और इन्द्रियाँको काबू रखे त्रिराव्रत करनेके उद्देश्य से वह शौच स्नानसे शुद्ध हो मनको संयममें रखते हुए प्रतिदिन रातको नियमपूर्वक तुलसीवन के समीप शयन करे। मध्याह्नकालमें नदी आदिके निर्मल जलमें स्नान करके विधिपूर्वक देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। इस व्रतमें पूजाके लिये लक्ष्मी और श्रीविष्णुको सुवर्णमयी प्रतिमा बनवानी चाहिये तथा उनके लिये दो वस्त्र भी तैयार करा लेने चाहिये। वस्त्र पीत और श्वेत वर्णके हों। व्रतके आरम्भमें विधिपूर्वक नवग्रह शान्ति कराये, उसके बाद चरु पकाकर उसके द्वारा श्रीविष्णु देवताकी प्रीतिके लिये हवन करे। द्वादशीके दिन देवदेवेश्वर भगवान्की यत्नपूर्वक पूजा करके विधिके अनुसार कलश स्थापन करे। कलश शुद्ध हो और फूटा-टूटा न हो। उसमें पंचरत्न, पंचपल्लव तथा ओषधियाँ पड़ी हों। कलशके ऊपर एक पात्र रखे और उसके भीतर लक्ष्मीजीके साथ भगवान् विष्णुको प्रतिमाको विराजमान करे। फिर वैदिक और पौराणिक मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए तुलसीवृक्षके मूलमें भगवत्प्रतिमाकी स्थापना करे। तुलसीकी वाटिकाको केवल जलसे सींचे। फिर देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान्को पंचामृत से स्नान कराकर इस प्रकार प्रार्थना करे प्रार्थना - मन्त्र
योऽनन्तरूपोऽखिलविश्वरूपो गर्भोदके
लोकविधिं बिभर्ति प्रसीदतामेष स देवदेवो
यो मायया विश्वकृदेव रूपी
'जिनके रूपका कहीं अन्त नहीं है, सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, जो गर्भरूप (आधारभूत) जलमें स्थित होकर लोकसृष्टिका भरण-पोषण करते हैं और मायासे ही रूपवान् होकर समस्त संसारकी सृष्टि करते हैं, वे देवदेव परमेश्वर मुझपर प्रसन्न हों। '
आवाहन - मन्त्र
आगच्छाच्युत देवेश तेजोराशे जगत्पते
सदैव तिमिरध्वंसिंस्त्राहि मां भवसागरात् ॥
'हे अच्युत ! हे देवेश्वर ! हे तेज:पुंज जगदीश्वर ! यहाँ पधारिये; आप सदा ही अज्ञानान्धकारका नाश करनेवाले हैं, इस भवसागरसे मेरी रक्षा कीजिये।'
स्नान-मन्त्र
पञ्चामृतेन सुस्नातस्तथा गन्धोदकेन
गङ्गादीनां च तोयेन स्नातोऽनन्तः प्रसीदतु ॥
पंचामृत और चन्दनयुक्त जलसे भलीभाँति नहाकर गंगा आदि नदियोंके जलसे स्नान किये हुए भगवान् अनन्त मुझपर प्रसन्न हों।'
विलेपन मन्त्र
श्रीखण्डागुरुकर्पूरकुङ्कुमादिविलेपनम्
भक्त्या दत्तं मयाऽऽधेयं लक्ष्म्या सह गृहाण वै ॥
'भगवन्! मैंने चन्दन, अगरजा, कपूर और केसर आदिका सुगन्धित अंगराग भक्तिपूर्वक अर्पण किया है; आप श्रीलक्ष्मीजीके साथ इसे स्वीकार करें।'
वस्त्र-मन्त्र
नारायण नमस्तेऽस्तु नरकार्णवतारण।
त्रैलोक्याधिपते तुभ्यं ददामि वसनं शुचि ll
'नरकके समुद्रसे तारनेवाले नारायण! आपको नमस्कार है। त्रिलोकीनाथ! मैं आपको पवित्र वस्त्र अर्पण करता हूँ।'
यज्ञोपवीत-मन्त्र
दामोदर नमस्तेऽस्तु प्राहि मां भवसागरात् ।
ब्रह्मसूत्रं मया दत्तं गृहाण पुरुषोत्तम ॥
'दामोदर! आपको नमस्कार है, भवसागरसे मेरी रक्षा कीजिये। पुरुषोत्तम! मैंने ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) अर्पण किया है, आप इसे ग्रहण करें।'
पुष्प-मन्त्र
पुष्पाणि च सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो।
मया दत्तानि देवेश प्रीतितः प्रतिगृह्यताम् ॥
'प्रभो! मैंने मालती आदिके सुगन्धित पुष्प सेवामें प्रस्तुत किये हैं, देवेश्वर ! आप इन्हें प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करें।'
नैवेद्य-मन्त्र
नैवेयं गुह्यतां नाथ भक्ष्यभोज्यैः समन्वितम्।
सर्वं रसैः सुसम्पन्नं गृहाण परमेश्वर ॥
'नाथ! भक्ष्यभोज्य पदार्थोंसे युक्त नैवेद्य स्वीकार कीजिये; परमेश्वर ! यह सब रसोंसे सम्पन्न है, इसे ग्रहण करें।'
ताम्बूल मन्त्
पूगानि नागपत्राणि कर्पूरसहितानि
मया दत्तानि देवेश ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥
'देवेश्वर! मैंने सुपारी, पानके पत्ते और कपूरआपकी सेवामें भेंट किये हैं। आप यह बीड़ा स्वीकार करें।"
तत्पश्चात् भक्तिपूर्वक धूप, अगर तथा थी मिलाया हुआ गुग्गुल इनकी आहुति देकर भगवान्को सुँघाये। इस प्रकार पूजा करनी चाहिये। घीका दीपक जलाना चाहिये। मुनिश्रेष्ठ एकाग्रचित्त हो भगवान् श्रीलक्ष्मीनारायणके सामने तथा तुलसीवनके समीप नाना प्रकारका दीपक सजाना चाहिये। चक्रधारी देवाधिदेव विष्णुको प्रतिदिन अर्घ्य भी देना चाहिये। पुत्र- प्राप्तिके लिये नवमीको नारियलका अर्घ्य देना उत्तम है। धर्म, काम तथा अर्थ-तीनोंकी सिद्धिके लिये दशमीको बिजरिका अर्घ्य अर्पण करना उचित है तथा एकादशीको अनारसे अर्घ्य देना चाहिये; इससे सदा दरिद्रताका नाश होता है। नारद! बाँसके पात्रमें सप्तधान्य रखकर उसमें सात फल रखे; फिर तुलसीदल, फूल एवं सुपारी डालकर उस पात्रको वस्त्रसे ढक दे। तत्पश्चात् उसे भगवान्के सम्मुख निवेदन करे। विप्रेन्द्र! अर्घ्यं निम्नांकित मन्त्रसे देना चाहिये; इसे एकाग्रचित्त होकर सुनो
अर्घ्य मन्त्र
तुलसीसहितो देव सदा शङ्खेन संयुतम् ।
गृहाणा मया दत्तं देवदेव नमोऽस्तु ते ॥
'देव! आप तुलसीजीके साथ मेरे दिये हुए इस शंखयुक्त अर्घ्यको ग्रहण करें। देवदेव! आपको नमस्कार है।'
इस प्रकार लक्ष्मीसहित देवेश्वर भगवान् विष्णुकी पूजा करके व्रतकी पूर्तिके निमित्त उन देवदेवेश्वरसे प्रार्थना करे
उपोषितोऽहं देवेश कामक्रोधविवर्जितः ।
व्रतेनानेन देवेश त्वमेव शरणं
गृहीतेऽस्मिन् व्रते देव यदपूर्णं कृतं मया ।
सर्वं तदस्तु सम्पूर्णं त्वत्प्रसादाज्जनार्दन ॥
कमलपत्राक्ष नमस्ते जलशायिने ।
इदं व्रतं मया चीर्णं प्रसादात्तव केशव ॥
अज्ञानतिमिरध्वंसिन् व्रतेनानेन केशव
प्रसादसुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ॥
'देवेश्वर ! मैंने काम-क्रोधसे रहित होकर इस व्रतके द्वारा उपवास किया है। देवेश! आप ही मेरे शरणदाता हैं। देव! जनार्दन! इस व्रतको ग्रहण करके मैंने इसके जिस अंगकी पूर्ति न की हो, वह सब आपके प्रसादसे पूर्ण हो जाय। कमलनयन ! आपको नमस्कार है। जलशायी नारायण! आपको प्रणाम है। केशव ! आपके ही प्रसादसे मैंने इस व्रतका अनुष्ठान किया है। अज्ञानान्धकारका विनाश करनेवाले केशव ! आप इस व्रतसे प्रसन्न होकर मुझे ज्ञान दृष्टि प्रदान करें ।'
तदनन्तर रातमें जागरण, गान तथा पुस्तकका स्वाध्याय करे। गानविद्या तथा नृत्यकलामें प्रवीण पुरुषोंद्वारा संगीत और नृत्यकी व्यवस्था करे। अत्यन्त सुन्दर एवं पवित्र उपाख्यानोंके द्वारा रात्रिका समय व्यतीत करे। निशाके अन्तमें प्रभात होनेपर जब सूर्यदेवका उदय हो जाय, तब ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करके भक्तिपूर्वक वैष्णव श्राद्ध करे । यज्ञोपवीत, वस्त्र, माला तथा चन्दनदेकर वस्त्राभूषण एवं केसरके द्वारा पूजनपूर्वक तीन ब्राह्मण-दम्पतिको भोजन कराये। घृत-मिश्रित खीरके द्वारा यथेष्ट भोजन करानेके पश्चात् दक्षिणासहित पान, फूल और गन्ध आदि दान करे। अपनी शक्तिके अनुसार बाँसके अनेक पात्र बनवाकर उन्हें पके हुए नारियल, पकवान, वस्त्र तथा भाँति-भाँतिके फलोंसे भरे। सपत्नीक आचार्यको वस्त्र पहनाये । दिव्य आभूषण देकर चन्दन और मालासे उनका पूजन करे। फिर उन्हें सब सामग्रियोंसे युक्त दूध देनेवाली गौ दान करे। गौके साथ दक्षिणा, वस्त्र, आभूषण, दोहनपात्र तथा अन्यान्य सामग्री भी दे। श्रीलक्ष्मीनारायणकी प्रतिमा भी सब सामग्रियोंसहित आचार्यको दे। सब तीर्थोंमें स्नान करनेवाले मनुष्योंको जो पुण्य प्राप्त होता है, वह सब इस व्रतके द्वारा देवदेव विष्णुके प्रसादसे प्राप्त हो जाता है। व्रत करनेवाला पुरुष इस लोकमें मनको प्रिय लगनेवाले सम्पूर्ण पदार्थों और प्रचुर भोगोंका उपभोग करके अन्तमें श्रीविष्णुकी कृपासे भगवान् विष्णुके परमधामको प्राप्त होता है।